1950 के दशक मे कदमकुआं पटना शहर की धड़कन हुआ करता था । पूरब में उभरता हुआ राजेंद्र नगर,
पश्चिम दिशा में पिरमुहानी जो रेलवे स्टेशन के रास्ते को ठीक आधे मे बांटती थी, उत्तर में बाकरगंज और दरियागंज तक और दक्षिण मे लोहानीपुर तक । अगर ये सब
भी कदमकुआं के अंदर थे तो मुझे इसका ज्ञान नहीं था । कदमकुआं और लोहानीपुर को बाटने
वाली सड़क जिसे अब जस्टिस राजकिशोर पथ के नाम से जाना जाता है उसके ठीक मध्य मे
गणेश पाठशाला थी । यहाँ सातवी तक की पढ़ाई होती थी । सरकारी स्कूल जैसे पटना हाई
स्कूल और पटना कोलेजियट स्कूल जहां सातवी से पढ़ाई शुरू होती थी उसमें एड्मिशन के
लिए गणेश पाठशाला मुनासिब तैयारी करा देता था । यह एकमात्र स्कूल था जहां इंग्लिश
की पढ़ाई कक्षा 1 से आरंभ हो जाती थी । इस स्कूल की सबसे बड़ी खूबी यह थी की मात्र 6
महीने मे फ़ाइनल परीक्षा लेकर प्रोमोट कर दिया जाता था । इस कारण यह स्कूल बहुत
लोकप्रिय था । गणेश पाठशाला मे लड़के-लड़कियां दोनों पढ़ते थे ।
मेरे बड़े भाई का एक वर्ष पहले 1952 4थी कक्षा मे दाखिला हुआ
था । वह मुझसे दो वर्ष ही बड़े थे पर दादाजी उन्हे बहुत प्यार से पढ़ाते थे । अव्वल कारण
था कि बड़े भाई का नाक-नक्शा दादाजी से बहुत मिलता था । उन्ही के जैसा बड़ा माथा और
बड़ा चेहरा ।
एक सुबह, दादाजी , बड़े भाई को
छत के कोने मे, भरसक छिपकर पढ़ा रहे थे । वह नहीं चाहते थे कि
मै विघ्न डालूँ । पिताजी किसी कारण से छत पर गए । पिताजी ने दादाजी से आग्रह किया
की मुझे भी पढ़ाया करें । अगर हो सके तो मेरा भी दाखिला स्कूल मे करा दें । 3 दिन
बाद सोमवार की सुबह साफ-धुले कपड़े पहन कर दस बजे तैयार रहने के लिए मुझे हिदायत दी
गई । दादाजी ने एक किताब भी दी तैयारी करने के लिए । मैंने जितना हो सका पढ़ा और
याद रखने का प्रयत्न किया ।
हर दिन सुबह मुझे दादी और माँ मिलकर मुझे तैयार करने लगीं ।
उस किताब से जगह-जगह से सवाल पूछे । सोमवार को ठीक दस बजे,
दादाजी अपने कमरे से बाहर आए । क्या व्यक्तित्व था ? छरहरे, लंबे, काली अचकन-शेरवानी, चूडीदार
सफ़ेद पाजामा और सर पर एक काली टोपी भी थी । रास्ते भर मुझसे सवाल पूछते । जिसका जवाब नहीं आता था,
वह बताते भी गए ।
हेडमास्टर जमीन पर बिछी दरी पर बैठे थे । उनके सामने एक
मुनीम वाला डेस्क रखा था । मुझे अभी तक याद है, हेडमास्टर दादाजी को
देखते ही उठ खड़े हुए थे । अभिवादन का आदान-प्रदान इंग्लिश मे हुआ । हेडमास्टर के
दाहिने तरफ दादाजी बैठे । मुझे सामने बैठने को कहा गया । मेरा परिचय जैसे की मेरा
नाम, पिताजी का नाम और मेरी जन्मतिथि इंग्लिश में पूछा गया ।
7 का टेबल पढ़ने को कहा गया । भूगोल के प्रश्नों में मैं कच्चा निकला । मुझे खड़ा कर
हेडमास्टर मुझे देखने लगे । उन्होने कहा –“यह बालक तो कक्षा 2 के लायक है पर बहुत
छोटा दिखता है और बोली भी बिलकुल बच्चों जैसी है । विद्यार्थी इसे तंग कर सकते हैं
। मैं इसका दाखिला शिशु(KG) मे करूंगा और बहुत जल्दी ही
प्रोमोट कर दूँगा । इसके बाद मेरा पूरा नाम पूछा गया । मैंने प्रकाश सिंह कहा ।
दादाजी ने सुधार कर प्रकाश नारायण सिंह लिखवाया । उनका नाम रामानुग्रह नारायण सिंह
था । उसके बाद सिर्फ मेरे नाम के साथ ही नारायण जुड़ा । दाखिले की फीस 1 रुपया दादाजी ने चाँदी के
सिक्के से दिया ।
गणेश पाठशाला सात कमरों का आयताकार मकान था । यह भवन
बैरिस्टर राज किशोर प्रसाद का था । इसके साथ बाई तरफ जुड़े मकान में स्वयम मकान
मालिक रहते थे। क्लास रूम मे जाने के लिए एक पतला बरामादा था । हेडमास्टर का कमरा
आगे की तरफ था जिसका दूसरा दरवाजा अंदर बरामदे की तरफ था । बीच में एक बड़ा आँगन था
। दक्षिण-पश्चिम कोने पर टॉइलेट था । पश्चिम
छोर में टिफ़िन रखने और खाने की जगह थी ।
तो सबसे पहले टिफ़िन की बात की जाए । पहले ही दिन वहाँ दो
लड़कों को लड़ाई करते देखा । मालूम पड़ा एक दूसरे का टिफ़िन खाकर खाली बॉक्स दूसरे
शेल्फ पर रख देता था । बाद में ये वाकया बहुत बार देखने को मिला । एक लड़का,
सत्येन्द्र अपना टिफ़िन कागज में लपेटकर पैंट की जेब में रख कर लाता था । वह गरीब
था । उसके पास न तो टिफ़िन बॉक्स था और न दिखाने लायक खाना । वह रोटी में सब्जी
लपेट कर लाता था । ज़्यादातर बच्चे परोठे, अंडे और मिठाई लाते
थे । किसी न सत्येन्द्र पर फब्तियाँ कस दी । अब क्या था ?
सत्येंद्र ने ऐसा जोरदार हल्ला मचाया कि शिक्षकों को आना पड़ा शांत करने के लिए ।
मालूम नहीं, सभी को स्कूल आने के बाद ही टॉइलेट की
जरूरत क्यों पड़ जाती थी । आने-जाने का सिलसिला दिनभर चलता रहता था । सभी कमरों का
दरवाजा आँगन की तरफ खुलता था । इसलिए जाने-अनजाने सभी की निगाहें आँगन की चहलकदमी
पर चली जाती थी । एक दिन मेरे दोस्त सुनील
को भी जरूरत महसूस हुई । वह शिक्षक से अनुमति लेकर बीच आँगन में खड़ा हो गया । वहाँ
उसने एक-एक कर सभी कपड़े उतारे और नंग-ध्रङ्ग , इठलाते हुए
टॉइलेट की तरफ बढ़ गया । क्लास में लड़कियों को आगे की पंक्ति में बिठाया जाता था, एकदम दरवाजे के सामने । अब जो खिलखिलाहट शुरू हुई वह जैसे ही रुकने को
हुई सुनील ने टॉइलेट से लौट कर एक-एक कर कपड़े पहनना शुरू कर दिया । खिलखिलाहट ने
फिर ज़ोर पकड़ लिया । इस तरह के ध्यानकर्षण के लिए लड़कों को एक अच्छा बहाना मिल गया । उसके बाद तो लड़कों को लाइन लग गई । दूसरा आया ।
उसने भी उसी तरह बीच आँगन में कपड़े उतारे और पहने । तीसरे ने भी नकल की । पाठशाला में शोरगुल इस कदर
बढ़ा की हेडमास्टर को स्वयम आना पड़ा अनुशासन बहाल करने के लिए ।
कक्षा 1 तक चटाई पर बैठना पड़ता था । कक्षा 2 से डेस्क और बेंच की सहूलियत थी । कक्षा
2 मे मकान मालिक के दो युवा लड़के कभी-कभी पढ़ाने आते थे । बड़े थे सुरेन्द्र । इनका क्लास
हमलोग मंत्रमुग्ध होकर करते थे । कारण व्यक्तित्व सुंदर और आकर्षक तो था ही साथ ही
ये बिहार में बनी भोजपुरी डाक्यूमेंटरी फिल्मों में बतौर नायक बन कर पेश होते थे ।
ये फिल्में पाठशाला में और राज्य सूचना केंद्र के भवन में दिखाई जाती थीं । उनसे
छोटे, नरेंद्र हमेशा चाभी की चैन घुमाते रहते थे और बच्चो को गलती करने पर
चाबुक जैसा इस्तेमाल भी करते थे । कक्षा 2 में 1 महीने के अंदर ही कुछ छात्रों को
कक्षा 4 में प्रोमोट कर दिया गया । मै भी उनमें से एक था । इस बात को घर में जिस
तरह उल्लास से मनाया गया उससे मुझे थोड़ा घमंड आ गया ।
कक्षा 4 मकान मालिक के गैरेज में स्थित था । क्लास टीचर
शर्मा जी थे । ये इंग्लिश पढ़ाते थे । क्लास शुरू होते ही हमलोगों की वर्जिश शुरू
हो जाती थी । कोई मुर्गा बनता तो कोई लीन-डाउन; कोई बेंच पर खड़ा होता तो
कोई क्लास के बाहर । किसी का कान खींचा जाता तो किसी को क्लास से दिन भर के लिए
निकाला जाता था । शर्मा जी से हेडमास्टर भी खौफ खाते थे । जब की सब टीचर मुनीम से तनख्वाह
पाते थे, शर्माजी को स्वयम हेडमास्टर आते थे उनकी तंख्वाह
देने । साथ ही यह हर बार कहते की मैंने आपको दूसरो से 2 रुपये ज्यादा दिये हैं
अथवा सबसे ज्यादा दिये हैं । इसी क्लास में मैंने पहली बार “शर्मा जी शर्माते
हैं, चूहे पकड़ कर खाते हैं”
सुना । गाने की शुरुआत करने वाला विश्वकर्मा नाम का लड़का था जिसकी शिनाख्त होते ही
पाठशाला से निकाल दिया गया ।
मुझसे भी एक बार गलती हो गई थी । पाठशाला जाते समय याद आया
की मैंने शर्मा-सर का दिया होमवर्क तो बनाया ही नहीं । इंग्लिश में कोई भी एक
कविता लिख कर लानी थी और उसे क्लास में सुनाना था । मैंने माँ को बताया और शर्मा-सर
के मिजाज के बारे में भी बताया । मैं बिलकुल नहीं जाना चाहता था । माँ ने मुझसे
पेंसिल ली और झटपट किसी कविता की चार लाइन लिख दी और कहा की कविता को रास्ते में
रट लेना । क्लास मेँ अंदर जाते ही मैंने सबकी तरह कॉपी खोल कर शर्मा-सर के टेबल पर
रख दी । रोल-कॉल के बाद एक-एक कर लड़कों से कविता देखने के बाद उन्हें व्याख्यान
करने को कहा जाता । गलती होने पर बेंत से पिटाई अथवा कान खिचायी । मेरा नंबर आया ।
शर्मा-सर भौचक और बोखलाए हुए मेरी तरफ देखने लगे । उनके पूछने पर मैंने डरते-डरते सच
बात बता दी । शर्मा-सर ने असिस्टेंट हेडमास्टर नथुनी-सर को बुलवा भेजा । उनके आने
तक मैंने न जाने कितने दंड के तरीके बुन लिए थे । उन्हें कॉपी दिखाई गई । उन्हें
सारी बात बताई गई और शर्मा-सर ने जानना चाहा कि क्या ऐसी लिखावट कभी देखी है और
लिखी पंक्तियाँ के कवि का नाम मालूम है । माँ की लिखावट अत्यंत सुंदर होती थी ।
मुझे सच बोलने के कारण कोई दंड नहीं मिला । बड़ा होने पर वह कविता ISc के
टेक्स्ट बुक “Golden Treasury” में
मिली । Wordsworth की “The Rainbow” की पंक्तियाँ थीं ।
शर्मा-सर की एक सबसे बड़ी खूबी तब देखने को मिली जब वे
भूतपूर्व छात्रों के द्वारा अभिनीत “Merchant of Venice” का निर्देशन कर रहे थे ।
मंचन आँगन में हो रहा था । हमलोगों को भी बरामदे में बिठाया गया था । इतना भव्य की
आजतक शेक्सपियर की वह कहानी नहीं भूली है । शर्मा-सर स्वयं शायलक बने थे ।
गणेश पाठशाला में मेरे 3 मित्र बने । पहला सुनील जिसका मै
जिक्र कर चुका हूँ । दूसरा सुशील जो श्री जनक नारायण लाल, MLC
का बेटा था । तीसरा अशोक चोपड़ा जिसके परिवार की मशहूर गोल्डेन
आइसक्रीम पूरे शहर में मशहूर थी ।
हेडमास्टर कभी-कभी ही पाठशाला आते थे । सुना था उनका कलकत्ता
में बड़ा व्यापार है । वे जब भी आते, सभी छात्रों को लाइन में खड़ा किया जाता । उनका
छोटा सा भाषण होता । पढ़ाई में अच्छा करने वाले छात्रों को पुरस्कार और शरारत करने
वालों को दंड मिलता । उनके जन्मदिन पर इसी तरह हमलोगों को इकट्ठा कर लड्डू बांटे
जाते । उनकी मृत्यु पर पाठशाला में 3 दिनों की छुट्टी घोषित हुई थी । उतनी कम उम्र
मे जाना की बड़े लोगों के मरने पर छुट्टी मिलती है । बिन मांगे छुट्टी मिलने का यह
अवसर आज भी बच्चों में खुशी भर देता है ।