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Monday, June 26, 2017

कॉलेज कॉलेज 1 !

अच्छी यादों को संजोयें रखना जीवन को जीने लायक बनाए रखता है । कॉलेज के दिनों के बहुत खट्टे-मीठे अनुभव हैं । हमलोग गुरुजनों और मित्रों की बातें तो हरदम बतियाते रहते हैं । श्रेष्ठ विचार अनुजों को बाटते भी रहते हैं । कुछ ऐसे लोग भी थे जो अक्सर यादों के गलियारे में दम तोड़ देते हैं । कॉलेज का चपरासी धनिया, लेबोरेटरी अटेंडेंट साहू जी, कॉमन रूम के अददु मियाँ, लाइब्रेरियन दास साहब, चाय गुमटी वाला राम प्रसाद, कैंटीन मेनेजर सान्याल दा की याद ही शायद उनकी सच्ची श्रद्धांजलि है ।

केमिस्ट्री के प्रकांड विद्वान प्रिंसिपल ज्ञानी का चपरासी धनिया हुआ करता था । सांवला,तिकोना चेहरा, झबरीली मूंछ, छोटा कद और खिचड़ी बाल पर गाँधी टोपी । उसके पास हर परेशानी का हल मिल जाता था । बस उसे उसकी टिप मिल जानी चाहिए । नियत समय के बाद फीस जमा करनी हो या कोई दरखास्त डालना हो वह हमेशा मदद के लिये तैयार मिलता था । एक बार मैं क्लास में हाजिरी लगाकर पीछे की खिड़की से निकल भाग रहा था । ठीक सामने प्रिन्सिपल से टक्कर हो गयी । प्रिंसिपल साहब भुल्लकड़ प्रकृति के थे । इसलिए जैसा वह सबके साथ करते थे मुझसे भी मेरी कापी ले ली और ऑफिस में मिलने को कहा । मिलना मतलब जोरदार जुर्माना या रस्टीकेट । मामला धनिया को सुपुर्द कर दिया । दूसरे दिन सुबह प्रिंसिपल के कमरे का ताला खोलते ही पहला काम उसने मेरे लिए किया ।

कॉमन रूम के अददु मियाँ ने ज़रूर अपनी उम्र कम लिखवाई होगी नहीं तो अब गिरे तब गिरे जैसे पतली काठी के झुकी कमर वाले न होते । कैर्रोम बोर्ड का स्ट्राइकर हो या टेबल टेनिस का बाल ,बिना नाम और क्लास लिखी कॉपी गिरवी रखे नहीं देते । और जरा पीरियड के वक्त कॉमन रूम में घुस कर तो देखिये । तुरत कहते मियाँ अभी आपका क्लास है इधर कहाँ ?

राम प्रसाद चाय गुमटी वाला तो सभी का मैन फ्राइडे था । साइकिल रखनी हो, कापी-किताब रखकर फकैती करनी हो, उधार चाय-सिगरेट पीनी हो कभी ना नहीं बोलता था । उधारी का हिसाब रखने के लिए कोई खाता नहीं रखता था । सभी कुछ मुंह-जुबानी और कभी कोई हुज्ज़त नहीं ।

मेरे फिजिक्स विभाग के लाइब्रेरियन दास साहब थे । एम०एस०सी० नौकरी करते कर ली थी । अब पीएचडी कर रहे थे । हमलोगों के लिए किताब स्टेट लाइब्रेरी और ब्रिटिश कौंसिल लाइब्रेरी तक से खोज लाते थे । उन्ही की बदौलत हमलोगों को फर्मी की अनसर्टेनिटी प्रिंसिपल की टाइप और उनके हाथ से प्रूफ रीड की पाण्डुलिपि से नोट लेने का सौभाग्य मिला ।


मोरहाबादी के रांची कॉलेज की कैंटीन तीसरे तल्ले के ऊपर छत के कोने में थी । गंजे सर वाले सान्याल दा उसके मेनेजर थे । हमलोगों का भूखा-प्यासा चेहरा उन्हें बहुत दुःख देता था ।  तब 1966 में 250 ग्राम का विशाल समोसा सिर्फ 15 पैसे और  चाय  150 ml मात्र 10 पैसे में बेहिचक परोसते थे  । उस समय के हिसाब से से यह बहुत सस्ता था ।पूछने पर मुस्कुरा कर कहते आपलोग खुश तो हम भी खुश।  तब भी कुछ शरारती लड़के खाने के बाद प्लेट को उड़न तश्तरी जैसा छत से आकाश में उछाल देते थे । सान्याल दा कुनमुना कर रह जाते थे । बाद में उन्होंने एलुमिनियम की तस्तरी का इस्तेमाल शुरू किया । शाम को कैंटीन बॉय सब फेंकी तस्तरी बटोर लाता था ।

शहर में राज कपूर के परम मित्र रायबहादुर हेमेन गांगुली के तीन सिनेमा हाल में से एक रुपाश्री सिनेमा हॉल हुआ करता था । उसमें पुरानी फिल्म लगा करती थी, राज कपूर की तो अवश्य । फर्स्ट क्लास और बालकनी का टिकट काउंटर  साहू जी (हमलोगों ने उनका पूरा नाम जानने की कभी ज़रुरत महसूस नहीं की ) सम्हालते थे । वे फिजिक्स लेबोरेटरी के लेबोरेटरी असिस्टेंट थे । फिल्म देखने के शौक़ीन विभागाध्यक्ष सान्याल साहब ने उन्हें कॉलेज में नौकरी दिलाई थी और शायद उन्ही की वजह से किसी न किसी तरह दोपहर के शो के लिए वे कॉलेज से एक घंटे के लिए गायब हो जाते थे । मेरा भविष्य संवारने में साहू जी का अहम् योगदान था ।

स्कूली ज़िन्दगी की बेड़ी जब कॉलेज आते खुली तो आवारगी का जैसे बाँध खुल गया । आये दिन क्लास बंक कर कहीं घूमने निकल जाना और सिनेमा देखना नशा जैसा हो गया था । कोई फिल्म अगर अच्छी लगे तो उसे दुबारे-तिबारे देखना एक स्टेटस सिंबल हो गया था । जब एक बार मैं एक फिल्म दुबारे देखने पहुंचा तब साहूजी ने मुझे अपने केबिन में बिठाकर बहुत समझाया । उन्होंने यहाँ तक कहा कि वे भी आज प्रोफेसर होते अगर पढाई से भागते नहीं ।

इन्टर फाइनल फिजिक्स प्रैक्टिकल परीक्षा में साहूजी ने मेरी बहुत मदद की । उस समय लाटरी से एक्सपेरिमेंट निकलते थे । मुझे बहुत कठिन और नहीं किया हुआ एक्सपेरिमेंट आया । मैं रुआंसा अपने टेबल पर खड़ा था । साहूजी ने एक्सटर्नल को कहकर कि टेस्ट इक्विपमेंट डिफेक्टिव है मुझे दुबारे एक आसान एक्सपेरिमेंट दिलवा दिया । इसी तरह डिग्री प्रीवियस की परीक्षा में मुझसे बड़ी मुश्किल से ब्लो किया ग्लास वेट बल्ब टूट गया । साहूजी ने कही से लाकर दूसरा वेट बल्ब मेरे टेबल पर रख दिया ।

साहूजी सबकी मदद करते रहते थे । उनसे मेरी मुलाकात चार वर्ष बाद उसी सिनेमा हाल में हुई । वे इस बार केबिन से बाहर आकर मिले । उनके साथ एक लड़का था । उन्होंने मुझसे अपनी पढ़ी हुई किताबें और एम०एस०सी० के नोट्स देने को कहा । उन दिनों शिष्यों का हाथ स्वतः गुरु का पैर स्पर्श करने झुक जाता था ।
एक सफल जीवन के लिए अच्छी यादों का होना नितांत आवश्यक है ।



Saturday, June 24, 2017

नमकीन

बचपन में जोर जोर से थपकी लेकर सोना बहुत अप्रिय लगता था पर नींद आ ही जाती थी । बाद में नींद लाने के लिए बहुतेरी लोरिआं सुनी और आधी-अधूरी कहानियाँ सुनी । माँ थी की एक ही कहानी बार-बार शुरू से सुनाती थी और महीनों तक उसका अंत नहीं सुन पाता था । आज तक पता नहीं चला की वो जादूगर उड़ने वाली दरी में बिठाकर राजकुमारी को कहाँ ले गया । जीवन का यह उबाऊ प्रकरण भी ताउम्र रहेगा, मरते दम तक ।
स्कूल में संस्कृत और सामाजिक अध्ययन की पढाई में नींद का आना अनिवार्य था । अंग्रेजी के सर को नींद भगाना बहुत अच्छी तरह आता था । जो भी लड़का झपकी मोड में आता उसे ब्लैक बोर्ड के पास आकर जोरों से पढने को कहा जाता । हमलोग इससे बहुत डरते थे । 121 होम ट्यूशन में जब कभी झपकी आती थी मास्टर साहब ठीक कान के ऊपर का बाल जोरो से खींचते थे । पिताजी जब भी पढ़ाते नीम की दो-तीन छड़ी सहज रखते । नींद क्या पूरी दुनिया उस समय ओझल रहती ।
कॉलेज तक तो हमलोगों को क्लास बंक करना आ गया था । पीछे की खिड़की के पास बैठते या खिड़की तक चुपके से सरकने का रास्ता तैयार रखते । केवल पढने वाले और डरने वाले लड़के क्लास के अन्दर रहते । हमलोग तभी  भागते जब बाहर कुछ बहुत ही रोचक हो रहा होता अथवा क्लास का लेक्चर बेस्वाद, बेसुरा और माथे के ऊपर से निकलने वाला होता  ।
नौकरी के शुरू के दिनों में भागना एक चैलेंज होता । भागने से ज्यादा बेहतर बॉस से मिलीभगत कर लेना होता । जैसे सबके के लिए शिफ्ट के बाद सिनेमा का टिकट जोगाड़ करना, पिकनिक अथवा शाम में बर्थडे पार्टी की तैयारी करना । हमारे सीनियर्स भागते नहीं थे । वे मैनेज करते थे । उनलोगों की आये दिन या तो कहीं दूर मीटिंग होती थी या सेमिनार । मजा तब आता था जब राज कपूर की मीटिंग में हमलोग आमने-सामने होते थे या क्रिकेट मैच के बाद राम प्रसाद को लक्ष्मण प्रसाद साबित कराने की जरूरत आन पड़ती थी ।  
हमलोगों को शुरूआती दौर के दरम्यान बहुत ही अच्छे सीनियर्स मिले । बस एक कसर रहती थी । चाहे कितना भी अच्छा काम किया जाए इन लोगों के पास कोई न कोई शिकायत रहती ही थी । यहाँ तक की अगर सिगरेट का टुकड़ा भी गिरा दिख जाये तो नाक-भों सिकुड़ने लगता था । हमलोगों ने भी इस उबाऊ दिनचर्या का जवाबी तोड़ निकाल लिया था ।
1970 के दशक में एशियन पेंट बहुत ही गुदगुदाने वाला जानवरों का पोस्टर निकाला करते थे । विभिन्न रंगों में रंगा जानवर अजीबो-गरीब हरकत करता दीखता था । हाथी का बच्चा चश्मा लगाकर बैठ कर ढोलक बजता था । अरबी चश्मीश घोडा मुंह में ब्रश लेकर पेंट करता दिखता था । बन्दर चश्मा लगाकार किताब पढता था । तीनो में एक समानता अवश्य थी, सभी चश्मा लगाते थे ।

हमलोगों का तीन वरिष्ठों से साबका पड़ता था । एक जो शिफ्ट इनचार्ज थे । एकदम बन्दर जैसा चेहरा । सुबह झाड़ू देने वाली बाई के साथ आते । हमेशा गायब रहते और लौटते तो लागबुक में कोई खामी लिख जाते । दूसरे विभागाध्यक्ष- हसमुख ,मोटे थुलथुल, जी-हुजूरी पसंद । हमलोगों के टिफ़िन बॉक्स पर उनकी नजर रहती । हर रोज पाली शुरू होते ही आते और थोड़ी देर बैठकर हंसी-मजाक कर व् झिडकियां दे चले जाते । तीसरे शॉप सुपरिंटेंडेंट । पतले-दुबले,लम्बे, घोड़े जैसा लम्बा चेहरा । उनका होठ हरदम W के शेप में रहता । वे कभी-कभी आते । हमलोगों को कुछ नहीं बोलते पर विभागाध्यक्ष के पास शिकायत का पुलिंदा पहुंचत रहता । तीनो में एक समानता अवश्य थी, सभी चश्मा लगाते थे ।
हमारे केमिकल लैब का बैलेंस रूम हाल के अन्दर एक पूरे शीशे का कउबीकल था । इलस्ट्रेटेड वीकली में निकलने वाले एशियन पेंट्स का बन्दर, हाथी और घोड़े के पोस्टर की कटिंग एक-एक कर लगायी गयी । शीशे की दीवार पर चिपकाते समय से ही हॉल में हंसी का माहौल बन गया । अब जब बंदरनुमा शिफ्ट इनचार्ज के आने का समय रहता तो हमलोगों में से कोई न कोई “ अब दिल्ली दूर नहीं “ का यह गाना गाता रहता – “चुनचुन करती आयी चिड़िया- बन्दर भी आया” । सुपरिंटेंडेंट आते तो बहुत पहले पता चल जाता  । कोई न कोई दरवाजे से झांक कर हमलोगों को आगाह कर देता । यह परिपाटी शुरू से थी । हमारे दक्षिण भारतीय सहयोगी गुनगुनाने लगते फिल्म पड़ोसन का मशहूर गाना – “एक चतुर नार- अईयो घोड़े” । मैंने स्वयम बहुत अभ्यास के बाद अंग्रेजी फिल्म – हटारी का baby elephant walk -  के धुन को व्हिसलिंग में उतारा था और जब भी हमलोगों के मोटा भाई आते तो मैं शुरू हो जाता उनकी तरफ पीठ करके ।
इनलोगों को इन पोस्टरों पर बेइंतिहा कौतुहल रहती थी और गाने से बहुत असमंजस । एक बात तो तय पायी गयी । अब ये लोग ज्यादा तंग नहीं करते थे । कुछ-कुछ सांप-छुछुंदर वाली स्थिति हो गयी थी । बहुत बाद में इनलोगों को पता चला । मजा देखिये कि 1975 की इमरजेंसी और हमलोगों के प्रमोशन का समय तभी धमका था ।