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Sunday, March 29, 2020

कन्हैया नाई

आजकल शहर के किसी भी साधारण सैलून में बाल कटाई के 40 रुपये से लेकर 60 रुपए तक लगते हैं। मेरे पिताजी बताते थे की उनके बाल्यावस्था में एक भी पैसे नहीं लगते थे। तब नाई को समय-समय पर कच्चा दिया जाता था – मतलब खेत की पैदावार से। गाँव या शहर का नाई एक घरेलू सदस्य की तरह होता था। पूजा-पाठ, शादी-ब्याह और श्राद्ध में उसकी अहम भूमिका होती थी। आज भी है। शायद सनातन काल से नाई, ब्राह्मण को मिलने वाले धन का एक तयशुदा प्रतिशत लेता है। कितना कच्चा या कितना प्रतिशत इस झमेले में बिना पड़े मैं अपने संसमरण पर आगे बढ़ता हूँ।

बाल्यावस्था में , घर के बड़े-बूढ़े घर के बच्चों पर एक भरपूर नजर डालते थे और नाई को खबर कर दी जाती थी। आम के पेड़ की छाव में बैठने के लिए एक पत्थर रखा जाता था। बारी-बारी से सभी बच्चे की बाल कटाई होती थी।

मुझे अपनी बाल कटाई की याद पटना शहर (1953) जुड़ी  है। घर के ओसारे पर पैर लटका के बैठा दिया जाता था। एक चादर से शरीर ढँक दिया जाता था। सिर एकदम नीचे- इतना नीचे की एक मिनट में दर्द करने लगे। तब सिर पर नाई की चपत पड़ती थी। पहले एक हाथ वाली मशीन से पीछे और बगल के बाल साफ किए जाते थे। मशीन बिना हटाये अगर बालों से अलग की जाती तो चीख निकाल जाती। उसके बाद सिर को पानी से तर किया जाता था। ठंड के मौसम में पूरा शरीर काँपता था। उसपर एक हुड़की और पड़ती थी। अंत में उस्तुरे से फिनिशिंग टच दिया जाता। अगर दादी-दादा में कोई आस-पास रहा तो उस्तुरा न चलाने की हिदायत दी जाती। जो स्टाइल सामने आता उसे आजकल कटोरा-कट या रंगरूट कट कहा जाता है।

पटना में घर के पास ही चौरस्ता था। आते-जाते सैलून में बाल कटाते लोग दिख जाते - शान से कुर्सी पर बैठे, बड़े से शीशे के सामने। स्कूल में सहपाठी कटोरा-कट स्टाइल देख कर मज़ाक बनाते। तो एक बार, इकन्नी जमा होने पर मैं भी सैलून गया। छोटा होने के कारण कुर्सी के हत्थे पर तख़्ता रख मुझे सेट किया गया। बाल तो राज कपूर स्टाइल में कट गया पर घर आते ही पिटाए हो गई – जनाब जुल्फी बनाकर आए हैं। तुरंत नाई को बुलावा भेजा गया।

जीवन में 20-25 नाइयों से पाला पड़ा होगा। मालूम नहीं ज़्यादातर नाइयों का नाम कन्हैया क्यों होता है। मेरे होश के पहले नाई का नाम भी कन्हैया था। कोई 20-22 वर्ष का रहा होगा। हल्की मुंछे थी। शादी हो गई थी पर गौना नहीं हुआ था। गौना का मतलब उसीने समझाया था। किस्से बहुत सुनाता था। हजामत बनवाने की तकलीफ आधी तो उसकी कहानियों में छिप जाती थी। कहानी बहुत संस्कारों वाली नहीं होती थी। एक कहानी वह 2-3 बार सुना चुका था। वही जंगले के पेड़ के सामने अपनी व्यथा कहना – उस पेड़ की लकड़ी से बांसुरी बनना और बांसुरी का राजा के सामने बजना। एक बार उसने देखते-देखते पीपल के पत्ते से पिपहरी बनाकर दी। मजा आ गया।

कन्हैया जिस घर में रहता था वह हमलोगों के पिछवाड़े पानी टंकी के बगल का दोमंज़िला मकान था। बहुत सारे किस्से उस घर के भी होते थे। जैसे उस घर में रेडियो आ गया था – घर में फ्रीड्ज था – आम,अमरूद के पेड़ थे वगैरह। हाँ, उस घर में एक भूत भी रहता था। भूत के वह बहुत सारे किस्से सुनाता था। इसलिए हमलोगों में किसी को भी उसके घर जाने की हिम्मत नहीं पड़ती थी। आश्चर्य अवश्य होता था की एक गरीब नाई जो हमेशा वही पुरानी धोती-कमीज़ में आता है, उसका इतना बड़ा घर कैसे होगा।

2-3 वर्षों बाद हमलोगों की उम्र पतंग उड़ाने वाली हो गई। पर हैसीयत दो पैसे से ज्यादा की नहीं थी। एक या दो पतंगों से पूरा मौसम निकालना होता। कभी पसंगा, कभी चिप्पी, कभी लंबी दुम तो कभी कटी पतंग के पीछे भागम-भाग। एक बार पतंग तागे के साथ हाथ से छूट गई। यह तो बहुत बड़ा नुकसान था। हमलोगों की छत से फिसल कर वह कन्हैया नाई वाले छत पर अटक गई। हमलोगों को काटो तो खून नहीं वाला हिसाब हो गया। कैसे जाएँ उस घर में तो भूत रहता है।

हम दो भाई दौड़ कर सामने वाले मुसलमान के घर गए। जैनू और आबिद ने कह रखा था की उन्हे भूत-प्रेत से डर नहीं लगता है। उनके पास एक मंत्र है। उसे पढ़ते-पढ़ते वे किसी भी भूतहे जगह जा सकते हैं। हमलोगों ने आबिद और जैनू से मिन्नते की। उन्हे घर में लगे आम के पेड़ से टिकोरे खिलाने का वादा किया। आनन-फानन हमलोग उस घर के नजदीक पहुंचे । रास्ते भर में आबिद ने वह मंत्र हमलोगो को भी रटा दिया- जलतू जलालतू आई बाला को टाल तू ।

गनीमत थी की ऊपर जाने के सीढ़ी बाहर ही से थी - एक तल्ला बाहर से उसके बाद दरवाजे के अंदर से। दरवाजा खुला था। ढलती दोपह का समय था। शायद घर के सभी लोग सोये हुए थे। कन्हैया भी सो रहा होगा। चुपके से हमलोग ऊपर छत पर चले गए। पतंग छुड़ाई। धागा बटोरा। नीचे खिसक लिए। पूरे समय वही मंत्र जुबान पर था। ये सभी उर्दू शब्द- जुबान, गनीमत, मिन्नत, आबिद से ही सुनकर सीखा था।

नीचे उतरने के बाद जान में जान आयी। मस्ती सूझना स्वाभाविक था। अब अगल-बगल सब कुछ दिखने लगा था। सबसे अजीब बात ये दिखी की जमीनी सीढ़ी की उड़ान(फ्लाइट) के नीचे की तिकोनी जगह जिसमें मुश्किल से एक रिक्शा रखा जा सकता है, एक टाट के पर्दे से ढका था। हम सबों को कौतूहल हुआ की ऐसा क्यों है, उसके अंदर क्या है। हमलोगों ने टाट के फाड़ से झांक कर देखा। गुजरती दोपहरी में बेंच पर एक आदमी सोया खर्राटे ले रहा था। बेशक वह भूत नहीं था। बेंच के नीचे एक बक्सा था। बेंच के पैरों के पास कुछ बर्तन रखे थे। दीवार पर एक रैक भी था। उसपर कुछ डब्बे रखे थे। मतलब ये की पूरी गृहस्थी थी। सोया हुआ नौजवान कन्हैया था।



Thursday, March 19, 2020

दुर्गा

1973 के आसपास दुर्गा मृतप्राय अवस्था में पिताजी को मिला था। जनवरी की कड़ाके की ठंड में , बेली रोड, पटना के अपने निवास स्थान को सुबह की सैर के बाद लौटते हुए उन्हें अचानक सड़क के किनारे कोंक्रीट की ढेर पर एक 12 वर्ष का बेहद खूबसूरत बालक बेहोश पड़ा दिखा। दो रिक्शेवालों की मदद से उस बालक को घर लाया गया। कुछ देर बाद उसे होश तो आ गया पर उसका शरीर बुखार से तवे की तरह गरम था। उसे फ़ोरन पास के हॉस्पिटल ले जाया गया। उसे निमोनिया हो गया था। एक हफ्ते बाद वह स्वस्थ होकर हमारे घर लौटा।

दुर्गा कुलीन ब्राह्मण परिवार का नेपाली था। वह नेपाल से अपने पिता के साथ 1971 में पटना आया था। उसके पिता अपने भाइयों से लड़कर, पटना आ गए थे। यहाँ उन्हें रात को दरबानी करने का काम आसानी से मिल गया था। उनकी मौत डाकुओं से सामना करते हुई। बम विस्फोट की भयंकर आवाज़ से दुर्गा एक कान से बहरा हो गया था। उसके दाहिने पैर मे भी काफी चोट आई थी। अनाथ दुर्गा को कोई भी सहारा देने को तैयार नहीं हुआ। यहाँ तक की किसी ने उसे नेपाल लौट जाने में भी सहायता नहीं की। उसे एक ढाबे में काम मिला। वहाँ भी उसके साथ लोग बदतमीजी करने से बाज नहीं आते। दो दिनों का, भूखा-प्यासा , भटकते हुए आखिर सड़क के किनारे पड़े कोंक्रीट की ढेर पर निढाल गिर पड़ा। मालूम नहीं उसे नींद आ गयी या उससे पहले बेहोशी।

दुर्गा हमलोगों के घर में रहने लगा। माँ को रसोई में हाथ बटाता। शाम को मेरे हमउम्र भाई-बहनों के साथ खेलता। शाम को सभी के साथ पिताजी उसे भी पढ़ने को बैठाते। वह दिन उसके अतीव आनंद का था जब उसने अपनी बहन के लिए पोस्टकार्ड लिखा। दौड़-दौड़ कर सभी को पत्र दिखाता। पते में उसने बहन का नाम, गाँव का नाम, तटकाठमांडू से 10 कोस दक्षिण और नेपाल लिखा था। अगले दिन वह सुबह-सबेरे चौमुहानी के पोस्टबैग में पत्र न डाल, पोस्ट ऑफिस जाकर पोस्ट किया। दूसरे दिन से ही वह पत्र का बाँट जोहने लग गया था। हमलोगों के साथ पोस्टमैन भी परेशान हो गया था। कोई दो महीने बाद पत्र का जवाब आ ही गया । खुशी के मारे उसकी रुलाई रुकती ही नहीं थी। सबसे बड़ी बात की वह अपने परिवार से संपर्क साधने मे कामयाब हो गया था। 

मै तब रांची में कार्यरत था। होली की छुट्टी में मैं जब पटना गया तब वह मेरी बहुत खुशामद करने लगा। कारण उसकी सबसे बड़ी बहन और बहनोई रांची एग्रिकल्चर कॉलेज में रहते थे। दुर्गा का बहनोई वहाँ माली का काम करता था। मै और मेरा छोटा भाई मिलकर खाना बनाते थे। तकलीफ तो होती ही थी क्योंकि मेरी शिफ्ट ड्यूटि थी और छोटा भाई जो उस समय कॉलेज में पढ़ता था उसे कूकिंग की कोई जानकारी नहीं थी। उस बार तो नहीं पर 3 महीने बाद जब मै पुनः पटना गया तो माँ ने मुझसे शिफारिश की। दुर्गा आखिर कामयाब हो गया।

अब हमलोगों को नाश्ता, टिफ़िन और दोनों टाइम खाना मिलने लगा। रविवार को जब वह अपनी बहन-नहनोई से मिलने जाता तभी मांसाहारी भोजन बनाता। दुर्गा शाकाहारी था । सबसे बड़ी बात की वह बिना स्नान किए चौके में नहीं जाता था। एक बार मैं देर से सोकर उठा। सुबह 6 बजे की शिफ्ट थी। मात्र 10 मिनट ही थे कंपनी की बस के आने में। दुर्गा भौचक जागा। सीधे बाथरूम जाकर अपने ऊपर एक बाल्टी पानी डाला। मेरी टिफ़िन तैयार कर मेरे पीछे दौड़ टिफ़िन मेरे हाथ मे थमा दी।

रात को वह मेरे और भाई के बिस्तर के बीच फर्श पर नीचे सोता। उसे कहानी सुनाने का बहुत शौक था। उसकी कहानी ज़्यादातर धारावाहिक होती थी। कभी वह कहानी सुनाते-सुनाते सो जाता था, कभी हमलोग कहानी सुनते-सुनते सो जाते थे।

उसे नए कपड़े पहनने का बहुत शौक था। जब भी हम भाइयों में से कोई भी कपड़ा सिलवाता तो उसके लिए भी एक जोड़ी बनवाना अनिवार्य था। पहली बार तो हमलोगों से नासमझी हो गई तो वह कई दिनों तक मुंह फुलाए रहा। एक बार वह मेरे साथ मेरे ऑफिस की पिकनिक में गया। मेरे सहयोगी उसे मेरा कज़न समझ बैठे। समझते भी क्यों नहीं ? देखने में एकदम मास्टर रतन, नए कपड़े और जूते और बोली भी शुद्ध हिन्दी थोड़ी नेपाली तरावट लिए। हमलोगो के मध्य वह टीनेज बालक एक गुड्डा या खिलौने की तरह बन गया था। कोई उसे टोफ़्फ़ी दे रहा है तो कोई मिठाई तो कोई उसके साथ फोटो खिचवा रहा है। उसकी पहचान तब हुई जब गीत गाने का नंबर आने पर उसने एक नेपाली गाने का मुखड़ा गया।


मेरी शादी की तैयारी में मैं ज्यादा परेशान नहीं था बल्कि दुर्गा को मेरे लिबास के अलावा अपने पहनावे की ज्यादा चिंता थी। जनवासे में उसे हमलोगों के साथ ठहराया गया। एक ही बड़े टेबल पर हमलोग खाना- नाश्ता करते थे। लिहाज दुर्गा ही करता था। किनारे बैठकर या कमरे के कोने में बिस्तर लगाकर। जब मंडप में विदाई भोजन होने लगा तो उसने स्वयम ही हमलोगों के साथ बैठने से इंकार कर दिया।

शादी के बाद दुर्गा और मेरी पत्नी में कुछ दिन बाद किचन के वर्चस्व को लेकर ठन गई। एक वर्ष बाद दुर्गा पटना पिताजी के पास लौट गया। 1978 में पिताजी रिटायरमेंट के बाद रांची, अशोक नगर वाले घर में लौट आए। दुर्गा भी साथ आया। पर अब वह मेरे कंपनी वाले निवास में मेहमान बनकर आता। कुछ दिनों बाद उसकी रांची एग्रिकल्चर यूनिवरसिटी में माली की दिहाड़ी नौकरी लग गयी। यूनिवरसिटी शहर से काफी दूर था। कुछ वर्षों बाद उसका आना-जाना बिलकुल बंद हो गया। 1986 में मैं किसी से मिलने उधर गया तब उसकी खोजबीन ली। पता लगा की उसकी दिहारी नौकरी छूट गई थी। वह नेपाल लौट गया था। नेपाल में ही उसे माली की नौकरी मिल गई थी।

अचानक 2014 में वह पुनः प्रगट हुआ। उम्र से ज्यादा बूढ़ा। वह अपने बहनोई के पास इलाज कराने आया था। उसे दिल की बीमारी थी। उसने बताया की उसकी पत्नी सिलाई-कढ़ाई कर घर चलती है। बीमारी के चलते वह कोई मेहनत-मशक्कत का काम नहीं कर पाता है। उसकी 3 बेटियाँ हैं। दो की शादी हो चुकी है और वे दोनों पढ़-लिख कर नौकरी भी करती हैं। तीसरी बी0ए0 पास कर बी0एड0 कर रही है। दुर्गा को परेशानी यह थी की वह बार-बार डॉक्टर को दिखाने नेपाल से रांची नहीं आ सकता है। उसे मेरे भाई ने नाइट-गार्ड की नौकरी लगा दी। कुछ दिनों बाद अस्वस्थ होने के कारण मेरी बहन के आउटहाउस में रहने लगा। वहाँ रहकर वह घर के काम में हाथ बटाता और बगीचे की देख-भाल करता।वह बहुत बीमार रहने लगा था। उसकी देखभाल मेरी बहन किया करती थी। मैं जब अपनी बहन से मिलने गया तो उसने मुझे एक दुर्लभ पौधा दिया। अब वह डॉक्टर की सलाह पर मछ्ली खाने लगा था पर उसे रोहू के अलावा कोई दूसरी मछ्ली नहीं अच्छी लगती थी। मनपसंद भोजन नहीं मिलने पर वह अब भी रूठ जाया करता था।

एक वर्ष से उसकी तबीयत ज्यादा खराब रहने लगी थी। उसकी आखिरी इच्छा थी नेपाल जाने की। 2 महीने हुए वह नेपाल चला गया।