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Friday, May 18, 2012

जंगल 2


पिताजी एक कर्मठ और ईमानदार ऑफिसर ही नहीं थे ,उन्हें अपने कर्तव्य के पालन का ज्ञान भी था और आवश्यकता पड़ने पर उनकी बहादुरी उनका साथ देती थी. इंस्पेक्टर ऑफ़ माइका एकाउंट्स की हसियत से उनपर चोरबाजारी और अवैध माइनिंग व् व्यापार पर भी नकेल कसनी होती थी. उस समय करोड़ों (आज के समय का अरबों) का अवैध व्यापर होता था जिसमें मिनिस्टर तक सलग्न रहते थे.
एक दिन अचानक पांच बजे शाम को पिताजी ऑफिस से आते ही मुझे(१२) व् मनोज(१०) को तैयार हो जाने को कहा. वे इस तरह के टूर पर हम बच्चो को भी साथ ले जाते. इस तरह उन्हें हमलोगों को शिक्षित करने का सुअवसर मिल जाता. माँ से उन्होंने अपने लिए रोटी-सब्जी और हमदोनो, चपरासी व् ड्राईवर के लिए पराठे बनवाये. फोन कर ड्राईवर को जीप लेकर आने को कहा और आनन्-फानन इंस्पेक्शन के लिए रवाना हो गए. पिताजी जीप खुद चला रहे थे. जब जीप डैबौर डाक बंगलो पहुंची तब ड्राईवर और चपरासी को पिताजी के इरादे पर शक हुआ. पिताजी के लिखित आदेश के बावजूद माइका माफिया का अवैध खनन (माइनिंग) का काम चल रहा था. पर एक तो रात दूसरे जंगल का डर , अगर उन दोनों में से कोई भी खबरी था तो उसकी हिम्मत नहीं पड़ी.
हमलोगों ने खाना खाया और पिछवाड़े की दालान पर बिछी चौकी पर बैठ गए. चपरासी ने कहा था कि पिछवाड़े शेर और दूसरे जंगली जानवर आते है. दालान पूरी तरह ऊंचे तार के बाड़े से सुरक्षित था. एक-दो बार चपरासी हमदोनो को सोने के लिए कमरे में लिवा जाने के लिए आया भी पर हमदोनो ने कहा कि थोड़ी देर बाद हमलोग खुद आ जायेंगे. सियारों की आवाज़ तो रह-रह कर आ ही रही थीं, अब शेरों की दहाड़ गूंजने लगी थी. कभी-कभी जंगल में रौशनी की तरह जलती हुई आँखे दिखाई पड़तीं और पर हमलोग तय नहीं कर पाए कि कौन सा जानवर है. हमदोनो उसी चौकी पर कब सो गए पता ही नहीं चला. सुबह जब चपरासी हमदोनों को जगाने आया तो हमलोगों का आइसक्रीम बन चुका था. वैसी ठण्ड से फिर कभी सामना नहीं हुआ. सूर्योदय के पहले हमलोग अवैध खनन वाले खान पर पहुँच चुके थे . आधे घंटे बाद एक लिखित कागज को पिताजी ने पढ़ कर वहाँ मौजूद मुंशी को सुनाया , उसके दस्तखत लिए और जीप पर रवाना हो गए .
जब हमलोगों की जीप हाई वे के पास पहुंची तो मैंने पिताजी को बाँध के बारे में याद दिलाया . पिताजी ने जीप दाहिने मोड दी. बाँध पहुँचने  में आधा घंटा लगा. बाँध शायद शिवसागर बाँध था.वहाँ हमलोगों ने पन्द्रह मिनट बिताए.  उसके बाद एक ढाबे पर हमलोगों ने बिस्कुट और चाय ली. पिताजी को मैंने कभी भी खान मालिकों का खाना या नाश्ता स्वीकार करते नहीं देखा. बहुत आग्रह करने पर चाय पी लेते थे .
हमलोगों की जीप जैसे ही घाटी से उतर कर समतल सड़क पर आई, एक बड़ा हादसा देखने को मिला. जीप को किसी ट्रक ने बड़ी जोर का धक्का मारा था. जीप में सवार दोनों आदमिओं की घटनास्थल पर मौत हो गयी थी. पिताजी ने पास के थाने पर खबर की. उसके बाद घर पहुंचते १० बज गए. पिताजी हमलोगों को उतार कर वापिस ऑफिस चले गए.
पिताजी की रिपोर्ट पर उन्हें मंत्री ने पटना बुलाया . पिताजी जब लौट कर आये तो उनके हाथ में तबादले का आर्डर था.
अभ्रख व्यापार में बहुत पैसा था. इंस्पेक्टर काला धन बटोरते और ऊपर के लोगों को उनका हिस्सा पहुंचाते. पिताजी ये सब नहीं करते थे. साथ ही जब भी कोई बड़ा ऑफिसर या मंत्री आता तो उनकी खातिर भी उनलोगों के मन लायक नहीं करते . पटना सेक्रेटेरियट में बैठे इंडस्ट्री/माइन के सेक्रेटरी ने बड़ी इज्ज़त से तबादले का आर्डर थमाया .उन्होंने कहा की ये जगह उनके लायक नहीं थी और नयी जगह पर उन्हें १०० रुपये डेपुटेशन और ७५ रुपये प्रोजेक्ट भत्ते के रूप में अलग से मिलेंगे . गुड बाय कहते समय सेक्रेटरी ने यह भी कहा कि उस हादसे वाली जीप में आपको होना था पर आपने पहुँचने में देर कर दी.
पिताजी ने उसी महीने फरवरी में ही रांची के हैवी इंजीनियरिंग कारपोरशन ज्वाइन कर लिया. परिवार, घर मिलने के बाद अप्रैल में रांची आया.




अविस्मरणीय अनुग्रह नारायण पथ

On the streets, unrequited love and death go together almost as often as in Shakespeare.
Scott Turow
पटना स्टेशन से दो किलोमीटर पूर्व ये कदम कुआँ मोहल्ले की अग्रणी सड़क थी. इस सडक में कदम रखने के पहले चौरस्ते के उत्तर में बाकरगंज और दक्षिण में लोहानीपुर इलाका था. ये ४०० मीटर की सडक के अंत में मशहूर कांग्रेस मैदान था. जिसके बाद खादी ग्रामोद्योग का विस्तार और उसके बाद भारत के पहले राष्ट्रपति डा० राजेन्द्र प्रसाद के दो बेटों का सटा हुआ विशाल घर था. कुछ आगे बढ़ने पर स्वर्गीय जय प्रकाश नारायण का घर और सर्वोदय आश्रम था. ये सड़क बिहार स्वंतंत्रता सेनानी और पहले उप मुख्य मंत्री दिवंगत श्री अनुग्रह नारायण सिंह के नाम पर रखा गया था जिनका जुड़वा घर सड़क के अंत में दाहिनी तरफ था. पूरी सड़क मशहूर लोगों से शोभित थी.
वह चौरास्ता, जिसकी पूरब की और जाने वाली सड़क का मैं जिक्र कर रहा हूँ, भी काफी मशहूर था. पिंटू होटल का रसगुल्ला, भगवती का लेमोनेड, चाय और उसकी बिना छत वाली दूकान में गजेड़िओं की जमात,, रघुनी की सब्जियां, सीताराम की राशन की दूकान , किशोरी की पान व् भांग की गुमटी, और मन्नुलाल हलवाई की जलेबी और कचौरियां भला भुलाए भूल सकती है ? सिर्फ दो आने(१२ पैसे) में चार जलेबियां, चार सादी कचौरियां जिसके साथ जायकेदार सब्जी और कद्दू का रायता मिलता था
सड़क में कदम रखते ही बाईं तरफ लड्डू बाबु वकील का विशाल लाल घर था जहाँ उनकी डरावनी माँ हर वक्त ऊपर की खिड़की से झांकती मिलती थी .एक बार एक लड़के ने उस घर के अंदर जाकर फूल तोड़ने की हिम्मत की थी. उस महिला ने पानी पटाने वाले झरने को फेंककर उसे मारा था. उस लड़के की कोहनी लहू-लुहान हो गयी थी. उसके बाद पाटलिपुत्र हाई स्कूल के लड़कों ने घुसकर बहुत तोड़-फोड मचाया था. पुलिस नहीं आती तो मालूम नहीं क्या होता.
थोडा आगे बढ़ने पर दाहिनी तरफ का दूसरा मकान श्री लाल नारायण सिन्हा का था. वे बाद में भारत के सोलिसिटर जेनेरल हुए और उनका लड़का विजय १९५८-५९ में मुझसे ५ साल बड़े रहें होंगे. दीवाली में , वे बन्दूक की नाल पर आसमान तारा ( रॉकेट)  रखकर बुल्लेट दागते थे .आसमान तारा आसमान से बातें करता , रंग बिखेरता था.
उनसे सटा घर खान बहादुर असगर अली खान का था. विशाल मुगलिया शैली में बनी तीन मंजिला हवेली में वे और उनके रिश्तेदार ५ परिवार रहते थे. उनके घर मुर्गा पाला और खाया जाता था इसलिए हम बच्चों का वहा जाना मना था. ये हवेली ठीक हमलोगों घर के सामने थी जिसमे हमलोग किरायेदार थे . उस घर का एक लड़का आबिद मेरे साथ पढ़ता था. कंचा गोली, लट्टू, पिट्टो और खासकर पतंग बहुत अच्छी उडाता था. अब भला मेरा आना-जाना कैसे रुकता. बकरीद में बकायदे उनके घर से बकरे का गोश्त आता पेड़ के पत्तों में लिपटा कर जिसे मेरी दादी थोड़ी देर बाद हमलोगों के चपरासी इब्राहीम को दे देती.  उनलोगों ने कभी मुझे कुछ भी खिलाने-पिलाने की कोशिश नहीं की. हाँ, आबिद के चचाजान मुझसे मजाक जरूर किया करते. कहते परकाश क्या तुम डीम (अंडा) खाओगे या कहते की शामी कवाब बहुत अच्छा बना है थोड़ा चखोगे ? एक दिन उनके घर भयंकर चोरी हुई. खोजी कुत्तों को बुलाया गया था पर कुछ सुराग नहीं मिला. उसके बाद बहुत से खासकर पीछे के दरवाजों को बड़ी-बड़ी कील ठोक कर बंद कर दिया गया. हम बच्चो को इससे ये परेशानी हुई की अब हमलोगों को  हलके पाँव सामने के दरवाजे से ही ऊपर छत पर पतंग उड़ाने जाना पड़ता. १९५८ में वे सभी पूर्वी पाकिस्तान (जो अब बंगलादेश है) चले गये. आबिद कहता था की वहाँ उनलोगों की बहुत बड़ी हवेली है और बहुत जमीन है.
उसी घर के जमीनी तल्ले के आगे के हिस्से में जन संपर्क विभाग का राज्य सूचना केन्द्र खुला था. मैं वहाँ तरह-तरह की साप्ताहिक, मासिक हिंदी व् अंग्रेजी पत्रिकाएं पढ़ने हर रोज शाम को जरूर जाता था. दैनिक हिंदी और अंग्रेजी अखबारों में क्रिकेट से सम्बंधित खबरे बड़े चाव से पढ़ता था. एक शाम वहाँ मशहूर रंगमंच और फिल्म के कलाकार पृथ्वी राज कपूर अपने दल के साथ आये थे. उन्होंने भाषण दिया था जिसमे ज्यादा तारीफ उनके बड़े लड़के राज कपूर की थी जो उस समय तक अपनी फिल्म “आवारा” के कारण रूस तक में लोकप्रिय हो गया था. बाद में उन्होंने एक नाटक का मंचन किया और कुछ गाने गाये. केन्द्र ने सभी क्रियाकलापों की टेप रिकॉर्डर से रिकॉर्डिंग कर सभी को सुनाया जो हमलोगों के लिए एक नया अनुभव था. केंद्र प्रत्येक शुक्रवार को १६ मिलीमीटर प्रोजेक्टर से समाचार और कभी-कभी फिल्म दिखाया करता. “हमलोग” और “जलदीप”  कई बार दिखाया गया जिसके कारण मुझे भी एक-दो बार देखने का अवसर मिला.  “हमलोग” देवानंद की पहली फिल्म थी. शाम के बाद की गतिविधि पिताजी के घर से बाहर गए रहने पर ही सक्रीय होती थी.
मेरे घर के बाएं जज मदन मोहन प्रसाद रहा करते थे जिनका लड़का क्षितीज( मुन्ना) मुझसे तीन क्लास ऊपर मेट्रिक में था. हमलोग उनकी मम्मी को मम्मी कहकर ही बुलाया करते थे. एक बार, एक मेहतरानी का ५ साल का लड़का चारदीवारी से झाँकते गुलाब के फूल को तोड़ते हुए जज के हाथों पकड़ा गया. जज ने उस लड़के को एक जोरदार चांटा मारा. लड़के ने छूटते ही माँ-बहन की गाली दे डाली. उसके बाद तो रोते हुए बच्चे के मुंह से गालियों की बौछार और जज के चप्पल की गूँज से भीड़ जमा होने लगी. लड़के की माँ जज को छू नहीं सकती थी इसलिए वह भी चिल्ला-चिल्ला कर जज को मारने से रोक रही थी. तभी मेरे घर के पिछले हिस्से में रहने वाले शीतल चाचा जिन्हें हम सभी छोटे-बड़े आदर से गांधीजी कहकर बुलाते थी वहाँ आ गए . उन्होंने जज साहब को समझाया कि उस लड़के को अपना संस्कार सुधारने में समय लगेगा पर आप तो समझदार और विद्दवान हैं. उन्होंने जज का हाथ पकड़ कर करीब-करीब घसीटते हुए वहाँ से हटा दिया. वह समय सर्विस लेट्रिन का था. सब मैला कमाने वाले धीरे-धीरे जज के घर के सामने जामा होने लगे. अंदेशा था की वे लोग मैले से भरी बाल्टियाँ जज के घर पर फेंकेंगे. मेरे पिताजी (जो उस समय पटना मुनिसिपल कोरपोरेशन के वरिष्ठ अधिकारी थे) के मध्यस्थता पर मामला शांत हुआ. तब भी दूसरे दिन तडके जज साहब के गेट के अंदर किसी ने दो बाल्टी मैला उलीच ही दिया था.
मेरे घर के पीछे के हिस्से में पहले से एक कमरे में 70 वर्षीय शीतल प्रसाद सिंह ( गाँधीजी ) रहा करते थे. उनका पोता कामेश्वर मेरे साथ पढ़ता था. सुबह पांच बजे जब कभी मैं जल्दी उठ जाता तो कामेश्वर को जाड़े की कपकपाती ठण्ड में भी नहाकर मात्र एक पतला गमछा लपेट कर चौकी पर खड़े होकर पूर्व की तरफ हाथ जोड़े गायत्री मन्त्र का पाठ पढते पाता. जब परीक्षाफल निकला और मै पास हो गया तो मेरे घर सब बहुत खुश थे. शाम को जब खेल के घर लौटा तो देखा की कामेश्वर अपने बाबा के हाथों पिट रहा था . मालूम हुआ उसे हिसाब में 100 में 96 अंक मिले हैं. मुझे मात्र ४१ मिले थे. गांधीजी केवल शाम को जलती लकड़ी पर मोटी रोटियां और अरहर की गाढ़ी दाल बनाते. दाल में नमक नहीं डालते क्योंकि उन्हें गंभीर हाई ब्लड प्रेशर की शिकायत थी. हम सभी बच्चे हर शाम उनसे आधी-आधी रोटी और उसपर एक चम्मच दाल की अपेक्षा रखते.  बहुत बाद में 1988 में जिस 20000 कामगारों वाले कारखाने में मै उस समय मैनेजर था वहीं कामेश्वर किसी कोने में टाइम कीपर क्लर्क था. बचपन में जिसे भगवान श्री राम की भूमिका मिलती थी आज वही बुरे व्यसन से लिप्त था.
सबसे जानदार घर मेरे घर से बायीं तरफ तीसरा, मशहूर वकील श्री अवधेश नंदन सहाय का हुआ करता था. 15-20 कमरों वाले घर में उनके बड़े भाई, तीन बेटे और एक बेटी पूरे परिवार के साथ रहते थे. कम से कम 35-40 जन रहते होंगे. उनकी खाँसने की आवाज़ 150 मीटर दूर मेरे घर तक आती थी. बहुत बाद में जब मैंने फिल्म कलाकार हरिन्द्र नाथ चट्टोपाध्याय को देखा तो एकदम लगा की उनकी शक्ल वकील नाना से मिलती है. उनका नाती और  मेरा दोस्त बसंत मेरी क्लास में पढ़ता था. कहा जाता था की आसाम से जब किसी केस को जीत कर आये थे तब दो बड़े बक्से में नोटों का बंडल भरकर साथ लाए थे. उस समय का सबसे दामी सिगरेट मैक्रोपोलो पर उनका नाम प्रिंटेड रहता था. वे चेन स्मोकर थे. उनका बेटा रमेश बिहार बैडमिंटन का चैम्पियन था. बसंत की नानी जिनका नाम श्रीमती सावित्री देवी था, जयप्रकाश नारायण के बहुचर्चित और बिनोवा भावे द्वारा गठित सर्वोदय आश्रम की संचालिका थीं. जयप्रकाश जी जब भी पटना आते तो वे सहाय साहब के घर ही ठहरते. एक बार जब जयप्रकाश जी का काफिला आया था तब इनके घर मुर्गों की चीख-पुकार से माहोल गरमा गया था.
इनके घर एक बार बहुत रोने की आवाज़ आई. मालूम हुआ की उनके बड़े भाई का देहांत हो गया है. उनके तीन लड़के हरीश, सत्येन्द्र और वीरेंद्र क्रमशः अजय भैया , मेरे व् मेरे छोटे भाई मनोज के साथ पढते थे. कुछ दिनों बाद तीनों लड़के न तो खेल के मैदान में दीखते और न तो स्कूल में. सहाय साहब ने अपने बड़े भाई के परिवार को अपने घर से हटा दिया था. कुछ दिनों के बाद, जब एक दिन मेरे घर की नौकरानी नहीं आई तो माँ ने मुझे उसके घर जानकारी लेने को भेजा. उसी नौकरानी की गली में मुझे सत्येन्द्र दिखा. रोकर उसने बताया की वह उसी गली में एक झोपड़ी में रहता है. पढ़ना तो दूर खाने के लिए घर में कुछ भी नहीं था और बनिए ने भी उधार देना बंद कर दिया था. मैंने ये सब बातें घर लौटकर माँ को बतायीं. उस दिन से समय-समय पर जो बन पड़ता उतना चावल और दाल माँ हमलोगों के हाथ या नौकरानी के द्वारा भेजती रहती थी. कुछ महीनों बाद पिताजी का तबादला झुमरी तिलैया हो गया. १९७८ में हरीश रांची से ४० किलोमीटर दूर एक कार गैरेज में काम करता मिला. उससे मालूम हुआ की रांची में ही सत्येन्द्र सिनेमा के टिकेट ब्लैक में बेचते समय छुरे से मार डाला गया.
सहाय साहब के बाएं अलंकार ज्वेलर्स का घर था  जिनकी अब भारत में कईं जगह आउटलेट्स हैं. सामने तत्कालीन एडवोकेट जेनेरल श्री महावीर प्रसाद रहते थे. हमलोगों का मोहल्ले का रिंग लीडर गौरीशंकर का विशाल घर उनसे सटा हुआ था. एक सुबह हमारी सड़क पर घोड़ागाड़ी ( विक्टोरिया) आई. घोड़े की टाप हम सभी भाइयों को गेट के बाहर ले आई. वह विक्टोरिया गौरी के घर के अंदर चली गयी. कुछ देर बाद जब वह लौटी तो साईस की बगल में गौरी कि बूढी दादी बैठी थीं और पीछे हूड पर सफेद कपडे में आदमकद कुछ लिपटा पड़ा था. सभी लोग सड़क पर निकल कर उस विक्टोरिया को सहमे हुए देख रहे थे. उस दिन मुझे एक ट्रेजिक लव स्टोरी के बारे में मालूम हुआ. गौरी के सबसे छोटे चाचा विलायत से एम्०एस० पास करके जब लौटे तो उन्हें मालूम हुआ कि महावीर प्रसाद की लड़की की उनसे छिपाकर शादी कर दी गयी है. उन्होंने रात को जहर खा लिया था. घर में कोई सयाना नहीं था इसलिए दादी ही लाश को पोस्टमोर्टेम के लिए ले जा रही थीं. 
उस शादी का ज़िक्र हमलोग करते रहते थे क्योंकि शादी बड़ी धूमधाम से की गयी थी. बरात के आगे सजे हाथी, बारात के आगे और पीछे पटना का सबसे मशहूर मिलिटरी बैंड और मूसा बैंड. हवाई जहाज से फूलों की बरसात. आतिशबाजी जो खत्म होने का नाम ही नहीं लेती थी.
सबसे यादगार बारातें डा० राजेन्द्र प्रसाद की दो पोतियों की दिखी थी. करीब आधा मील लंबी बारात जिसमे पांच हाथी आगे और उनके बीच में तीन ऊँट . तीन-तीन बैंड जिसमे तीसरा पंजाब बैंड था. राष्ट्रपति का काफिला जिसे ऊंचे-ऊंचे घोड़े सजे हुए सवारों के साथ लंबी शेवरलेट गाडी को घेरे झंडों को हाथ में लिए चल रहे थे. राष्ट्रपति स्वयं बारात की आगवानी हमारी सड़क के एंट्री पॉइंट से कर रहे थे.
एक और शादी का ज़िक्र मैं करूँगा. आबिद के घर के बाएं बगल का घर हमेशा खाली ही रहता था. निगरानी के लिए एक गोविन्द नाम का नौकर रख छोड़ा था. उस घर में अमरुद के पेड़ थे इसलिए हमलोगों ने गोविन्द से दोस्ती गाँठ ली थी. वह बंगाली था और जब कभी मूड में होता था तो बहुत अच्छे-अच्छे चुटकले, कहानियां और जानवरों की आवाजें सुनाता था. वह बाउल गीत(बंगाल का लोकप्रिय लोकगीत) भी बहुत सुरीली आवाज़ में गाता था. एक दिन दोपहर को उस घर के पिछवाड़े बहुत हंगामा होने लगा. हमलोगों को लगा कि बच्चों का कोई बाहरी झुण्ड अमरुद तोड़ते पकड़ाया है. जब हमलोग पिछवाड़े पंहुचे तो देखा के गोविन्द को बहुत से औरत-मर्द घेर कर बहस कर रहे हैं. ज्यादातर लोग गन्दी गालिया दे रहे थे और गोविन्द के साथ धक्का-मुक्की कर रहे थे. भीड़ डोमों की थी. बीडी पीने की बहुत बुरी गंध आ रही थी. तभी एक काली पर बहुत सुंदर लड़की बीडी पीते हुए पिछवाड़े के दरवाजे से बाहर निकली. उसके दांत चोकोलेटी काले. वह तीन दिनों से घर से भागकर गोविन्द के साथ रह रही थी. बड़े जनों ने हम बच्चों को वहाँ से भगा दिया. देर रात तक उस घर से हँसने-गाने की आवाज़ आती रही. सुबह मालूम हुआ. दोनों की शादी कर दी गयी थी.
लिखने और बताने को तो और भी बहुत कुछ है. पर सुनने और पढ़ने वाले को आज के टाइम मैनेजमेंट में समय कहाँ है. अंत में मैं कांग्रेस मैदान का जिक्र इसलिए करूँगा क्योंकि वहाँ शाम को संघ के राजेंद्र सिंह जी आते थे और एक घंटे खेलते-खिलाते थे. संस्कृत का श्लोक याद कराया जाता . अन्ताक्षणी  और रूमाल-चोर जैसे रोचक खेल उन्होंने ही सिखाए. उनके ओजपूर्ण व्यक्तित्व से मैं बहुत प्रभावित हुआ था.

खेल की दुनिया


 We don't stop playing because we grow old; we grow old because we stop playing.
George Bernard Shaw
 मशहूर बैरिस्टर श्री राधा रमण प्रसाद का बंगला जिसका पूर्वी हिस्सा लान टेनिस के मैदान जितना बड़ा, स्कूल खत्म होते ही बच्चों से भर जाता था. ८ वर्ष से १२ वर्ष के बच्चे गर्मी में फुटबाल , जाड़े के दिनों में क्रिकेट खेला करते. जब कभी घर की खिड़की का शीशा टूटता या किसी बुजर्ग को चोट लग जाती तो पूरी जमात सामने के घर शिफ्ट कर जाती जिसमे हमलोगों का बॉस सहपाठी गौरी शंकर लाला(उम्र १४, कद ५ फीट ५ इंच) रहता था. उसको हमलोगों की जमात में आने के लिए दो-तीन बार फेल होना पड़ा होगा.
गौरी बड़े लड़कों के ग्रुप का सरगना था जिसमे मेरे बड़े भाई, मोहन जो अब अलंकार ज्वेलर ग्रुप का मालिक है, तथा रमेश, हरीश इत्यादि थे. हम छोटों के ग्रुप का लीडर अनिल था जिसमे हमलोग सभी एक क्लास में हमउम्र थे, जैसे बसंत, गोपाल, अशोक, सत्येन्द्र, रमेश, अमर, मदन,  .
गर्मी की छुट्टियों में हमलोगों का जमावड़ा सुबह से ही शुरू हो जाता. हमलोगों की दिनचर्या हमलोगों के पिताजी तय करते. जितनी देर वे लोग अपने-अपने काम पर निकले होते उतना समय हमारे खेलने का होता. गर्मी में ऑफिस सुबह का होता इसलिए सुबह ६ बजे से २ बजे दोपहर तक की तो पूरी आज़ादी थी. उसके बाद चार बजे शाम से लेकर ७ बजे अँधेरा होने तक हमलोगों का मान्य खेलने का समय होता. इस आज़ादी का असर हमारी पढाई पर अवश्य पड़ता था. विशेषकर हमारे घर में माँ को चूल्हे-चौके से ही फुर्सत नहीं मिलती और हमलोगों की शरारतों से छुटकारा उसे कुछ राहत तो अवश्य देती.
हमलोगों का प्रिय खेल क्रिकेट था. हमलोगों ने बढ़ई से एक कामचलाऊ बैट बनवाया था. खेला हुआ टेनिस का बाल ५० पैसे में मिल जाता था जो एक महीने चलता था. विकेट ईंटों को एक के ऊपर एक रखकर बनती थीं. लेग साइड सड़क को रखा जाता था जिससे तेज मारी हुई गेंद दूर तक जाये और इसमें घर के शीशों के टूटने का डर भी कम रहता था. मेरी उम्र के लड़के को अंडर-हैंड बालिंग की सहूलियत मिलती थी. विकेट टू विकेट १५ गज के फासले से काम चला लिया जाता था. बाद में शायद एक साल बाद हमलोगों ने बढ़ई से चार स्टैंडर्ड साईज के विकेट बनवा लिए थे. जब कभी शीशा टूटने या हल्ला ज्यादा होने की वज़ह से क्रिकेट खेलने की मनाही हो जाती तो हमलोग कोई दूसरा खेल खेलते.
आस-पास हमलोगों का दूसरा सबसे प्रिय खेल था. इसे साल के किसी भी दिन और दिन के किसी भी समय खेला जा सकता था. हल्ला भी कम होता था. सबसे ज्यादा रोमांच खेल में दिलेरी दिखाने में था. खतरनाक जगहों में छिपना, ऊंचाई से कूदना, बिल्ली जैसे धीमे पाँव से तेज पर बिना आवाज़ के पीछा करना, बाज़ कि तरह झपट्टा मारना और बड़े ताकतवर विरोधी को पानी पिलाना इस खेल को बहुत चुनौती भरा बना देता था. इस खेल में मुझे बहुत शाबाशी मिलती थी. पर बुजुर्गों से नहीं. उन्हें मालूम पड़ गया था की जो लड़कों में सबसे छोटा है वही सबसे बदमाश है . कार के बोनेट में भी छिप जता हैं और भूतहे तहखाने का रास्ता भी उसी ने दिखाया था. कुछ तो मुझे बदमाश प्रकाश भी कहते थे. आज भी दादा-नाना हो गए मेरे साथी अपने घर के बच्चों को आस-पास की कहानियाँ सुनाया करते हैं जिसका नायक स्वत मैं ही होता हूँ. कुछ ने तो मेरे बचपन का फोटो भी मांगा है, दिखाने के लिए.
फुटबाल खेलने का मौसम गर्मी में आता .गर्मी में हमलोगों को गर्म हवा से बचाव के लिए केवल शाम को ही निकलने दिया जाता था . उतने कम समय में फुटबाल खेलने में पूरा आनंद आ जाता. और अगर पानी भी बरसता हो तो सोने पे सुहागा.
गर्मी से एक और बात याद आई. सुबह का स्कूल हुआ करता और हमलोगों के लौटने के रास्ते की लम्बाई बढ़ जाती. हमलोग गंगा नदी में भरपूर नहा कर ही लौटते. लौटते वक्त घाट के किनारे रिक्शावाले और ठेलेवाले झोपरीनुमा ढाबे में जमीन पर बैठ कर सत्तू ( भुने हुए चने का आटा) खाते दीखते. उस समय तक हमलोगों को भी बड़े जोर कि भूख  लगी होती.  मुंह से लार टपकने लगती. मालूम हुआ दो आने थाली मिलती है पर हम बच्चो को एक आने (६ पैसे) वाली थाली से हो जायेगा. दूसरे दिन हम सभी पैसे लेकर आये. गंगा में नहाकर सत्तू खाने लाइन से बैठ गए. पीतल की एक फुटिया थाली के बीच में सत्तू का पहाड. हाँ उसे सत्तू का पहाड ही कहा जायेगा. आधा किलो सत्तू , नमक, पांच-छ लंबी हरी मिर्च,सरसों तेल की डिबिया, निम्बू और एक लोटा पानी. हम पांच जनों में किसी ने ही १०० ग्राम खाया होगा. सत्तू परोसने वाली माई हमलोगों पर बहुत नाराज हुई क्योंकि हमलोगों ने उम्र के हिसाब से बहुत कम खाया था और बहुत झूठा कर छोड़ दिया था. बाद में, हम लोगों ने लौटने का रास्ता ही बदल दिया क्योंकि वह माई जब भी हमलोगों को देखती वह खानेवालो को हमलोगों की तरफ इशारा करके हसती. आजकल सत्तू ५० रुपये किलो मिलता है.
एक खेल हमें और अच्छा लगता था . दोल-पात जिसमे एक डंडे को दूर फेंका जाता है और जब तक उसे लाया जाता है बाकि लड़के पेड़ पर चढ जाया करते हैं. चोर को किसी एक को छूकर डंडे तक पहले पहुचना होता है. इसे, गिल्ली-डंडा और लट्टू को हमलोग तब खेलते थे जब सभी विकल्प किसी वजह से या मन भर जाने से खत्म हो जाते थे.
जब शराराती बच्चों के पास इतना वक्त हो तो क्या नहीं खेला या शौक पूरा नहीं किया जा सकता? आजकल के बच्चे जो शरारत के नाम पर आड़ी-तिरछी तेज रफ़्तार से बाइक चलाते हैं या स्कूली दिनों में ही सिगरेट पीने लगते हैं और गर्ल फ्रेंड की बातें करते हैं उनसे मैं कभी-कभी पूछता हूँ कि क्या वे कभी पेड़ पर चढें है अथवा २० फीट की ऊंचाईं से नदी या पोखर में कूदे हैं. गिल्ली-डंडा का खेल खेलते तो मैंने केवल पुणे के मुसलमानी मोहल्ले में देखा है. दोल-पात, आस-पास, लट्टू, चोर-सिपाही, कैरम बोर्ड- लूडो जैसे मजेदार खेल तो हमारी धरती से ऐसे लुप्त हो रहे हैं जैसे पक्की छत हो जाने पर गोरैया या शहर से खेलने के मैदान. इसके लिए मीडिया शायद सबसे बड़ी दोषी है. मैंने ७० के दशक में एक किताब पढ़ी थी “ SPACE ODESSEY -2001”. उसमे अंत में यह लिखा गया था की दिमाग से ज्यादा और शरीर से नहीं के बराबर काम करने के चलते आने वाली पीढ़ी का सर बड़ा और कद छोटा होता चला जायेगा. हमारे पूर्वज सात-आठ फीट के हुआ करते थे. राणा प्रताप का ८० किलो का भाला और १२ फीट लंबी लोहे की अचकन ग्वालियर के अजायबघर में रखी है.
1959 आते-आते हम लोग बकायदा मानक बैट और बाल से पैड और ग्लोव्स पहन कर २२ गज के स्ट्रिप पर क्रिकेट खेलने लगे थे. अजय भैया, गौरी और अनिल का स्कूल की टीम में सेलेक्शन हो गया था. मैं अपने क्लास से खेलता था. पर तेज आती हुई क्रिकेट की बाल की फील्डिंग से घबराता था. कितनी बार मुझे गेंद के पीछे भागते रहने और गेंद को नहीं पकडने के लिए फटकार मिली थी. तब टेस्ट मैच मानक का पांच सितारा क्रिकेट बाल ३ रुपये पच्चीस पैसे में आता था और अच्छे से अच्छा बैट ५०-८० तक में मिल जाता था. हमलोग २५ रुपये वाले बैट से खेलते थे.
१९५९ के अक्टूबर माह में पिताजी का तबादला झुमरी तिलैया हो गया. ये एक कस्बाई जगह थी , पटना से बहुत छोटी. खेलने के मैदान के नाम पर हमारे स्कूल का फुटबाल का मैदान था जहाँ लायंस क्लब के कुछ मेम्बर रविवार को क्रिकेट खेला करते. खेलने वाले ६-७ जन ही थे इसलिए हमलोगों को उनलोगों ने हाथो-हाथ लिया. हम भाईयों का खेल देखकर वे दांग रह गए. अगर उस वक्त वाहन कोई समाचार पत्र होता तो उसमे हम बच्चों के खेल की तारीफ जरूर छपती.

जंगल - 1


पटना शहर के आस-पास जंगल के नाम पर कुम्हरार इलाके में सम्राट अशोक के ऐतहासिक अवशेष थे जिसके कारण उस इलाके को वैसा का वैसा रहने दिया गया था. जंगल से हमारा औपचारिक परिचय झुमरी तिलैया प्रवास के दौरान हुआ.
१९५९ अक्टूबर में, जब हमलोग झुमरी तिलैया आये तब मेरी उम्र १२ साल थी और मेरे छोटे भाई की उम्र ११ साल.  झुमरी तिलैया १ मील लंबे और उतने ही चौड़े एरिया में अवस्थित था. हमारे घर से २ फर्लोंग पूरब में जन संपर्क विभाग था जहाँ खेलने का मैदान , पुस्तकालय और हफ्ते में एक दिन कोई हिंदी डाक्यूमेंटरी या फीचर फिल्म दिखाई जाती ज्यादातर दोबारा /तिबारा . पश्चिम की तरफ करीब पौन मील पर कोडरमा स्टेशन और उसके थोड़ी दूर पर वृन्दावन सिनेमा . बाद में हमारे घर के पास भी पूर्णिमा टाकीज खुली जहां से रोज वही फ़िल्मी गाने शो शुरू होने के पहले और बाद में लाउडस्पीकर पर बजाया जाता. दक्षिणी सिरे पर हमारा स्कूल था . उत्तरी इलाका श्मशान घाट और एक टेनिस कोर्ट जितने पोखर से शोभित था. उसके और उत्तर तथा उत्तर-पूर्व में घना जंगल था जो हमलोगों को हर सुबह आमन्त्रित करता सा लगता. शाम होते ही शेर की हुंकार और सियारों की हुआ-हुआ हमलोगों को जल्दी घर के सुरक्षा के घेरे में बंद होने को मजबूर कर देती. पर ये आवाजें हम बच्चों को रोमांचित कर देती और ऐसा लगता जैसे जंगल का अन्वेषण करने को आमन्त्रित कर रही हो. जंगल का सरहद हमारे घर से आधे मील उत्तर से ही शुरू हो जाता था.
हमलोगों से मेरा मतलब मै और मेरा छोटा भाई मनोज. बड़े भाई तो तीन महीने बाद कॉलेज की पढ़ाई करने हजारीबाग के सेंट कोलम्बस कॉलेज चले गए थे. जहाँ शरारत और खतरे से दो-चार करने की बात होती वहाँ दोनों में से एक को बस पहल करनी होती थी दूसरा सदैव तैयार मिलता था. पिताजी सप्ताह में दो दिन तो अवश्य टूर पर रहते. इन दो दिनों में हमलोगों को सुबह पांच बजे से रात के नौ बजे के बीच काफी शरारत करने का अवसर मिल जाता.
हमलोगों का घर से बाहर का पहला पड़ाव पोखर बना. हमारे काली मंडा मोहल्ले में बस एक हमारे और मेहरा अंकल के सिवा १०० जनों का मोहल्ला पूरा बंगाली था इसलिए पोखर को पूरा सम्मान मिलता. सुबह के समय औरतें और लड़कियां वहाँ बर्तन-कपडा धोने और नहाने इकठ्ठा होती. दोपहर को बच्चे और बड़े बंसी लेकर मछली पकडते जो शगल शाम तक चलता. गर्मी के दिनों में सुबह का स्कूल हुआ करता और सभी लड़के पोखर में नहाते और हल्ला मचाते. हमलोगों ने इसके पहले न तो पोखर में नहाया था और न तो मछली ही पकड़ी थी. मौला मिला नही कि हमलोग पोखर के किनारे होते. डेढ़ साल के तिलैया प्रवास में मैं मछली पकड़ने में और मनोज तैरने में प्रवीण हो चुके थे.
हमलोगों के इस शौक में हमारा कुत्ता पप्पी भी पूरी तरह शामिल हो जाता . सेंट बर्नाड की नस्ल का गेरुए रंग का नेपाली कुत्ता बहुत अच्छा तैराक था . उसे उसके पुराने मालिक हमलोगों के पास छोड़ गए थे ,जिसकी जगह पर पिताजी की पोस्टिंग हुई थी . पप्पी में बस एक खराब आदत थी . अगर किसी ने उसे फटकार दिया या पत्थर दिखला भर दिया तो उसे काटे बिना नहीं छोडता था. कहते है उसने एक बार किसी सांसद को काट लिया था जिसके चलते विधान सभा में वह चर्चा का विषय बन गया था. हमलोगों के लाख सावधानी के बावजूद उसने एक साल में १० का रिकॉर्ड बना ही लिया .
झुमरी तिलैया बस तीन बातों के लिए जाना जाता था. एक तो अभ्रख का खनन व् तराशने के लिए पूरे विश्व में और दूसरे रेडियो पर फरमाईशी फ़िल्मी गीत के लिए पूरे भारत में. उसमे सबसे लोकप्रिय रामेश्वर नाथ बरनवाल उर्फ पोपट लाल तीसरी बार फेल होकर मेरे क्लास में पहले से मौजूद था. तीसरा सबसे अहम था उसकी विशाल प्राकृतिक धरोहर ; चारो तरफ घने जंगल और उसमे तरह-तरह के जानवर, पक्षी तथा पेड़-पौधे.
जंगल का डर पिताजी ने ही मिटाया. हजारीबाग नेशनल पार्क हजारीबाग जाने के रस्ते पर पड़ता था जहाँ पिताजी का हेड ऑफिस हुआ करता था. उन्हें महीने-दो महीने में एक बार वहाँ जाना पड़ता था . वे जब भी जाते मुझे साथ ले जाते और ज्यादातर दिन का खाना वे नेशनल पार्क के किसी वाच टावर पर बैठ कर खाते. टॉवर ३ जंगल के काफी अंदर था और उसके सामने एक पतली नदी बहती थी. वहाँ शाम को जानवर पानी पीने आते थे. पहली बार ही मैं टॉवर पहुँचने पर नदी के किनारे चला गया .पिताजी भी खाना खाकर वहाँ आये. मैंने उन्हें शेर के पंजे का निशान भींगे बालू पर दिखाया. इतना उन्हें इम्प्रेस करने के लिए काफी था. इसके बाद ही वे जहाँ कही भी जीप से दौरे पर निकलते और अगर अवसर होता तो मुझे  अवश्य साथ ले लेते.
ऑफिस की जीप ज्यादातर वही ड्राईव किया करते . अशरफ ड्राईवर साथ या पीछे बैठता. सबसे पहले मैं उनके साथ डैबौर घाटी गया . यह घाटी रांची-पटना नेशनल हाईवे पर झुमरी तिलैया से रजौली जाते समय रजौली के पहले पड़ती है. लगभग  २५ किलोमीटर का दुर्गम पहाड़ी रास्ता तय करने में दो घंटे से ज्यादा का समय लगा .  समुद्र से कोई ७०० मीटर, हाई वे से सटे डाकबंगलो में हमलोग एक बजे दिन में पहुंचे. वहाँ से दूर-दूर तक केवल पेड़ और झाडियाँ ही दिखती थी, कही से पानी कि कल-कल आवाज़ भी आ रही थी. पिताजी ने कहा के आगे जाने पर एक बाँध भी है जहाँ वे अगली बार आने पर ले चलेंगे. बंगलो से हमारा काफिला जिसमे ड्राईवर और चपरासी भी शामिल थे पैदल अभ्रख की खान की तरफ बढ़ा जिसका इंस्पेक्शन पिताजी को करना था . पिताजी पूरे अभ्रख के खनन और व्यापार के इंस्पेक्टर थे. करीब १ किलोमीटर का रास्ता टेढ़ी-मेढ़ी ढलुआ पगडंडियों का था जिसपर हर वक्त फिसलने और गिरने का डर बना रहता था. पिताजी कि यह औचक पड़ताल थी और उन्होंने अवैध खनन होते रंगे हांथों पकड़ लिया था. साथ ही बारूद भंडारण वाली मगजिन भी असुरुक्षित थी. अभी चार ही बजे थे कि शेर की हुंकार से, चिड़ियों की चहचाहट से और कभी-कभी कुछ दूसरे जानवरों की आवाज़ से वातावरण अशांत सा हो गया. हमलोग तुरत वहाँ से वापिस आ गए. पिताजी ने दूसरे दिन ऑफिस पहुंचकर खान के मालिक को तुरत खनन रोकने का लिखित आदेश दे दिया.   
एक बार शाम को जब हमलोग जीप से लौट रहे थे तब रस्ते में जंगली सूअरों का झुण्ड दिखा. जीप पिताजी ही चला रहे थे. उन्होंने जीप उन जानवरों के पीछे दौड़ा दी. ये दौड २-३ मील लंबी चली. अंत में गुझंदी रेलवे स्टशन का यार्ड आ गया जहाँ तार के ८ फीट ऊँचे बाड़े लगे थे . सूअर उस जगह कॉर्नर हो गए. पिताजी ने ठीक उनके सामने ५ गज की दूरी पर जीप रोक दी. मुझे अब भी याद है कि साथ बैठे ड्राईवर ने करीब-करीब गिड़गिड़ाते हुए इतने धीमे से पिताजी को जीप मोड लेने को कहा जिससे कि सूअर सुन न लें. बाद में ड्राईवर ने कहा कि अगर थोड़ी देर होती तो १५-२० सूअर एक साथ हमला कर देते और हमलोग जीवित नहीं बचते.
इतना कुछ अनुभव बटोर लेने के बाद अब हमलोग जंगल की कुछ ज्यादा खोजबीन के लिए तैयार हो गए थे. पहला अवसर मिला जब मोहल्ले का बंगाली समुदाय हमारे घर से तीन मील दूर जंगल के बीच एक नदी के किनारे पिकनिक जा रहा था. मैं और मनोज भी उस पिकनिक में शामिल हो गए. उस दिन हमलोगों ने पहली बार साही दिखा जिसके बदन पर रोएँ की जगह ८ इंच लंबे कांटे होते है. हमलोगों को ढूंढने पर एक काँटा मिला जिसे हमलोग कलम बनाने के लिए घर ले आये पर हमारी दादी ने उस तुरत बाहर फेंकवा दिया .उनका कहना था कि साही के कांटे के घर में रहने से कलह होता है. हमलोगों ने भेड़िया प्रजाति का जानवर हुड़ाड़ देखा जो भेदिये से ज्यादा भयानक होता है और घर से सोते बच्चों को उठा ले जाता है. हमलोग जब खाना खाकर उठने लागे तो कुछ सियार झाड़ी के पीछे से झांकते दिखे. अंत में शेर की हुंकार से हमलोगों को जल्द ही लौटना पड़ा.
इसी तरह मैं और मनोज दो साथिओं , नुपुर और भैया के साथ घर से तीन मील उत्तर घने कंगल में  झरना कुंड नहाने गए जहा दुर्गाजी का मंदिर था और जहाँ शेर शाम के बाद डेरा डालते थे.  वहाँ मंदिर के सामने झरने का बहता पानी बैडमिंटन कोर्ट जितने बड़े कुंड में जमा होकर आगे बढ़ जाता था. नहाते-नहाते नुपुर पानी में गहरी डुबकी भी लगाता जाता. एक बार वह नहीं निकला . हमलोग बहुत डर गए. जब १० मिनट ज्यादा हो गया तो हमलोग घर भाग आये. ये वाकया हमलोगों ने किसी को नहीं बताया. अगले दिन हमेशा कि तरह जब स्कूल गए तो वहाँ नुपुर हँसता हुआ मिला.
जैसा हमलोगों ने  झुमरी तिलैया के जंगलों के बारे में सुना था वैसा कुछ रोमांचकारी दिख नहीं रहा था. अब इच्छा होने लगी थी स्वयं जंगलों की छानबीन करने की. आखिर एक दिन मौका मिल ही गया. १२ दिसम्बर १९६० ,दिन सोमवार, जब मै और मनोज स्कूल पंहुचे तो पता चला की उस दिन गुरु गोविन्द सिंह का जन्मदिन होने के कारण छुट्टी थी. सुबह के दस बज़ रहे थे .हमलोग घर लौटने के बजाय स्टशन कि और ट्रेन की आवाजाही देखने बढ़ गए . पहुचने पर मालूम हुआ की गया की और जाने वाली ट्रेन आने वाली है. मैंने मनोज को कहा की चलो इस ट्रेन से गझंडी चलते है और लौटती ट्रेन से स्कूल खत्म होने के समय वापस आ जायेंगे. उस समय गझंडी सबसे घना और डरावना जंगल मन जाता था और पिताजी ने भी तो जंगली सूअरों को वहीं दौड़ाया था. आनन्-फानन में हम दोनों ट्रेन पर चढ गए. गझंडी मात्र ६ किलोमीटर पर था. १० मिनट में पहुच गए. हम दोनों के अलावा केवल एक अधेड आदमी उस स्टशन पर उतरा. उसने हमलोगों से पूछा भी कि हमलोग इस वीराने में क्यों आये है और बताया कि बस स्टेशन के पास ही एक्का-दुक्का घर है और कुछ लोग लकड़ी काटने-बटोरने आते हैं. पूछने पर उसने बताया कि यही ट्रेन चार बजे लौटेगी जिससे वह भी लौट जायेगा.
हमलोगों के पास ५ घंटे से ज्यादा समय था घूमने-भटकने के लिए . दहिनी तरफ गौर से देखने पर दूर में वही पहाड दिख रहा था जो हमारे घर से भी दिखता था इसलिए हमलोगों ने दाहिना भाग ही चुना आगे जाने के लिए. हमलोगों के पास मात्र २० पैसे थे पर वहाँ कहीं भी कुछ खरीदने-खाने जैसा नहीं दिखता था. हमलोगों ने स्टशन के चांपाकल से भरपेट पानी पी लिया.
कुछ १०० कदम जंगल के अंदर जाते ही मजा आ गया . हमलोगों ने चारों तरफ नज़र दोडाई तो मन ललचा गया . जंगली बैर जो अभी पके नहीं थे , छोटी-छोटी झाडियों में काले रंग के मटर के दाने के बराबर मीठे फल, कहीं-कहीं अमरख के पेड़ और खजूर के पेड़ जिसमे खजूर तो नहीं पर खजूर का टपकता रस भरने के लिए मिटटी की सुराही जैसा पात्र ऊपर लटकता हुआ जिसे वहाँ की आम भाषा में लबनी कहा जाता है.
हमलोग फलो का स्वाद लेते हुए आगे बढते रहे . खरगोश दिखा. छिप कर देखता हुआ सियार दिखा. एक साप भी रास्ता काटते मिला, भूरा और एक मीटर लंबा., गिलहरी, नीलगाय जैसा कोई जानवर जो कभी गाय, कभी घोडा और कभी बकरी जैसा दिखता था. पेड़ों पर तरह तरह के पक्षी जिनमे हमलोगों ने जंगली मुर्गे को पहचाना भर और कोयल की आवाज़ भी . कभी-कभी शेर की हुंकार भी सुनाई देती थी. आवाज़ से ऐसा लगता था की शेर हमलोगों से एक मील दूर आराम कर रहा होगा. तबतक हमलोगों को ज्ञान हो गया था कि दोपहर में जानवर आराम करते है , पानी पीने और शिकार करने शाम को ही निकलते है. अचानक पास कही भगदड़ जैसी मच गयी जैसे बहुत सारे घोड़े दौड रहे हों. हमलोगों ने अनुमान लगाया कि वे जंगली सूअरों का झुण्ड रहा होगा .
जिस जगह हम लोग आ गए थे वहाँ शाम जैसा अँधेरा था और डर भी लगने लगा था . हमलोगों ने लौटना शुरू किया . बैर अभी बहुत कच्चे थे .उनमे स्वाद नहीं था. अमरख एक-दो खाया जा सकता था . करौंदे जैसा फल बहुत मीठा था पर उससे पेट कम भर रहा था , भूख ज्यादा लग रही थी. जैसे ही स्टेशन  दिखने लगा , डर भाग गया और अब शैतानी करने की सूझने लगी . निशाना खजूर का पेड़ बना. हमलोग लबनी को तबतक पत्थर का निशाना बनाते रहे जबतक की वह टूट नहीं गया . उसका रस चूने लगा .हमलोगों ने चखा . मीठा और खट्टा दोनों था. हमलोगों को मालूम था कि इसके पीने से नशा हो जाता है. इसलिए दो-तीन लबनी तोड़ने पर कुछ आधा- आधा कप ही पीकर मन को रोक लिया.
स्टेशन हमलोग दो बजे तक पहुँच गए थे . अभी भी बहुत समय था. मैं मनोज के साथ अब उस और बढा जिधर पिताजी ने जंगली सूअरों को घेरा था. स्टेशन से सटे तार का ऊँचा बाड़ा था जिसके अंदर ज्यादातर रेल की पटरी बनाने का पार्ट्स और बिजली के केबल का १५-२० विशाल पहियानुमा गर्डर रखा था. हमलोग स्टेशन के खुले प्लेटफार्म पर एक पेड़ के नीचे बने ईटें के घेरे पर बैठ कर ट्रेन का इंतज़ार करने लगे. ट्रेन समय पर आई और हमलोग घर स्कूल से जिस समय पर पहुंचते थे ,पहुँच गए.
रेलवे टाइम टेबल में एक और अच्छा प्लान दिखा . इस बार उलटी तरफ : कोडरमा से हिरोडीह; दूरी: ७ किलोमीटर : जाने के लिए ट्रेन ०८४५ पर: लौटने के लिए वही १०१५ वाली ट्रेन जिससे हमलोग गझंडी  गए थे. हमलोगों का स्कूल सुबह का हो गया था ; सात बजे से ११ बजे तक. एक दिन जब किसी की मृत्यु पर स्कूल मे तुरत छुट्टी हो गयी तब हमलोग घर जाने के बजाय स्टेशन आ गए . ट्रेन ९ बजे गया कि तरफ से आयी. मै और मनोज खिड़की वाली एक सीट पर शेयर करके बैठ गए. ट्रेन तुरत खुल गयी और उसने रफ़्तार भी पकड़ लिया . हमलोगों ने फैसला किया कि चुकी ये ट्रेन बहुत कम समय के लिए रूकती है इसलिए धीमे होते ही दरवाजे पर उतरने के लिए तैयार हो जायेंगे. पर ये क्या ? हिरोडीह स्टेशन तो पलक झपकते गुजर गया . मनोज की प्रतिक्रिया देखने लायक थी . एक तो टिकट नहीं लिया दूसरे ट्रेन नहीं रुकी; अब क्या होगा? मैंने उसे धीमे से कहा सब  कुछ ठीक है , अगले स्टेशन उतरेंगे .पर दूसरा स्टेशन भी वैसे ही गुजर गया . तब बात समझ में आई. ये तो एक्सप्रेस ट्रेन है किसी बड़े स्टेशन पर ही रुकेगी. मैंने मनोज को पुनः धैर्य दिलाया . हमलोग हजारीबाग रोड स्टेशन उतेरेंगे और उधर से आती हुई पैसेंजर ट्रेन को पकड़ लेंगे. ९३० पर ट्रेन हजारीबाग रोड स्टेशन पर रुकने के लिए धीमी होने लगी पर दिल की धड़कन तब रूकती हुई लगने लगी जब हमलोग लौटने वाली पैसेंजर ट्रेन को प्लैटफार्म से छूटते हुए देखते रहे.
हम दोनों एक वीरान से स्टेशन पर खड़े थे. मुझपर बड़े भाई होने के नाते एक बड़ी जिम्मेवारी भी थी. सबसे जरूरी था मनोज को आश्वस्त रखना. हमलोग वही बेंच पर बैठ गए. मैंने जाने की तैयारी कर रहे एक अकेले खोंचेवाले से पूछा कि यहाँ से हजारीबाग कितनी दूर है. उसने बताया कि हजारीबाग ३५ मील है पर एक ही बस है जो अभी पैसेंजर लेकर चली गयी होगी. मैंने, सबसे पहले उससे २० पैसे के भुने चने खरीद लिए .मालूम नहीं वहाँ कुछ मिलने वाला भी था या नहीं. उसीने बताया कि कोडरमा स्टेशन जाने वाली गाडी पांच बजे आएगी. मैंने उससे पूछा कि उस जगह घूमने लायक क्या था ? उसने बताया कि वहाँ केवल जंगल ही जंगल था. स्टेशन के दाहिने तरफ पश्चिम में १०-१५ रिहायशी घर थे. पूरब की तरफ केवल जंगल था . हमलोग पूरब के तरफ आगे बढे. सबकुछ गझंडी जैसा ही था पर कुछ भी अच्छा नहीं लग रहा था . वैसे ही पेड़-पौधे, वैसी ही चिड़ियों कि चहचहाहट और एक्का-दुक्का जंगली जानवरों की ताका-झांकी पर बार-बार घर पर हमलोगों के बारे में क्या सोचा जा रहा होगा इसकी परेशानी और डर दोनों हावी हो रहे थे. पिताजी को जब गुस्सा आता था और उन्हें ज्यादातर गुस्सा ही आता था तब बेंतों की बौछार से कोई नहीं बचा पाता था.
हमलोग थक-हार कर वही स्टेशन के बेंच पर आकर बैठ गए. याद पड़ा साथ में चने की पुडिया है.  जैसे ही हमलोगों ने खाना शुरू किया कहीं से दो लड़के जिनकी उम्र ४ और ६ साल कि रही होगी प्रगट हो गए. बदन पर एक छोटा सा निकर. उनलोगों ने मुझसे कुछ खाने को माँगा. मेरे पास बस चना था वह भी दो मुट्ठी भर. हमलोग चार जन बड़े मन से चना खाए और बगल के चांपाकल से भर पेट पानी पिया. आखिर चार बजे तक इतने से ही काम चलाना था. समय बिताने के लिए मैंने उन लड़कों से पूछा कि वे क्या करते थे. उनमे से जो बड़ा था उसने बताया की वे ट्रेन में नाच-गाकर यात्रियों से जो कुछ मिल जाता है उससे गुजारा करते थे. उन दोनों ने तरह-तरह से उल-जलूल नाच कर और कुछ फ़िल्मी गाने गाकर हमें रिझाया . किसी तरह चार बज गए पर ट्रेन का नामोनिशान नहीं था. एक खाकी कपड़े में रेल का कामगार पटरी ठोक-बजा रहा था और कही-कही तेल डाल रहा था. मैंने उससे पूछा कि ट्रेन आने में देर क्यों हो रही थी. उसने कहा कि उस दिन बुघवार था और बुधवार को उस स्टेशन से छ बजे क्रैक मेल ( जिसे बाद में राजधानी एक्सप्रेस बना दिया गया होगा) गुजरती है उसके बाद ही कोडरमा स्टेशन रुकने वाली ट्रेन आएगी. हमलोग के तो प्राण सूख गए. क्रैक मेल साढ़े छ बजे गुजरी. हमारी ट्रेन चार बजे के बजाय सात बजे आई. घर पहुंचते आठ बज गए. जनवरी का महीना था, ठण्ड काफी हो गयी थी.
घर में बिलकुल सन्नाटा था. हमलोग मार खाने का पूरी तरह मन बना चुके थे. जिस कमरे में हमारी छोटी बहनें रहतीं थीं उसकी बंद लकड़ी की खिड़की के सिल पर बैठ गए. दस मिनट दस पहर जैसे बीते. कमरे की बत्ती जली. हमलोगों ने बहुत धीमे से खिड़की पर थाप देनी शुरू की. कुछ देर तक कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई. जरूर सबसे छोटी बहन इम्मा थी. उसकी उम्र पांच बरस रही होगी. थोड़ी देर बाद माँ  की आवाज आई. उसने हमलोगों को अंदर आ जाने को कहा साथ ही यह भी बताया की पिताजी उस वक्त घर पर नहीं थे . हमलोगों को खिला कर और हमारी बातें जल्दी-जल्दी सुनकर उसने सोने के लिए भेज दिया. अगले दिन स्कूल से लौटने के बाद माँ ने घर में हमारी अनुपस्थिति में जो घटा उसे विस्तार से बताया.  
पिताजी को अपने ऑफिस में ही स्कूल में छुट्टी हो जाने कि खबर हो गयी थी. वे जब एक बजे खाना खाने घर आये और हम दोनों को नहीं पाया तो काफी बिगड़े. ऑफिस से वे लगातार आधे-आधे घंटे पर फोन करते रहे . आखिर चार बजे घर लौटकर सबसे पूछताछ शुरू की. छोटी बहन इम्मा ने बताया कि हमलोग ज्यादातर मछली तोड़ने पोखर जाते है. उसने हमलोगों को बंसी में लगे धागे और उसपर लगे फांस से मछली निकालते कभी देख लिया होगा. छ बजे शाम तक पोखर में जाल फेंककर लोग हार चुके थे. उसके बाद सभी चपरासी और ड्राईवर बस स्टैंड, रेलवे स्टेशन और स्कूल के खेलने के मैदान भेजे गए. रात को पिताजी हारकर पुलिस स्टेशन प्राथमिकी लिखवाने गए. जब १० बजे वे घर लौटे तो माँ ने बताया कि दोनों ट्रेन के अंदर देखने के लिए चढ़े ही थे कि ट्रेन खुल गयी और उसके बाद का सारा वाकया जस का तस सुना दिया . पिताजी उस रात सोते समय रो रहे थे. उसके बाद पिताजी मनोज को भी अपने साथ घुमाने ले जाने लगे.

पहला छात्र आंदोलन 1955


१२ अगस्त १९५५ . अचानक स्कूल में छुट्टी हो गई. शाम को मालूम पड़ा कि किसी बस कंडक्टर ने टिकट पंच करने वाले मशीन से एक कॉलेज के छात्र के बांह का मांस नोच लिया था.  सभी कॉलेज के छात्र सड़क पर निकल आये थे. बसों को तोड़-फोड और जला रहे थे. दूसरे दिन मालूम पड़ा कि बी एन कॉलेज के छात्रों पर सड़क के पार पंजाब बैंक के गार्ड ने गोली चला दी जिससे एक नवयुवक मारा गया था. नाम था दीना नाथ पांडे. कुछ महीने पहले शादी हुई थी. कर्फ्यू लगा दिया गया था. यह सब कुछ हम बच्चों के लिए अनहोना और डरावना था. अगले दिन अखबारों में बस यही खबर थी.
सुबह चौरस्ते कि तरफ से आते शोर से हमलोगों की नींद खुली . देखा १०० से ज्यादा जवान लड़के हाथों में बैनर पकडे चिल्लाते हुए गुजर रहे थे ,
“ जो हमसे टकराएगा चूर-चूर हो जायेगा”
“ जोर-जुल्म के टक्कर में संघर्ष हमारा नारा है “
और इस तरह का जत्था हर १०-१५ मिनट पर गुजर रहा था . ये चौरास्ता स्टेशन से गाँधी मैदान जाने का एक महत्वपूर्ण पर लंबा रास्ता था जिसके करीब ही बी एन कॉलेज था. शायद बाकी नजदीकी रास्तों पर रोक लगा दी गयी होगी क्योंकि उनपर सरकारी दफ्तर और बंगले थे.
लडको का जुलुस बिहार प्रान्त से ही नहीं बल्कि दूर दराज की जगहों से भी आ रहा था . कुछ जो मैं पढ़ पाया उनमे प्रमुख बनारस, कलकत्ता, गोरखपुर, भोपाल, रायपुर, आगरा, इलाहाबाद , कानपूर , इटारसी याद आता है. शाम को जब पिताजी घर आये तो मालूम पड़ा कि पूरा गाँधी मैदान पचास-साठ हज़ार छात्रों से भर गया था. पिताजी जो उस समय म्युनिसिपल कोरपोरेशन में थे, उनपर पूरी सफाई की जिम्मेवारी थी. उस दिन दोपहर में हम बच्चों ने भी चादरों का बैनर बनाकर एक घंटे से ज्यादा नारेबाजी का खेल खेला था.
हमारे घर के दाहिने हिस्से में कम्युनिस्ट नेता सियावर शरण सपरिवार रहते थे जिनमे दो कॉलेज के विद्यार्थी बेटे भी थे. १४ की शाम को वे दोनों बरामदे में बैठ कर मोटे कागज को कालिख से पोतकर काला झंडा बना रहे थे. जब पिताजी ऑफिस से घर लौटे तो उन्हें शरण चाचा ने खास हिदायत दी कि १५ अगस्त  को कालादिवस मनाया जा रहा है इसलिए तिरंगा लगाकर स्वतंत्रता दिवस न मनाएं. पिताजी ने साफ-साफ़ शब्दों में अपनी असहमति जताई. पिताजी ने दोनों मसलों को नहीं जोड़ने की सलाह दी. शरण चाचा कम्युनिस्ट पार्टी के वरिष्ठ नेता थे.
अगले दिन घर की छत पर दोनों झंडा लगा. हमेशा की तरह पिताजी ने तिरंगा गोधुली होते ही उतार लिया पर काला झंडा काफी दिनों तक लगा रहा.
30 अगस्त को तत्कालीन प्रधान मंत्री जवाहर लाल नेहरु को स्वयं आना पड़ा. शाम को उनका भाषण हुआ गाँधी मैदान में. हमलोग रेडियो पर उनके भाषण का सीधा प्रसारण सुन रहे थे. हमेशा कि तरह नेहरूजी कुछ गुस्साए तेवर में छात्रों के आन्दोलन पर प्रतिक्रिया दे रहे थे. तभी इतना हल्ला होने लगा कि प्रसारण ही रोकना पड़ गया. अगले दिन अख़बारों में पढ़ने को मिला कि किसी ने नेहरूजी पर चप्पल फेंका था. बहुत बाद में शायद २०१० में , मैंने ये समीक्षा इन्टरनेट पर पढ़ी:
JP Movement 1974-75
A minor conflict between the students of the B. N. College, Patna, and the State Transport employees had led to police firing on the students on August 12 – 13, 1955. Then the Independence Day celebrations on August 15 were marred by “desecration of the National Flag, students-police clashes and black flag demonstration in Chhapra, Biharsharif, Daltonganj, and Nawada. “To take part in demonstrations and hooliganism in the name of politics,” said Jawaharlal Nehru, the first prime minister of India, speaking to a group of college students in the city of Patna in Bihar on August 30, 1955, “is, apart from the right or wrong of it, not proper for students of any country.”
उसके २० साल बाद, जय प्रकाश नारायण के नेतृत्व में दूसरा छात्र आन्दोलन हुआ जिसका पटाक्षेप इमरजेंसी और सत्ता परिवर्तन से हुआ. अब तो छात्र आंदोलन ही नहीं करते . युवा वर्ग का ऐसा हश्र शायद भारत में ही हुआ जिसने भगत सिंह, चंद्रशेखर, विवेकानंद और बिरसा मुंडा जैसे युवा दिए. आज़ादी के बाद मात्र एक युवा गलत ही सही पर चर्चा में रहा.

आसपास 1958

  आसपास (Hide & Seek) घर के अंदर और बाहर दोनों खेला जा सकता है. इसमें एक 100 तक गिनती गिनता है तबतक बाकि लोग छिप जाते हैं. पहला सभी को खोजता है और जो दिख जाते है उसका नाम लेकर आसपास बोलता है. अगर इसी बीच कोई उसे पीछे से छूकर आसपास बोल देता है तो पहले को वही प्रक्रिया दुबारे करनी पड़ती है. अगर नहीं तो जिसको उसने सबसे पहले देखा है वह उसकी जगह गिनती गिनता है.
हमारे दोस्तों कि टोली में सब बातें अच्छी थी पर बड़े छोटे का काम्प्लेक्स बहुत था. आसपास खेलने में भी इसका भेदभाव था. इसलिए आस-पास में भी दो ग्रुप बना. बड़े और छोटो का. बड़ों में सात लोग थे और छोटों में केवल चार . पहला ग्रुप छिपता तो दूरा ग्रुप खोजता. पर ज्यादातर हार बड़ों की ही होती. छोटों को छिपने के लिए कम जगह चाहिए होती थी और बड़े कद के कारण जल्दी दिख जाते थे. छोटे कार के बोनेट, रिक्शे की डिकी और टोकड़ियों में भी छिप जाते थे. पेड़ की २०-२५ फीट ऊंची फुनगियों के बीच छुप जाना और उतने ही ऊपर से टारगेट पर कूद कर धप्पा कर देना हम छोटों के लिए कुछ कठिन नहीं था.
तभी, बड़ों का ग्रुप एक जासूसी हिंदी फिल्म देखकर आया. नाम था ”अपराधी कौन”. उसमे खलनायक ब्लैक शैडो के नाम से जाना जाता था. फिर क्या उनलोगों ने अपने ग्रुप का नाम ब्लैक शैडो ( काली छाया) रख लिया. हमलोगों का 4 फीट कद वाला ग्रुप कब चुप रहने वाला था. हमलोगों ने अपने ग्रुप का नाम वाइट शैडो (सफ़ेद छाया) रख लिया. बड़े इस नाम की  खिल्ली उड़ाने लगे. जब उन्हें बताया गया कि वाइट शैडो ग्रुप की छाया भी नहीं दिखती है तब बड़े नाम अदला-बदली की जिद करने लगे. फैसला हुआ कि आज के खेल में जो जीतेगा उसी को वाइट शैडो ब्रांड मिलेगा.
इसके लिए जो जगह तय की गयी वह बिहार के पहले उप मुख्य मंत्री और स्वतंत्रता सेनानी श्री अनुग्रह नारायण सिंह का पचास साल पुराना घर जो अब ज्यादातर खाली रहता था. आधे एकड़ की जमीन में पेड़-पौधे तो थे ही साथ में विशाल घर के नीचे एक तहखाना भी था. जालों और मिटटी की मोटी परत से ढका हुआ. साथ में अंदर घनघोर अँधेरा. रोशनदान थे पर वे भी अपारदर्शी मिटटी की परत के कारण. साथ में साप-बिच्छू की पूरी सम्भावना. हमलोग तहखाने के बाहर चारों तरफ तो छिपते थे पर अंदर जाने की हिम्मत नहीं जुटा पाते थे.
उसदिन हमलोगों ने ब्लैक शैडो को लगातार् तीन बार मात दी. हमलोगों के छिपने की जगह वही तहखाना थी. अंत में ब्लैक शैडो ने हमलोगों से जान ही लिया की तहखाने का तिलिस्म टूट गया है. बाद में हमलोगों ने मिलकर उस तहखाने की सफाई की. उसमे बीचबीच जमीन में धसी हुई 20X20 फीट की कांफेरेंसिंग पिट थी जिसमे चौकोर किनारों में ३० से ज्यादा लोगों के बैठने के लिए सीमेंट की बेन्चेस थीं. हम मस्कीटीयर्स का तो जैकपोट खुल गया था.
जहां कभी स्वतंत्रता सेनानियों की गुप्त बैठकें हुआ करती थीं अब शैडोस भरी दोपहरी में लोगों के बगीचे से आम और अमरुद चुराने की योजना बनाते थे. और हाँ हमलोगों ने माचिस कि डिबिया से टेलिफोन भी बनाया था. साथ ही बन्दर, चिम्पांजी और गोर्रिले  की आवाजें हमारा सिग्नल हुआ करती थीं. हमलोग कुछ भी खाने की चीजें और पीने का पानी लाते और पिकनिक का मज़ा लेते.
बचपन के दिन भी क्या दिन थे !

चोपड़ा की पतंग


हमलोगों का एक दोस्त हुआ करता था . आबिद अली खान. खान बहादुर असगर अली खान उसके दादा थे . उनकी हवेली ठीक में घर के सामने सड़क के उस पार थी. दोस्ती की कुछ खास वजह थी . वह पतंग बहुत अच्छी उड़ाता था और उसकी एक तिमंजली तकरीबन सौ फीट चौड़ी छत थी. हमलोगों को पतंग की खरीद व् डोर को मजबूत मंझा करने में वह मदद भी करता था. उस इलाके में शायद ही कभी पतंग कि पेंचों में हमलोगों ने मात खायी हो. यह बात पटना की है. 1958-59 में हमलोगों कि उम्र 10 के आस पास थी.
Abid's 100 year old Haveli(2014)
हमलोगों की पतंगबाजी इलाके के जवान लड़कों को अच्छी नहीं लगती थी. उनमे एक जोड़ा चोपड़ा बंधुओं का हुआ करता था . बीस के आस पास की उम्र. वे हमारी छत से तक़रीबन 200 meter पीछे पूरब रहते थे.
एक दिन आबिद और मैं अलग अलग पतंग उड़ा रहे थे. काफी ऊपर पतंग थी. तभी चील के झप्पटे कि तरह एक विशाल पतंग ने हमदोनो की पतंग एक झटके में काट दी. तब सूरज अभी डूबा नहीं था. हमलोगों ने देखा कि हमारी पतंगों से तिगुनी बड़ी पतंग खरखराती हुई बहुत ऊपर पेंग मार रही थी. उसकी मोटी डोर टेलीफोन के तार जैसी झलक रही थी.
हमलोगों को ज्यादा गुस्सा आकाश की बादशाहत छीन जाने के डर से आ रहा था. उसके बाद हमलोग जब भी पतंग उड़ाते, चोपड़ा बंधुओं की पतंग बाज कि तरह आती और पतंगों को काट कर हवा में लहराने लगती. अब हमलोगों की समझ में आने लगा की शानदार पतंग उड़ाने वालों को पतंगबाज क्यों कहा जाता है. ये वाकया 15 दिनों से ज्यादा चला. पैसे कि कमी के कारण हमलोगों का ये शौक खत्म होता सा लगा. 
एक शाम, हमलोग चोपड़ा बंधुओं के पास गए अपनी गुहार लगाने। हमलोगों की बातों से उन्हें बहुत आनंद आ रहा था। उनमें जो बड़ा था वह बोला- देखो बाबू ! हमलोग पटना सिटी जाकर काफी पैसे खर्च कर पतंग और स्पेशल माँझा लाये हैं।तुमलोग को कुछ पैसे की मदद कर देते हैं। हमलोग भीख मांगने थोड़ी ही गए थे। चुपचाप लौट आए। तभी एक तरकीब सूझी.
हमलोगों ने दुबारे पतंग उड़ाना शुरू किया पर कुछ एहतियातों के बाद. हमलोग अपने छत के पश्चिमी कोने में चले गए और पतंग को ऊंची नहीं ले जाते. पर चोपड़ा बंधुओं को ये भी क्यों गवारा होता. उनकी पतंग हमारी छतों को छूती हुई हमारी पतंगों को लपेटने लगी. जंग छिड़ चुकी थी.
अगले दिन सिर्फ आबिद ने अपनी पतंग उड़ाई. पश्चिमी कोने से , हवा में काफी छोटा कोण लेते हुए. पर एक बार खून का स्वाद चख लेने के बाद सब्र कहाँ. इस बार फिर चोपड़ा बंधुओं की पतंग आवाज करती हुई एक गोते में आबिद के पतंग को ले जाने लगी. सोचे समझे तरकीब के अनुसार आबिद ने कस कर ढील दी  मैं पूर्वी कोने में गद्दे- रज़ाई सीने वाले वाले डोर को दोहरा-तिहरा कर पत्थर बांधे बैठा था. मैंने सधे निशानेबाज कि तरह पत्थर की डोर दुश्मन के डोर के ऊपर डाल डी और खूब तेजी से डोर को अपनी ओर खीचने लगा. उनकी डोर तो कटी नहीं पर मेरे हाथ आ गयी. मैंने हाथ में आई डोर को दांत से काट दिया. आबिद जो दूर खड़ा पतंग उड़ा रहा था उसने भागती डोर के साथ पतंग को पकड़ लिया. चोपड़ा बंधुओं को बहुत दिनों बाद हमारी करतूत की भनक मिली. पर तबतक हमारे दुश्मनों ने हार मान ली थी. हमारे पास उनके कई पतंग और करीब एक मील लंबे डोर का स्टॉक जमा हो गया. वाकई डोर काली भी थी और टेलिफोन के तार जितनी मोटी भी.
उनकी हम बच्चो से जाबांजी गलत थी और हमारी मक्कारी भी . पर किसी ने क्यों कहा है कि जंग में सबकुछ जायज होता है.

शब्द


मेरी माँ भी मुझे किस्से-कहानियाँ सुनाकर सुलाती थी. फर्क सिर्फ इतना था और बहुत ज्यादा था कि किस्से-कहानियाँ वह स्वयं गढ़कर समयानुसार सुनाती थी. अगर झींगुर की आवाज़ आ रही हो तो कहानी का एक पात्र झींगुर हो जाता. अगर दूर से शेर के गरजने की आवाज़ आ रही हो तो कहानी जंगलों का चक्कर लगाने लगती. राजा-रानी-राजकुमार-राजकुमारी के किस्से तिलस्मी उपन्यास की तरह धारावाहिक होते. बाद में वही कहानियाँ अखबार और पत्रिकायों में छप जाया करतीं. मेरी माँ विदुषी थीं. साहित्यरत्न की उपाधि उन्हें १६ वर्ष की आयु में मिल गयी थी.
मेरी दादी ज्यादा पढ़ी-लिखी नहीं थी और उन्हें हिंदी से बेहतर उर्दू व् गुरुमुखी आती थी. फिर भी, सुबह के समय, बरामदे में कोयले के चूल्हे में खाना पकाते समय हमलोगों के हाथ में गीता प्रेस की रामचरित, महाभारत अथवा अमर चित्र कथा थमा देती. राम चरित के बाल कांड से लेकर लंका कांड तक हमलोगों से बारी-बारी पढ़वातीं और उसकी व्याख्या करती जातीं.
माँ से हमलोग अपना होमवर्क करवाने में मदद लेते. एक बार स्कूल के लिए घर से निकलते समय याद आया कि होमवर्क तो किया ही नहीं. हिंदी के सारे अक्षर लिखने थे . माँ ने वहीँ चौखट पर बैठ कर जल्दी से लिख दिए. जब क्लास में मेरे शिक्षक ने लिखावट देखी तो वे दंग रह गए. उनके पूछने पर मैंने सच-सच बता दिया. उसके बाद वे मेरी कॉपी लेकर पूरे स्कूल में घूम गए. वैसी सुंदर लिखावट उन्होंने पहले नहीं देखी थी. बाद में वे एक दिन जब मेरे घर के सामने से जा रहे थे तो माँ को प्रणाम करने रुके थे.
चौथी क्लास में मुझे पहली बार कोर्से में कहानी/कविता संग्रह की किताब मिली. स्कूल से मैं एक बजे तक लौट आया करता . दोपहर को हम सभी भाई-बहन दादी की चारपाई के चारों तरफ लुढक जाते.  इस वक्त, दादी हमलोगों से क्लास में पढाई गयी सामग्री को दोहरावती. मुझे याद है मैंने एक बार घण्टों को घराटों  पढ़ा था जिसे लेकर मुझे मेरे बच्चों तक के सामने हँसाई होती थी. इस किताब में दो कहानियाँ ऐसी थी जिसकी अमिट  छाप मेरे जीवन पर पड़ी.
पहली कहानी थी सुदर्शन लिखित  “ हार की जीत “. एक साधू को अपना घोड़ा जान से भी ज्यादा प्यारा था. उसे एक डाकू ने अपाहिज का भेष कर छल से छीन लिया . जाते-जाते उस डाकू से साधू की यही प्रार्थना थी कि वह इस घटना की बात किसी को नहीं बताये अन्यथा लोगों का दीन-दुखियों से विश्वास उठ जायेगा .
दूसरी कहानी थी “ आदर्श बदला” जिसे शायद आचार्य शिवपूजन सहाय ने लिखा था. अकबर के राज्य में तानसेन के सिवा अगर कोई भी गाता था तो उसे तानसेन से स्पर्धा में गाना पड़ता था .जो हारता उसे मरना होता . ऐसा ही बैजूबावरा के गुरु के साथ हुआ. कुछ वर्षों बाद बैजू और तानसेन के मध्य गायकी की स्पर्धा हुई जिसमे तानसेन हार गया. पर बैजू ने उसे माफ कर दिया.
दसवीं कक्षा में मैंने रविन्द्रनाथ ठाकुर की लघु कथा “The Postmaster पढ़ी जिसकी अंतिम पंक्तियाँ मैं आज तक दोहराता हूँ , “ Alas for our foolish human nature ! Its fond mistakes are persistent.”
उपन्यासों में मैंने हिंदी, बंगला और इंग्लिश के बहुत से लेखकों को पढ़ा पर समरसेट माम की “ The Rajor’s Edgeने मुझ २२ वर्षीय युवक को झकझोर दिया इतना कि जब पिताजी को मालूम पड़ा तो उन्होंने ऐसी किताबों को इस उम्र में पढ़ने को मना किया . नवयुवक लैरी को वर्ल्ड वार १ में अपने एयर फोर्स मित्र की लड़ाई में अचानक मृत्यु से बहुत बड़ा आघात लगता है. वह सदमे को भूलने के लिए सबसे कठिन कोयले की खदानों में काम करने लगता है. वह शान्ति की तलाश में भारत आता है जहाँ वह एलीफैन्टा की गुफाओं में भटकता है और अंत में उसे रमण महर्षि के पास शांति मिलती है. बहुत वर्षों बाद समरसेट को अधेड़ लैरी अमेरिका में टैक्सी चलाता हुआ आनंद की अवस्था में मिलता है.
तीस वर्ष की आयु में मैंने Ayn Rand  की The Fountain Headपढ़ी. इस उपन्यास का नायक होवार्ड रोर्क एक होनहार युवा आर्किटेक्ट है जो अपने कलात्मक और व्यक्तिगत आदर्शों की खातिर समझौता करने के बजाय कठिनाई में जीवन बसर करना श्रेयस्कर मानता है.
अंतिम और आखिरी पठन था मेरी माँ सावित्री देवी का लिखा महाकाव्य “ अमृतेय बुद्ध” . उसके बाद मैंने और कुछ पढ़ने की आवश्यकता अबतक महसूस नहीं की .