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Friday, May 18, 2012

जंगल - 1


पटना शहर के आस-पास जंगल के नाम पर कुम्हरार इलाके में सम्राट अशोक के ऐतहासिक अवशेष थे जिसके कारण उस इलाके को वैसा का वैसा रहने दिया गया था. जंगल से हमारा औपचारिक परिचय झुमरी तिलैया प्रवास के दौरान हुआ.
१९५९ अक्टूबर में, जब हमलोग झुमरी तिलैया आये तब मेरी उम्र १२ साल थी और मेरे छोटे भाई की उम्र ११ साल.  झुमरी तिलैया १ मील लंबे और उतने ही चौड़े एरिया में अवस्थित था. हमारे घर से २ फर्लोंग पूरब में जन संपर्क विभाग था जहाँ खेलने का मैदान , पुस्तकालय और हफ्ते में एक दिन कोई हिंदी डाक्यूमेंटरी या फीचर फिल्म दिखाई जाती ज्यादातर दोबारा /तिबारा . पश्चिम की तरफ करीब पौन मील पर कोडरमा स्टेशन और उसके थोड़ी दूर पर वृन्दावन सिनेमा . बाद में हमारे घर के पास भी पूर्णिमा टाकीज खुली जहां से रोज वही फ़िल्मी गाने शो शुरू होने के पहले और बाद में लाउडस्पीकर पर बजाया जाता. दक्षिणी सिरे पर हमारा स्कूल था . उत्तरी इलाका श्मशान घाट और एक टेनिस कोर्ट जितने पोखर से शोभित था. उसके और उत्तर तथा उत्तर-पूर्व में घना जंगल था जो हमलोगों को हर सुबह आमन्त्रित करता सा लगता. शाम होते ही शेर की हुंकार और सियारों की हुआ-हुआ हमलोगों को जल्दी घर के सुरक्षा के घेरे में बंद होने को मजबूर कर देती. पर ये आवाजें हम बच्चों को रोमांचित कर देती और ऐसा लगता जैसे जंगल का अन्वेषण करने को आमन्त्रित कर रही हो. जंगल का सरहद हमारे घर से आधे मील उत्तर से ही शुरू हो जाता था.
हमलोगों से मेरा मतलब मै और मेरा छोटा भाई मनोज. बड़े भाई तो तीन महीने बाद कॉलेज की पढ़ाई करने हजारीबाग के सेंट कोलम्बस कॉलेज चले गए थे. जहाँ शरारत और खतरे से दो-चार करने की बात होती वहाँ दोनों में से एक को बस पहल करनी होती थी दूसरा सदैव तैयार मिलता था. पिताजी सप्ताह में दो दिन तो अवश्य टूर पर रहते. इन दो दिनों में हमलोगों को सुबह पांच बजे से रात के नौ बजे के बीच काफी शरारत करने का अवसर मिल जाता.
हमलोगों का घर से बाहर का पहला पड़ाव पोखर बना. हमारे काली मंडा मोहल्ले में बस एक हमारे और मेहरा अंकल के सिवा १०० जनों का मोहल्ला पूरा बंगाली था इसलिए पोखर को पूरा सम्मान मिलता. सुबह के समय औरतें और लड़कियां वहाँ बर्तन-कपडा धोने और नहाने इकठ्ठा होती. दोपहर को बच्चे और बड़े बंसी लेकर मछली पकडते जो शगल शाम तक चलता. गर्मी के दिनों में सुबह का स्कूल हुआ करता और सभी लड़के पोखर में नहाते और हल्ला मचाते. हमलोगों ने इसके पहले न तो पोखर में नहाया था और न तो मछली ही पकड़ी थी. मौला मिला नही कि हमलोग पोखर के किनारे होते. डेढ़ साल के तिलैया प्रवास में मैं मछली पकड़ने में और मनोज तैरने में प्रवीण हो चुके थे.
हमलोगों के इस शौक में हमारा कुत्ता पप्पी भी पूरी तरह शामिल हो जाता . सेंट बर्नाड की नस्ल का गेरुए रंग का नेपाली कुत्ता बहुत अच्छा तैराक था . उसे उसके पुराने मालिक हमलोगों के पास छोड़ गए थे ,जिसकी जगह पर पिताजी की पोस्टिंग हुई थी . पप्पी में बस एक खराब आदत थी . अगर किसी ने उसे फटकार दिया या पत्थर दिखला भर दिया तो उसे काटे बिना नहीं छोडता था. कहते है उसने एक बार किसी सांसद को काट लिया था जिसके चलते विधान सभा में वह चर्चा का विषय बन गया था. हमलोगों के लाख सावधानी के बावजूद उसने एक साल में १० का रिकॉर्ड बना ही लिया .
झुमरी तिलैया बस तीन बातों के लिए जाना जाता था. एक तो अभ्रख का खनन व् तराशने के लिए पूरे विश्व में और दूसरे रेडियो पर फरमाईशी फ़िल्मी गीत के लिए पूरे भारत में. उसमे सबसे लोकप्रिय रामेश्वर नाथ बरनवाल उर्फ पोपट लाल तीसरी बार फेल होकर मेरे क्लास में पहले से मौजूद था. तीसरा सबसे अहम था उसकी विशाल प्राकृतिक धरोहर ; चारो तरफ घने जंगल और उसमे तरह-तरह के जानवर, पक्षी तथा पेड़-पौधे.
जंगल का डर पिताजी ने ही मिटाया. हजारीबाग नेशनल पार्क हजारीबाग जाने के रस्ते पर पड़ता था जहाँ पिताजी का हेड ऑफिस हुआ करता था. उन्हें महीने-दो महीने में एक बार वहाँ जाना पड़ता था . वे जब भी जाते मुझे साथ ले जाते और ज्यादातर दिन का खाना वे नेशनल पार्क के किसी वाच टावर पर बैठ कर खाते. टॉवर ३ जंगल के काफी अंदर था और उसके सामने एक पतली नदी बहती थी. वहाँ शाम को जानवर पानी पीने आते थे. पहली बार ही मैं टॉवर पहुँचने पर नदी के किनारे चला गया .पिताजी भी खाना खाकर वहाँ आये. मैंने उन्हें शेर के पंजे का निशान भींगे बालू पर दिखाया. इतना उन्हें इम्प्रेस करने के लिए काफी था. इसके बाद ही वे जहाँ कही भी जीप से दौरे पर निकलते और अगर अवसर होता तो मुझे  अवश्य साथ ले लेते.
ऑफिस की जीप ज्यादातर वही ड्राईव किया करते . अशरफ ड्राईवर साथ या पीछे बैठता. सबसे पहले मैं उनके साथ डैबौर घाटी गया . यह घाटी रांची-पटना नेशनल हाईवे पर झुमरी तिलैया से रजौली जाते समय रजौली के पहले पड़ती है. लगभग  २५ किलोमीटर का दुर्गम पहाड़ी रास्ता तय करने में दो घंटे से ज्यादा का समय लगा .  समुद्र से कोई ७०० मीटर, हाई वे से सटे डाकबंगलो में हमलोग एक बजे दिन में पहुंचे. वहाँ से दूर-दूर तक केवल पेड़ और झाडियाँ ही दिखती थी, कही से पानी कि कल-कल आवाज़ भी आ रही थी. पिताजी ने कहा के आगे जाने पर एक बाँध भी है जहाँ वे अगली बार आने पर ले चलेंगे. बंगलो से हमारा काफिला जिसमे ड्राईवर और चपरासी भी शामिल थे पैदल अभ्रख की खान की तरफ बढ़ा जिसका इंस्पेक्शन पिताजी को करना था . पिताजी पूरे अभ्रख के खनन और व्यापार के इंस्पेक्टर थे. करीब १ किलोमीटर का रास्ता टेढ़ी-मेढ़ी ढलुआ पगडंडियों का था जिसपर हर वक्त फिसलने और गिरने का डर बना रहता था. पिताजी कि यह औचक पड़ताल थी और उन्होंने अवैध खनन होते रंगे हांथों पकड़ लिया था. साथ ही बारूद भंडारण वाली मगजिन भी असुरुक्षित थी. अभी चार ही बजे थे कि शेर की हुंकार से, चिड़ियों की चहचाहट से और कभी-कभी कुछ दूसरे जानवरों की आवाज़ से वातावरण अशांत सा हो गया. हमलोग तुरत वहाँ से वापिस आ गए. पिताजी ने दूसरे दिन ऑफिस पहुंचकर खान के मालिक को तुरत खनन रोकने का लिखित आदेश दे दिया.   
एक बार शाम को जब हमलोग जीप से लौट रहे थे तब रस्ते में जंगली सूअरों का झुण्ड दिखा. जीप पिताजी ही चला रहे थे. उन्होंने जीप उन जानवरों के पीछे दौड़ा दी. ये दौड २-३ मील लंबी चली. अंत में गुझंदी रेलवे स्टशन का यार्ड आ गया जहाँ तार के ८ फीट ऊँचे बाड़े लगे थे . सूअर उस जगह कॉर्नर हो गए. पिताजी ने ठीक उनके सामने ५ गज की दूरी पर जीप रोक दी. मुझे अब भी याद है कि साथ बैठे ड्राईवर ने करीब-करीब गिड़गिड़ाते हुए इतने धीमे से पिताजी को जीप मोड लेने को कहा जिससे कि सूअर सुन न लें. बाद में ड्राईवर ने कहा कि अगर थोड़ी देर होती तो १५-२० सूअर एक साथ हमला कर देते और हमलोग जीवित नहीं बचते.
इतना कुछ अनुभव बटोर लेने के बाद अब हमलोग जंगल की कुछ ज्यादा खोजबीन के लिए तैयार हो गए थे. पहला अवसर मिला जब मोहल्ले का बंगाली समुदाय हमारे घर से तीन मील दूर जंगल के बीच एक नदी के किनारे पिकनिक जा रहा था. मैं और मनोज भी उस पिकनिक में शामिल हो गए. उस दिन हमलोगों ने पहली बार साही दिखा जिसके बदन पर रोएँ की जगह ८ इंच लंबे कांटे होते है. हमलोगों को ढूंढने पर एक काँटा मिला जिसे हमलोग कलम बनाने के लिए घर ले आये पर हमारी दादी ने उस तुरत बाहर फेंकवा दिया .उनका कहना था कि साही के कांटे के घर में रहने से कलह होता है. हमलोगों ने भेड़िया प्रजाति का जानवर हुड़ाड़ देखा जो भेदिये से ज्यादा भयानक होता है और घर से सोते बच्चों को उठा ले जाता है. हमलोग जब खाना खाकर उठने लागे तो कुछ सियार झाड़ी के पीछे से झांकते दिखे. अंत में शेर की हुंकार से हमलोगों को जल्द ही लौटना पड़ा.
इसी तरह मैं और मनोज दो साथिओं , नुपुर और भैया के साथ घर से तीन मील उत्तर घने कंगल में  झरना कुंड नहाने गए जहा दुर्गाजी का मंदिर था और जहाँ शेर शाम के बाद डेरा डालते थे.  वहाँ मंदिर के सामने झरने का बहता पानी बैडमिंटन कोर्ट जितने बड़े कुंड में जमा होकर आगे बढ़ जाता था. नहाते-नहाते नुपुर पानी में गहरी डुबकी भी लगाता जाता. एक बार वह नहीं निकला . हमलोग बहुत डर गए. जब १० मिनट ज्यादा हो गया तो हमलोग घर भाग आये. ये वाकया हमलोगों ने किसी को नहीं बताया. अगले दिन हमेशा कि तरह जब स्कूल गए तो वहाँ नुपुर हँसता हुआ मिला.
जैसा हमलोगों ने  झुमरी तिलैया के जंगलों के बारे में सुना था वैसा कुछ रोमांचकारी दिख नहीं रहा था. अब इच्छा होने लगी थी स्वयं जंगलों की छानबीन करने की. आखिर एक दिन मौका मिल ही गया. १२ दिसम्बर १९६० ,दिन सोमवार, जब मै और मनोज स्कूल पंहुचे तो पता चला की उस दिन गुरु गोविन्द सिंह का जन्मदिन होने के कारण छुट्टी थी. सुबह के दस बज़ रहे थे .हमलोग घर लौटने के बजाय स्टशन कि और ट्रेन की आवाजाही देखने बढ़ गए . पहुचने पर मालूम हुआ की गया की और जाने वाली ट्रेन आने वाली है. मैंने मनोज को कहा की चलो इस ट्रेन से गझंडी चलते है और लौटती ट्रेन से स्कूल खत्म होने के समय वापस आ जायेंगे. उस समय गझंडी सबसे घना और डरावना जंगल मन जाता था और पिताजी ने भी तो जंगली सूअरों को वहीं दौड़ाया था. आनन्-फानन में हम दोनों ट्रेन पर चढ गए. गझंडी मात्र ६ किलोमीटर पर था. १० मिनट में पहुच गए. हम दोनों के अलावा केवल एक अधेड आदमी उस स्टशन पर उतरा. उसने हमलोगों से पूछा भी कि हमलोग इस वीराने में क्यों आये है और बताया कि बस स्टेशन के पास ही एक्का-दुक्का घर है और कुछ लोग लकड़ी काटने-बटोरने आते हैं. पूछने पर उसने बताया कि यही ट्रेन चार बजे लौटेगी जिससे वह भी लौट जायेगा.
हमलोगों के पास ५ घंटे से ज्यादा समय था घूमने-भटकने के लिए . दहिनी तरफ गौर से देखने पर दूर में वही पहाड दिख रहा था जो हमारे घर से भी दिखता था इसलिए हमलोगों ने दाहिना भाग ही चुना आगे जाने के लिए. हमलोगों के पास मात्र २० पैसे थे पर वहाँ कहीं भी कुछ खरीदने-खाने जैसा नहीं दिखता था. हमलोगों ने स्टशन के चांपाकल से भरपेट पानी पी लिया.
कुछ १०० कदम जंगल के अंदर जाते ही मजा आ गया . हमलोगों ने चारों तरफ नज़र दोडाई तो मन ललचा गया . जंगली बैर जो अभी पके नहीं थे , छोटी-छोटी झाडियों में काले रंग के मटर के दाने के बराबर मीठे फल, कहीं-कहीं अमरख के पेड़ और खजूर के पेड़ जिसमे खजूर तो नहीं पर खजूर का टपकता रस भरने के लिए मिटटी की सुराही जैसा पात्र ऊपर लटकता हुआ जिसे वहाँ की आम भाषा में लबनी कहा जाता है.
हमलोग फलो का स्वाद लेते हुए आगे बढते रहे . खरगोश दिखा. छिप कर देखता हुआ सियार दिखा. एक साप भी रास्ता काटते मिला, भूरा और एक मीटर लंबा., गिलहरी, नीलगाय जैसा कोई जानवर जो कभी गाय, कभी घोडा और कभी बकरी जैसा दिखता था. पेड़ों पर तरह तरह के पक्षी जिनमे हमलोगों ने जंगली मुर्गे को पहचाना भर और कोयल की आवाज़ भी . कभी-कभी शेर की हुंकार भी सुनाई देती थी. आवाज़ से ऐसा लगता था की शेर हमलोगों से एक मील दूर आराम कर रहा होगा. तबतक हमलोगों को ज्ञान हो गया था कि दोपहर में जानवर आराम करते है , पानी पीने और शिकार करने शाम को ही निकलते है. अचानक पास कही भगदड़ जैसी मच गयी जैसे बहुत सारे घोड़े दौड रहे हों. हमलोगों ने अनुमान लगाया कि वे जंगली सूअरों का झुण्ड रहा होगा .
जिस जगह हम लोग आ गए थे वहाँ शाम जैसा अँधेरा था और डर भी लगने लगा था . हमलोगों ने लौटना शुरू किया . बैर अभी बहुत कच्चे थे .उनमे स्वाद नहीं था. अमरख एक-दो खाया जा सकता था . करौंदे जैसा फल बहुत मीठा था पर उससे पेट कम भर रहा था , भूख ज्यादा लग रही थी. जैसे ही स्टेशन  दिखने लगा , डर भाग गया और अब शैतानी करने की सूझने लगी . निशाना खजूर का पेड़ बना. हमलोग लबनी को तबतक पत्थर का निशाना बनाते रहे जबतक की वह टूट नहीं गया . उसका रस चूने लगा .हमलोगों ने चखा . मीठा और खट्टा दोनों था. हमलोगों को मालूम था कि इसके पीने से नशा हो जाता है. इसलिए दो-तीन लबनी तोड़ने पर कुछ आधा- आधा कप ही पीकर मन को रोक लिया.
स्टेशन हमलोग दो बजे तक पहुँच गए थे . अभी भी बहुत समय था. मैं मनोज के साथ अब उस और बढा जिधर पिताजी ने जंगली सूअरों को घेरा था. स्टेशन से सटे तार का ऊँचा बाड़ा था जिसके अंदर ज्यादातर रेल की पटरी बनाने का पार्ट्स और बिजली के केबल का १५-२० विशाल पहियानुमा गर्डर रखा था. हमलोग स्टेशन के खुले प्लेटफार्म पर एक पेड़ के नीचे बने ईटें के घेरे पर बैठ कर ट्रेन का इंतज़ार करने लगे. ट्रेन समय पर आई और हमलोग घर स्कूल से जिस समय पर पहुंचते थे ,पहुँच गए.
रेलवे टाइम टेबल में एक और अच्छा प्लान दिखा . इस बार उलटी तरफ : कोडरमा से हिरोडीह; दूरी: ७ किलोमीटर : जाने के लिए ट्रेन ०८४५ पर: लौटने के लिए वही १०१५ वाली ट्रेन जिससे हमलोग गझंडी  गए थे. हमलोगों का स्कूल सुबह का हो गया था ; सात बजे से ११ बजे तक. एक दिन जब किसी की मृत्यु पर स्कूल मे तुरत छुट्टी हो गयी तब हमलोग घर जाने के बजाय स्टेशन आ गए . ट्रेन ९ बजे गया कि तरफ से आयी. मै और मनोज खिड़की वाली एक सीट पर शेयर करके बैठ गए. ट्रेन तुरत खुल गयी और उसने रफ़्तार भी पकड़ लिया . हमलोगों ने फैसला किया कि चुकी ये ट्रेन बहुत कम समय के लिए रूकती है इसलिए धीमे होते ही दरवाजे पर उतरने के लिए तैयार हो जायेंगे. पर ये क्या ? हिरोडीह स्टेशन तो पलक झपकते गुजर गया . मनोज की प्रतिक्रिया देखने लायक थी . एक तो टिकट नहीं लिया दूसरे ट्रेन नहीं रुकी; अब क्या होगा? मैंने उसे धीमे से कहा सब  कुछ ठीक है , अगले स्टेशन उतरेंगे .पर दूसरा स्टेशन भी वैसे ही गुजर गया . तब बात समझ में आई. ये तो एक्सप्रेस ट्रेन है किसी बड़े स्टेशन पर ही रुकेगी. मैंने मनोज को पुनः धैर्य दिलाया . हमलोग हजारीबाग रोड स्टेशन उतेरेंगे और उधर से आती हुई पैसेंजर ट्रेन को पकड़ लेंगे. ९३० पर ट्रेन हजारीबाग रोड स्टेशन पर रुकने के लिए धीमी होने लगी पर दिल की धड़कन तब रूकती हुई लगने लगी जब हमलोग लौटने वाली पैसेंजर ट्रेन को प्लैटफार्म से छूटते हुए देखते रहे.
हम दोनों एक वीरान से स्टेशन पर खड़े थे. मुझपर बड़े भाई होने के नाते एक बड़ी जिम्मेवारी भी थी. सबसे जरूरी था मनोज को आश्वस्त रखना. हमलोग वही बेंच पर बैठ गए. मैंने जाने की तैयारी कर रहे एक अकेले खोंचेवाले से पूछा कि यहाँ से हजारीबाग कितनी दूर है. उसने बताया कि हजारीबाग ३५ मील है पर एक ही बस है जो अभी पैसेंजर लेकर चली गयी होगी. मैंने, सबसे पहले उससे २० पैसे के भुने चने खरीद लिए .मालूम नहीं वहाँ कुछ मिलने वाला भी था या नहीं. उसीने बताया कि कोडरमा स्टेशन जाने वाली गाडी पांच बजे आएगी. मैंने उससे पूछा कि उस जगह घूमने लायक क्या था ? उसने बताया कि वहाँ केवल जंगल ही जंगल था. स्टेशन के दाहिने तरफ पश्चिम में १०-१५ रिहायशी घर थे. पूरब की तरफ केवल जंगल था . हमलोग पूरब के तरफ आगे बढे. सबकुछ गझंडी जैसा ही था पर कुछ भी अच्छा नहीं लग रहा था . वैसे ही पेड़-पौधे, वैसी ही चिड़ियों कि चहचहाहट और एक्का-दुक्का जंगली जानवरों की ताका-झांकी पर बार-बार घर पर हमलोगों के बारे में क्या सोचा जा रहा होगा इसकी परेशानी और डर दोनों हावी हो रहे थे. पिताजी को जब गुस्सा आता था और उन्हें ज्यादातर गुस्सा ही आता था तब बेंतों की बौछार से कोई नहीं बचा पाता था.
हमलोग थक-हार कर वही स्टेशन के बेंच पर आकर बैठ गए. याद पड़ा साथ में चने की पुडिया है.  जैसे ही हमलोगों ने खाना शुरू किया कहीं से दो लड़के जिनकी उम्र ४ और ६ साल कि रही होगी प्रगट हो गए. बदन पर एक छोटा सा निकर. उनलोगों ने मुझसे कुछ खाने को माँगा. मेरे पास बस चना था वह भी दो मुट्ठी भर. हमलोग चार जन बड़े मन से चना खाए और बगल के चांपाकल से भर पेट पानी पिया. आखिर चार बजे तक इतने से ही काम चलाना था. समय बिताने के लिए मैंने उन लड़कों से पूछा कि वे क्या करते थे. उनमे से जो बड़ा था उसने बताया की वे ट्रेन में नाच-गाकर यात्रियों से जो कुछ मिल जाता है उससे गुजारा करते थे. उन दोनों ने तरह-तरह से उल-जलूल नाच कर और कुछ फ़िल्मी गाने गाकर हमें रिझाया . किसी तरह चार बज गए पर ट्रेन का नामोनिशान नहीं था. एक खाकी कपड़े में रेल का कामगार पटरी ठोक-बजा रहा था और कही-कही तेल डाल रहा था. मैंने उससे पूछा कि ट्रेन आने में देर क्यों हो रही थी. उसने कहा कि उस दिन बुघवार था और बुधवार को उस स्टेशन से छ बजे क्रैक मेल ( जिसे बाद में राजधानी एक्सप्रेस बना दिया गया होगा) गुजरती है उसके बाद ही कोडरमा स्टेशन रुकने वाली ट्रेन आएगी. हमलोग के तो प्राण सूख गए. क्रैक मेल साढ़े छ बजे गुजरी. हमारी ट्रेन चार बजे के बजाय सात बजे आई. घर पहुंचते आठ बज गए. जनवरी का महीना था, ठण्ड काफी हो गयी थी.
घर में बिलकुल सन्नाटा था. हमलोग मार खाने का पूरी तरह मन बना चुके थे. जिस कमरे में हमारी छोटी बहनें रहतीं थीं उसकी बंद लकड़ी की खिड़की के सिल पर बैठ गए. दस मिनट दस पहर जैसे बीते. कमरे की बत्ती जली. हमलोगों ने बहुत धीमे से खिड़की पर थाप देनी शुरू की. कुछ देर तक कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई. जरूर सबसे छोटी बहन इम्मा थी. उसकी उम्र पांच बरस रही होगी. थोड़ी देर बाद माँ  की आवाज आई. उसने हमलोगों को अंदर आ जाने को कहा साथ ही यह भी बताया की पिताजी उस वक्त घर पर नहीं थे . हमलोगों को खिला कर और हमारी बातें जल्दी-जल्दी सुनकर उसने सोने के लिए भेज दिया. अगले दिन स्कूल से लौटने के बाद माँ ने घर में हमारी अनुपस्थिति में जो घटा उसे विस्तार से बताया.  
पिताजी को अपने ऑफिस में ही स्कूल में छुट्टी हो जाने कि खबर हो गयी थी. वे जब एक बजे खाना खाने घर आये और हम दोनों को नहीं पाया तो काफी बिगड़े. ऑफिस से वे लगातार आधे-आधे घंटे पर फोन करते रहे . आखिर चार बजे घर लौटकर सबसे पूछताछ शुरू की. छोटी बहन इम्मा ने बताया कि हमलोग ज्यादातर मछली तोड़ने पोखर जाते है. उसने हमलोगों को बंसी में लगे धागे और उसपर लगे फांस से मछली निकालते कभी देख लिया होगा. छ बजे शाम तक पोखर में जाल फेंककर लोग हार चुके थे. उसके बाद सभी चपरासी और ड्राईवर बस स्टैंड, रेलवे स्टेशन और स्कूल के खेलने के मैदान भेजे गए. रात को पिताजी हारकर पुलिस स्टेशन प्राथमिकी लिखवाने गए. जब १० बजे वे घर लौटे तो माँ ने बताया कि दोनों ट्रेन के अंदर देखने के लिए चढ़े ही थे कि ट्रेन खुल गयी और उसके बाद का सारा वाकया जस का तस सुना दिया . पिताजी उस रात सोते समय रो रहे थे. उसके बाद पिताजी मनोज को भी अपने साथ घुमाने ले जाने लगे.

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