हमलोगों का एक दोस्त हुआ करता था . आबिद
अली खान. खान बहादुर असगर अली खान उसके दादा थे . उनकी हवेली ठीक में घर के सामने
सड़क के उस पार थी. दोस्ती की कुछ खास वजह थी . वह पतंग बहुत अच्छी उड़ाता था और
उसकी एक तिमंजली तकरीबन सौ फीट चौड़ी छत थी. हमलोगों को पतंग की खरीद व् डोर को
मजबूत मंझा करने में वह मदद भी करता था. उस इलाके में शायद ही कभी पतंग कि पेंचों
में हमलोगों ने मात खायी हो. यह बात पटना की है. 1958-59 में हमलोगों कि उम्र 10 के आस पास थी.
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एक
दिन आबिद और मैं अलग अलग पतंग उड़ा रहे थे. काफी ऊपर पतंग थी. तभी चील के झप्पटे कि
तरह एक विशाल पतंग ने हमदोनो की पतंग एक झटके में काट दी. तब सूरज अभी डूबा नहीं
था. हमलोगों ने देखा कि हमारी पतंगों से तिगुनी बड़ी पतंग खरखराती हुई बहुत ऊपर
पेंग मार रही थी. उसकी मोटी डोर टेलीफोन के तार जैसी झलक रही थी.
हमलोगों
को ज्यादा गुस्सा आकाश की बादशाहत छीन जाने के डर से आ रहा था. उसके बाद हमलोग जब
भी पतंग उड़ाते, चोपड़ा बंधुओं की पतंग बाज कि तरह आती और पतंगों को काट कर हवा में
लहराने लगती. अब हमलोगों की समझ में आने लगा की शानदार पतंग उड़ाने वालों को
पतंगबाज क्यों कहा जाता है. ये वाकया 15 दिनों से ज्यादा चला. पैसे कि कमी के कारण
हमलोगों का ये शौक खत्म होता सा लगा.
एक शाम, हमलोग चोपड़ा बंधुओं के पास गए अपनी गुहार लगाने। हमलोगों की बातों से उन्हें बहुत आनंद आ रहा था। उनमें जो बड़ा था वह बोला- देखो बाबू ! हमलोग पटना सिटी जाकर काफी पैसे खर्च कर पतंग और स्पेशल माँझा लाये हैं।तुमलोग को कुछ पैसे की मदद कर देते हैं। हमलोग भीख मांगने थोड़ी ही गए थे। चुपचाप लौट आए। तभी एक तरकीब सूझी.
एक शाम, हमलोग चोपड़ा बंधुओं के पास गए अपनी गुहार लगाने। हमलोगों की बातों से उन्हें बहुत आनंद आ रहा था। उनमें जो बड़ा था वह बोला- देखो बाबू ! हमलोग पटना सिटी जाकर काफी पैसे खर्च कर पतंग और स्पेशल माँझा लाये हैं।तुमलोग को कुछ पैसे की मदद कर देते हैं। हमलोग भीख मांगने थोड़ी ही गए थे। चुपचाप लौट आए। तभी एक तरकीब सूझी.
हमलोगों
ने दुबारे पतंग उड़ाना शुरू किया पर कुछ एहतियातों के बाद. हमलोग अपने छत के
पश्चिमी कोने में चले गए और पतंग को ऊंची नहीं ले जाते. पर चोपड़ा बंधुओं को ये भी
क्यों गवारा होता. उनकी पतंग हमारी छतों को छूती हुई हमारी पतंगों को लपेटने लगी.
जंग छिड़ चुकी थी.
अगले
दिन सिर्फ आबिद ने अपनी पतंग उड़ाई. पश्चिमी कोने से , हवा में काफी छोटा कोण लेते
हुए. पर एक बार खून का स्वाद चख लेने के बाद सब्र कहाँ. इस बार फिर चोपड़ा बंधुओं
की पतंग आवाज करती हुई एक गोते में आबिद के पतंग को ले जाने लगी. सोचे समझे तरकीब
के अनुसार आबिद ने कस कर ढील दी मैं
पूर्वी कोने में गद्दे- रज़ाई सीने वाले वाले डोर को दोहरा-तिहरा कर पत्थर बांधे बैठा था. मैंने सधे
निशानेबाज कि तरह पत्थर की डोर दुश्मन के डोर के ऊपर डाल डी और खूब तेजी से डोर को
अपनी ओर खीचने लगा. उनकी डोर तो कटी नहीं पर मेरे हाथ आ गयी. मैंने हाथ में आई डोर
को दांत से काट दिया. आबिद जो दूर खड़ा पतंग उड़ा रहा था उसने भागती डोर के साथ पतंग
को पकड़ लिया. चोपड़ा बंधुओं को बहुत दिनों बाद हमारी करतूत की भनक मिली. पर तबतक
हमारे दुश्मनों ने हार मान ली थी. हमारे पास उनके कई पतंग और करीब एक मील लंबे डोर
का स्टॉक जमा हो गया. वाकई डोर काली भी थी और टेलिफोन के तार जितनी मोटी भी.
उनकी हम बच्चो से जाबांजी गलत थी और हमारी मक्कारी भी . पर किसी ने क्यों कहा
है कि जंग में सबकुछ जायज होता है.
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