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Friday, May 18, 2012

खेल की दुनिया


 We don't stop playing because we grow old; we grow old because we stop playing.
George Bernard Shaw
 मशहूर बैरिस्टर श्री राधा रमण प्रसाद का बंगला जिसका पूर्वी हिस्सा लान टेनिस के मैदान जितना बड़ा, स्कूल खत्म होते ही बच्चों से भर जाता था. ८ वर्ष से १२ वर्ष के बच्चे गर्मी में फुटबाल , जाड़े के दिनों में क्रिकेट खेला करते. जब कभी घर की खिड़की का शीशा टूटता या किसी बुजर्ग को चोट लग जाती तो पूरी जमात सामने के घर शिफ्ट कर जाती जिसमे हमलोगों का बॉस सहपाठी गौरी शंकर लाला(उम्र १४, कद ५ फीट ५ इंच) रहता था. उसको हमलोगों की जमात में आने के लिए दो-तीन बार फेल होना पड़ा होगा.
गौरी बड़े लड़कों के ग्रुप का सरगना था जिसमे मेरे बड़े भाई, मोहन जो अब अलंकार ज्वेलर ग्रुप का मालिक है, तथा रमेश, हरीश इत्यादि थे. हम छोटों के ग्रुप का लीडर अनिल था जिसमे हमलोग सभी एक क्लास में हमउम्र थे, जैसे बसंत, गोपाल, अशोक, सत्येन्द्र, रमेश, अमर, मदन,  .
गर्मी की छुट्टियों में हमलोगों का जमावड़ा सुबह से ही शुरू हो जाता. हमलोगों की दिनचर्या हमलोगों के पिताजी तय करते. जितनी देर वे लोग अपने-अपने काम पर निकले होते उतना समय हमारे खेलने का होता. गर्मी में ऑफिस सुबह का होता इसलिए सुबह ६ बजे से २ बजे दोपहर तक की तो पूरी आज़ादी थी. उसके बाद चार बजे शाम से लेकर ७ बजे अँधेरा होने तक हमलोगों का मान्य खेलने का समय होता. इस आज़ादी का असर हमारी पढाई पर अवश्य पड़ता था. विशेषकर हमारे घर में माँ को चूल्हे-चौके से ही फुर्सत नहीं मिलती और हमलोगों की शरारतों से छुटकारा उसे कुछ राहत तो अवश्य देती.
हमलोगों का प्रिय खेल क्रिकेट था. हमलोगों ने बढ़ई से एक कामचलाऊ बैट बनवाया था. खेला हुआ टेनिस का बाल ५० पैसे में मिल जाता था जो एक महीने चलता था. विकेट ईंटों को एक के ऊपर एक रखकर बनती थीं. लेग साइड सड़क को रखा जाता था जिससे तेज मारी हुई गेंद दूर तक जाये और इसमें घर के शीशों के टूटने का डर भी कम रहता था. मेरी उम्र के लड़के को अंडर-हैंड बालिंग की सहूलियत मिलती थी. विकेट टू विकेट १५ गज के फासले से काम चला लिया जाता था. बाद में शायद एक साल बाद हमलोगों ने बढ़ई से चार स्टैंडर्ड साईज के विकेट बनवा लिए थे. जब कभी शीशा टूटने या हल्ला ज्यादा होने की वज़ह से क्रिकेट खेलने की मनाही हो जाती तो हमलोग कोई दूसरा खेल खेलते.
आस-पास हमलोगों का दूसरा सबसे प्रिय खेल था. इसे साल के किसी भी दिन और दिन के किसी भी समय खेला जा सकता था. हल्ला भी कम होता था. सबसे ज्यादा रोमांच खेल में दिलेरी दिखाने में था. खतरनाक जगहों में छिपना, ऊंचाई से कूदना, बिल्ली जैसे धीमे पाँव से तेज पर बिना आवाज़ के पीछा करना, बाज़ कि तरह झपट्टा मारना और बड़े ताकतवर विरोधी को पानी पिलाना इस खेल को बहुत चुनौती भरा बना देता था. इस खेल में मुझे बहुत शाबाशी मिलती थी. पर बुजुर्गों से नहीं. उन्हें मालूम पड़ गया था की जो लड़कों में सबसे छोटा है वही सबसे बदमाश है . कार के बोनेट में भी छिप जता हैं और भूतहे तहखाने का रास्ता भी उसी ने दिखाया था. कुछ तो मुझे बदमाश प्रकाश भी कहते थे. आज भी दादा-नाना हो गए मेरे साथी अपने घर के बच्चों को आस-पास की कहानियाँ सुनाया करते हैं जिसका नायक स्वत मैं ही होता हूँ. कुछ ने तो मेरे बचपन का फोटो भी मांगा है, दिखाने के लिए.
फुटबाल खेलने का मौसम गर्मी में आता .गर्मी में हमलोगों को गर्म हवा से बचाव के लिए केवल शाम को ही निकलने दिया जाता था . उतने कम समय में फुटबाल खेलने में पूरा आनंद आ जाता. और अगर पानी भी बरसता हो तो सोने पे सुहागा.
गर्मी से एक और बात याद आई. सुबह का स्कूल हुआ करता और हमलोगों के लौटने के रास्ते की लम्बाई बढ़ जाती. हमलोग गंगा नदी में भरपूर नहा कर ही लौटते. लौटते वक्त घाट के किनारे रिक्शावाले और ठेलेवाले झोपरीनुमा ढाबे में जमीन पर बैठ कर सत्तू ( भुने हुए चने का आटा) खाते दीखते. उस समय तक हमलोगों को भी बड़े जोर कि भूख  लगी होती.  मुंह से लार टपकने लगती. मालूम हुआ दो आने थाली मिलती है पर हम बच्चो को एक आने (६ पैसे) वाली थाली से हो जायेगा. दूसरे दिन हम सभी पैसे लेकर आये. गंगा में नहाकर सत्तू खाने लाइन से बैठ गए. पीतल की एक फुटिया थाली के बीच में सत्तू का पहाड. हाँ उसे सत्तू का पहाड ही कहा जायेगा. आधा किलो सत्तू , नमक, पांच-छ लंबी हरी मिर्च,सरसों तेल की डिबिया, निम्बू और एक लोटा पानी. हम पांच जनों में किसी ने ही १०० ग्राम खाया होगा. सत्तू परोसने वाली माई हमलोगों पर बहुत नाराज हुई क्योंकि हमलोगों ने उम्र के हिसाब से बहुत कम खाया था और बहुत झूठा कर छोड़ दिया था. बाद में, हम लोगों ने लौटने का रास्ता ही बदल दिया क्योंकि वह माई जब भी हमलोगों को देखती वह खानेवालो को हमलोगों की तरफ इशारा करके हसती. आजकल सत्तू ५० रुपये किलो मिलता है.
एक खेल हमें और अच्छा लगता था . दोल-पात जिसमे एक डंडे को दूर फेंका जाता है और जब तक उसे लाया जाता है बाकि लड़के पेड़ पर चढ जाया करते हैं. चोर को किसी एक को छूकर डंडे तक पहले पहुचना होता है. इसे, गिल्ली-डंडा और लट्टू को हमलोग तब खेलते थे जब सभी विकल्प किसी वजह से या मन भर जाने से खत्म हो जाते थे.
जब शराराती बच्चों के पास इतना वक्त हो तो क्या नहीं खेला या शौक पूरा नहीं किया जा सकता? आजकल के बच्चे जो शरारत के नाम पर आड़ी-तिरछी तेज रफ़्तार से बाइक चलाते हैं या स्कूली दिनों में ही सिगरेट पीने लगते हैं और गर्ल फ्रेंड की बातें करते हैं उनसे मैं कभी-कभी पूछता हूँ कि क्या वे कभी पेड़ पर चढें है अथवा २० फीट की ऊंचाईं से नदी या पोखर में कूदे हैं. गिल्ली-डंडा का खेल खेलते तो मैंने केवल पुणे के मुसलमानी मोहल्ले में देखा है. दोल-पात, आस-पास, लट्टू, चोर-सिपाही, कैरम बोर्ड- लूडो जैसे मजेदार खेल तो हमारी धरती से ऐसे लुप्त हो रहे हैं जैसे पक्की छत हो जाने पर गोरैया या शहर से खेलने के मैदान. इसके लिए मीडिया शायद सबसे बड़ी दोषी है. मैंने ७० के दशक में एक किताब पढ़ी थी “ SPACE ODESSEY -2001”. उसमे अंत में यह लिखा गया था की दिमाग से ज्यादा और शरीर से नहीं के बराबर काम करने के चलते आने वाली पीढ़ी का सर बड़ा और कद छोटा होता चला जायेगा. हमारे पूर्वज सात-आठ फीट के हुआ करते थे. राणा प्रताप का ८० किलो का भाला और १२ फीट लंबी लोहे की अचकन ग्वालियर के अजायबघर में रखी है.
1959 आते-आते हम लोग बकायदा मानक बैट और बाल से पैड और ग्लोव्स पहन कर २२ गज के स्ट्रिप पर क्रिकेट खेलने लगे थे. अजय भैया, गौरी और अनिल का स्कूल की टीम में सेलेक्शन हो गया था. मैं अपने क्लास से खेलता था. पर तेज आती हुई क्रिकेट की बाल की फील्डिंग से घबराता था. कितनी बार मुझे गेंद के पीछे भागते रहने और गेंद को नहीं पकडने के लिए फटकार मिली थी. तब टेस्ट मैच मानक का पांच सितारा क्रिकेट बाल ३ रुपये पच्चीस पैसे में आता था और अच्छे से अच्छा बैट ५०-८० तक में मिल जाता था. हमलोग २५ रुपये वाले बैट से खेलते थे.
१९५९ के अक्टूबर माह में पिताजी का तबादला झुमरी तिलैया हो गया. ये एक कस्बाई जगह थी , पटना से बहुत छोटी. खेलने के मैदान के नाम पर हमारे स्कूल का फुटबाल का मैदान था जहाँ लायंस क्लब के कुछ मेम्बर रविवार को क्रिकेट खेला करते. खेलने वाले ६-७ जन ही थे इसलिए हमलोगों को उनलोगों ने हाथो-हाथ लिया. हम भाईयों का खेल देखकर वे दांग रह गए. अगर उस वक्त वाहन कोई समाचार पत्र होता तो उसमे हम बच्चों के खेल की तारीफ जरूर छपती.

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