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Friday, June 19, 2015

एक और गाँधी !

1952 अप्रैल में हमलोग टाटानगर से पटना आ गए थे । पिताजी का ट्रान्सफर हुआ था । कदम कुआँ के अनुग्रह नारायण पथ पर एक मंजिला मकान किराए पर लिया गया रहने के लिए । पश्चिम के दो कमरों के पार्टीशन में कम्युनिस्ट पार्टी के लीडर श्री सिआवर शरण का परिवार । बाकी के 10 छोटे बड़े कमरों में हमलोग । पीछे के एक कमरे में वयोवृद्ध शीतल बाबू रहते थे, जो बिना कुछ कहे स्वतः कमरा छोड़ कर जा रहे थे । उनके साथ मेरे से दो साल बड़ा लगभग 7 वर्ष का एक ख़ूबसूरत लड़का भी अपने दादा का हाथ पकडे खड़ा था । पिताजी ने उनसे कहा कि आप जैसे रहते आये थे वैसे ही रहिये, हमलोग इतने बड़े घर का करेंगे भी क्या । सवा पांच फूट के गोर-नारे, सफ़ेद बालों को गाँधी टोपी से ढंके शीतल बाबू ने दोनों हाथ उठाकर आशीर्वाद दिया । उनकी पलकें भींग आयीं । उन्हें आदर से लोग गाँधी जी कहते थे ।

उन्होंने अपने को पूर्णतयाः स्वतंत्रता संग्राम में झोंक दिया था । पूर्णरूपेण गाँधीवादी । जब बार-बार की जेल यात्रा स्वतंत्रता मिलने के बाद ख़त्म हुई तब वे भी शारीरिक रूप से जर्जर हो चुके थे । राजनीतिक तंत्र को इस गाँधी की कभी याद नहीं आयी न इन्होने कभी याद दिलाने का प्रयत्न ही किया पर जब भी तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ0 राजेंद्र प्रसाद सदाकत आश्रम में आकर ठहरते तब उनसे मिलने अवश्य जाते । पिताजी के पूछने पर कहते कि उनके आने पर बहुत जाने-पहचाने चेहरों से भी मुलाक़ात हो जाती है ।

वे सदैव खादी का ही उपयोग करते थे । यहाँ तक की उनका बिस्तर भी खादी से बना था । अवकाश के दिनों में वे सदाकत आश्रम जाकर गाँधी चरखे पर सूत काटते । शायद उसी सूत से उनका वस्त्र बुना जाता होगा ।

गाँधी जी पौ फटने से पहले स्नान-ध्यान कर, लकड़ी के चूल्हे पर भोजन बना-खा,अपने पोते के साथ निकल जाया करते थे । हमलोगों के जागने के पहले वे दोनों ज्यादातर शायद सत्तू या चूड़ा ही खाकर निकल जाते ।

कामेश्वर समय पर स्कूल आ जाता । स्कूल की छुट्टी के बाद वह अपने कमरे में लौटता । सुबह का बचा खाना खाता । बहुत कहने पर कभी-कभी हमलोग के साथ माँ का बनाया-परोसा खाना खाता । हमलोगों के साथ शाम को खेलता और समय पर अपने कमरे में लालटेन जलाकर पढने बैठ जाता । गांधीजी ने हमलोगों से बिजली का कनेक्शन बहुत कहने पर भी स्वीकार नहीं किया था ।

उन दिनों हमारे घर इंग्लिश दैनिक स्टेट्समैन और हिंदी दैनिक सन्मार्ग आता था । दोनों अखबार कलकत्ता से दूसरे दिन मिलते थे । गांधीजी पटना से प्रकाशित दैनिक आर्यावर्त में कार्यरत थे । उनके चलते नियमित रूप से पटना का ताज़ा दैनिक अखबार “आर्यावर्त” आने लगा था । वे पढ़कर उसे हमलोगों के लिए दालान की चौकी पर रख दिया करते ।

एक रविवार जब मेरी नींद तडके खुल गयी तो मैंने देखा कि गाँधी जी बरामदे के कोने में लकड़ी पर खाना बना रहे थे और साथ में कामेश्वर को पढ़ा भी रहे थे । शायद लकड़ी का धुआं उनकी बीमारी को ज्यादा उग्र बना रहा था । वे डांट और मार ज्यादा रहे थे । मैं डर कर दुबक गया ।

एक दिन पूरा परिवार सर्कस देखने गया । अँधेरा होने पर घर लौटे । बड़े जोर की भूख लग आयी थी । दूर बरामदे से लकड़ी के आंच पर रोटी सिंकने की बड़ी प्यारी खुशबू आ रही थी । गाँधी जी ने हम सभी बच्चों को अपने चारों ओर बिठाकर अरहर(तूअर) की बिना नमक वाली गाढ़ी दाल और आधी मोटी रोटी खाने को दी । गाँधी जी को हाई ब्लड प्रेशर और शुगर की शिकायत थी । दाल बिना नमक की थी तब भी हम बच्चों को बहुत अच्छी लगी । गाँधी जी ने तो अपनी सभी रोटियाँ बाँट दी थी । वे बची दाल खाकर रह गए । उस दिन से हमलोग रोटी और दाल के इन्तजार में जगे रहते । लिट्टी से भी साक्षात्कार गांधीजी ने कराया । कभी-कभी गांधीजी समय अभाव के कारण दाल के साथ ही करेला भी भरता बनाने के लिए उबाल लेते । उस दिन हमलोगों की गति बन जाती ।
माँ ने हमलोगों को कितना मना किया, उन्होंने गांधीजी को भी समझाया । आटा और दाल ले लेने की गुजारिश की । अंत में गाँधी जी की डांट ने माँ को शांत किया । क्रोधित होकर कुछ बोलने के पहले उनके गोर चेहरे पर लालिमा चढ़ती जाती थी जो किसी के भी सहमने के लिए काफी था ।

गाँधी जी निरामिष भोजन करते थे । ज्यादातर कामेश्वर को माँ का बना लहसुन-प्याज वाला और कभी-कभी बनने वाला सामिष भोजन रास आता था । ये बात गांधीजी को नहीं मालूम थी । उन्हें कामेश्वर की और बातें भी नहीं मालूम थीं । वह उसी उम्र में सिनेमा देखने का शौक़ीन हो गया था । अशोक सिनेमा के सेकंड क्लास का गेट कीपर उसके गाँव का था । चौथी बार पटना में “अनारकली” फिल्म लगी थे । कामेश्वर मुझे भी ले गया था । हम दोनों सीढ़ी पर बैठकर पूरी फिल्म देखे थे ।

कामेश्वर पढने में बहुत तेज था । सुबह सूर्य उगने के पहले नियमित स्नान और पूजा ध्यान करता था । उसके गायत्री मन्त्र के उच्चारण से मैं बहुत प्रभावित था ।

गांधीजी की गांधीवादी प्रतिक्रिया की एक-दो यादें अभी तक ताज़ा है । मेरे पड़ोस में एक जज रहते थे । उनके गुलाब के पौधों की फुलवारी सबको आकृष्ट करती थी । वे किसी को फूल नहीं तोड़ने देते थे । एक सुबह, सडक को झाडू से रोजाना साफ़ करने वाली स्वीपर अपने 8 वर्ष के लड़के के साथ सड़क बुहारते आगे बढ़ रही थी । तभी, उस लड़के ने दीवार से बाहर झूलते एक गुलाब के फूल को तोड़ लिया । जज साहब झन्नाटे से बाहर आये और उस लड़के के गाल पर एक चप्पल जड़ दिया । उतने क्रोध में भी उन्हें अस्पृश्यता का ख्याल रहा होगा । एक पल तो वह लड़का सन्नाटे में आ गया पर दूसरे पल उसकी जुबान से दो-तीन भद्दी गालियाँ निकली और वह रोने लगा । इसके बाद जज उसे चप्पल से मारते जाएँ और वह गलिया दे-देकर रोता जाए । लड़के की माँ अलग बिलख रही थी । यह सिलसिला खत्म होने को नहीं आ रहा था । मामला जज का था इसलिए वहां जमा होती भीड़ भी चुपचाप थी । गांधीजी ने ही पहुंचकर लड़के को उनसे दूर किया और कहा कि इसे तो संस्कार नहीं मिला है पर आप तो संस्कारी हैं ।

1955 अगस्त में आज़ादी के बाद भारतवर्ष का पहला और भीषण छात्र आन्दोलन पटना के बी०एन०कॉलेज के छात्रों पर पुलिस गोली काण्ड से आरभ हुआ था जिसमें 9 छात्र शहीद हुए थे । 15 अगस्त को सुबह हमलोग छत पर तिरंगा फहराने पहुंचे । वहां पहले से पडोसी कम्युनिस्ट नेता ने काला झंडा लगा रखा था । पिताजी ने आक्रोश के साथ काला झंडा फाड़ दिया । तकरार बहुत बढ़ जाती अगर गांधीजी हस्तक्षेप न करते । याद तो नहीं है पर छत पर केवल तिरंगा ही रहा ।

मैं 1956 में कक्षा 5 में था और कामेश्वर 6 में । सत्र समापन पर मुझे मेरा मार्क्सशीट मिला । मेरे नंबर 50% के आसपास थे । प्रफुल्लित मन जब घर के कोर्टयार्ड के अन्दर आया तो मैंने देखा कि गांधीजी कामेश्वर को कुर्सी पर खड़ा कर बेंत से पीट रहे हैं । उसे कम नम्बर आये थे । कुछ देर बाद जब गांधीजी काम से बाहर चले गए तो मैंने कामेश्वर का अंकपत्र देखा । सभी विषयों में उसे 90% से ज्यादा आये थे और क्लास में प्रथम आया था । उसकी पिटाई इस कारण से हो रही थी कि उसे हिसाब में 100 में 100 क्यों नहीं आये 97 क्यों आया । कामेश्वर बहुत खूबसूरत था । बेंत के निशान उसके गोरे शरीर पर नीले दाग लिए हुए भरे पड़े थे । 1959 अक्टूबर को पिताजी का ट्रान्सफर झुमरी तिलैया और फिर 1961अप्रैल में हमलोग रांची आ गए । 1964 में , जब किसी काम से मैं पटना गया तो उसकी खोज-खबर ली । पता चला, 1960 में गांधीजी की मृत्यु के बाद, उसके पिता उसे अपने पास कलकत्ता ले गए थे ।

2001 में, मुझे कॉर्पोरेट चीफ बनाया गया सेफ्टी और एनवायरनमेंट मैनेजमेंट का । उसी सिलसिले में मैं अपने एक सिस्टर कारखाने का सेफ्टी ऑडिट कर रहा था । तभी टाइम-कीपिंग बूथ पर गाली-गलौज की पुरजोर आवाज आने लगी । लगता था, अगर रोका नहीं गया तो नौबत खून-खराबे तक चली जाएगी । मेरे साथ शॉप सुपरिटेनडेंट भी थे । उनके दखल से मामला शांत हुआ । उन्होंने टाइम-कीपर को बहुत डांटा और हिदायत दी कि अगली बार अगर वह नशे की हालत में दिखा तो उसे हटा दिया जाएगा ।

टाइम-कीपर की दिहाड़ी नौकरी पर और कोई नहीं कामेश्वर था । उलझे बाल, बेतरतीब कपडे, पान से रंगे दांत में भी उसकी खूबसूरती का पैनापन दमक रहा था । उसने मुझे नहीं पहचाना । बाद में, मैंने HRD जाकर उसका बायोडाटा देखा । उसकी दिहाड़ी नौकरी यूनियन की सिफारिश पर बहाल रहती थी नहीं तो आये दिन उसके शिकायत का पुलिंदा बढ़ता जाता था । कामेश्वर 10वी क्लास तक ही पढ़ पाया था । उसका कुछ भी नहीं किया जा सकता था सिवा इसके कि अपनी पहचान बताकर उसे शर्मिंदा करूं ।