Pages

Friday, May 18, 2012

आसपास 1958

  आसपास (Hide & Seek) घर के अंदर और बाहर दोनों खेला जा सकता है. इसमें एक 100 तक गिनती गिनता है तबतक बाकि लोग छिप जाते हैं. पहला सभी को खोजता है और जो दिख जाते है उसका नाम लेकर आसपास बोलता है. अगर इसी बीच कोई उसे पीछे से छूकर आसपास बोल देता है तो पहले को वही प्रक्रिया दुबारे करनी पड़ती है. अगर नहीं तो जिसको उसने सबसे पहले देखा है वह उसकी जगह गिनती गिनता है.
हमारे दोस्तों कि टोली में सब बातें अच्छी थी पर बड़े छोटे का काम्प्लेक्स बहुत था. आसपास खेलने में भी इसका भेदभाव था. इसलिए आस-पास में भी दो ग्रुप बना. बड़े और छोटो का. बड़ों में सात लोग थे और छोटों में केवल चार . पहला ग्रुप छिपता तो दूरा ग्रुप खोजता. पर ज्यादातर हार बड़ों की ही होती. छोटों को छिपने के लिए कम जगह चाहिए होती थी और बड़े कद के कारण जल्दी दिख जाते थे. छोटे कार के बोनेट, रिक्शे की डिकी और टोकड़ियों में भी छिप जाते थे. पेड़ की २०-२५ फीट ऊंची फुनगियों के बीच छुप जाना और उतने ही ऊपर से टारगेट पर कूद कर धप्पा कर देना हम छोटों के लिए कुछ कठिन नहीं था.
तभी, बड़ों का ग्रुप एक जासूसी हिंदी फिल्म देखकर आया. नाम था ”अपराधी कौन”. उसमे खलनायक ब्लैक शैडो के नाम से जाना जाता था. फिर क्या उनलोगों ने अपने ग्रुप का नाम ब्लैक शैडो ( काली छाया) रख लिया. हमलोगों का 4 फीट कद वाला ग्रुप कब चुप रहने वाला था. हमलोगों ने अपने ग्रुप का नाम वाइट शैडो (सफ़ेद छाया) रख लिया. बड़े इस नाम की  खिल्ली उड़ाने लगे. जब उन्हें बताया गया कि वाइट शैडो ग्रुप की छाया भी नहीं दिखती है तब बड़े नाम अदला-बदली की जिद करने लगे. फैसला हुआ कि आज के खेल में जो जीतेगा उसी को वाइट शैडो ब्रांड मिलेगा.
इसके लिए जो जगह तय की गयी वह बिहार के पहले उप मुख्य मंत्री और स्वतंत्रता सेनानी श्री अनुग्रह नारायण सिंह का पचास साल पुराना घर जो अब ज्यादातर खाली रहता था. आधे एकड़ की जमीन में पेड़-पौधे तो थे ही साथ में विशाल घर के नीचे एक तहखाना भी था. जालों और मिटटी की मोटी परत से ढका हुआ. साथ में अंदर घनघोर अँधेरा. रोशनदान थे पर वे भी अपारदर्शी मिटटी की परत के कारण. साथ में साप-बिच्छू की पूरी सम्भावना. हमलोग तहखाने के बाहर चारों तरफ तो छिपते थे पर अंदर जाने की हिम्मत नहीं जुटा पाते थे.
उसदिन हमलोगों ने ब्लैक शैडो को लगातार् तीन बार मात दी. हमलोगों के छिपने की जगह वही तहखाना थी. अंत में ब्लैक शैडो ने हमलोगों से जान ही लिया की तहखाने का तिलिस्म टूट गया है. बाद में हमलोगों ने मिलकर उस तहखाने की सफाई की. उसमे बीचबीच जमीन में धसी हुई 20X20 फीट की कांफेरेंसिंग पिट थी जिसमे चौकोर किनारों में ३० से ज्यादा लोगों के बैठने के लिए सीमेंट की बेन्चेस थीं. हम मस्कीटीयर्स का तो जैकपोट खुल गया था.
जहां कभी स्वतंत्रता सेनानियों की गुप्त बैठकें हुआ करती थीं अब शैडोस भरी दोपहरी में लोगों के बगीचे से आम और अमरुद चुराने की योजना बनाते थे. और हाँ हमलोगों ने माचिस कि डिबिया से टेलिफोन भी बनाया था. साथ ही बन्दर, चिम्पांजी और गोर्रिले  की आवाजें हमारा सिग्नल हुआ करती थीं. हमलोग कुछ भी खाने की चीजें और पीने का पानी लाते और पिकनिक का मज़ा लेते.
बचपन के दिन भी क्या दिन थे !

No comments:

Post a Comment