नियति ललाट पर स्क्रिप्टेड रहती है ,
सुनने और समझने में अजीब लगता है पर जीवन के अंतिम पड़ाव पर यह यकीन हो जाता है कि
हमसब जल की धारा में तिनके की तरह बहते आ रहे हैं तब कुछ भी सोचने समझने को नहीं
रह जाता, बस बहते हुए का आनंद लेना ही श्रेयस्कर है. स्वामी विवेकानंद ने कहा था
कि मानव जीवन ही बना है प्रकृति को तोड़-मडोड कर अपने लिए सहज और सुगम बनाते रहना. उसे
ऐसा भान होने लग जाता है कि प्रकृति उसकी कठपुतली है. यहीं मनुष्य पेड़-पौधों और जानवरों
से बिलकुल अलग हो जाता है और इसी कारण बुरी तरह पछाड़ खाता रहता है. प्रकृति
मनुष्यों के साथ चूहे-बिल्ली का खेल खेलती रहती है. बाढ़, भूकंप, सुनामी, अकाल, बीमारी,
दुर्घटनाएं इस तरह की कितनी ही विधाओं के साथ खिलवाड़ करती रहती है. चूहे की तरह
उसे भी अंत तक ऐसा लगता है कि प्रकृति उससे खिलवाड़ कर रही है. अंत में , उन्ही
पांच तत्वों में मनुष्य को समेट लेती है अपने में जैसा वह अपने सभी जनकों के साथ
करती है.
मैंने स्वतः रांची को अपने अल्हड़पन
का धाम नहीं चुना था और न डोरंडा का गेंदापाड़ा मोहल्ला. रांची जहां उस समय मनोरंजन
का एकमात्र साधन सिनेमा हुआ करता था. डोरंडा जहां लड़के सोते-जागते बस खेलने की धुन
में मस्त रहते थे. मोहल्ला गेंदापाड़ा जिसे मुझ जैसा एक नया किरदार मिल गया था. वह,
जिसकी उम्र और ऊचाई तो कम थी पर कॉलेज जाने लगा था. वह जिसे पटना-टाटानगर शहरों की
चमक-दमक का अनुभव था और जंगलों से घिरे झुमरी तिलैया जैसे पर्यावरण से जूझने का
साहस. सब मिला-जुलाकर, एक ऐसा रास्ता निकलता आ रहा था जिसमें पढाई-लिखाई किनारे मन
मसोसती रह जाती थी. मेरी अल्हड उम्र खेलने और सिनेमा देखने में कैसे बीत गयी मालूम
ही नहीं पड़ा. होश संभाला तो मैं गिरते-पड़ते-लडखडाते 19 वर्ष की अवस्था में
MSc(फिजिक्स) के फाइनल ईयर की पैनी धार पर खड़ा होने की बेतरह कोशिश कर रहा था.
जीवन के इस पड़ाव में मुझे बहुत ही रोमांचकारी अनुभव हुए. जानकारी हुई. चरित्र
निर्माण हुआ, जिसपर फिल्मो की गहरी छाया थी. जिसे प्रेमचंद, टैगोर, बंकिम, तारा,
सरत, अमृत लाल, बिमल मित्र, चार्ल्स डिकेन्स, अज्ञेय,कुछ हद तक निखार पाए. आज उन
पलों को ठीक से न सवारने का अटूट दुःख भी रेकरिंग डिपाजिट जैसा सालता रहता है.
ऐसा नहीं कि फिल्मों ने मुझे कुछ नहीं दिया. आज अगर प्रकृति के सभी किरदारों में छिपी अच्छाई दिखती है तो वह उसी फ़िल्मी नजरिए से जो मुझे शांताराम, बिमल रॉय, सत्यजित रे, ऋत्विक घटक, गुरुदत्त, असित सेन, हृषिकेश मुख़र्जी और राज कपूर की फिल्मों से हासिल हुई. इन सभी दिगज्जों में कला के अनगिनत आयाम निहित थे. पर इनमें राज कपूर की कुछ फ़िल्में दिल को बहुत अन्दर तक संवेदित करती थी. या फिर यूं कहें कि एक शिकारी को जंगल भाता है और एक नाविक को पानी की धारा. आवारा, श्री 420 और जागते रहो में तो आध्यात्मिकता कूट-कूट कर भरी थी. आवारा का ड्रीम सीक्वेंस, जागते रहो का क्लाइमेक्स “ जागो मोहन प्यारे” तो सीधे तौर पर ईष्ट की और इंगित करता है , पर क्या आपने श्री 420 के वो 15 मिनट समझने की कोशिश की है जो शुरू तो होता है ईमानदारी के मैडल की खरीद-फरोख्त से और माया के जाल से मुक्त होता हुआ पंक्षी किस तरह माँ की गोद में आश्रय पाता है “ मैंने दिल तुझको दिया “ गीत की समाप्ति पर. कभी ख्वाजा अहमद अब्बास सरीखे लेखक, शैलेन्द्र जैसे गीतकार , शंकर-जयकिशन जैसे दिग्गज संगीतकार और राज कपूर जैसा फिलोसोफर-निर्देशक की जुगलबंदी मजा लीजिये और जीवन का सारभूत नाचते-गाते समझ लीजिये. राज कपूर तो लगता है कि वह स्वयं जीवन को समझने की कोशिश में लगा रहता था. फिल्म “मेरा नाम जोकर” का वह दृश्य जहां जोकर गुलाब का लाल फूल देना चाहता है पर ट्रैपीज़ सुंदरी जोकर को काफी ऊपर झूले पर आने का आमंत्रण दे रही है और इसी गहमा-गहमी में वह जोकर अपनी माँ खो बैठता है. या फिर उसी सीन के आगे जब वह सुंदरी विदा होते समय कहती है “ मिलना और जुदा होना, जुदा होना और मिलना, यही तो ज़िन्दगी है. जुदा नहीं होंगे तो मिलेंगे कैसे” क्या सबकुछ नहीं कह देता है.
कुछ भी कहें, किसी तरह का भी ज्ञान
वर्धन जीवन के लिए अमृत है. अगर कहें कि अकेडमिक पढाई प्रधानतः रोटी कमाने के लिए
हुई तो बाकी अनुभव जीवन नैया खेने के लिए हुई. यही अनुभव-अमृत राह ढूंढने में मदद
करता है और आगे बढ़ने का साहस देता है. मैंने जीवन जो भी कडवे-मीठे निर्णय लिए
उसमें इन पुस्तकों और परदे पर दिखाई जाने वाली कहानियों का एक बहुत बड़ा योगदान है.
मुझे दोस्ती और प्यार की परिभाषा किसी स्कूली किताब से सीखने को नहीं मिली.
अब मै इस जीवन यात्रा को अपने तरीके से जीने को तैयार हो रहा था. एक धरातल बन चुका था उसपर न मालूम कितने अनुभवों का अघात, कितनी किताबों की सुगंध, और न जाने कितनी फिल्मो का रंग चढ़ने वाला था.
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