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Friday, June 19, 2020

गुलेल

1952 की बात है। दोपहर का समय था। हम बच्चे बागीचे में खेल रहे थे। उसी वक्त 2-3 आदिवासी युवक गेटखोल अंदर दाखिल हो गए। हमलोग कुछ समझ पाते उससे पहले उनलोगों ने गुलेल का निशाना साधा और पेड़ से एक कौआ धप से नीचे आ गिरा। उनलोगों ने आधे भरे थैले में घायल कौवे को डाला और चलते बने। सबकुछ पलक झपकते हो गया।

उस समय से हमलोगों ने न जाने कितने गुलेल बनाए, पेड़ के फलों पर, पक्षियों पर निशाना साधा पर कभी भी सफलता नहीं मिली। उम्र इतनी कम थी की ठीक से गुलेल बनाना और ताकतवर निशाना साधना शायद हमलोगों के बस की बात नहीं थी।

गुलेल चलाने का नशा दुबारे तब चढ़ा जब गर्मी की छुट्टियों में बहुत से साथी दोपहर को गुलेल लिए आम बागान पहुँचते । इतने आम अवश्य गिराए जाते की निराशा दूर भाग जाती। मुझे भी एक अच्छी गुलेल बनाने का शौक जागा।

मित्रों के बताए अमरूद के पेड़ों पर ऐसी टहनी खोजी जाने लगी। मशक्कत करने पर ऐसी टहनी मिल ही गयी। उसे तोड़ा गया, काटा गया और गुलेल के आकार में लाया गया। साइकल पंक्चर बनाने वाले के पास से एक पुरानी साइकल ट्यूब का जुगाड़ बना। उससे 10-10 इंच का 2 फीता काटा गया। चमार की दुकान से गोली पकड़ने के लिए एक चमड़े का 3 इंच के चौड़े फीते के दोनों ओर छेद किया गया। पूरी दोपहर बीत गई पर न तो फीता गुलेल की डंडियों पर ठीक से बंधा और न चमड़े के फीते की छेदों से। हारकर चपरासी से मदद लेनी पड़ी। उसने आनन-फानन में खूब मजबूत गुलेल तैयार कर दी।

दूसरे दिन मैं भी कच्चे आमों का शिकार करने गुलेल के साथ लैस होकर गया। दोस्तों को तो सफलता मिलती रही पर मुझे एक बार भी नहीं। हारकर, निराशा के साथ, घर आकार मैं आँगन पर बिछी चौकी पर लेट गया। तभी गोरेयों का एक झुंड आँगन में दाने चुगने उतारा। मैंने लेटे-लेटे ही गुलेल से एक गोली दाग दी। गोली चिड़िया के पैर पर लगी। चिड़िया उसी जगह चीखते हुए गोल-गोल चक्कर खाने लगी। मुझे लगा जैसे मैंने कोई जघन्य अपराध कर दिया हो।

मैं चिड़िया के पास गया। किसी तरह उसे उठाया, सहलाया और दीये में पानी भरकर पीने को दिया। उसके पैर में थोड़ा आयोडेक्स भी लगाया। तबतक मेरा छोटा भाई भी आ गया। उसने गुलाबी रंग का एक टीका उस चिड़िया के माथे पर लगा दिया। उसे 2-3 घंटे लगे उड़ने में। वह फुर्र से उड़ गई। कभी-कभी वह मुंडेर पर दिखाई देती। गुलाबी टीके मे वह बहुत प्यारी लगती और पहचान में भी आ जाती ।

वरिष्ठ नागरिकों को ईश्वर काफी समय देता है पश्चाताप करने को। मैं सुबह और शाम चिड़ियों के लिए पानी बदलता हूँ अथवा दाने बिखेरता हूँ, वह चिड़िया मुझे बरबस याद आ जाती है। जिस दिन धोखे से, चीनियों ने गुलेल और पत्थर के निशाने पर निहत्ते भारतीयों को लिया है तबसे वह भोली-भाली चिड़िया और भी याद आ रही है।

गुलेल और पत्थरबाजी के उस्ताद झारखंडी आदिवासियों को उसी इलाके में सड़क निर्माण के लिए भेजा जा रहा है। इनका हुनर दशम फाल में देखने को मिलता है। 2 फीट की गहराई में तैरती मछलियों को , परावर्तन,प्रत्यावर्तन, अपवर्तन और तरल माध्यम के बावजूद इनका गुलेल का निशाना सटीक और घातक होता है।   अब तो गुलेलें भी हाइ-टेक हो गई हैं। पौधों से निकलने वाले नशीले और जहरीले स्राव से नुकीले पत्थरों को और भी घातक बनाया जा रहा है।