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Monday, February 23, 2015

ये तो होना ही था !

मुझे बच्चों का  साथ  सबसे प्रिय है. उसका एक  महत्वपूर्ण कारण है. वह है उनकी निष्छलता.  आप अपने में भी कुछ वैसा ही भोलापन भर लीजिये और तब देखिये जिंदगी कितनी सरस हो जाती है.
पांच वर्ष की उम्र के आसपास बच्चों को सबसे ज्यादा प्रिय खेलना लगता है. उनकी पूरी दुनिया खेल के इर्द-गिर्द ही घूमती है. उम्र के इसी चढ़ाव पर उनकी रह-रह कर अपने माँ-बाप से ठनती रहती है. सुबह उठते ही खिलौनों की तरफ दौड़ लगाना, नाश्ते-खाने  के समय टीवी देखना और यह इच्छा रखना की कोई कौर बनाकर उसे खिला दे. होम वर्क के समय स्थिर बैठना कम और ध्यान दूसरी तरफ रखना, स्कूल से लौटते ही भरी दुपहरी से ही बाहर जाकर खेलने के जिद करना, सोते समय सपने में हँसना-रोना और उठकर बैठ जाना . पूछने पर कोई ऐसी बात बताना जैसे उसकी  निंजा से लड़ाई हो रही थी और निंजा ने उसे  हरा दिया. ये सब तो कुछ सैंपल हैं.
इसी समय सबको दादा-दादी, नाना-नानी की कमी खलती है. यही पीढ़ी बखूबी ब्रिज का काम करती है. माँ-बाप को थोड़ी राहत, बच्चे को अपनी चाहत के लम्हे और बुजुर्गों को एक और बर्थडे मन जाने की आशा. मुझे छह महीने अपने नाती के साथ गुजारने का सौभाग्य प्राप्त हुआ, बेरस सी जिंदगी में मानो  रंगो की बौछार आ गयी हो. कोई भी ऐसा बचपन में खेला गया खेल नहीं होगा जिसे मैंने दोहराया नहीं होगा. लुका-छुपी, लूडो, सांप-सीढ़ी, हाथी-घोडा, बैट-बाल, से लेकर आजकल के नए खेल जैसे निंजा, ट्रांसफार्मर, स्पाईडर मैन , माइन क्राफ्ट, बिल्डिंग  ब्लॉक्स, इत्यादि और भी न जाने क्या-क्या. पर सबमें एक-दो  बात जरूर रहनी चाहिए थी, वह था, लड़ाई-झगड़ा  और हमेंशा हारते रहना.
अब तो वह सुबह उठते ही मेरे कमरे में आकर वही मशहूर जादू की झप्पी देता. हमलोगों में इतना ज्यादा लगाव हो गया की ये सभी के लिए चिंता का विषय हो गया . सभी मुझे समझाते रहते थे कि बिछुड़ने पर बहुत दुःख होगा . पर मैं मन को यही समझाता रहता था की जब बचपन और जवानी से बिछुड़ने का दुःख मैंने चाहे जैसे भी पार कर लिया तो यह तो मात्र छह महीने का स्वर्ग था.  मैं अपने नाती के बारे में थोड़ा परेशान अवश्य था.  मुझसे खेलने में इतना मशगूल रहता की अगर उसके दादा-दादी का फ़ोन आता तो वह उस समय ही अपना ध्यान खेल की तरफ ही रखता .  दादा-दादी बुरा न मान जाएँ इसलिए उसकी माँ बगल मैं बैठकर उसे प्रांप्ट करती रहती। जब भी ऐसा फ़ोन आता तो रटे -रटाये पांच-छह जुमले जरूर चिपकाए जाते, जैसे- दादू  नमस्ते !, आप कैसे हो !, आप  कब आओगे !, मेरे लिए  खिलौना आया है! आओगे तो हमलोग खेलेंगे ! अपना ख़याल रखियेगा ! नमस्ते !
लौटने में जब दो-चार दिन शेष रह गया तो उसकी माँ ज्यादा समय बच्चे को अपने पास ही रखती जिससे उसे बिछुड़ने की तकलीफ न हो. इतना कि नाश्ते-खाने के समय , मेरी जगह वह उसके पास बैठती. लौटने के समय सबकोई एयरपोर्ट मुझे विदा करने आये . मेरा नाती भी दो बजे रात तक साथ रहा. सिक्योरिटी चेकिंग के गेट पर उसने मुझे बहुत चुपचाप जादू की झप्पी दी. हमदोनो एक दूसरे से कुछ भी नहीं बोले. मैं तो समझ कर नहीं बोल रहा था और उससे नजर बचा रहा था पर वह समझ ही नहीं पा रहा था की इस समय कैसे क्या करना चाहिए.
वतन पहुंचते ही दो तीन बार फ़ोन पर बातें हुईं पर मैं नाती का कोई जिक्र छेड़ने की हिम्मत नहीं जुटा पाया.
आज  मेरी बेटी और दामाद ने फ़ोन करने के बाद रिसीवर नाती को थमा दिया. नाती ने बड़ी गर्मजोशी के साथ मुझसे  बातें की- नानू नमस्ते !, आप कैसे हो !, आप  कब आओगे !, मेरे लिए  खिलौना आया है! आओगे तो हमलोग खेलेंगे ! अपना ख़याल रखियेगा ! मैं भी इंडिया आयूंगा ! नमस्ते ! मैंने राहत की ठंडी सांस ली ; गर्मजोशी का क्या है वह तो आज-कल की बात है.
मुझे यद आया नजदीक के तालाब की वो बत्तखें जो मुझसे बहुत हिलमिल गई थीं  मुझसे रोटी के टुकड़े तकरीबन हाथ से उठा लेती थीं  पर जब उनका मौसम आया तो न जाने वे कहाँ चली गयीं।  फिर एक महीने बाद जब लौट कर आईं तो लगा जैसे उन्होंने इस अलगाव को दिल पे नहीं लिया है. इन बच्चों के साथ भी ऐसा ही होता होग. कुछ दिन उदासी और उसके बाद बाये नए दोस्त, नए खिलौने  और सुरसा की तरह बढ़ता हुआ पढ़ाई का व्यापार. शायद सबसे ज्यादा व्यस्त बच्चे ही रहते हैं, तकलीफ तो खाली बैठे लोगों को होती है अपने यादों की नशीली झीलों में डूबते-उतरते समय जलाते हुए.
मुझे भी अब कहाँ अपने नाना-नानी, दादा-दादी या फिर दिवंगत माँ-बाप की याद आती है ? फेसबुक पर कोई श्रद्धालु उनकी फोटो एक दर्दीले जुमले के साथ डाल  देता है तो सबकी तरह मैं भी "लाइक " का बटन दबा देता हूँ.