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Saturday, June 24, 2017

नमकीन

बचपन में जोर जोर से थपकी लेकर सोना बहुत अप्रिय लगता था पर नींद आ ही जाती थी । बाद में नींद लाने के लिए बहुतेरी लोरिआं सुनी और आधी-अधूरी कहानियाँ सुनी । माँ थी की एक ही कहानी बार-बार शुरू से सुनाती थी और महीनों तक उसका अंत नहीं सुन पाता था । आज तक पता नहीं चला की वो जादूगर उड़ने वाली दरी में बिठाकर राजकुमारी को कहाँ ले गया । जीवन का यह उबाऊ प्रकरण भी ताउम्र रहेगा, मरते दम तक ।
स्कूल में संस्कृत और सामाजिक अध्ययन की पढाई में नींद का आना अनिवार्य था । अंग्रेजी के सर को नींद भगाना बहुत अच्छी तरह आता था । जो भी लड़का झपकी मोड में आता उसे ब्लैक बोर्ड के पास आकर जोरों से पढने को कहा जाता । हमलोग इससे बहुत डरते थे । 121 होम ट्यूशन में जब कभी झपकी आती थी मास्टर साहब ठीक कान के ऊपर का बाल जोरो से खींचते थे । पिताजी जब भी पढ़ाते नीम की दो-तीन छड़ी सहज रखते । नींद क्या पूरी दुनिया उस समय ओझल रहती ।
कॉलेज तक तो हमलोगों को क्लास बंक करना आ गया था । पीछे की खिड़की के पास बैठते या खिड़की तक चुपके से सरकने का रास्ता तैयार रखते । केवल पढने वाले और डरने वाले लड़के क्लास के अन्दर रहते । हमलोग तभी  भागते जब बाहर कुछ बहुत ही रोचक हो रहा होता अथवा क्लास का लेक्चर बेस्वाद, बेसुरा और माथे के ऊपर से निकलने वाला होता  ।
नौकरी के शुरू के दिनों में भागना एक चैलेंज होता । भागने से ज्यादा बेहतर बॉस से मिलीभगत कर लेना होता । जैसे सबके के लिए शिफ्ट के बाद सिनेमा का टिकट जोगाड़ करना, पिकनिक अथवा शाम में बर्थडे पार्टी की तैयारी करना । हमारे सीनियर्स भागते नहीं थे । वे मैनेज करते थे । उनलोगों की आये दिन या तो कहीं दूर मीटिंग होती थी या सेमिनार । मजा तब आता था जब राज कपूर की मीटिंग में हमलोग आमने-सामने होते थे या क्रिकेट मैच के बाद राम प्रसाद को लक्ष्मण प्रसाद साबित कराने की जरूरत आन पड़ती थी ।  
हमलोगों को शुरूआती दौर के दरम्यान बहुत ही अच्छे सीनियर्स मिले । बस एक कसर रहती थी । चाहे कितना भी अच्छा काम किया जाए इन लोगों के पास कोई न कोई शिकायत रहती ही थी । यहाँ तक की अगर सिगरेट का टुकड़ा भी गिरा दिख जाये तो नाक-भों सिकुड़ने लगता था । हमलोगों ने भी इस उबाऊ दिनचर्या का जवाबी तोड़ निकाल लिया था ।
1970 के दशक में एशियन पेंट बहुत ही गुदगुदाने वाला जानवरों का पोस्टर निकाला करते थे । विभिन्न रंगों में रंगा जानवर अजीबो-गरीब हरकत करता दीखता था । हाथी का बच्चा चश्मा लगाकर बैठ कर ढोलक बजता था । अरबी चश्मीश घोडा मुंह में ब्रश लेकर पेंट करता दिखता था । बन्दर चश्मा लगाकार किताब पढता था । तीनो में एक समानता अवश्य थी, सभी चश्मा लगाते थे ।

हमलोगों का तीन वरिष्ठों से साबका पड़ता था । एक जो शिफ्ट इनचार्ज थे । एकदम बन्दर जैसा चेहरा । सुबह झाड़ू देने वाली बाई के साथ आते । हमेशा गायब रहते और लौटते तो लागबुक में कोई खामी लिख जाते । दूसरे विभागाध्यक्ष- हसमुख ,मोटे थुलथुल, जी-हुजूरी पसंद । हमलोगों के टिफ़िन बॉक्स पर उनकी नजर रहती । हर रोज पाली शुरू होते ही आते और थोड़ी देर बैठकर हंसी-मजाक कर व् झिडकियां दे चले जाते । तीसरे शॉप सुपरिंटेंडेंट । पतले-दुबले,लम्बे, घोड़े जैसा लम्बा चेहरा । उनका होठ हरदम W के शेप में रहता । वे कभी-कभी आते । हमलोगों को कुछ नहीं बोलते पर विभागाध्यक्ष के पास शिकायत का पुलिंदा पहुंचत रहता । तीनो में एक समानता अवश्य थी, सभी चश्मा लगाते थे ।
हमारे केमिकल लैब का बैलेंस रूम हाल के अन्दर एक पूरे शीशे का कउबीकल था । इलस्ट्रेटेड वीकली में निकलने वाले एशियन पेंट्स का बन्दर, हाथी और घोड़े के पोस्टर की कटिंग एक-एक कर लगायी गयी । शीशे की दीवार पर चिपकाते समय से ही हॉल में हंसी का माहौल बन गया । अब जब बंदरनुमा शिफ्ट इनचार्ज के आने का समय रहता तो हमलोगों में से कोई न कोई “ अब दिल्ली दूर नहीं “ का यह गाना गाता रहता – “चुनचुन करती आयी चिड़िया- बन्दर भी आया” । सुपरिंटेंडेंट आते तो बहुत पहले पता चल जाता  । कोई न कोई दरवाजे से झांक कर हमलोगों को आगाह कर देता । यह परिपाटी शुरू से थी । हमारे दक्षिण भारतीय सहयोगी गुनगुनाने लगते फिल्म पड़ोसन का मशहूर गाना – “एक चतुर नार- अईयो घोड़े” । मैंने स्वयम बहुत अभ्यास के बाद अंग्रेजी फिल्म – हटारी का baby elephant walk -  के धुन को व्हिसलिंग में उतारा था और जब भी हमलोगों के मोटा भाई आते तो मैं शुरू हो जाता उनकी तरफ पीठ करके ।
इनलोगों को इन पोस्टरों पर बेइंतिहा कौतुहल रहती थी और गाने से बहुत असमंजस । एक बात तो तय पायी गयी । अब ये लोग ज्यादा तंग नहीं करते थे । कुछ-कुछ सांप-छुछुंदर वाली स्थिति हो गयी थी । बहुत बाद में इनलोगों को पता चला । मजा देखिये कि 1975 की इमरजेंसी और हमलोगों के प्रमोशन का समय तभी धमका था ।


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