Pages

Friday, May 18, 2012

शब्द


मेरी माँ भी मुझे किस्से-कहानियाँ सुनाकर सुलाती थी. फर्क सिर्फ इतना था और बहुत ज्यादा था कि किस्से-कहानियाँ वह स्वयं गढ़कर समयानुसार सुनाती थी. अगर झींगुर की आवाज़ आ रही हो तो कहानी का एक पात्र झींगुर हो जाता. अगर दूर से शेर के गरजने की आवाज़ आ रही हो तो कहानी जंगलों का चक्कर लगाने लगती. राजा-रानी-राजकुमार-राजकुमारी के किस्से तिलस्मी उपन्यास की तरह धारावाहिक होते. बाद में वही कहानियाँ अखबार और पत्रिकायों में छप जाया करतीं. मेरी माँ विदुषी थीं. साहित्यरत्न की उपाधि उन्हें १६ वर्ष की आयु में मिल गयी थी.
मेरी दादी ज्यादा पढ़ी-लिखी नहीं थी और उन्हें हिंदी से बेहतर उर्दू व् गुरुमुखी आती थी. फिर भी, सुबह के समय, बरामदे में कोयले के चूल्हे में खाना पकाते समय हमलोगों के हाथ में गीता प्रेस की रामचरित, महाभारत अथवा अमर चित्र कथा थमा देती. राम चरित के बाल कांड से लेकर लंका कांड तक हमलोगों से बारी-बारी पढ़वातीं और उसकी व्याख्या करती जातीं.
माँ से हमलोग अपना होमवर्क करवाने में मदद लेते. एक बार स्कूल के लिए घर से निकलते समय याद आया कि होमवर्क तो किया ही नहीं. हिंदी के सारे अक्षर लिखने थे . माँ ने वहीँ चौखट पर बैठ कर जल्दी से लिख दिए. जब क्लास में मेरे शिक्षक ने लिखावट देखी तो वे दंग रह गए. उनके पूछने पर मैंने सच-सच बता दिया. उसके बाद वे मेरी कॉपी लेकर पूरे स्कूल में घूम गए. वैसी सुंदर लिखावट उन्होंने पहले नहीं देखी थी. बाद में वे एक दिन जब मेरे घर के सामने से जा रहे थे तो माँ को प्रणाम करने रुके थे.
चौथी क्लास में मुझे पहली बार कोर्से में कहानी/कविता संग्रह की किताब मिली. स्कूल से मैं एक बजे तक लौट आया करता . दोपहर को हम सभी भाई-बहन दादी की चारपाई के चारों तरफ लुढक जाते.  इस वक्त, दादी हमलोगों से क्लास में पढाई गयी सामग्री को दोहरावती. मुझे याद है मैंने एक बार घण्टों को घराटों  पढ़ा था जिसे लेकर मुझे मेरे बच्चों तक के सामने हँसाई होती थी. इस किताब में दो कहानियाँ ऐसी थी जिसकी अमिट  छाप मेरे जीवन पर पड़ी.
पहली कहानी थी सुदर्शन लिखित  “ हार की जीत “. एक साधू को अपना घोड़ा जान से भी ज्यादा प्यारा था. उसे एक डाकू ने अपाहिज का भेष कर छल से छीन लिया . जाते-जाते उस डाकू से साधू की यही प्रार्थना थी कि वह इस घटना की बात किसी को नहीं बताये अन्यथा लोगों का दीन-दुखियों से विश्वास उठ जायेगा .
दूसरी कहानी थी “ आदर्श बदला” जिसे शायद आचार्य शिवपूजन सहाय ने लिखा था. अकबर के राज्य में तानसेन के सिवा अगर कोई भी गाता था तो उसे तानसेन से स्पर्धा में गाना पड़ता था .जो हारता उसे मरना होता . ऐसा ही बैजूबावरा के गुरु के साथ हुआ. कुछ वर्षों बाद बैजू और तानसेन के मध्य गायकी की स्पर्धा हुई जिसमे तानसेन हार गया. पर बैजू ने उसे माफ कर दिया.
दसवीं कक्षा में मैंने रविन्द्रनाथ ठाकुर की लघु कथा “The Postmaster पढ़ी जिसकी अंतिम पंक्तियाँ मैं आज तक दोहराता हूँ , “ Alas for our foolish human nature ! Its fond mistakes are persistent.”
उपन्यासों में मैंने हिंदी, बंगला और इंग्लिश के बहुत से लेखकों को पढ़ा पर समरसेट माम की “ The Rajor’s Edgeने मुझ २२ वर्षीय युवक को झकझोर दिया इतना कि जब पिताजी को मालूम पड़ा तो उन्होंने ऐसी किताबों को इस उम्र में पढ़ने को मना किया . नवयुवक लैरी को वर्ल्ड वार १ में अपने एयर फोर्स मित्र की लड़ाई में अचानक मृत्यु से बहुत बड़ा आघात लगता है. वह सदमे को भूलने के लिए सबसे कठिन कोयले की खदानों में काम करने लगता है. वह शान्ति की तलाश में भारत आता है जहाँ वह एलीफैन्टा की गुफाओं में भटकता है और अंत में उसे रमण महर्षि के पास शांति मिलती है. बहुत वर्षों बाद समरसेट को अधेड़ लैरी अमेरिका में टैक्सी चलाता हुआ आनंद की अवस्था में मिलता है.
तीस वर्ष की आयु में मैंने Ayn Rand  की The Fountain Headपढ़ी. इस उपन्यास का नायक होवार्ड रोर्क एक होनहार युवा आर्किटेक्ट है जो अपने कलात्मक और व्यक्तिगत आदर्शों की खातिर समझौता करने के बजाय कठिनाई में जीवन बसर करना श्रेयस्कर मानता है.
अंतिम और आखिरी पठन था मेरी माँ सावित्री देवी का लिखा महाकाव्य “ अमृतेय बुद्ध” . उसके बाद मैंने और कुछ पढ़ने की आवश्यकता अबतक महसूस नहीं की .

No comments:

Post a Comment