१२ अगस्त १९५५ . अचानक स्कूल में छुट्टी हो गई. शाम को मालूम पड़ा कि किसी बस
कंडक्टर ने टिकट पंच करने वाले मशीन से एक कॉलेज के छात्र के बांह का मांस नोच
लिया था. सभी कॉलेज के छात्र सड़क पर निकल
आये थे. बसों को तोड़-फोड और जला रहे थे. दूसरे दिन मालूम पड़ा कि बी एन कॉलेज के
छात्रों पर सड़क के पार पंजाब बैंक के गार्ड ने गोली चला दी जिससे एक नवयुवक मारा
गया था. नाम था दीना नाथ पांडे. कुछ महीने पहले शादी हुई थी. कर्फ्यू लगा दिया गया
था. यह सब कुछ हम बच्चों के लिए अनहोना और डरावना था. अगले दिन अखबारों में बस यही
खबर थी.
सुबह चौरस्ते कि तरफ से आते शोर से हमलोगों की नींद खुली . देखा १०० से ज्यादा
जवान लड़के हाथों में बैनर पकडे चिल्लाते हुए गुजर रहे थे ,
“ जो हमसे टकराएगा चूर-चूर हो जायेगा”
“ जोर-जुल्म के टक्कर में संघर्ष हमारा नारा है “
और इस तरह का जत्था हर १०-१५ मिनट पर गुजर रहा था . ये चौरास्ता स्टेशन से
गाँधी मैदान जाने का एक महत्वपूर्ण पर लंबा रास्ता था जिसके करीब ही बी एन कॉलेज
था. शायद बाकी नजदीकी रास्तों पर रोक लगा दी गयी होगी क्योंकि उनपर सरकारी दफ्तर
और बंगले थे.
लडको का जुलुस बिहार प्रान्त से ही नहीं बल्कि दूर दराज की जगहों से भी आ रहा
था . कुछ जो मैं पढ़ पाया उनमे प्रमुख बनारस, कलकत्ता, गोरखपुर, भोपाल, रायपुर,
आगरा, इलाहाबाद , कानपूर , इटारसी याद आता है. शाम को जब पिताजी घर आये तो मालूम पड़ा
कि पूरा गाँधी मैदान पचास-साठ हज़ार छात्रों से भर गया था. पिताजी जो उस समय म्युनिसिपल
कोरपोरेशन में थे, उनपर पूरी सफाई की जिम्मेवारी थी. उस दिन दोपहर में हम बच्चों
ने भी चादरों का बैनर बनाकर एक घंटे से ज्यादा नारेबाजी का खेल खेला था.
हमारे घर के दाहिने हिस्से में कम्युनिस्ट नेता सियावर शरण सपरिवार रहते थे
जिनमे दो कॉलेज के विद्यार्थी बेटे भी थे. १४ की शाम को वे दोनों बरामदे में बैठ
कर मोटे कागज को कालिख से पोतकर काला झंडा बना रहे थे. जब पिताजी ऑफिस से घर लौटे
तो उन्हें शरण चाचा ने खास हिदायत दी कि १५ अगस्त
को कालादिवस मनाया जा रहा है इसलिए तिरंगा लगाकर स्वतंत्रता दिवस न मनाएं.
पिताजी ने साफ-साफ़ शब्दों में अपनी असहमति जताई. पिताजी ने दोनों मसलों को नहीं
जोड़ने की सलाह दी. शरण चाचा कम्युनिस्ट पार्टी के वरिष्ठ नेता थे.
अगले दिन घर की छत पर दोनों झंडा लगा. हमेशा की तरह पिताजी ने तिरंगा गोधुली
होते ही उतार लिया पर काला झंडा काफी दिनों तक लगा रहा.
30 अगस्त को तत्कालीन प्रधान मंत्री जवाहर लाल नेहरु
को स्वयं आना पड़ा. शाम को उनका भाषण हुआ गाँधी मैदान में. हमलोग रेडियो पर उनके
भाषण का सीधा प्रसारण सुन रहे थे. हमेशा कि तरह नेहरूजी कुछ गुस्साए तेवर में
छात्रों के आन्दोलन पर प्रतिक्रिया दे रहे थे. तभी इतना हल्ला होने लगा कि प्रसारण
ही रोकना पड़ गया. अगले दिन अख़बारों में पढ़ने को मिला कि किसी ने नेहरूजी पर चप्पल
फेंका था. बहुत बाद में शायद २०१० में , मैंने ये समीक्षा
इन्टरनेट पर पढ़ी:
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JP Movement 1974-75 |
उसके २० साल बाद, जय
प्रकाश नारायण के नेतृत्व में दूसरा छात्र आन्दोलन हुआ जिसका पटाक्षेप
इमरजेंसी और सत्ता परिवर्तन से हुआ. अब तो छात्र आंदोलन ही नहीं करते . युवा वर्ग
का ऐसा हश्र शायद भारत में ही हुआ जिसने भगत सिंह, चंद्रशेखर, विवेकानंद और बिरसा
मुंडा जैसे युवा दिए. आज़ादी के बाद मात्र एक युवा गलत ही सही पर चर्चा में रहा.
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