कल (1960-65)

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केंद |
झरने से बहता पानी जगह-जगह पार करना होता था. आदिवासी तीर-धनुष से या फिर नुकीले भाले

जोन्हा फाल्स शरद ऋतू में सैकड़ों सैलानियों से भर जाता था.
ये रांची शहर के अलावा जमशेदपुर, पुरुलिया और कोलकाता तक से आते थे. ज्यादा प्रतिशत बंगाली और आदिवासी क्रिस्चियन
का होता था. आदिवासी तो पूरे रास्ते गाते, मांदर बजाते और नाचते दूरी तय करते थे .
वे पूरे समय थिरकते दीखते थे.
हम 4 साथी 1961-63 में इंटरमीडिएट कर रहे थे . उम्र और
उत्साह एकदम सही था नए वर्ष में पिकनिक मनाने का. इन 3 वर्षों में जोन्हा फाल्स
जाकर पिकनिक करना सबसे ज्यादा सहज था. बाकी स्थलों में जाने के लिए यातायात की
व्यवस्था आवश्यक थी. जोन्हा के लिए
बर्धमान पैसेंजर बिलकुल माकूल थी. 1 जनवरी को तो शायद ही कोई टिकट खरीदता हो. रास्ते
भर चेन खीचकर, ट्रेन रोककर सैलानी चढ़ते-उतरते थे. 45 मिनट का सफ़र 2 घंटे में तय
होता था. ट्रेन में बैठने या फिर खड़े रहने की सबसे लोकप्रिय जगह फूट-बोर्ड होती थी.
हमलोग घर से एक घंटे पहले ही स्टेशन पहुँच कर फूटबोर्ड पर कब्जा करते थे.
बारी-बारी से दो जन बैठते थे और दो जन पीछे खड़े रहते थे. ट्रांजिस्टर पर जो भी
गाना आता हो उसको गाते-चिल्लाते सफर तय करते थे. तब”सुहाना सफ़र और ये मौसम हसीं”
पहली पसंद हुआ करती थी.
हमलोग नव वर्ष के पिकनिक की तैयारी महीने भर पहले शुरू कर
देते थे. चारो जन मिलकर 60 रुपये के लगभग इकठ्ठा करते थे. सभी शान्तिनिकेतन झोले
में पिकनिक का सामान बाट लेते थे. सामान में काफी, कंडेंस्ड मिल्क, चीनी, बिस्कुट,
ब्रेड, जैम, मिक्सचर,बॉयल्ड अंडे और मिठाई होती थी. मनोरंजन के लिए ताश जरूरी था.
एक क्लिक-3 कैमरा लाता था तो दूसरा ट्रांजिस्टर. तीसरे के जिम्मे फिल्म का रोल
होता था तो चौथा चाय-काफी बनाने का बर्तन और गिलास . सन-ग्लासेज का जोगाड़ निहायत जरूरी हुआ करता था.
जगह चुनने को कैप्चर करना कहते थे. चादर या तौलिया बिछाई
जाती थी. बिखरी पड़ी सूखी टहनियों को जलाकर काफी बनायी जाती थी. घुटने तक पैर पानी
में डूबाकर काफी की चुसकिया लिया करते थे. एकबार तो सिगरेट की आजमाईश भी हुई थी.
उसके बाद चड्ढी पहने पानी में उतर कर झरने के नीचे नहाते थे. घुटने भर पानी में
भरपूर अठखेली करते थे. कैमरे से बारह स्नेप बड़ी सावधानी से लेते थे जिससे कि चारों
के साथ न्याय हो सके. जितने स्नेप सही डेवेलप होते उनकों पसंद के अनुसार आपस में
बाँट लेते. खाने का सामान आधे से ज्यादा बच जाता जिसे निहारते गाँव के बच्चों में
बाँट देते. ऐसा सब सैलानी करते. जो पहले से आ रहे होते , वे नियतन ज्यादा खाने की
सामग्री लाते. सामिष चूल्हों के पास कुत्तों का जमावड़ा हो जाता और दूर ऊपर 1-2
सियार भी ताकते रहते.
हमलोगों में इस बात पर अनबन हो जाती की ताश खेला जाये,
प्राकृतिक छटा निहारी जाये, सैलानियों के सांस्कृतिक कार्यक्रम का लुत्फ़ लिया जाए
या फिर झपकी ले ली जाये. हमलोग सभी क्रियाकलापों के साथ न्याय करने का प्रयत्न
करते. तीर और नुकीले भाले से मछली का शिकार करते देखना सम्मोहित कर लेता. आदिवासी
घंटो मांदर की थाप पर थिरकते रहते. अगर
कोई बंगाली ग्रुप भाव-विभोर हो गया तो रविन्द्र संगीत, बाउल गीत और जात्रा का
नैसर्गिक आनन्द मिलता. अंत में जाने से पहले पुनः चाय या काफी बनती. इस समय कोई न
कोई बाबू-मोशाय काफी का एक चुम्मा लेने आ ही जाते. गौतमधारा स्टेशन समय से काफी पहले
आकर ट्रेन का इन्तजार करना होता. लौटते वक्त फूटबोर्ड खाली मिलता. घर
पहुँचते-पहुंचते रात हो जाती.
आज (2018)
तीर और भाले से मछली का शिकार अब देखने को नहीं मिलता है. मात्र
दो-तीन पेड़ टेसू के लाल सुर्ख फूलों से लदे दिखे . पेड़ पर बैर, अमरुद, पियार और
कन्द्वन नहीं दीखते हैं वे सब अब बिकाऊ हो गए हैं. मजेदार बात ये है कि अब कोई भी
पैदल रास्ता नापते नहीं दिखता है. चार्टर्ड बस, मोटर गाड़ी और बाईक से छुट्टी के
दिन पूरा रास्ता गुलज़ार रहता है. एक्का-दुक्का गाँव के लोग पैदल चलते दीखते हैं.
अब संवेदनशील जगहों पर बाकायदा पुलिस की चौकसी रहती है.
तब और अब में एक ही समानता दिखी. झरने को देखकर हमलोग पुनः भौचक
रह गए. कारण बिलकुल विपरीत था. पानी की एक-दो पतली लकीरे भर ही दिख रही थी. खैरियत
इस बात की थी कि 95% आबादी युवा सैलानियों की थी जैसा कि पिकनिक स्पॉट की खासियत
है . इन्हें कहाँ मालूम था कि सिकदरी पॉवर प्लांट बनने के पहले यह जल प्रपात कैसा विशाल हुआ करता था. इसलिए
सभी जगह काफी उत्साह और चहल पहल दिखता था. बहुतों ने लाउड स्पीकर-एम्पलीफायर पर
संगीत का शोर मचा रक्खा था. एक-दो जगह सैलानी नाच भी रहे थे. आदिवासी समूह भी थे .
वे भी आदिवासी नृत्य कर रहे थे. पर मांदर की थाप पर नहीं , ऑर्केस्ट्रा धुनों पर .
आदिवासी युवतियां सदी नहीं बल्कि लड़कों की तरह जींस पहने थीं. आदिवासी सैलानी बहुत
ज्यादा मेकअप में दिखे. पाउडर, लिपस्टिक, रूज़ , हेयर स्टाइल और पहनावे से लड़के-लडकी
में फर्क करना मुश्किल था. आज के युवा सिगरेट सभ्यता से बहुत आगे बढ़ चुके थे.

हमलोग जिस सीढ़ी से नीचे उतरे उसे छोड़ दूसरी सीढ़ी से ऊपर
चढ़े. एक सुखद आश्चर्य भी हुआ. गाँव के बच्चे बची हुई भोजन सामग्री की टोह में
इंतज़ार करते नहीं दिखे - जंगली बैर बेचते दिखे. आने-जाने वालों पर मासूम नजरें.
हमलोगों ने 10-12 दोने बैर खरीदे. जो बैर दस रुपये दोना था वह लौटते समय पांच का
हो गया था. तात्पर्य कि इन्हें भी बिक्री करने का मर्म समझ में आ गया था . हमलोग
जोन्हा फाल होकर पांच घंटे में चार बजे तक घर लौट आये.
कल ( 2025)

2025 का जोन्हा फाल रोप वे, लिफ्ट और मॉल से सुसज्जित होगा.
पहुचने के लिए रेल और रोड के अतिरिक्त ओवरहेड रेल प्रणाली होगी. हेलीपैड की भी
व्यवस्था हो तो अचरज नहीं.शायद तबतक उबेर और ओला फ्लाइंग कैब भी ले आयें. निजी गाडियों पर तो टोल लगेगा ही सैलानियों को भी पास
खरीदना होगा.

शायद पुनः मांदर की थाप पर अपने बुनियादी लिबास में थिरकते आदिवासी भी दिखने लगे. सांस्कृतिक विरासत
का रीप्ले एक मुनाफे का व्यापार होगा.
जोन्हा के आसपास कुछ ही किलोमीटर दूर और भी मशहूर जल प्रपात
हैं- हुन्डरु, दशम, सीता वगैरह. यातायात की इतनी बेहतर सुविधा के चलते पर्यटक एक
झरने पर सुबह का नाश्ता, दूसरे पर दिन का भोजन और तीसरे पर शाम की चाय का आनंद
लेते हुए उजाला रहते हुए घर वापिस आ सकेंगे.