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Wednesday, October 12, 2016

प्रतिस्पर्धा

मेरे न चाहते हुए भी मुझे परीक्षा में अच्छे नम्बर नहीं आते थे । सबसे बड़ा कारण ये था कि मुझे पढ़ने से बहुत ज्यादा अच्छा कोई भी दूसरा काम लगता था । उनमें प्रमुख था शरारत करना । हो भी क्यों नहीं ? उम्र के हिसाब से मैं बहुत जल्दी ऊंची क्लास तक पहुँच गया था । जब श्रेणी एक में था तब स्कूल में जगह कम होने की वजह से जिन बच्चों को 50 से अधिक नम्बर आये थी उन्हें चौथी श्रेणी में प्रमोट कर दिया गया । जब मैंने पांचवी पास की तो एक एंट्रेंस परीक्षा की बदौलत मेरा दाखिला सरकारी पटना कॉलेजिएट स्कूल की सातवी कक्षा में हो गया । जब नवी में था तो फाइनल परीक्षाएं वर्ष के मध्य में होने की बजाय अंत में होने लगी और मैंने नवी छह महीने में ही पूरी कर ली । मेट्रिक की परीक्षा देते समय मेरी उम्र मात्र १२ वर्ष थी । एक तरफ तो चार फीट दस इंच का मैं सबके मध्य नुमाईश का कारण बन गया दूसरे मुझसे ज्यादा अपेक्षाएं होने लगी जबकि मेरा कच्चा दिमाग पेचींदे विषय ग्रहण नहीं कर पाता था । विज्ञान के विषयों में ज्यादा परेशानी होती थी । माँ कहती थी कि हम बच्चे विज्ञान के लिए इस खानदान की पहली पीढ़ी हैं । जो भी हो नम्बर कम आने पर बहुत ही दुःख होता था । जैसे-तैसे मेरा प्रवेश एम0एस0सी0 फिजिक्स में हो गया ।
अभी तक 150 से अधिक छात्रों के क्लास के किसी  कोने में बैठ कर मैं अपने को छुपा लेता था । पर अब हमलोग मात्र 18 थे । शिक्षकों और स्टाफ की संख्या 100 से ऊपर थीं । मेरा छोटा कद सबकी आँखों में जल्दी ही उतर जाता था । 1966 के सितम्बर ३ को प्रथम सत्र की परीक्षाएं हुई । अभी रांची 22 अगस्त को आरम्भ हुए हिन्दू-मुस्लिम दंगे से पूरी तरह उबरी भी न थी । प्रशासन ने स्थिति को सामान्य बनाने के लिए सभी कुछ करने का प्रयत्न शुरू कर दिया था । उनमे विश्वविद्यालय की गतिविधियाँ भी थी । मेरा घर इस दंगे की केंद्र बिंदु पर था तिसपर मेरे दो भाईयों पर गिरफ्तारी की तलवार भी लटक रही थी । जाहिर था जो छात्र दंगे के समय रांची से दूर अपने घर लौट गए थे उनका परीक्षाफल अच्छा रहा । 18 छात्रो में 54 प्रतिशत के साथ मैं सबसे नीची पायदान पर रहा । बहुत ग्लानी और दुःख हुआ । छुप-छुपा कर मैं अपना मार्कशीट लेने गया ।
दूसरे सत्र का क्लास एक महीने बाद शुरू हुआ । इस एक महीने मैं एक तालाब की किनारे घंटो चुपचाप बैठा रहता था । अपने आक्रोश को शांत करता था और चुनौती स्वीकारने का तरीका सोचता रहता था । सत्र शुरू होने तक मैं बहुत कुछ संयत हो गया था ।
भौतिकी(फिजिक्स) को ऐसे ही सब विषयों का गुरु नहीं कहा गया है । मेरे सहपाठियों ने ऐसा कुछ भी नहीं किया जिससे मुझे दुःख या उदासी हो । पहले जैसे ही तपाक से मिले । पर मैं बदला हुआ था । हमलोगों का क्लास रूम 20/10 फीट का था जिसमे चार बेंचें दो कतार में रखी थीं । मैं पहले दिन दस मिनट पहले पहुँच कर कमरे के ठीक बीचो-बीच आगे की बेंच पर बैठ गया । अबसे यही मेरे बैठने का स्थान था । इसके दो फायदे हुए । लेक्चरर की निगाह बरबस मेरे पर रहती और प्रश्नों का उत्तर देने की आशा भी मुझसे रहती । दूसरे शब्दों में 100 प्रतिशत एकाग्रता ।

पढ़ाई के साथ-साथ मेरा विशेष प्रयोजन यह भी जानना था कि फर्स्ट आये लड़के नित्यानंद संतरा की तैयारी में क्या खूबियाँ थीं । एक अलगाव मैं मान कर चल रहा था । उसका दिमाग मैथमेटिकल था और मेरा एनालिटिकल । इसके अतिरिक्त मैं और कोई भी अड़चन दूर करने के लिए कृत-संकल्प था ।
नित्या अपनी ओड़िया बिरादरी के तीन लडको के साथ एक कमरा शेयर करता था जिसके लिए उसे दस रुपये महीने किराया देना पड़ता था । मैं कॉलेज से लौटते समय हफ्ते में दो बार उसके रूम में एक-आध घंटे बिताता था जिससे उसके तैयारी की जानकारी मिल सके । दो महीने लगे उसे खुलने में ।
नित्या सुबह दो लड़कों को ट्यूशन पढ़ाने के बाद कॉलेज आता था । शाम को पुनः दो लड़कों का ट्यूशन लेता था । छात्रवृति के 60 रुपये और ट्यूशन के 100 रुपयों से उसका खर्चा चलता था । फीस माफ़ थी । रात को बगल के मेस से भोजन के बाद वह चार पैसे में खरीदी गयी चार चारमिनार ब्रांड सिगरेट के साथ पढने बैठता था । १२ बजे रात के बाद जब नीद जोर पकड़ लेती या पढाई पूरी हो जाती तब सोता था । पांच बजे सुबह के पहले उठ जाता था । लिख कर रिवीजन करने या नोट बना कर रखने के लिए उसने नायब तरीका तय किया हुआ था । रात को वह मकान मालिक के लड़कों को पढ़ाने के बाद उनका पढ़ा हुआ अखबार अपने साथ ले आता था । उसपर वह पेंसिल से याद की गयी लेखों को लिख कर संपुष्ट करता था और दुबारे पेन से उसी अखबार पर लिख कर नोट बना लेता था । किताबें उसे लाइब्रेरी से मिल जाती थी ।
उसने मुझे परीक्षा में रॉयल ब्लू स्याही की जगह काली स्याही इस्तेमाल करने का परामर्श दिया । उसने यह भी कहा की ख़ास बातें अवश्य अंडरलाइन कर देनी चाहिए जिससे एग्जामिनर की फिसलती तेज नजर उस पर टिक जाए । उसने डायग्राम और ग्राफ बनाकर उत्तर को और ज्यादा प्रभावशाली बनाने की भी सलाह दी ।
मैंने वह सब किया जो संतरा करता था । मैंने अपने छोटे भाई-बहनों को पढ़ाना भी आरम्भ कर दिया । इससे विज्ञान के विषयों के प्रारभिक ज्ञान दृढ़ होते गए । यहाँ तक कि मैं रिवीजन के लिए पुराने अख़बारों का इस्तेमाल करता था और हाँ मेरे सिगरेट पीने का एक ये भी मुख्य कारण बना । इस बार फाइनल सत्र की परीक्षा के समय किसी तरह की घबराहट नहीं थी ।
रिजल्ट बताने मेरे दो सहपाठी मेरे घर आये । मैं सेकंड क्लास फर्स्ट आया था । मुझसे ऊपर नित्या फर्स्ट और तीन लड़के फर्स्ट क्लास में थे । मुझे इस सत्र में 65.3 प्रतिशत नम्बर आये थे। दोनों सत्र का नम्बर जोड़ने पर 59.4 प्रतिशत था ।

इस नतीजे ने मेरा नजरिया बदल दिया  । परिश्रम , भाग्य और दिमाग दोनों को शक्ति प्रदान करता है ।