पहले के घरों में एक आँगन होता था, एक बरामदा होता था और एक गलियारा
होता था. दोपहर में क्रिकेट खेलने के लिए गलियारा सबसे अच्छा होता था; बस स्ट्रेट
ड्राइव की गुंजाईश. हमारे घर में गलियारे के शोर्ट कवर में जज अंकल का लिविंग रूम
था. टेनिस की गेंद उनकी दीवार या खिड़की छूती भर थी और हंगामा शुरू. ऐसा दिन महीने
में एक-दो बार ही आता था की शोर्ट कवर पर हंगामाँ गैरहाजिर हो.
60 वर्ष बाद घर के बच्चों को मेरे घर का अगवाडा ही सबसे रास आया दोपहर
के क्रिकेट के लिए. मेरे घर की लम्बी-चौड़ी खिड़की बल्ले के स्विंग से 3 फीट दूर है.
उसपर यह मेरे आराम का समय होता है. दोपहर को स्कूल से लौट कर बच्चे क्रिकेट के
साथ-साथ स्कूल की आपबीती भी गपियाते रहते हैं. खेल तभी ख़त्म होता है जब बच्चे अपने
जन्मसिद्ध अधिकार का उपयोग करने लगते हैं; यानी झगडा !
शुरू में एक-दो बार जब बाल खिड़की से टकराई तो मैंने दांत तोड़ लेने की
धमकी भी दे डाली. उसकी बाद कुछ दिन तक दारुण सन्नाटा. दोपहर को नींद की झपकी आनी
बंद. मालूम पडा मेरे डर से कम बल्कि गेंद फट जाने से खेल बंद है. मैं शाम को बाजार
जाकर उनके लिय गेंद ले आया.
अब उनकी बातूनी नोक-जोख से भरपूर क्रिकेट की लोरी क्या गजब की झपकी ला
देती है. उसके सामने 2-3 सौ के खिड़की के शीशे की क्या हैसीयत !