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Thursday, February 15, 2018

जोन्हा फाल्स : कल, आज और कल !!

कल (1960-65)

1960 के दशक में जोन्हा फाल्स अपनी अछूती सुन्दरता के चरम पर था. रांची-मूरी रेल ट्रैक पर जोन्हा के लिए मात्र बर्धमान पैसेंजर , गौतमधारा स्टेशन 10 बजे सुबह पहुंचती थी और शाम पांच बजे पुनः रांची लौटने को आ पहुचती थी. इसी से सटे लगभग कच्ची रांची-पुरुलिया रोड गौतमधारा रेल  गुमटी को लांघती थी. दोनों हालात में इसी गुमटी पर पहुँच कर 5 किलीमीटर जंगल के ट्रैक पर चलकर जोन्हा फाल्स पहुँचना होता था . पूरे जाड़े लोग इस प्राकृतिक झरने पर पिकनिक करने आते थे. धधकते लाल रंग के टेसू के फूलों से
केंद
सुसज्जित जंगल, अनसुने-अनदेखे पक्षियों का कलरव और चोरी-छिपे झांकती सूरज की किरणे एक दूसरी दुनिया ही सुसज्जित कर देती.  इस मौसम में झाड़ों पर नीले मटर के दाने के बराबर करौंदे की भांति मीठे फल गुच्छो में मिलते थे. शायद उसका नाम कद्वन था .जंगली छोटे बैर से जंगल भरा होता था. गौतम धारा के जंगल में कम बीजों वाला मीठे अमरुद के पेड़ भी अनगिनत थे. एक और फल बहुतायत में मिलता था, पीला, गोल्फ के बॉल जितना , मीठे गूदों के बीच कुछ बीज लिए. उसे लोग केंद कहते थे.   से मछलियों का शिकार करते दीखते रहते थे .अगर कोई खाली हाथ भी आया हो तो उसे पेट भरने को बहुत कुछ मिल जाता था. 5 किलोमीटर की पैदल यात्रा से थकने के बजाय लोग और ज्यादा प्रफुल्लित और वेगवान हो जाया करते थे. ये वन हाथियों का रिहाईशी इलाका था पर पिकनिक के  मौसम में, भीड़ और कोलाहल के चलते हाथी कहीं दूर दूसरी जगह निकल जाया करते थे . बंदरों का झुण्ड पेड़ों पर मस्ती करता दिखता था.
झरने से बहता पानी जगह-जगह पार करना होता था. आदिवासी तीर-धनुष से या फिर नुकीले भाले
जल प्रपात के पास पहुँच कर अधिकाँश सुधिजन सम्मोहित और ठगे-ठगे झरने और उसके चारो ओर फ़ैली प्राकृतिक छटा  को निहारते रह जाते थे. तब सिकदारी जलविद्युत नहीं बना था. इस कारण झरना शरद ऋतू में अपने यौवन पर रहता था. पत्थर काटकर या रखकर 150 के लगभग सीढियां हमलोग आनन्-फानन में तय कर लेते थे. 150 फीट के ऊंचाई से 3-4 झरनों से नीचे पड़े समतल चट्टानों पर पानी गिरता था. इन चट्टानों तक पहुँचने के रास्ते में रेतीली जमीन और उसके बाद जल की सतह एक इंच से बढ़ता हुआ 100 फीट दूर चट्टान तक 2 फीट गहरा हो जाता था. पानी इतना स्वच्छ कि पूरे जमाव के नीचे रेत और पत्थर दीखते थे: एकदम मिनरल वाटर. नहाने, खिलवाड़ और शरारत करने के लिए यह स्थल एकदम दोस्ताना थी.
जोन्हा फाल्स शरद ऋतू में सैकड़ों सैलानियों से भर जाता था. ये रांची शहर के अलावा जमशेदपुर, पुरुलिया और कोलकाता तक से आते थे.  ज्यादा प्रतिशत बंगाली और आदिवासी क्रिस्चियन का होता था. आदिवासी तो पूरे रास्ते गाते, मांदर बजाते और नाचते दूरी तय करते थे . वे पूरे समय थिरकते दीखते थे.
हम 4 साथी 1961-63 में इंटरमीडिएट कर रहे थे . उम्र और उत्साह एकदम सही था नए वर्ष में पिकनिक मनाने का. इन 3 वर्षों में जोन्हा फाल्स जाकर पिकनिक करना सबसे ज्यादा सहज था. बाकी स्थलों में जाने के लिए यातायात की व्यवस्था  आवश्यक थी. जोन्हा के लिए बर्धमान पैसेंजर बिलकुल माकूल थी. 1 जनवरी को तो शायद ही कोई टिकट खरीदता हो. रास्ते भर चेन खीचकर, ट्रेन रोककर सैलानी चढ़ते-उतरते थे. 45 मिनट का सफ़र 2 घंटे में तय होता था. ट्रेन में बैठने या फिर खड़े रहने की सबसे लोकप्रिय जगह फूट-बोर्ड होती थी. हमलोग घर से एक घंटे पहले ही स्टेशन पहुँच कर फूटबोर्ड पर कब्जा करते थे. बारी-बारी से दो जन बैठते थे और दो जन पीछे खड़े रहते थे. ट्रांजिस्टर पर जो भी गाना आता हो उसको गाते-चिल्लाते सफर तय करते थे. तब”सुहाना सफ़र और ये मौसम हसीं” पहली पसंद हुआ करती थी.
हमलोग नव वर्ष के पिकनिक की तैयारी महीने भर पहले शुरू कर देते थे. चारो जन मिलकर 60 रुपये के लगभग इकठ्ठा करते थे. सभी शान्तिनिकेतन झोले में पिकनिक का सामान बाट लेते थे. सामान में काफी, कंडेंस्ड मिल्क, चीनी, बिस्कुट, ब्रेड, जैम, मिक्सचर,बॉयल्ड अंडे और मिठाई होती थी. मनोरंजन के लिए ताश जरूरी था. एक क्लिक-3 कैमरा लाता था तो दूसरा ट्रांजिस्टर. तीसरे के जिम्मे फिल्म का रोल होता था तो चौथा चाय-काफी बनाने का बर्तन और गिलास . सन-ग्लासेज का जोगाड़ निहायत जरूरी हुआ करता था.
जगह चुनने को कैप्चर करना कहते थे. चादर या तौलिया बिछाई जाती थी. बिखरी पड़ी सूखी टहनियों को जलाकर काफी बनायी जाती थी. घुटने तक पैर पानी में डूबाकर काफी की चुसकिया लिया करते थे. एकबार तो सिगरेट की आजमाईश भी हुई थी. उसके बाद चड्ढी पहने पानी में उतर कर झरने के नीचे नहाते थे. घुटने भर पानी में भरपूर अठखेली करते थे. कैमरे से बारह स्नेप बड़ी सावधानी से लेते थे जिससे कि चारों के साथ न्याय हो सके. जितने स्नेप सही डेवेलप होते उनकों पसंद के अनुसार आपस में बाँट लेते. खाने का सामान आधे से ज्यादा बच जाता जिसे निहारते गाँव के बच्चों में बाँट देते. ऐसा सब सैलानी करते. जो पहले से आ रहे होते , वे नियतन ज्यादा खाने की सामग्री लाते. सामिष चूल्हों के पास कुत्तों का जमावड़ा हो जाता और दूर ऊपर 1-2 सियार भी ताकते रहते.
हमलोगों में इस बात पर अनबन हो जाती की ताश खेला जाये, प्राकृतिक छटा निहारी जाये, सैलानियों के सांस्कृतिक कार्यक्रम का लुत्फ़ लिया जाए या फिर झपकी ले ली जाये. हमलोग सभी क्रियाकलापों के साथ न्याय करने का प्रयत्न करते. तीर और नुकीले भाले से मछली का शिकार करते देखना सम्मोहित कर लेता. आदिवासी घंटो मांदर की थाप पर थिरकते रहते.  अगर कोई बंगाली ग्रुप भाव-विभोर हो गया तो रविन्द्र संगीत, बाउल गीत और जात्रा का नैसर्गिक आनन्द मिलता. अंत में जाने से पहले पुनः चाय या काफी बनती. इस समय कोई न कोई बाबू-मोशाय काफी का एक चुम्मा लेने आ ही जाते. गौतमधारा स्टेशन समय से काफी पहले आकर ट्रेन का इन्तजार करना होता. लौटते वक्त फूटबोर्ड खाली मिलता. घर पहुँचते-पहुंचते रात हो जाती.

आज (2018)

आज लगभग 50 वर्ष बाद मैं जोन्हा फाल जा रहा था. इतने वर्ष न जा पाने के कई कारण थे. रेलवे गुमटी के बाद 5 किलोमीटर का रास्ता पगडंडियों वाला ही था. अब हिच-हाईक करने की उम्र नहीं रह गयी थी. पूरा इलाका नक्सल प्रभावित माना जाता था. तब दोस्तों के साथ गया था - इस बार पत्नी और बेटे के साथ. इधर दो वर्षों में बहुत कुछ विकास हो गया है. सड़कें बहुत अच्छी बन गयी हैं. झरने तक पहुँचने के लिए टाइल्स की सीढियां बन गयी हैं. अब झरने के ऊपर या नीचे जाना बहुत सहज हो गया है. थोड़ी-थोड़ी दूर पर छतरी वाले प्लेटफार्म बना दिए गए हैं जहां 20 से 50 तक का ग्रुप बैठने और पिकनिक का आनंद ले सकता है. सबसे बड़ी बात कि गाँव के लगभग सभी परिवारों के लिए रोजगार की अच्छी गुंजाईश हो गयी है. भोजन , स्नैक्स और कुछ नहीं तो जंगल में होने वाले फल की खूब बिक्री होती है. झरने की तरफ जाने वाले तीनों रस्ते पर अच्छा-ख़ासा टोल लिया जाता है. जोन्हा पहुँचने में अब 5 की बजाय मात्र डेढ़ घंटे लगते हैं. पूरा इलाका प्लास्टिक मुक्त घोषित किया गया है साथ ही नशा करना वर्जित किया गया है. अभी और भी विकसित होने की बहुत गुंजाईश है. सरकारी डाक बँगला तो है साथ ही पर्यटकों के लिए भी ठहरने और विश्राम की संभावना बनती है. रोपवे आमदनी का एक अच्छा जरिया बन सकता है.
तीर और भाले से मछली का शिकार अब देखने को नहीं मिलता है. मात्र दो-तीन पेड़ टेसू के लाल सुर्ख फूलों से लदे दिखे . पेड़ पर बैर, अमरुद, पियार और कन्द्वन नहीं दीखते हैं वे सब अब बिकाऊ हो गए हैं. मजेदार बात ये है कि अब कोई भी पैदल रास्ता नापते नहीं दिखता है. चार्टर्ड बस, मोटर गाड़ी और बाईक से छुट्टी के दिन पूरा रास्ता गुलज़ार रहता है. एक्का-दुक्का गाँव के लोग पैदल चलते दीखते हैं. अब संवेदनशील जगहों पर बाकायदा पुलिस की चौकसी रहती है.

तब और अब में एक ही समानता दिखी. झरने को देखकर हमलोग पुनः भौचक रह गए. कारण बिलकुल विपरीत था. पानी की एक-दो पतली लकीरे भर ही दिख रही थी. खैरियत इस बात की थी कि 95% आबादी युवा सैलानियों की थी जैसा कि पिकनिक स्पॉट की खासियत है . इन्हें कहाँ मालूम था कि सिकदरी पॉवर प्लांट बनने  के पहले यह जल प्रपात कैसा विशाल हुआ करता था. इसलिए सभी जगह काफी उत्साह और चहल पहल दिखता था. बहुतों ने लाउड स्पीकर-एम्पलीफायर पर संगीत का शोर मचा रक्खा था. एक-दो जगह सैलानी नाच भी रहे थे. आदिवासी समूह भी थे . वे भी आदिवासी नृत्य कर रहे थे. पर मांदर की थाप पर नहीं , ऑर्केस्ट्रा धुनों पर . आदिवासी युवतियां सदी नहीं बल्कि लड़कों की तरह जींस पहने थीं. आदिवासी सैलानी बहुत ज्यादा मेकअप में दिखे. पाउडर, लिपस्टिक, रूज़ , हेयर स्टाइल और पहनावे से लड़के-लडकी में फर्क करना मुश्किल था. आज के युवा सिगरेट सभ्यता से बहुत आगे बढ़ चुके थे.
एक और समानता दिखी. पहले पेड़ों पर इतने फल लदे रहते थे कि जंगल में भटकने पर भूखा नहीं रहना पड़ता. अब भी अगर कोई जाए तो वही सबकुछ खरीद कर  पेट भर सकता था. साथ में तरह-तरह के स्नैक के पाउच और भेल-पूरी जैसी झाल-मूढ़ी भी चाय के साथ मिल रही थी.
हमलोग जिस सीढ़ी से नीचे उतरे उसे छोड़ दूसरी सीढ़ी से ऊपर चढ़े. एक सुखद आश्चर्य भी हुआ. गाँव के बच्चे बची हुई भोजन सामग्री की टोह में इंतज़ार करते नहीं दिखे - जंगली बैर बेचते दिखे. आने-जाने वालों पर मासूम नजरें. हमलोगों ने 10-12 दोने बैर खरीदे. जो बैर दस रुपये दोना था वह लौटते समय पांच का हो गया था. तात्पर्य कि इन्हें भी बिक्री करने का मर्म समझ में आ गया था . हमलोग जोन्हा फाल होकर पांच घंटे में चार बजे तक घर लौट आये.

कल ( 2025)

आज लोग बुलेट ट्रेन और हाइपरलूप की योजना के खिलाफ हाय-तोबा मचा रहे हैं वैसे ही जैसे कंप्यूटर के आगमन पर हुआ था. काश वे समझ पाते कि ये विकास विकसित होते देश की मजबूरी है. ठीक वैसे ही जैसे एक बार भगवान् जगन्नाथ का रथ चल पडा तो रोकना मुश्किल हो जाता है. ये रथ सरकार नहीं खिचती है बल्कि आम नागरिक के संगठित सहयोग और इच्छा शक्ति से होता है. आज का आम नागरिक अब कहाँ STD बूथ पर लाइन में खडा दिखता है ; सभी के पास मोबाइल फोने है. टाइपराइटर की जगह कंप्यूटर ने ले ली है. पिज़्ज़ा और बर्गर अब एक मजदूर भी खाता है. बाइसिकल भी अब कम ही दिखती है.
2025 का जोन्हा फाल रोप वे, लिफ्ट और मॉल से सुसज्जित होगा. पहुचने के लिए रेल और रोड के अतिरिक्त ओवरहेड रेल प्रणाली होगी. हेलीपैड की भी व्यवस्था हो तो अचरज नहीं.शायद तबतक उबेर और ओला फ्लाइंग कैब भी ले आयें. निजी गाडियों पर तो टोल लगेगा ही सैलानियों को भी पास खरीदना होगा.
झरने को भरपूर करने के लिए प्राइम टाइम पर सिक्दरी जलाशय से पानी छोड़ा जाएगा. तरह-तरह के चाट और भोजन के स्टाल दिखेंगे. झरने से गिरते पानी को रोककर जगह–जगह तालाब बनाए जायेंगे जिसपर बोटिंग और तीर-भाले से मछली भेदने का खेल पैसे देकर खेलने को मिलेगा. एडवेंचर खेल जैसे बंगी जम्पिंग का आनंद भी उठाया जा सकेगा. ड्रोन से फोटोग्राफी आम बात हो जायेगी. 
शायद पुनः मांदर की थाप पर अपने बुनियादी लिबास में  थिरकते आदिवासी भी दिखने लगे. सांस्कृतिक विरासत का रीप्ले एक मुनाफे का व्यापार होगा.
जोन्हा के आसपास कुछ ही किलोमीटर दूर और भी मशहूर जल प्रपात हैं- हुन्डरु, दशम, सीता वगैरह. यातायात की इतनी बेहतर सुविधा के चलते पर्यटक एक झरने पर सुबह का नाश्ता, दूसरे पर दिन का भोजन और तीसरे पर शाम की चाय का आनंद लेते हुए उजाला रहते हुए घर वापिस आ सकेंगे.