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Sunday, July 19, 2015

सिनेमा सिनेमा – 2 !

1952 में,पटना आने पर, मेरी उम्र सभी कुछ जानने समझने की हो गयी थी. खेलने और आसपास एक्स्प्लोर करते पांच वर्ष कैसे बीत गए मालूम ही नहीं पड़ा. इसी बीच शायद मैं अपनी दादी के साथ एक-दो धार्मिक फिल्मे देखने गया था. एक फिल्म थी “राजा भरथरी”. जब राजा सन्यासी के भेष में अपनी रानी से भीख मांगने आता है, और रानी रोते-गाते सीढ़ी से उतर कर राजा के नजदीक आती जाती है, उस दृश्य को याद करते आज भी आँखे भीग जाती हैं.
एक दिन सुबह मैं दादी के साथ सब्जी खरीद कर घर लौट रहा था. उसी समय विक्टोरिया घोडागाडी पर “ हरि दर्शन” फिल्म की होर्डिंग और एलान, इश्तेहार लुटाते हुए नजदीक आने लगी. मैं और दादी रूककर नजारा देखने लगे. दादी के डर से मैंने इश्तेहार पाने की कोशिश नहीं की. साईस के बगल में बैठा एक बुड्ढा मौलवी सर पर टोपी लगाये भोपू पर बोलता और इश्तेहार बाँट रहा था. अचानक उसने दादी को देखकर, बग्घी रुकवा दी. नीचे उतर कर सलाम किया और एक  रंगीन फोल्डर दादी को बड़े आदर के साथ थमाया. कुछ कहा और आदाब कर, विक्टोरिया पर बैठ आगे रवाना हो गया। उस फोल्डर में फ़िल्म के सभी बीस गाने थे। यह फिल्म हम तीनो भाईयों ने देखी थी और न जाने कितनी बार बरामदे में इसका मंचन भी किया. हाँ, नृसिंह अवतार हमेशा चपरासी  इब्राहीम को ही बनाया जाता.
पटना में, शाम को सब दोस्त कांग्रेस मैदान में जमा होकर कुछ भी खेल खेलते, ज्यादातर आसपास या दोल-पात. थककर बैठते और बतियाते. उम्र में बड़े साथियों से उनकी देखी हाल की फिल्म की कहानी और गाना सुनते. अंतु, मुकेश के गए गाने बहुत अच्छी तरह गाता था. ऐसे , उस काल में पटना वाले पूरी तरह मुकेश के दीवाने थे.उनके साथ, घर में बिना बताये मैंने शहीद भगत सिंह, जागते रहो, अनाड़ी और नागिन फ़िल्में देखी थी. नागिन फिल्म देखने का किस्सा भी मजेदार है. 
एक दिन सुबह, बैंड-बाजे के साथ ऊंट, हाथी और घोड़ों की कतार्रों से घिरी बरात हमलोगों के सडक में एंट्री लेने लगी. हम सभी दौड़कर गेट के बाहर आये. सोचा ये सुबह कैसी बरात आ रही थी. ऐसा भी कि कोई सर्कस कम्पनी का जुलुस हो. नजदीक आने पर पता चला कि वह तो नागिन फिल्म के गोल्डन जुबली का जश्न मनाया जा रहा था. अब इस फिल्म को देखना तो बनता ही था.
एक दोपहरी मैं कुछ सेकंड हैण्ड पुरानी किताबें खरीदने जनरल पोस्ट ऑफिस के नुक्कड़ पर गया था. सामने पर्ल टाकीज पर "जागते रहो" का पोस्टर लगा हुआ था- गगनचुम्बी इमारतों के बीच टोर्च लिए एक सिपाही की तस्वीर और उसको देखता एक देहाती.  इसका एक गाना"जागो मोहन प्यारे" सुबह विविध भारती पर सुना करता था. पॉकेट में 20 पैसे बचे थे. सबसे सामने वाली बेंचों पर बैठने का यही टिकट भाव था. ऐसा सबकुछ भी इस देश में होता है जानकर विछुब्द हो गया. वह प्यासा देहाती कौन था इसकी जानकारी कांग्रेस मैदान के दोस्तों ने मेरा मजाक बनाते हुए डी. इसके बाद "अनाड़ी" देखी. मुझे वह दृश्य अभी तक नहीं भूलता है जब वसीयत लिखने वाला वकील गंभीर रूप से बीमार बूढी मिसस डीसा से पूछता है कि वह लड़का तो हिन्दू है और आप क्रिश्चियन तो फिर आपमें माँ-बेटे का रिश्ता कैसे हुआ ? और डीसा जवाब देती है कि ये रिश्ता उस समय से है जब कोई धर्म नहीं बना था.

पटना में, ज्यादातर खाली समय, फ़िल्मी दुनिया के हिस्से जाता था. घर का कोई कोना रंगमंच बन जाता था जहां रामायण से लेकर सुलताना डाकू तक का मंचन होता था. हाँ ये बात अलग है कि दबंग लड़के चाहे कितने भी तंग-हसीन हो राम ही बनते थे, कितने ही सीकिया हों, डाकू बनने के लिए लड़ने तक को तैयार रहते थे. लडकी का रोल कोई निभाना ही नहीं चाहता था, अनिल भी नहीं जो दीखता लड़की था, चलता भी लड़की कि तरह इठलाकर और सुन्दर इतना कि लड़कियों को भी अपने साथ बिठाने में ऐतराज नहीं होता था. एक-दो लड़के तो शिक्षकों से भी फ़िल्मी अंदाज में बातें करते थे. उनमे, मैं पटना कॉलेजिएट स्कूल के सहपाठी शत्रुघन सिन्हा को कैसे भूल सकता हूँ. 

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