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Monday, June 23, 2014

एक समय रांची में !

फ़र्ज़ किजीये, एक बड़े टोकरे में 10-12 किलो तरह-तरह की सब्जियां एक लुंगीनुमा साड़ी में लिपटी 70 वर्षीय पोपले मुंह वाली आदिवासी महिला आपको मुंह-मांगे दाम पर देने के लिए तत्पर हो और आप शर्मसार होते हुए उसे 50 पैसे दे दें और वह उसे ख़ुशी-ख़ुशी ले ले । या फिर, मात्र 25 पैसे में कोई रिक्शावाला आपको 5 किलोमीटर राजी-ख़ुशी ले जाए । ऐसा ही कुछ व्यापार था 1961 के रांची शहर में जो उस समय बिहार की ग्रीष्मकालीन राजधानी थी और प्रान्त का चेरापूंजी कहा जाता था ।
तब इस शहर की आबादी कोई 30 हजार रही होगी । ज्यादातार रिहायशी इलाके बंगाली महाशयों ने बसाए थे । साउथ ऑफिसपारा, नार्थ ऑफिसपारा, पीपी कंपाउंड, बर्दवान कंपाउंड, लालपुर, बहु बाजार और भी कई । जाहिर है इस शहर में सबसे ज्यादा धूमधाम से दुर्गापूजा मनाई जाती थी जो आजतक बरकरार है पर अब उसमें कृतिमता का समावेश हो गया है । पूरा शहर 50 वर्गमील में नापा जा सकता था । दूसरी तादाद बिहारी मुस्लिमों की थी जो कांके, हिंद्पिडी, डोरंडा व् कर्बला चौक में रची-बसी थी । 1960 के दशक में रांची में आगमन की जैसे क्रान्ति आ गयी थी ।डोरंडा के मेरे घर से तीन किलोमीटर दूर करीम १५० मीटर की ऊंचाई पर एअरपोर्ट के सामानांतर सड़क पर गुजरती गाड़ियां दिखती थी और मैं अपनी बस को आते हुए दस मिनट पहले ही देख लेता था और समय पर स्टैंड पहुँच जाता था.
1958 में हैवी इंजीनियरिंग कारपोरेशन की स्थापना रांची को पूरी तरह बदलने वाली थी । 25000 से ज्यादा बहाली होने वाली थी । आलम यह था कि बहुतेरे लोग डरे-डरे रांची आते थे । अफवाह थी कि लोगों को पकड़ कर बहाली कर दी जाती थी । ऐसा हुआ भी था ।
स्कूलिंग का दौर ख़त्म करके, मैंने कॉलेज में दाखिला ले लिया था । सुबह उठने के लिए अलार्म की आवश्यकता नहीं पड़ती थी । ट्रकों में लदी हुईं आदिवासी कामगार जिनमे लड़के-लडकिया बराबर की तादाद में होती थी, बहुत ही मधुर समूह गीत गाते गुजरते रहते थे, कभी-कभी मांदर की थाप भी सुनायी देती थी । बाकी का दैनिक संगीत समारोह हरे-भरे पेड़-पौधों से ढके शहर पर तैरते-झूमते पक्षियों का कलरव पूरा कर देता था । राची पक्षी पर रखे नाम के इस शहर को अंग्रेजों ने 1927 में रांची नाम दे दिया था । डोरंडा जहां मैं रहता था, वह दोरं= संगीत और डाह=जल की संधि से बना था । पास ही स्वर्णरेखा नदी बहती थी । तब पास के ऑफिसपाड़ा मोहल्ले में एक बंगाली बुजुर्ग पियानो बजाया करते थे । पहली बार मैंने पियानो देखा । मैं महान बंगला फिल्मों के निर्देशक ऋत्विक घटक को नहीं जानता था । वे महाशय उनके करीबी थे और ऋत्विक उनके घर आया-जाया करते थे । संगीतमय पर्यावरण कैसा होता है मुझे महसूस होता था ।
बादल और बारिश के लिए तो जैसे रांची एक पसंदीदा जगह थी । किसी भी महीने, कभी भी बारिश हो जाया करती थी । पर उस दिन सुबह से बादल बरस तो नहीं रहे थे पर उनका गरजना शांत नहीं होता था । 21 अक्टूबर, 1962,शायद रविवार था इसीलिए सबलोग देर से ही सोकर उठे थे । अचानक किसी को महसूस हुआ कि इस तरह का निरंतर गरजना बादलों का नहीं हो सकता था । गौर से देखने पर बादलों के बीच दो-तीन डकोटा प्लेन उड़ते दिखे । उन दिनों सप्ताह में एक बार डकोटा पैसेंजर प्लेन आया करता था । बाहर निकल कर सडक पर देखा तो निसान ट्रक के काफिलों पर बिहार मिलिट्री के गोरखा जवान ज्यादातर 303 रायफल पकडे बैठे जाते दिखे । आठ बजे रेडियो समाचार से पता लगा कि चीन से युद्ध शुरू हो चुका था । जवानों से भरी ट्रकों का एअरपोर्ट की तरफ दौड़ पूरे दिन चली ।
देश के पहले प्रधान मंत्री दिवंगत पंडित जवाहर लाल नेहरु का सबसे मनोरम सपना था हैवी इंजीनियरिंग कारपोरेशन । वे स्वयम इस कारखाने को देश को समर्पित करने के लिए रांची आये थे । 15 नवम्बर 1963 के तडके हवाई अड्डे जाने वालीं सभी सड़के और गलियाँ जन समुदाय की भीड़ से भर गया था । मैं भी हवाई अड्डे पर लगे बांस के बैरिकेड के खम्बे को पकड़ कर खड़ा था नहीं तो पता नहीं भीड़ मुझे कहाँ धकेल देती । जहाज समय से पहले आकर आकाश में चक्कर लगा रहा था और ठीक समय पर जहाज उतरा । बड़ी ब्यूक कार के खुले हुड पर नेहरूजी बैठे हुए पास में पड़ी ढेरों मालाएं भीड़ पर फेंक रहे थे । कार जैसे ही मेरे समीप आने लगी, मैं बांस के खम्बे पर पैर टिका कर उनकी एक झलक पाने को खड़ा हो गया । एक क्षण को नजर मिली और चाबुक की तरह एक गेंदे के फूलों की माला खम्बे से आकर टकराई । दूसरे ही क्षण उस माला के फूलों की छीना--झपटी हो गयी । मुझे अभी भी याद है नेहरु जी 16 की सुबह उसी तरह हुड पर बैठ कर मेरे घरके सामने से गुजरती सड़क से लौट रहे थे । सफ़ेद गाँधी टोपी, सफ़ेद अचकन और उसके बटन-होल में फंसा सुर्ख लाल गुलाब की कली । मेरी 75 वर्षीय दादी भी मेरे बगल में खड़ी थीं । दादी के नमस्कार का जवाब नेहरु जी ने मुस्कुराकर दोनों हाथों को जोड़ कर दिया था ।
दक्षिण-पूर्व एशिया के सबसे विशाल कारखाने के बनने के बाद रांची बड़ी तेजी से बदलता गया । 60 के दशक के अंत तक आबादी बढ़कर 4 लाख हो गयी । एक नया रेलवे स्टेशन हटिया में बना । हवाई अड्डे का आधुनिकीकरण हुआ । दो और चार पहिया वाहनों की संख्या 30-40 से बढ़कर 25 हज़ार तक पहुँच गयी । नंबर प्लेट BRN से BHV और फिर BHN हो गया । रांची भारत का एक सबसे बड़ा शैक्षणिक हब बन चुका था ।
बहुत कुछ अच्छा हुआ पर कुछ बहुत दुखद भी हुआ । हमलोग पाकिस्तान के विरुद्ध 1967 की लड़ाई तो जीत गए पर तुरंत ही एक बहुत ही दारुण हिन्दू-मुस्लिम दंगे की यंत्रणा झेलनी पड़ी । दशक के अंत में एक और युद्ध का समा बना जिसने पाकिस्तान को दो भागों में बाँट दिया । इसका दूरगामी परिणाम यह हुआ कि आज रांची में सभी दुस्तर कार्य जैसे गाड़ी मरम्मत, भवन निर्माण, फूटपाथ खुदरा बिक्री, ऑटोरिक्शा चालन, मांसाहारी पोषण व् बिक्री जैसे सभी दुस्तर कार्य-व्यवसाय बंगलादेशियों ने सम्हाल रखा है ।
आज रांची दूसरे आम शहरों जैसा हो गया है । अब न पेड़ों की छाँव है और न उनपर चिड़ियाँ चहचहाती हैं, अब तो बड़ी-बड़ी अट्टालिकाएं हैं जो बाहर से एक सन्नाटें में जीवित दिखती हैं; अब आदिवासी युवक-युवतियों का नृत्य डिस्को शैली में 1000 किलोवाट की दिल दहलाने वाली गर्जना की ताल पर होता है । रांची की मासूमियत और शीतलता को मैंने बेबस उधर जाते देखा है जहां से उसका लौटकर आना असंभव है। अब तो रांची जैसे बेशर्मी के साथ शर्माती है अपनी शर्मिन्दिगी पर ! घर से दिखने वाली वह तीन किलोमीटर दूर की सडक कबकी गुम गयी.