Pages

Thursday, July 23, 2015

सिनेमा सिनेमा – 4 !

नियति ललाट पर स्क्रिप्टेड रहती है , सुनने और समझने में अजीब लगता है पर जीवन के अंतिम पड़ाव पर यह यकीन हो जाता है कि हमसब जल की धारा में तिनके की तरह बहते आ रहे हैं तब कुछ भी सोचने समझने को नहीं रह जाता, बस बहते हुए का आनंद लेना ही श्रेयस्कर है. स्वामी विवेकानंद ने कहा था कि मानव जीवन ही बना है प्रकृति को तोड़-मडोड कर अपने लिए सहज और सुगम बनाते रहना. उसे ऐसा भान होने लग जाता है कि प्रकृति उसकी कठपुतली है. यहीं मनुष्य पेड़-पौधों और जानवरों से बिलकुल अलग हो जाता है और इसी कारण बुरी तरह पछाड़ खाता रहता है. प्रकृति मनुष्यों के साथ चूहे-बिल्ली का खेल खेलती रहती है. बाढ़, भूकंप, सुनामी, अकाल, बीमारी, दुर्घटनाएं इस तरह की कितनी ही विधाओं के साथ खिलवाड़ करती रहती है. चूहे की तरह उसे भी अंत तक ऐसा लगता है कि प्रकृति उससे खिलवाड़ कर रही है. अंत में , उन्ही पांच तत्वों में मनुष्य को समेट लेती है अपने में जैसा वह अपने सभी जनकों के साथ करती है. 
मैंने स्वतः रांची को अपने अल्हड़पन का धाम नहीं चुना था और न डोरंडा का गेंदापाड़ा मोहल्ला. रांची जहां उस समय मनोरंजन का एकमात्र साधन सिनेमा हुआ करता था. डोरंडा जहां लड़के सोते-जागते बस खेलने की धुन में मस्त रहते थे. मोहल्ला गेंदापाड़ा जिसे मुझ जैसा एक नया किरदार मिल गया था. वह, जिसकी उम्र और ऊचाई तो कम थी पर कॉलेज जाने लगा था. वह जिसे पटना-टाटानगर शहरों की चमक-दमक का अनुभव था और जंगलों से घिरे झुमरी तिलैया जैसे पर्यावरण से जूझने का साहस. सब मिला-जुलाकर, एक ऐसा रास्ता निकलता आ रहा था जिसमें पढाई-लिखाई किनारे मन मसोसती रह जाती थी. मेरी अल्हड उम्र खेलने और सिनेमा देखने में कैसे बीत गयी मालूम ही नहीं पड़ा. होश संभाला तो मैं गिरते-पड़ते-लडखडाते 19 वर्ष की अवस्था में MSc(फिजिक्स) के फाइनल ईयर की पैनी धार पर खड़ा होने की बेतरह कोशिश कर रहा था. जीवन के इस पड़ाव में मुझे बहुत ही रोमांचकारी अनुभव हुए. जानकारी हुई. चरित्र निर्माण हुआ, जिसपर फिल्मो की गहरी छाया थी. जिसे प्रेमचंद, टैगोर, बंकिम, तारा, सरत, अमृत लाल, बिमल मित्र, चार्ल्स डिकेन्स, अज्ञेय,कुछ हद तक निखार पाए. आज उन पलों को ठीक से न सवारने का अटूट दुःख भी रेकरिंग डिपाजिट जैसा सालता रहता है.