जिंदगी ख्वाब है था हमें भी पता ! जिंदगी से हमें पर बहुत प्यार था ! सुख भी थे दुःख भी थे दिल को घेरे हुए ! चाहे जैसा भी था रंगीन संसार था !
Thursday, July 23, 2015
सिनेमा सिनेमा – 4 !
Sunday, July 19, 2015
सिनेमा सिनेमा – 3 !
सिनेमा सिनेमा – 2 !
एक दोपहरी मैं कुछ सेकंड हैण्ड पुरानी किताबें खरीदने जनरल पोस्ट ऑफिस के नुक्कड़ पर गया था. सामने पर्ल टाकीज पर "जागते रहो" का पोस्टर लगा हुआ था- गगनचुम्बी इमारतों के बीच टोर्च लिए एक सिपाही की तस्वीर और उसको देखता एक देहाती. इसका एक गाना"जागो मोहन प्यारे" सुबह विविध भारती पर सुना करता था. पॉकेट में 20 पैसे बचे थे. सबसे सामने वाली बेंचों पर बैठने का यही टिकट भाव था. ऐसा सबकुछ भी इस देश में होता है जानकर विछुब्द हो गया. वह प्यासा देहाती कौन था इसकी जानकारी कांग्रेस मैदान के दोस्तों ने मेरा मजाक बनाते हुए डी. इसके बाद "अनाड़ी" देखी. मुझे वह दृश्य अभी तक नहीं भूलता है जब वसीयत लिखने वाला वकील गंभीर रूप से बीमार बूढी मिसस डीसा से पूछता है कि वह लड़का तो हिन्दू है और आप क्रिश्चियन तो फिर आपमें माँ-बेटे का रिश्ता कैसे हुआ ? और डीसा जवाब देती है कि ये रिश्ता उस समय से है जब कोई धर्म नहीं बना था.
Saturday, July 18, 2015
सिनेमा सिनेमा - 1 !
Friday, June 19, 2015
एक और गाँधी !
उन्होंने अपने को पूर्णतयाः स्वतंत्रता संग्राम में झोंक दिया था । पूर्णरूपेण गाँधीवादी । जब बार-बार की जेल यात्रा स्वतंत्रता मिलने के बाद ख़त्म हुई तब वे भी शारीरिक रूप से जर्जर हो चुके थे । राजनीतिक तंत्र को इस गाँधी की कभी याद नहीं आयी न इन्होने कभी याद दिलाने का प्रयत्न ही किया पर जब भी तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ0 राजेंद्र प्रसाद सदाकत आश्रम में आकर ठहरते तब उनसे मिलने अवश्य जाते । पिताजी के पूछने पर कहते कि उनके आने पर बहुत जाने-पहचाने चेहरों से भी मुलाक़ात हो जाती है ।

वे सदैव खादी का ही उपयोग करते थे । यहाँ तक की उनका बिस्तर भी खादी से बना था । अवकाश के दिनों में वे सदाकत आश्रम जाकर गाँधी चरखे पर सूत काटते । शायद उसी सूत से उनका वस्त्र बुना जाता होगा ।
कामेश्वर समय पर स्कूल आ जाता । स्कूल की छुट्टी के बाद वह अपने कमरे में लौटता । सुबह का बचा खाना खाता । बहुत कहने पर कभी-कभी हमलोग के साथ माँ का बनाया-परोसा खाना खाता । हमलोगों के साथ शाम को खेलता और समय पर अपने कमरे में लालटेन जलाकर पढने बैठ जाता । गांधीजी ने हमलोगों से बिजली का कनेक्शन बहुत कहने पर भी स्वीकार नहीं किया था ।
उन दिनों हमारे घर इंग्लिश दैनिक स्टेट्समैन और हिंदी दैनिक सन्मार्ग आता था । दोनों अखबार कलकत्ता से दूसरे दिन मिलते थे । गांधीजी पटना से प्रकाशित दैनिक आर्यावर्त में कार्यरत थे । उनके चलते नियमित रूप से पटना का ताज़ा दैनिक अखबार “आर्यावर्त” आने लगा था । वे पढ़कर उसे हमलोगों के लिए दालान की चौकी पर रख दिया करते ।
एक रविवार जब मेरी नींद तडके खुल गयी तो मैंने देखा कि गाँधी जी बरामदे के कोने में लकड़ी पर खाना बना रहे थे और साथ में कामेश्वर को पढ़ा भी रहे थे । शायद लकड़ी का धुआं उनकी बीमारी को ज्यादा उग्र बना रहा था । वे डांट और मार ज्यादा रहे थे । मैं डर कर दुबक गया ।
एक दिन पूरा परिवार सर्कस देखने गया । अँधेरा होने पर घर लौटे । बड़े जोर की भूख लग आयी थी । दूर बरामदे से लकड़ी के आंच पर रोटी सिंकने की बड़ी प्यारी खुशबू आ रही थी । गाँधी जी ने हम सभी बच्चों को अपने चारों ओर बिठाकर अरहर(तूअर) की बिना नमक वाली गाढ़ी दाल और आधी मोटी रोटी खाने को दी । गाँधी जी को हाई ब्लड प्रेशर और शुगर की शिकायत थी । दाल बिना नमक की थी तब भी हम बच्चों को बहुत अच्छी लगी । गाँधी जी ने तो अपनी सभी रोटियाँ बाँट दी थी । वे बची दाल खाकर रह गए । उस दिन से हमलोग रोटी और दाल के इन्तजार में जगे रहते । लिट्टी से भी साक्षात्कार गांधीजी ने कराया । कभी-कभी गांधीजी समय अभाव के कारण दाल के साथ ही करेला भी भरता बनाने के लिए उबाल लेते । उस दिन हमलोगों की गति बन जाती ।
माँ ने हमलोगों को कितना मना किया, उन्होंने गांधीजी को भी समझाया । आटा और दाल ले लेने की गुजारिश की । अंत में गाँधी जी की डांट ने माँ को शांत किया । क्रोधित होकर कुछ बोलने के पहले उनके गोर चेहरे पर लालिमा चढ़ती जाती थी जो किसी के भी सहमने के लिए काफी था ।
गाँधी जी निरामिष भोजन करते थे । ज्यादातर कामेश्वर को माँ का बना लहसुन-प्याज वाला और कभी-कभी बनने वाला सामिष भोजन रास आता था । ये बात गांधीजी को नहीं मालूम थी । उन्हें कामेश्वर की और बातें भी नहीं मालूम थीं । वह उसी उम्र में सिनेमा देखने का शौक़ीन हो गया था । अशोक सिनेमा के सेकंड क्लास का गेट कीपर उसके गाँव का था । चौथी बार पटना में “अनारकली” फिल्म लगी थे । कामेश्वर मुझे भी ले गया था । हम दोनों सीढ़ी पर बैठकर पूरी फिल्म देखे थे ।
कामेश्वर पढने में बहुत तेज था । सुबह सूर्य उगने के पहले नियमित स्नान और पूजा ध्यान करता था । उसके गायत्री मन्त्र के उच्चारण से मैं बहुत प्रभावित था ।
गांधीजी की गांधीवादी प्रतिक्रिया की एक-दो यादें अभी तक ताज़ा है । मेरे पड़ोस में एक जज रहते थे । उनके गुलाब के पौधों की फुलवारी सबको आकृष्ट करती थी । वे किसी को फूल नहीं तोड़ने देते थे । एक सुबह, सडक को झाडू से रोजाना साफ़ करने वाली स्वीपर अपने 8 वर्ष के लड़के के साथ सड़क बुहारते आगे बढ़ रही थी । तभी, उस लड़के ने दीवार से बाहर झूलते एक गुलाब के फूल को तोड़ लिया । जज साहब झन्नाटे से बाहर आये और उस लड़के के गाल पर एक चप्पल जड़ दिया । उतने क्रोध में भी उन्हें अस्पृश्यता का ख्याल रहा होगा । एक पल तो वह लड़का सन्नाटे में आ गया पर दूसरे पल उसकी जुबान से दो-तीन भद्दी गालियाँ निकली और वह रोने लगा । इसके बाद जज उसे चप्पल से मारते जाएँ और वह गलिया दे-देकर रोता जाए । लड़के की माँ अलग बिलख रही थी । यह सिलसिला खत्म होने को नहीं आ रहा था । मामला जज का था इसलिए वहां जमा होती भीड़ भी चुपचाप थी । गांधीजी ने ही पहुंचकर लड़के को उनसे दूर किया और कहा कि इसे तो संस्कार नहीं मिला है पर आप तो संस्कारी हैं ।
1955 अगस्त में आज़ादी के बाद भारतवर्ष का पहला और भीषण छात्र आन्दोलन पटना के बी०एन०कॉलेज के छात्रों पर पुलिस गोली काण्ड से आरभ हुआ था जिसमें 9 छात्र शहीद हुए थे । 15 अगस्त को सुबह हमलोग छत पर तिरंगा फहराने पहुंचे । वहां पहले से पडोसी कम्युनिस्ट नेता ने काला झंडा लगा रखा था । पिताजी ने आक्रोश के साथ काला झंडा फाड़ दिया । तकरार बहुत बढ़ जाती अगर गांधीजी हस्तक्षेप न करते । याद तो नहीं है पर छत पर केवल तिरंगा ही रहा ।
मैं 1956 में कक्षा 5 में था और कामेश्वर 6 में । सत्र समापन पर मुझे मेरा मार्क्सशीट मिला । मेरे नंबर 50% के आसपास थे । प्रफुल्लित मन जब घर के कोर्टयार्ड के अन्दर आया तो मैंने देखा कि गांधीजी कामेश्वर को कुर्सी पर खड़ा कर बेंत से पीट रहे हैं । उसे कम नम्बर आये थे । कुछ देर बाद जब गांधीजी काम से बाहर चले गए तो मैंने कामेश्वर का अंकपत्र देखा । सभी विषयों में उसे 90% से ज्यादा आये थे और क्लास में प्रथम आया था । उसकी पिटाई इस कारण से हो रही थी कि उसे हिसाब में 100 में 100 क्यों नहीं आये 97 क्यों आया । कामेश्वर बहुत खूबसूरत था । बेंत के निशान उसके गोरे शरीर पर नीले दाग लिए हुए भरे पड़े थे । 1959 अक्टूबर को पिताजी का ट्रान्सफर झुमरी तिलैया और फिर 1961अप्रैल में हमलोग रांची आ गए । 1964 में , जब किसी काम से मैं पटना गया तो उसकी खोज-खबर ली । पता चला, 1960 में गांधीजी की मृत्यु के बाद, उसके पिता उसे अपने पास कलकत्ता ले गए थे ।
2001 में, मुझे कॉर्पोरेट चीफ बनाया गया सेफ्टी और एनवायरनमेंट मैनेजमेंट का । उसी सिलसिले में मैं अपने एक सिस्टर कारखाने का सेफ्टी ऑडिट कर रहा था । तभी टाइम-कीपिंग बूथ पर गाली-गलौज की पुरजोर आवाज आने लगी । लगता था, अगर रोका नहीं गया तो नौबत खून-खराबे तक चली जाएगी । मेरे साथ शॉप सुपरिटेनडेंट भी थे । उनके दखल से मामला शांत हुआ । उन्होंने टाइम-कीपर को बहुत डांटा और हिदायत दी कि अगली बार अगर वह नशे की हालत में दिखा तो उसे हटा दिया जाएगा ।
टाइम-कीपर की दिहाड़ी नौकरी पर और कोई नहीं कामेश्वर था । उलझे बाल, बेतरतीब कपडे, पान से रंगे दांत में भी उसकी खूबसूरती का पैनापन दमक रहा था । उसने मुझे नहीं पहचाना । बाद में, मैंने HRD जाकर उसका बायोडाटा देखा । उसकी दिहाड़ी नौकरी यूनियन की सिफारिश पर बहाल रहती थी नहीं तो आये दिन उसके शिकायत का पुलिंदा बढ़ता जाता था । कामेश्वर 10वी क्लास तक ही पढ़ पाया था । उसका कुछ भी नहीं किया जा सकता था सिवा इसके कि अपनी पहचान बताकर उसे शर्मिंदा करूं ।
Monday, February 23, 2015
ये तो होना ही था !
इसी समय सबको दादा-दादी, नाना-नानी की कमी खलती है. यही पीढ़ी बखूबी ब्रिज का काम करती है. माँ-बाप को थोड़ी राहत, बच्चे को अपनी चाहत के लम्हे और बुजुर्गों को एक और बर्थडे मन जाने की आशा. मुझे छह महीने अपने नाती के साथ गुजारने का सौभाग्य प्राप्त हुआ, बेरस सी जिंदगी में मानो रंगो की बौछार आ गयी हो. कोई भी ऐसा बचपन में खेला गया खेल नहीं होगा जिसे मैंने दोहराया नहीं होगा. लुका-छुपी, लूडो, सांप-सीढ़ी, हाथी-घोडा, बैट-बाल, से लेकर आजकल के नए खेल जैसे निंजा, ट्रांसफार्मर, स्पाईडर मैन , माइन क्राफ्ट, बिल्डिंग ब्लॉक्स, इत्यादि और भी न जाने क्या-क्या. पर सबमें एक-दो बात जरूर रहनी चाहिए थी, वह था, लड़ाई-झगड़ा और हमेंशा हारते रहना.
अब तो वह सुबह उठते ही मेरे कमरे में आकर वही मशहूर जादू की झप्पी देता. हमलोगों में इतना ज्यादा लगाव हो गया की ये सभी के लिए चिंता का विषय हो गया . सभी मुझे समझाते रहते थे कि बिछुड़ने पर बहुत दुःख होगा . पर मैं मन को यही समझाता रहता था की जब बचपन और जवानी से बिछुड़ने का दुःख मैंने चाहे जैसे भी पार कर लिया तो यह तो मात्र छह महीने का स्वर्ग था. मैं अपने नाती के बारे में थोड़ा परेशान अवश्य था. मुझसे खेलने में इतना मशगूल रहता की अगर उसके दादा-दादी का फ़ोन आता तो वह उस समय ही अपना ध्यान खेल की तरफ ही रखता . दादा-दादी बुरा न मान जाएँ इसलिए उसकी माँ बगल मैं बैठकर उसे प्रांप्ट करती रहती। जब भी ऐसा फ़ोन आता तो रटे -रटाये पांच-छह जुमले जरूर चिपकाए जाते, जैसे- दादू नमस्ते !, आप कैसे हो !, आप कब आओगे !, मेरे लिए खिलौना आया है! आओगे तो हमलोग खेलेंगे ! अपना ख़याल रखियेगा ! नमस्ते !
लौटने में जब दो-चार दिन शेष रह गया तो उसकी माँ ज्यादा समय बच्चे को अपने पास ही रखती जिससे उसे बिछुड़ने की तकलीफ न हो. इतना कि नाश्ते-खाने के समय , मेरी जगह वह उसके पास बैठती. लौटने के समय सबकोई एयरपोर्ट मुझे विदा करने आये . मेरा नाती भी दो बजे रात तक साथ रहा. सिक्योरिटी चेकिंग के गेट पर उसने मुझे बहुत चुपचाप जादू की झप्पी दी. हमदोनो एक दूसरे से कुछ भी नहीं बोले. मैं तो समझ कर नहीं बोल रहा था और उससे नजर बचा रहा था पर वह समझ ही नहीं पा रहा था की इस समय कैसे क्या करना चाहिए.
वतन पहुंचते ही दो तीन बार फ़ोन पर बातें हुईं पर मैं नाती का कोई जिक्र छेड़ने की हिम्मत नहीं जुटा पाया.
आज मेरी बेटी और दामाद ने फ़ोन करने के बाद रिसीवर नाती को थमा दिया. नाती ने बड़ी गर्मजोशी के साथ मुझसे बातें की- नानू नमस्ते !, आप कैसे हो !, आप कब आओगे !, मेरे लिए खिलौना आया है! आओगे तो हमलोग खेलेंगे ! अपना ख़याल रखियेगा ! मैं भी इंडिया आयूंगा ! नमस्ते ! मैंने राहत की ठंडी सांस ली ; गर्मजोशी का क्या है वह तो आज-कल की बात है.
मुझे यद आया नजदीक के तालाब की वो बत्तखें जो मुझसे बहुत हिलमिल गई थीं मुझसे रोटी के टुकड़े तकरीबन हाथ से उठा लेती थीं पर जब उनका मौसम आया तो न जाने वे कहाँ चली गयीं। फिर एक महीने बाद जब लौट कर आईं तो लगा जैसे उन्होंने इस अलगाव को दिल पे नहीं लिया है. इन बच्चों के साथ भी ऐसा ही होता होग. कुछ दिन उदासी और उसके बाद बाये नए दोस्त, नए खिलौने और सुरसा की तरह बढ़ता हुआ पढ़ाई का व्यापार. शायद सबसे ज्यादा व्यस्त बच्चे ही रहते हैं, तकलीफ तो खाली बैठे लोगों को होती है अपने यादों की नशीली झीलों में डूबते-उतरते समय जलाते हुए.
मुझे भी अब कहाँ अपने नाना-नानी, दादा-दादी या फिर दिवंगत माँ-बाप की याद आती है ? फेसबुक पर कोई श्रद्धालु उनकी फोटो एक दर्दीले जुमले के साथ डाल देता है तो सबकी तरह मैं भी "लाइक " का बटन दबा देता हूँ.
Sunday, February 8, 2015
वह बूढी माँ !
I was studying in standard seven. A day etched vividly in my memory, my elder brother playfully teased me with his new pen as we returned home from school. The teasing took an unexpected turn, and I found myself crossing the threshold of our house in tears. It was then that an old wrinkled, stooping with age woman, wrapped in tattered clothes and emanating the suffocating smell of coal smoke, appeared seemingly out of nowhere and enveloped me in a comforting hug.
Her presence was
a sudden solace, and my tears were momentarily forgotten as I found myself
embraced by this mysterious old woman. It took considerable effort to
disentangle myself from her, and only then did I realize the pungent odour
clinging to her from the coal smoke. It was my mother who later shed light on
her identity.
In our household,
I had two brothers—one a year and a quarter younger, the other older than me.
The elder one, unwell at the time, received special attention from our
grandparents, while the youngest naturally claimed a spot in our mother's lap.
This elderly woman, around 60 years old, had no fixed abode. After overcoming
numerous hurdles, she sought refuge in our home, becoming the caretaker
responsible for all household chores, from cooking to cleaning. This elderly
lady became my nanny (caregiver). She carried me on her back while working
until I could stand on my own. She became my foster mother for those critical
days when my father was posted in Gaya town.
After tracking
our address from one of my father's colleagues, she journeyed to Patna in a
coal-powered steam engine train just to see me. Despite knowing my aversion to
the smell of coal smoke, she strived to make a lasting impression on me. Bathed
and adorned in a clean white Khadi saree from my mother, she sat beside me
during meals, feeding me with her own hands. When I returned from play, she
handed me the exact pen my brother had teased me with—a red Doric pen costing 6
annas (37 paise). She had acquired a similar pen from the market, a gesture
that earned her a reprimand from my mother. She possessed only two rupees, yet
the wealth she shared with me in the form of sweets, chocolates, and toys every
afternoon transcended monetary value.
This selfless,
maternal figure remained with us for four days, during which I was inseparable
from her. Each morning, I'd wake up on her mat. On the day of departure, she tightly
embraced me, weeping continuously. On her departure, her Magahi words echoed in
my ears: "I am not coming again - I am not coming again." With her final tearful
embrace, she disappeared into the bustling market, her faded figure merging
with the throng. Her parting words, "I am not coming again," hung
heavy in the air, a stark reminder of the impermanence of life and the fleeting
nature of unexpected encounters.The imprint of her love remained etched within
me, a permanent marker of the warmth and security she offered during a
vulnerable time. The scent of coal smoke, once repulsive, became a bittersweet
reminder of a bond born out of chance and nurtured by selflessness. The red
Doric pen, no longer a symbol of my brother's teasing, became a precious talisman,
a tangible memory of her extraordinary affection. Years later, amidst the
tapestry of love woven by others, it is her selfless gesture, her unwavering
presence, that continues to shine the brightest, a testament to the enduring
power of a love given freely, without expectation.
Tuesday, January 27, 2015
अब बस !
Friday, January 9, 2015
हाफपैंट !

आज तकरीबन 55 वर्ष बाद ऑस्ट्रेलिया में जहां लोग कम से कम कपडे पहनते हैं जो ज्यादा पर्यावरण मसला लगता है, वहां मुझे फिर से हाफ पैंट पहनने की हिचकिचाहट मिटाने में चार महीने लग गए..पर ज़रा मौके की attitude देखिये , ६ रुपये की रद्दी इन 55 वर्षों में सूद के साथ कितनी ज्यादा appreciate कर गयी. तकरीबन 600 डॉलर का था. जगह थी दुनिया के दूसरे सबसे महंगे इमारत सिंगापुर, मरीना बे सेंड्स , पर सबसे मंहगा होटल स्काई आन 57 के टेरेस पर !