Pages

Monday, June 2, 2014

आम का भी जवाब नहीं !

आम की चोरी
आम ही एक ऐसा फल है जो शायद सबकी पसंद है. मेरी भी है बेहद. मुझे याद है जब मैं तीन वर्ष का था तबकी बात. दोपहर की नीद में छत पर आम टपकने की आवाज आती थी. बिना सीढ़ी और मुड़ेड की १५ फीट ऊंची छत पर चढ़ जाया करता था. हाँ, पहली बार उतरते समय पैर छत से नीचे गेराज की सतह नहीं खोज पा रही थी.
सात-आठ वर्ष का था तब तो हमलोगों की टोली ही बन गयी थी. कोई भी पता करता किसके घर में आम के पेड़ में आम लगे हैं. उसके बाद योजनाबद्ध तरीके से हमला होता. यह दोपहर के दूसरे पहर में हुआ करता जब सब कोई खा-पीकर अलसाए सोये रहते. कभी कुछ बच्चे सामने के गेट पर रिहायीशिओं को बात में उलझाए रखते और दूसरा दल पिछवाड़े से आम तोड़ निकल जाता. एक बार तो सात फूट ऊंची बाउंड्री वाल पर गड़े शीशे के टुकड़ों पर जूट का बोरा रख कर आम चोरी को अंजाम दिया गया.
आम की बगीचे की रखवाली करते माली भी हमलोगों से झांसा खा जाते. एक बार दोस्तों के उकसाने पर मैं ऐसे ही एक बगीचे के पेड़ पर चढ़ गया. थोड़े लालच में आ गया. थैले पूरी तरह भर गया था फिर भी कुछ और. एक आम नीचे गिर गया. आवाज से माली की नींद टूट गयी. वह लट्ठ लेकर नीचे से मुझे ललकारने लगा. दोस्त तो किनारे लग गए. तभी दिमाग की बत्ती जली. मैं एक-एक आम दोस्तों की तरफ फेंकने लगा. माली आम दोस्तों से पहले चुनने दौड़ा. मुझे उतर कर भागने का अच्छा मौका मिल गया. तब भी काफी आम मेरी झोली में बच गए थे.
सबसे अच्छा ज़माना था जब मेरी उम्र कोई दस-इग्यारह की रही होगी. क्या आप विशवास करेंगे कि आज से तकरीबन 450 वर्ष पहले शेरशाह सूरी के शासन  मे लगाये गए आमों का हमलोग लुत्फ़ उठाया करते थे. जी हाँ ! तब हमलोग ग्रैंडट्रंक रोड की पास रहते थे. सड़क के दोनों तरफ आमों के पेड, इतने कि आसमान तक नहीं दिखता था. साइकिल पर बड़े-बड़े थैले लेकर जाते और आम भरकर लौटते. न कोई रोकने वाला ,न कोई टोकने वाला.
उम्र २१ वर्ष. पोस्ट ग्रेजुएट फिजिक्स की पढाई. सभी साथी क्लास ख़त्म होने के बाद जिस रस्ते से लौटते उसपर डिस्ट्रिक्ट कमिश्नर का बंगलो पड़ता. बाहर झूलते कच्चे आमों पर सिक्यूरिटी की नजर बचाकर पत्थर का निशाना जरूर बनाते. जितने भी आम गिरते हमलोग बाँट कर खाते हुए लौटते. हाँ, मूंगफली वाले से पीसी मिर्च-नमक की पुडिया भी लेते.
उसके बाद पड़ता सिख रेजिमेंट का कैंटोनमेंट का प्रवेश द्वार जहाँ ट्रैफिक कण्ट्रोल करने के लिए एक छह फूटा वर्दीदार सिख जवान खड़ा रहता. हमलोगों को भी बस पकड़ने उसके पास ही खडा होना पड़ता. हम सभी वहा खड़े होकर कच्चे आमों की फांक मिर्चीदार नमक के साथ चटखारा लेकर खाते. पर एक बार उसके बाद फिर कभी नहीं. किस्सा यों हुआ कि ट्रैफिक कण्ट्रोल करते-करते सरदार के मुंह से लार टपकने लगी. उसके बाद हमलोगों ने वह फर्राटेदार पंजाबी गालिया सुनीं जो हम आपको बता नहीं सकते. 
ईश्वर की दया से रिटायरमेंट के बाद विरासत में एक आम का पेड़ भी मिला. कच्चा आम भी मीठा लगता है. इस बार पेड़ में बहुत ज्यादा आम आये. मैंने आस-पड़ोस के बच्चों को हिदायत दी कि आंधी तूफ़ान से बहुत आम गिरेंगे उन्हें ही लेना. तोड़ना मत. पकने पर तोड़ना. पर बचपन में न तो मैंने किसी की बात मानी थी न अब मैं आशा करता हूँ. देखते देखते आम गायब होने लगे. दोपहरी में जब झपकी लेने का समय होता तब चढ़ाई होती. मुझे छत पर बच्चों के दौड़ने भागने की पूरी आवाज नीचे मिलती रहती. बच्चे मुडेर पर सामने दिखने वाले आम को छोड़ कर बाकी जगहों पर सेंध मारते. अंत में उन पच्चीस-तीस आमों पर भी हमला होने लगा. सुबह जब मैं छत पर
प्राणायाम करने पहुंचा तो मुश्किल से पांच-छह आम दिख रहे थे. शायद कुछ दिन और मिलता तो पेड़ में ही पक जाते. मैं धर्म संकट में पड़ गया. लग रहा था कि इस बार एक भी आम खाने को नहीं मिलेगा.मैं दोपहर को उन आमों को चोरी छुपे तोड़ कर ले आया. फर्ज कीजिये, एक ६७ वर्षीय वृद्ध अपने ही पेड़ का आम चोरी कर रहा हो.
पर मैं चोरी क्यों कर रहा था ? इसलिए कि बच्चे टोक न दें कि नाना भी आम पकने के पहले तोड़ रहे हैं; या फिर इसलिए कि अभी भी इन सब तृष्णाओं से राग नहीं मिटा था.अच्छा था कहीं से श्री चार्ल्स डिकेंस नहीं देख रहे थे नहीं तो अपनी “ दी रेनबो” की प्रसिद्ध पंक्ति चटखारा लेकर दुहरा देते “ Child is the Father of the Man"  !