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Saturday, July 18, 2015

सिनेमा सिनेमा - 1 !

आजादी मिलने के दशक में मनोरंजन का सबसे अहम् साधन सिनेमा ही हुआ करता था. न किताबी ज्ञान की जरूरत, न भाषा ज्ञान की दिक्कत और सबसे मजेदार बात ये कि लोग अपने-आप को उस फिल्म के किसी चरित्र से  भावनात्मक और मानसिक रूप से जोड़ लेते थे. कुछ तो जिस्मानी तौर पर भी जो राह चलते दिख जाया करता था, ज्यादातर कपडे पहनने और बाल सवारनें में उस समय के फ़िल्मी पात्रो की बखूबी नक़ल होती थी.
मेरा फ़िल्मी ज्ञान चार]बरस की उम्र से ही ही गया था. तब मैं जमशेदपुर में रहता था. मेरे पड़ोस में रहने वाली दीदी की शादी तय हुई थी. वे बहुत आतुरता से तैयारी में लगी थी पर चुपके चुपके. अब शादी होकर ससुराल जाएगी तो गाने की फरमाईश तो होगी ही पर उन्हें औरो की तरह समझदारों को सुनाने में झिझक होती थी . दीदी दोपहर को मुझे टॉफी वगैरह का लालच देकर बुला लेती थी. पहले रिकॉर्ड बजाकर सुनाती, फिर उसी लय में गाना गाती और मुझसे उसकी गुणवत्ता पर चर्चा करती. गाना वे बहुत अच्छा गाती थी और मैं तारीफ़ भी कुछ कम नहीं करता था. गाने के बोल थे “ अब रात गुजरने वाली है”. हारमोनियम के साथ उनकी आवाज बहुत मीठी और मनभावन लगती थी.
एक दिन हम तीनो भाई सरकारी क्वार्टर के गेट पर लगे नल पर नंगे नहा रहे थे. तभी फ़िल्मी होर्डिंग लगी जीप सड़क से वही गाना बजाते गुजरने लगी. भोपूं पर आवारा फिल्म की जानकारी दी जा रही थी और इश्तेहार बिखराए जा रहे थे. हम तीनो भाई इश्तेहार लूटने दौड़ पड़े. बड़े भाई ने तौलिया लपेट लिया था जो रस्ते में ही बदन से गिर गया दौड़ते-दौड़ते. मेरे बदन पर साबुन लगा था. छोटा भाई रोते-रोते हम दोनों तक आना चाह रहा था, जिस हंसी के साथ अनाउन्सर ने हमलोगों की तरफ इश्तेहार झोंका वह अभी तक नहीं भूलता है. तीनो को पर्चे मिल गए जो रिकॉर्ड था नहीं तो कभी एक या कभी एक भी नहीं. चाहे सोते रहें या दूर खेलते रहे, इश्तेहार बटोरना हमलोगों का एक मनपसंद शगल था.

पिताजी को फिल्मों से लगाव नहीं था, पर मजिस्ट्रेट होने के नाते बालकनी में अव्वल सीट खबर भिजवाने पर पूरे परिवार के लिए रिज़र्व हो जाया करती थी वह भी पहले दिन-पहले शो में . पिताजी को छोड़कर पूरा परिवार फिल्म देखने जाया करता था . लम्बे सोफे पर जिस किसी बच्चे को नींद आने लगती थी वह लेटे-लेते देखता हुआ सो जाता था जिसे बाद में चपरासी गोद में लेकर वापिस घर ले आता था. मुझे याद है,आवारा फिल्म. मैंने आवारा का टाइटल गाना पूरी तन्मयता के साथ, “एक बेवफा से प्यार किया” लेटकर और “अब रात गुजरने वाली है” नींद से जागकर भौचक हो देखा था. अच्छा तो यही गाना दीदी रिहर्सल करती रही थी. दूसरी सुबह मैं अपने बाल राजकपूर स्टाइल में सवार और बिन-बुलाये दीदी के पास पहुँच गया. उन्होंने 5-6 बार दोनों गाना गाकर सुनाया. वहीँ खाना खाकर सो भी गया. शाम को दीदी ने उसी तरह मेरे बाल सवार कर मुझे मेरे घर के अन्दर गोदी में लेकर पहुँचाया. पिताजी ऑफिस से आ गए थे. दरवाजा बंदकर उन्होंने मुझे मेरे जीवन का पहला थप्पड़ रसीद किया- “ बरखुरदार अभी से जुल्फी काढने लगे”. दूसरी सुबह रंगरूट स्टाइल में हजामत बनी. 

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