1959 , अक्टूबर को हमारा परिवार
झुमरी तिलैया आ गया. 1961 फरवरी में मैंने स्कूल बोर्ड की परीक्षा यहीं से दी. दस
हज़ार आबादी वाले इस शहरी कसबे में एक सिनेमा हॉल था जहां पुरानी फ़िल्में दिखाई जाती
थी. एक राज्य सूचना केंद्र का फुटबॉल मैदान जहाँ हफ्ते में एक बार एक ही फिल्म
महीनों दोहराई जाती थी. कमाल ये कि तब भी दुनिया में इस शहर का नाम हिंदी फिल्मों
के चाहनेवालों की जुबान पर दर्ज था जो आजतक बरकरार है जबकि इस कमाल के जनक अब इस
दुनिया में नहीं रहे. अगर आप तब रेडियो सीलोन या विविध भारती सुनते होंगे तो अभी
तक “झुमरी तिलैया से रामेश्वर बरनवाल और नन्द लाल “ के नाम हरेक दिन कितने ही
फरमाईशी गीतों के साथ सुना होगा.
1960 में स्थापित पूर्णिमा टाकिज और
उससे सटे पान दुकान पर की भीड़ बरबस लोगों को अपनी तरफ खींच लेती थी. पान दुकान पर
नन्दलाल बैठता था और रामेश्वर उस दुकान के दायें कोने पर खींची तख्ती पर पोस्टकार्ड
रख फरमाईशें लिखता रहता था. यह कार्यक्रम दिनभर का था. नन्दलाल पढ़ाई छोड़ चुका था
और रामेश्वर तीसरी बार फेल होकर दसवी कक्षा में मेरे साथ आ गया था. वह कभी-कभी ही
क्लास में आता था पर कोई उसे कुछ नहीं रोकता-टोकता था. मुझसे दस वर्ष बड़ा, अभिभावक
की भांति मीठा पान खाने से भी मुझे रोकता था पर उसके दांत और मुंह पान की लाली से
हरदम लाल रहते थे. 23-24 वर्ष का होने के बावजूद वह हमेशा हाफ पेंट में ही रहता
था. प्यार से उसे लोग पोपट लाल कहकर बुलाते थे. पोपटलाल के नाम से फ़िल्मी हास्य कलाकर
राजेन्द्रनाथ अपनी बहुत सी फिल्मों में हाफ पेंट ही पहने एक्टिंग करता था. अभी रामेश्वर
जिन्दा होता तो बहुत-कुछ चरित्र कलाकार भगवान् की तरह दीखता. आज इन्टरनेट पर
जानकारी मिली कि उसका देहावसान 2007 में हो चुका था तब उसकी गिनती झुमरी तिलैया के
बिज़नस टाइकून के रूप में होती थी. झुमरी तिलैया कीमती माइका की खानों के मध्य बसा
पचा था. आज वहां फ़िल्मी गीतों की फरमाईश बहुतेरे क्लबो के मार्फत होती है.
पूर्णिमा टाकीज 1960 में मुगले आजम
फिल्म से उद्घाटित हुई थी. उस दिन सुबह-सुबह लगा कि स्वयम रेडियो सीलोन के अमीन
सयानी भोपूं लेकर शहर में प्रचार कर रहे
हैं. घर से बाहर आकर देखा कि एक सरदार सिख लड़का 20-22 वर्ष का ठीक अमीन सयानी की नक़ल कर रहा था. वह लड़का भी शहर के कोने-कोने में अपनी आवाज़ से काफी लोकप्रिय हो
गया.
यहाँ पहली बार पिताजी ने हमलोगों को
अंग्रेजी फिल्म “गॉडजिला” देखने के लिए पैसे दिए और बाद में बंगाली फिल्म “काबुलीवाला”
के लिए भी. पर तबतक हमलोग काफी हदतक फिल्मिया हो गए थे इतना कि उसका असर हमलोगों
की पढ़ाई पर जमकर पड़ा.
यहीं मैंने अपने जीवन की सबसे
बेहतरीन फ़िल्में देखी- “दो आँखें बारह हाथ” और “सुजाता”, जिनका जीवन पर आज भी असर
दिखता है. मुझे समाज के तिरस्कृत में भी प्यारी छवि दिखती है.