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Thursday, October 4, 2018

गणेश पाठशाला


1950 के दशक मे कदमकुआं पटना शहर की धड़कन हुआ करता था  । पूरब में उभरता हुआ राजेंद्र नगर, पश्चिम दिशा में पिरमुहानी जो रेलवे स्टेशन के रास्ते को ठीक आधे मे बांटती थी, उत्तर में बाकरगंज और दरियागंज तक और दक्षिण मे लोहानीपुर तक । अगर ये सब भी कदमकुआं के अंदर थे तो मुझे इसका ज्ञान नहीं था । कदमकुआं और लोहानीपुर को बाटने वाली सड़क जिसे अब जस्टिस राजकिशोर पथ के नाम से जाना जाता है उसके ठीक मध्य मे गणेश पाठशाला थी । यहाँ सातवी तक की पढ़ाई होती थी । सरकारी स्कूल जैसे पटना हाई स्कूल और पटना कोलेजियट स्कूल जहां सातवी से पढ़ाई शुरू होती थी उसमें एड्मिशन के लिए गणेश पाठशाला मुनासिब तैयारी करा देता था । यह एकमात्र स्कूल था जहां इंग्लिश की पढ़ाई कक्षा 1 से आरंभ हो जाती थी । इस स्कूल की सबसे बड़ी खूबी यह थी की मात्र 6 महीने मे फ़ाइनल परीक्षा लेकर प्रोमोट कर दिया जाता था । इस कारण यह स्कूल बहुत लोकप्रिय था । गणेश पाठशाला मे लड़के-लड़कियां दोनों पढ़ते थे ।
मेरे बड़े भाई का एक वर्ष पहले 1952 4थी कक्षा मे दाखिला हुआ था । वह मुझसे दो वर्ष ही बड़े थे पर दादाजी उन्हे बहुत प्यार से पढ़ाते थे । अव्वल कारण था कि बड़े भाई का नाक-नक्शा दादाजी से बहुत मिलता था । उन्ही के जैसा बड़ा माथा और बड़ा चेहरा ।
एक सुबह, दादाजी , बड़े भाई को छत के कोने मे, भरसक छिपकर पढ़ा रहे थे । वह नहीं चाहते थे कि मै विघ्न डालूँ । पिताजी किसी कारण से छत पर गए । पिताजी ने दादाजी से आग्रह किया की मुझे भी पढ़ाया करें । अगर हो सके तो मेरा भी दाखिला स्कूल मे करा दें । 3 दिन बाद सोमवार की सुबह साफ-धुले कपड़े पहन कर दस बजे तैयार रहने के लिए मुझे हिदायत दी गई । दादाजी ने एक किताब भी दी तैयारी करने के लिए । मैंने जितना हो सका पढ़ा और याद रखने का प्रयत्न किया ।  
हर दिन सुबह मुझे दादी और माँ मिलकर मुझे तैयार करने लगीं । उस किताब से जगह-जगह से सवाल पूछे । सोमवार को ठीक दस बजे, दादाजी अपने कमरे से बाहर आए । क्या व्यक्तित्व था ? छरहरे, लंबे, काली अचकन-शेरवानी, चूडीदार सफ़ेद पाजामा और सर पर एक काली टोपी भी थी । रास्ते भर मुझसे सवाल पूछते  । जिसका जवाब नहीं आता था, वह बताते भी गए ।
हेडमास्टर जमीन पर बिछी दरी पर बैठे थे । उनके सामने एक मुनीम वाला डेस्क रखा था । मुझे अभी तक याद है, हेडमास्टर दादाजी को देखते ही उठ खड़े हुए थे । अभिवादन का आदान-प्रदान इंग्लिश मे हुआ । हेडमास्टर के दाहिने तरफ दादाजी बैठे । मुझे सामने बैठने को कहा गया । मेरा परिचय जैसे की मेरा नाम, पिताजी का नाम और मेरी जन्मतिथि इंग्लिश में पूछा गया । 7 का टेबल पढ़ने को कहा गया । भूगोल के प्रश्नों में मैं कच्चा निकला । मुझे खड़ा कर हेडमास्टर मुझे देखने लगे । उन्होने कहा –“यह बालक तो कक्षा 2 के लायक है पर बहुत छोटा दिखता है और बोली भी बिलकुल बच्चों जैसी है । विद्यार्थी इसे तंग कर सकते हैं । मैं इसका दाखिला शिशु(KG) मे करूंगा और बहुत जल्दी ही प्रोमोट कर दूँगा । इसके बाद मेरा पूरा नाम पूछा गया । मैंने प्रकाश सिंह कहा । दादाजी ने सुधार कर प्रकाश नारायण सिंह लिखवाया । उनका नाम रामानुग्रह नारायण सिंह था । उसके बाद सिर्फ मेरे नाम के साथ ही नारायण जुड़ा  । दाखिले की फीस 1 रुपया दादाजी ने चाँदी के सिक्के से दिया ।
गणेश पाठशाला सात कमरों का आयताकार मकान था । यह भवन बैरिस्टर राज किशोर प्रसाद का था । इसके साथ बाई तरफ जुड़े मकान में स्वयम मकान मालिक रहते थे। क्लास रूम मे जाने के लिए एक पतला बरामादा था । हेडमास्टर का कमरा आगे की तरफ था जिसका दूसरा दरवाजा अंदर बरामदे की तरफ था । बीच में एक बड़ा आँगन था  । दक्षिण-पश्चिम कोने पर टॉइलेट था । पश्चिम छोर में टिफ़िन रखने और खाने की जगह थी ।
तो सबसे पहले टिफ़िन की बात की जाए । पहले ही दिन वहाँ दो लड़कों को लड़ाई करते देखा । मालूम पड़ा एक दूसरे का टिफ़िन खाकर खाली बॉक्स दूसरे शेल्फ पर रख देता था । बाद में ये वाकया बहुत बार देखने को मिला । एक लड़का, सत्येन्द्र अपना टिफ़िन कागज में लपेटकर पैंट की जेब में रख कर लाता था । वह गरीब था । उसके पास न तो टिफ़िन बॉक्स था और न दिखाने लायक खाना । वह रोटी में सब्जी लपेट कर लाता था । ज़्यादातर बच्चे परोठे, अंडे और मिठाई लाते थे । किसी न सत्येन्द्र पर फब्तियाँ कस दी । अब क्या था ? सत्येंद्र ने ऐसा जोरदार हल्ला मचाया कि शिक्षकों को आना पड़ा शांत करने के लिए ।
मालूम नहीं, सभी को स्कूल आने के बाद ही टॉइलेट की जरूरत क्यों पड़ जाती थी । आने-जाने का सिलसिला दिनभर चलता रहता था । सभी कमरों का दरवाजा आँगन की तरफ खुलता था । इसलिए जाने-अनजाने सभी की निगाहें आँगन की चहलकदमी पर चली जाती थी ।  एक दिन मेरे दोस्त सुनील को भी जरूरत महसूस हुई । वह शिक्षक से अनुमति लेकर बीच आँगन में खड़ा हो गया । वहाँ उसने एक-एक कर सभी कपड़े उतारे और नंग-ध्रङ्ग , इठलाते हुए टॉइलेट की तरफ बढ़ गया । क्लास में लड़कियों को आगे की पंक्ति में बिठाया जाता था, एकदम दरवाजे के सामने । अब जो खिलखिलाहट शुरू हुई वह जैसे ही रुकने को हुई सुनील ने टॉइलेट से लौट कर एक-एक कर कपड़े पहनना शुरू कर दिया । खिलखिलाहट ने फिर ज़ोर पकड़ लिया । इस तरह के ध्यानकर्षण के लिए लड़कों को एक अच्छा बहाना मिल गया  । उसके बाद तो लड़कों को लाइन लग गई । दूसरा आया । उसने भी उसी तरह बीच आँगन में कपड़े उतारे और पहने ।  तीसरे ने भी नकल की । पाठशाला में शोरगुल इस कदर बढ़ा की हेडमास्टर को स्वयम आना पड़ा अनुशासन बहाल करने के लिए  
कक्षा 1 तक चटाई पर बैठना पड़ता था  । कक्षा 2 से डेस्क और बेंच की सहूलियत थी । कक्षा 2 मे मकान मालिक के दो युवा लड़के कभी-कभी पढ़ाने आते थे । बड़े थे सुरेन्द्र । इनका क्लास हमलोग मंत्रमुग्ध होकर करते थे । कारण व्यक्तित्व सुंदर और आकर्षक तो था ही साथ ही ये बिहार में बनी भोजपुरी डाक्यूमेंटरी फिल्मों में बतौर नायक बन कर पेश होते थे । ये फिल्में पाठशाला में और राज्य सूचना केंद्र के भवन में दिखाई जाती थीं । उनसे छोटे, नरेंद्र हमेशा चाभी की चैन घुमाते रहते थे और बच्चो को गलती करने पर चाबुक जैसा इस्तेमाल भी करते थे । कक्षा 2 में 1 महीने के अंदर ही कुछ छात्रों को कक्षा 4 में प्रोमोट कर दिया गया । मै भी उनमें से एक था । इस बात को घर में जिस तरह उल्लास से मनाया गया उससे मुझे थोड़ा घमंड आ गया ।
कक्षा 4 मकान मालिक के गैरेज में स्थित था । क्लास टीचर शर्मा जी थे । ये इंग्लिश पढ़ाते थे । क्लास शुरू होते ही हमलोगों की वर्जिश शुरू हो जाती थी । कोई मुर्गा बनता तो कोई लीन-डाउन; कोई बेंच पर खड़ा होता तो कोई क्लास के बाहर । किसी का कान खींचा जाता तो किसी को क्लास से दिन भर के लिए निकाला जाता था । शर्मा जी से हेडमास्टर भी खौफ खाते थे । जब की सब टीचर मुनीम से तनख्वाह पाते थे, शर्माजी को स्वयम हेडमास्टर आते थे उनकी तंख्वाह देने । साथ ही यह हर बार कहते की मैंने आपको दूसरो से 2 रुपये ज्यादा दिये हैं अथवा सबसे ज्यादा दिये हैं । इसी क्लास में मैंने पहली बार “शर्मा जी शर्माते हैं, चूहे पकड़ कर खाते हैं” सुना । गाने की शुरुआत करने वाला विश्वकर्मा नाम का लड़का था जिसकी शिनाख्त होते ही पाठशाला से निकाल दिया गया ।
मुझसे भी एक बार गलती हो गई थी । पाठशाला जाते समय याद आया की मैंने शर्मा-सर का दिया होमवर्क तो बनाया ही नहीं । इंग्लिश में कोई भी एक कविता लिख कर लानी थी और उसे क्लास में सुनाना था । मैंने माँ को बताया और शर्मा-सर के मिजाज के बारे में भी बताया । मैं बिलकुल नहीं जाना चाहता था । माँ ने मुझसे पेंसिल ली और झटपट किसी कविता की चार लाइन लिख दी और कहा की कविता को रास्ते में रट लेना । क्लास मेँ अंदर जाते ही मैंने सबकी तरह कॉपी खोल कर शर्मा-सर के टेबल पर रख दी । रोल-कॉल के बाद एक-एक कर लड़कों से कविता देखने के बाद उन्हें व्याख्यान करने को कहा जाता । गलती होने पर बेंत से पिटाई अथवा कान खिचायी । मेरा नंबर आया । शर्मा-सर भौचक और बोखलाए हुए मेरी तरफ देखने लगे । उनके पूछने पर मैंने डरते-डरते सच बात बता दी । शर्मा-सर ने असिस्टेंट हेडमास्टर नथुनी-सर को बुलवा भेजा । उनके आने तक मैंने न जाने कितने दंड के तरीके बुन लिए थे । उन्हें कॉपी दिखाई गई । उन्हें सारी बात बताई गई और शर्मा-सर ने जानना चाहा कि क्या ऐसी लिखावट कभी देखी है और लिखी पंक्तियाँ के कवि का नाम मालूम है । माँ की लिखावट अत्यंत सुंदर होती थी । मुझे सच बोलने के कारण कोई दंड नहीं मिला । बड़ा होने पर वह कविता ISc के टेक्स्ट बुक “Golden Treasury” में मिली । Wordsworth की “The Rainbow” की पंक्तियाँ थीं ।
शर्मा-सर की एक सबसे बड़ी खूबी तब देखने को मिली जब वे भूतपूर्व छात्रों के द्वारा अभिनीत “Merchant of Venice” का निर्देशन कर रहे थे । मंचन आँगन में हो रहा था । हमलोगों को भी बरामदे में बिठाया गया था । इतना भव्य की आजतक शेक्सपियर की वह कहानी नहीं भूली है । शर्मा-सर स्वयं शायलक बने थे ।
गणेश पाठशाला में मेरे 3 मित्र बने । पहला सुनील जिसका मै जिक्र कर चुका हूँ । दूसरा सुशील जो श्री जनक नारायण लाल, MLC का बेटा था । तीसरा अशोक चोपड़ा जिसके परिवार की मशहूर गोल्डेन आइसक्रीम पूरे शहर में मशहूर थी ।
हेडमास्टर कभी-कभी ही पाठशाला आते थे । सुना था उनका कलकत्ता में बड़ा व्यापार है । वे जब भी आते, सभी छात्रों को लाइन में खड़ा किया जाता । उनका छोटा सा भाषण होता । पढ़ाई में अच्छा करने वाले छात्रों को पुरस्कार और शरारत करने वालों को दंड मिलता । उनके जन्मदिन पर इसी तरह हमलोगों को इकट्ठा कर लड्डू बांटे जाते । उनकी मृत्यु पर पाठशाला में 3 दिनों की छुट्टी घोषित हुई थी । उतनी कम उम्र मे जाना की बड़े लोगों के मरने पर छुट्टी मिलती है । बिन मांगे छुट्टी मिलने का यह अवसर आज भी बच्चों में खुशी भर देता है ।




Monday, July 16, 2018

हम भी कभी बच्चे थे !


पहले के घरों में एक आँगन होता था, एक बरामदा होता था और एक गलियारा होता था. दोपहर में क्रिकेट खेलने के लिए गलियारा सबसे अच्छा होता था; बस स्ट्रेट ड्राइव की गुंजाईश. हमारे घर में गलियारे के शोर्ट कवर में जज अंकल का लिविंग रूम था. टेनिस की गेंद उनकी दीवार या खिड़की छूती भर थी और हंगामा शुरू. ऐसा दिन महीने में एक-दो बार ही आता था की शोर्ट कवर पर हंगामाँ गैरहाजिर हो.
60 वर्ष बाद घर के बच्चों को मेरे घर का अगवाडा ही सबसे रास आया दोपहर के क्रिकेट के लिए. मेरे घर की लम्बी-चौड़ी खिड़की बल्ले के स्विंग से 3 फीट दूर है. उसपर यह मेरे आराम का समय होता है. दोपहर को स्कूल से लौट कर बच्चे क्रिकेट के साथ-साथ स्कूल की आपबीती भी गपियाते रहते हैं. खेल तभी ख़त्म होता है जब बच्चे अपने जन्मसिद्ध अधिकार का उपयोग करने लगते हैं; यानी झगडा !
शुरू में एक-दो बार जब बाल खिड़की से टकराई तो मैंने दांत तोड़ लेने की धमकी भी दे डाली. उसकी बाद कुछ दिन तक दारुण सन्नाटा. दोपहर को नींद की झपकी आनी बंद. मालूम पडा मेरे डर से कम बल्कि गेंद फट जाने से खेल बंद है. मैं शाम को बाजार जाकर उनके लिय गेंद ले आया.
अब उनकी बातूनी नोक-जोख से भरपूर क्रिकेट की लोरी क्या गजब की झपकी ला देती है. उसके सामने 2-3 सौ के खिड़की के शीशे की क्या हैसीयत !

Thursday, February 15, 2018

जोन्हा फाल्स : कल, आज और कल !!

कल (1960-65)

1960 के दशक में जोन्हा फाल्स अपनी अछूती सुन्दरता के चरम पर था. रांची-मूरी रेल ट्रैक पर जोन्हा के लिए मात्र बर्धमान पैसेंजर , गौतमधारा स्टेशन 10 बजे सुबह पहुंचती थी और शाम पांच बजे पुनः रांची लौटने को आ पहुचती थी. इसी से सटे लगभग कच्ची रांची-पुरुलिया रोड गौतमधारा रेल  गुमटी को लांघती थी. दोनों हालात में इसी गुमटी पर पहुँच कर 5 किलीमीटर जंगल के ट्रैक पर चलकर जोन्हा फाल्स पहुँचना होता था . पूरे जाड़े लोग इस प्राकृतिक झरने पर पिकनिक करने आते थे. धधकते लाल रंग के टेसू के फूलों से
केंद
सुसज्जित जंगल, अनसुने-अनदेखे पक्षियों का कलरव और चोरी-छिपे झांकती सूरज की किरणे एक दूसरी दुनिया ही सुसज्जित कर देती.  इस मौसम में झाड़ों पर नीले मटर के दाने के बराबर करौंदे की भांति मीठे फल गुच्छो में मिलते थे. शायद उसका नाम कद्वन था .जंगली छोटे बैर से जंगल भरा होता था. गौतम धारा के जंगल में कम बीजों वाला मीठे अमरुद के पेड़ भी अनगिनत थे. एक और फल बहुतायत में मिलता था, पीला, गोल्फ के बॉल जितना , मीठे गूदों के बीच कुछ बीज लिए. उसे लोग केंद कहते थे.   से मछलियों का शिकार करते दीखते रहते थे .अगर कोई खाली हाथ भी आया हो तो उसे पेट भरने को बहुत कुछ मिल जाता था. 5 किलोमीटर की पैदल यात्रा से थकने के बजाय लोग और ज्यादा प्रफुल्लित और वेगवान हो जाया करते थे. ये वन हाथियों का रिहाईशी इलाका था पर पिकनिक के  मौसम में, भीड़ और कोलाहल के चलते हाथी कहीं दूर दूसरी जगह निकल जाया करते थे . बंदरों का झुण्ड पेड़ों पर मस्ती करता दिखता था.
झरने से बहता पानी जगह-जगह पार करना होता था. आदिवासी तीर-धनुष से या फिर नुकीले भाले
जल प्रपात के पास पहुँच कर अधिकाँश सुधिजन सम्मोहित और ठगे-ठगे झरने और उसके चारो ओर फ़ैली प्राकृतिक छटा  को निहारते रह जाते थे. तब सिकदारी जलविद्युत नहीं बना था. इस कारण झरना शरद ऋतू में अपने यौवन पर रहता था. पत्थर काटकर या रखकर 150 के लगभग सीढियां हमलोग आनन्-फानन में तय कर लेते थे. 150 फीट के ऊंचाई से 3-4 झरनों से नीचे पड़े समतल चट्टानों पर पानी गिरता था. इन चट्टानों तक पहुँचने के रास्ते में रेतीली जमीन और उसके बाद जल की सतह एक इंच से बढ़ता हुआ 100 फीट दूर चट्टान तक 2 फीट गहरा हो जाता था. पानी इतना स्वच्छ कि पूरे जमाव के नीचे रेत और पत्थर दीखते थे: एकदम मिनरल वाटर. नहाने, खिलवाड़ और शरारत करने के लिए यह स्थल एकदम दोस्ताना थी.
जोन्हा फाल्स शरद ऋतू में सैकड़ों सैलानियों से भर जाता था. ये रांची शहर के अलावा जमशेदपुर, पुरुलिया और कोलकाता तक से आते थे.  ज्यादा प्रतिशत बंगाली और आदिवासी क्रिस्चियन का होता था. आदिवासी तो पूरे रास्ते गाते, मांदर बजाते और नाचते दूरी तय करते थे . वे पूरे समय थिरकते दीखते थे.
हम 4 साथी 1961-63 में इंटरमीडिएट कर रहे थे . उम्र और उत्साह एकदम सही था नए वर्ष में पिकनिक मनाने का. इन 3 वर्षों में जोन्हा फाल्स जाकर पिकनिक करना सबसे ज्यादा सहज था. बाकी स्थलों में जाने के लिए यातायात की व्यवस्था  आवश्यक थी. जोन्हा के लिए बर्धमान पैसेंजर बिलकुल माकूल थी. 1 जनवरी को तो शायद ही कोई टिकट खरीदता हो. रास्ते भर चेन खीचकर, ट्रेन रोककर सैलानी चढ़ते-उतरते थे. 45 मिनट का सफ़र 2 घंटे में तय होता था. ट्रेन में बैठने या फिर खड़े रहने की सबसे लोकप्रिय जगह फूट-बोर्ड होती थी. हमलोग घर से एक घंटे पहले ही स्टेशन पहुँच कर फूटबोर्ड पर कब्जा करते थे. बारी-बारी से दो जन बैठते थे और दो जन पीछे खड़े रहते थे. ट्रांजिस्टर पर जो भी गाना आता हो उसको गाते-चिल्लाते सफर तय करते थे. तब”सुहाना सफ़र और ये मौसम हसीं” पहली पसंद हुआ करती थी.
हमलोग नव वर्ष के पिकनिक की तैयारी महीने भर पहले शुरू कर देते थे. चारो जन मिलकर 60 रुपये के लगभग इकठ्ठा करते थे. सभी शान्तिनिकेतन झोले में पिकनिक का सामान बाट लेते थे. सामान में काफी, कंडेंस्ड मिल्क, चीनी, बिस्कुट, ब्रेड, जैम, मिक्सचर,बॉयल्ड अंडे और मिठाई होती थी. मनोरंजन के लिए ताश जरूरी था. एक क्लिक-3 कैमरा लाता था तो दूसरा ट्रांजिस्टर. तीसरे के जिम्मे फिल्म का रोल होता था तो चौथा चाय-काफी बनाने का बर्तन और गिलास . सन-ग्लासेज का जोगाड़ निहायत जरूरी हुआ करता था.
जगह चुनने को कैप्चर करना कहते थे. चादर या तौलिया बिछाई जाती थी. बिखरी पड़ी सूखी टहनियों को जलाकर काफी बनायी जाती थी. घुटने तक पैर पानी में डूबाकर काफी की चुसकिया लिया करते थे. एकबार तो सिगरेट की आजमाईश भी हुई थी. उसके बाद चड्ढी पहने पानी में उतर कर झरने के नीचे नहाते थे. घुटने भर पानी में भरपूर अठखेली करते थे. कैमरे से बारह स्नेप बड़ी सावधानी से लेते थे जिससे कि चारों के साथ न्याय हो सके. जितने स्नेप सही डेवेलप होते उनकों पसंद के अनुसार आपस में बाँट लेते. खाने का सामान आधे से ज्यादा बच जाता जिसे निहारते गाँव के बच्चों में बाँट देते. ऐसा सब सैलानी करते. जो पहले से आ रहे होते , वे नियतन ज्यादा खाने की सामग्री लाते. सामिष चूल्हों के पास कुत्तों का जमावड़ा हो जाता और दूर ऊपर 1-2 सियार भी ताकते रहते.
हमलोगों में इस बात पर अनबन हो जाती की ताश खेला जाये, प्राकृतिक छटा निहारी जाये, सैलानियों के सांस्कृतिक कार्यक्रम का लुत्फ़ लिया जाए या फिर झपकी ले ली जाये. हमलोग सभी क्रियाकलापों के साथ न्याय करने का प्रयत्न करते. तीर और नुकीले भाले से मछली का शिकार करते देखना सम्मोहित कर लेता. आदिवासी घंटो मांदर की थाप पर थिरकते रहते.  अगर कोई बंगाली ग्रुप भाव-विभोर हो गया तो रविन्द्र संगीत, बाउल गीत और जात्रा का नैसर्गिक आनन्द मिलता. अंत में जाने से पहले पुनः चाय या काफी बनती. इस समय कोई न कोई बाबू-मोशाय काफी का एक चुम्मा लेने आ ही जाते. गौतमधारा स्टेशन समय से काफी पहले आकर ट्रेन का इन्तजार करना होता. लौटते वक्त फूटबोर्ड खाली मिलता. घर पहुँचते-पहुंचते रात हो जाती.

आज (2018)

आज लगभग 50 वर्ष बाद मैं जोन्हा फाल जा रहा था. इतने वर्ष न जा पाने के कई कारण थे. रेलवे गुमटी के बाद 5 किलोमीटर का रास्ता पगडंडियों वाला ही था. अब हिच-हाईक करने की उम्र नहीं रह गयी थी. पूरा इलाका नक्सल प्रभावित माना जाता था. तब दोस्तों के साथ गया था - इस बार पत्नी और बेटे के साथ. इधर दो वर्षों में बहुत कुछ विकास हो गया है. सड़कें बहुत अच्छी बन गयी हैं. झरने तक पहुँचने के लिए टाइल्स की सीढियां बन गयी हैं. अब झरने के ऊपर या नीचे जाना बहुत सहज हो गया है. थोड़ी-थोड़ी दूर पर छतरी वाले प्लेटफार्म बना दिए गए हैं जहां 20 से 50 तक का ग्रुप बैठने और पिकनिक का आनंद ले सकता है. सबसे बड़ी बात कि गाँव के लगभग सभी परिवारों के लिए रोजगार की अच्छी गुंजाईश हो गयी है. भोजन , स्नैक्स और कुछ नहीं तो जंगल में होने वाले फल की खूब बिक्री होती है. झरने की तरफ जाने वाले तीनों रस्ते पर अच्छा-ख़ासा टोल लिया जाता है. जोन्हा पहुँचने में अब 5 की बजाय मात्र डेढ़ घंटे लगते हैं. पूरा इलाका प्लास्टिक मुक्त घोषित किया गया है साथ ही नशा करना वर्जित किया गया है. अभी और भी विकसित होने की बहुत गुंजाईश है. सरकारी डाक बँगला तो है साथ ही पर्यटकों के लिए भी ठहरने और विश्राम की संभावना बनती है. रोपवे आमदनी का एक अच्छा जरिया बन सकता है.
तीर और भाले से मछली का शिकार अब देखने को नहीं मिलता है. मात्र दो-तीन पेड़ टेसू के लाल सुर्ख फूलों से लदे दिखे . पेड़ पर बैर, अमरुद, पियार और कन्द्वन नहीं दीखते हैं वे सब अब बिकाऊ हो गए हैं. मजेदार बात ये है कि अब कोई भी पैदल रास्ता नापते नहीं दिखता है. चार्टर्ड बस, मोटर गाड़ी और बाईक से छुट्टी के दिन पूरा रास्ता गुलज़ार रहता है. एक्का-दुक्का गाँव के लोग पैदल चलते दीखते हैं. अब संवेदनशील जगहों पर बाकायदा पुलिस की चौकसी रहती है.

तब और अब में एक ही समानता दिखी. झरने को देखकर हमलोग पुनः भौचक रह गए. कारण बिलकुल विपरीत था. पानी की एक-दो पतली लकीरे भर ही दिख रही थी. खैरियत इस बात की थी कि 95% आबादी युवा सैलानियों की थी जैसा कि पिकनिक स्पॉट की खासियत है . इन्हें कहाँ मालूम था कि सिकदरी पॉवर प्लांट बनने  के पहले यह जल प्रपात कैसा विशाल हुआ करता था. इसलिए सभी जगह काफी उत्साह और चहल पहल दिखता था. बहुतों ने लाउड स्पीकर-एम्पलीफायर पर संगीत का शोर मचा रक्खा था. एक-दो जगह सैलानी नाच भी रहे थे. आदिवासी समूह भी थे . वे भी आदिवासी नृत्य कर रहे थे. पर मांदर की थाप पर नहीं , ऑर्केस्ट्रा धुनों पर . आदिवासी युवतियां सदी नहीं बल्कि लड़कों की तरह जींस पहने थीं. आदिवासी सैलानी बहुत ज्यादा मेकअप में दिखे. पाउडर, लिपस्टिक, रूज़ , हेयर स्टाइल और पहनावे से लड़के-लडकी में फर्क करना मुश्किल था. आज के युवा सिगरेट सभ्यता से बहुत आगे बढ़ चुके थे.
एक और समानता दिखी. पहले पेड़ों पर इतने फल लदे रहते थे कि जंगल में भटकने पर भूखा नहीं रहना पड़ता. अब भी अगर कोई जाए तो वही सबकुछ खरीद कर  पेट भर सकता था. साथ में तरह-तरह के स्नैक के पाउच और भेल-पूरी जैसी झाल-मूढ़ी भी चाय के साथ मिल रही थी.
हमलोग जिस सीढ़ी से नीचे उतरे उसे छोड़ दूसरी सीढ़ी से ऊपर चढ़े. एक सुखद आश्चर्य भी हुआ. गाँव के बच्चे बची हुई भोजन सामग्री की टोह में इंतज़ार करते नहीं दिखे - जंगली बैर बेचते दिखे. आने-जाने वालों पर मासूम नजरें. हमलोगों ने 10-12 दोने बैर खरीदे. जो बैर दस रुपये दोना था वह लौटते समय पांच का हो गया था. तात्पर्य कि इन्हें भी बिक्री करने का मर्म समझ में आ गया था . हमलोग जोन्हा फाल होकर पांच घंटे में चार बजे तक घर लौट आये.

कल ( 2025)

आज लोग बुलेट ट्रेन और हाइपरलूप की योजना के खिलाफ हाय-तोबा मचा रहे हैं वैसे ही जैसे कंप्यूटर के आगमन पर हुआ था. काश वे समझ पाते कि ये विकास विकसित होते देश की मजबूरी है. ठीक वैसे ही जैसे एक बार भगवान् जगन्नाथ का रथ चल पडा तो रोकना मुश्किल हो जाता है. ये रथ सरकार नहीं खिचती है बल्कि आम नागरिक के संगठित सहयोग और इच्छा शक्ति से होता है. आज का आम नागरिक अब कहाँ STD बूथ पर लाइन में खडा दिखता है ; सभी के पास मोबाइल फोने है. टाइपराइटर की जगह कंप्यूटर ने ले ली है. पिज़्ज़ा और बर्गर अब एक मजदूर भी खाता है. बाइसिकल भी अब कम ही दिखती है.
2025 का जोन्हा फाल रोप वे, लिफ्ट और मॉल से सुसज्जित होगा. पहुचने के लिए रेल और रोड के अतिरिक्त ओवरहेड रेल प्रणाली होगी. हेलीपैड की भी व्यवस्था हो तो अचरज नहीं.शायद तबतक उबेर और ओला फ्लाइंग कैब भी ले आयें. निजी गाडियों पर तो टोल लगेगा ही सैलानियों को भी पास खरीदना होगा.
झरने को भरपूर करने के लिए प्राइम टाइम पर सिक्दरी जलाशय से पानी छोड़ा जाएगा. तरह-तरह के चाट और भोजन के स्टाल दिखेंगे. झरने से गिरते पानी को रोककर जगह–जगह तालाब बनाए जायेंगे जिसपर बोटिंग और तीर-भाले से मछली भेदने का खेल पैसे देकर खेलने को मिलेगा. एडवेंचर खेल जैसे बंगी जम्पिंग का आनंद भी उठाया जा सकेगा. ड्रोन से फोटोग्राफी आम बात हो जायेगी. 
शायद पुनः मांदर की थाप पर अपने बुनियादी लिबास में  थिरकते आदिवासी भी दिखने लगे. सांस्कृतिक विरासत का रीप्ले एक मुनाफे का व्यापार होगा.
जोन्हा के आसपास कुछ ही किलोमीटर दूर और भी मशहूर जल प्रपात हैं- हुन्डरु, दशम, सीता वगैरह. यातायात की इतनी बेहतर सुविधा के चलते पर्यटक एक झरने पर सुबह का नाश्ता, दूसरे पर दिन का भोजन और तीसरे पर शाम की चाय का आनंद लेते हुए उजाला रहते हुए घर वापिस आ सकेंगे. 


Monday, January 15, 2018

भोला का लोटा !

अपने बचपन के मित्र भोला के निवास पहुचने पर सब कुछ बदला-बदला नजर आ रहा था. रंग-रोगन और रेनोवेशन ने फ्लैट को नया रूप दे दिया था. पलंग के नीचे अखबारों के बण्डल की भरमार की जगह एक नए बॉक्स बेड ने ले ली थी. टीवी एक आकर्षक टेबल पर विराजमान था. खिड़की-दरवाजों पर मेल खाता पर्दा लगा था. सामने की दीवार पर मोडुलर आलमारी और कैबिनेट पर किताबे और कलाकीर्तियाँ सुशोभित थी . सबकुछ नया-नया था सिवाय एक एंटीक लोटे के .

भोला नाम माता-पिता का दिया हुआ था. अब एक बच्चा बैगन इसलिए नहीं खायेगा कि वह बैगन की तरह काला हो जाएगा तो यह तो होना ही था. स्कूल में उसके साथी भी उसे भोला ही कहते थे कारण कि वह सिनेमा हॉल के बाहर चिपके पोस्टर और फोटो गैलरी को देखकर शेखी बघारता था कि उसने पूरी फिल्म देख ली है. हम कोलेजिया भी उसे इसी नाम से पसंद करते थे . खाने की चीज़ों का वह बराबर बटवारा करता था और सबसे छोटा हिस्सा खुद लेता था. अब आजतक हम सभी उसे भोला ही क्यों कहते हैं यह शायद बताने की आवश्यकता नहीं है. बहुत हाल-हाल तक वह पलंग के नीचे क्विंटल भर पुराने अखबार ठीक तौल कर 2 किलो का बण्डल बनाकर बरसों सहेज कर रखता कि शायद जैसे सभी चीजों का मूल्य लोग्रथिमिक गति से बढ़ रहा है अखबार भी 5 रुपये की जगह 50 का बिकने लग जाए. हमलोग भोला की जगह कब उसे उसके सरनेम से बुलाने लगे याद नहीं आता.

भोला के पास हमलोग इसलिये भी खीचते चले जाते हैं कि उसके पास पुराने संस्मरणों का भोलापेडिया है और उसे एक लेख या कहानी की तरह संचारित कर प्रोफेसरी आक्ख्यान की कला में समेटने की दक्षता है.  चुकी प्रोफेसर के पद से अवकाश-प्राप्त है अतः एक ही एपिसोड वह क्तिनी बार सुना चुकता है इसका उसे अहसास नहीं. कोई रोचक एपिसोड चाहे कितनी बार सुने, समय का सेकंड तक सटीक रहता. इस एंटीक लोटे को भी उसने एक कहानी का नायक बना दिया.


भोला के चाचा कॉलेज की पढाई करने एक जोड़े कपडे और इसी लोटे के साथ रहने आये थे. 5 वर्ष बाद जब पढ़ाई पूरी कर नौकरी में योगदान देने दूसरे शहर जाने लगे तब यह लोटा छोड़ गए या छूट गया. इस लोटे में बहुतेरी अच्छी बाते थीं. यह साधारण लोटों से बड़ा था. इसका पेंदा चिपटा था. लोटे का ऊपरी किनारा ज्यादा फैलाव लिए था जिससे पकड़ने में आसानी होती थी. सबसे खास बात यह थी कि मिटटी या साबुन से रगड़ कर धोने के बाद एकदम चमचमाने लगता था. लोटा कांसे की ढलाई से बना हुआ था. समय के साथ लोटा भी घर के बर्तनों में घुल-मिल गया. भोला की माँ कब उसे अपने निजी व्यवहार में लाने लगी यह किसी को याद नहीं. पूजा और गंगा स्नानं के वक्त यह लोटा माँ के साथ रहता .

लोटे से भोला का सीधा साक्षात्कार मकर सक्रांति पर हुआ. कडाकेदार सर्दी की सूर्योदय बेला में भोला माँ के साथ गंगा किनारे स्नान-दान को पहुंचा. पूजा-पाठ के बाद माँ को चाय पीने की इच्छा हुई. किनारे से ऊपर चाय की गुमटी जाने को भोला तत्पर हुआ तभी माँ ने कहा कि वह बाजार की चाय नहीं पीयेगी. तय हुआ कि कुछ लकड़ी लाकर, आग जलाकर, लोटे में चाय बनायी जाए. माँ इसके लिए चाय पत्ती और चीनी लेकर आयी थी. गाय कुछ दूर में बंधी दिख रही थी. ईंट जोड़कर चूल्हा बना. पेड़ की सूखी टहनियां और पत्तें चुने गए. माचिस तो अगबत्ती-दिया जलाने के लिए लाई ही गयी थी. सब तैयारी होते-होते एक घंटा लगा. जलते-बुझते चाय बनाने में आधा घंटा लग गया. भोला चाय पीते नहीं थे. बिना छाने माँ ने लोटे से ही चाय पी. धो-मांज कर लोटे में गंगा जल भर लिया.

कुछ वर्षों बाद जब भोला कॉलेज के NCC सिग्नल्स के कैंप के लिए पंद्रह दिनों के लिए शहर से 50 किलोमीटर दूर जाने लगा तो बहुत मिन्नत के बाद यह लोटा माँ ने स्नान-ध्यान के लिए भोला को दिया. कैंप में सभी को प्लेट और मग दिए गए थे तब भी यह लोटा हिट हो गया.

उस उम्र में भोला डील-डौल में इकॉनमी साइज़ का था और हिम्मत भी ब्राह्मण ब्रांड थी. घर से बाहर समय बिताने का अवसर पहली बार मिल रहा था. कैंप में दबंगों की दादागिरी का भय भी था. अजीब स्थिति थी रोमांच के साथ दहशत की. ओरिजिन पॉइंट जहां बस से प्रस्थान के लिए इकट्ठा होना था वहीँ भोला ने अपने कद्दावर सहपाठी अजय भाई के साथ मेल-जोल बढ़ा लिया. बस में भोला ने अपने साथ खिड़की वाली सीट अजय भाई को देकर लाजवाब कर दिया. दो घंटे के सफ़र में क्या-कुछ हुआ होगा भोला ने नहीं बताया. कैंप सरकारी स्कूल में ठहरा. दो बड़े हॉल में 50 लड़कों को जगह दी गयी. अजय भाई ने कोने पर बिस्तर लगाया जबकि पाठक उससे दो बिस्तर दूर.

अभी 5 मिनट भी समय नहीं बीता था कि अजय भाई ने जोरदार आवाज में हांक लगाई – “मित्रों ! हम कपडा बदल रहे हैं पर न तो हमने चड्ढी पहनी हुई है और मेरा तौलिया भी तंग है इसलिए हम सभी को खबरदार कर देते हैं. “ अब कौन ताजमहल देखना था सभी ने आँखें फेर लीं और भोला ने भी. भोला उस रात बहुत आश्वस्त होकर सोया. सुबह सबरे झकझोरे जाने पर नींद खुली. देखा अजय भाई सर पर खड़े थे और वही पूजा वाला लोटा मांग रहे थे. कहने लगे, दीर्घशंका के लिए मैदान जाना हैं तुम्हार लोटा बड़ा हैं धोखा नहीं देगा. कोई भी सफाई बहाना न लगे और नयी दोस्ती में दरार न पड़ जाए इसलिए बहुत मन मसोस कर देना पड़ा.

उसके बाद तो हर सुबह जितने अच्छे-खासे, मोटे-ताजे friend-or-foe थे सभी की कतार लग जाती. कोई एक-डेढ़ घंटे बाद भोला जी कुँए के पास जाकर उस लोटे को मिटटी से रगड़-रगड़ कर धोते. भोला जी का लोटा रातो-रात नहीं सुबहो-सुबह चरम  प्रसिद्धि पा गया था . प्रसिद्धि तो सुनील को भी मिली थी और अरुण को भी. ये दोनों रात की गोष्ठी में उस समय का लोकप्रिय गाना बखूबी गाते थे. सुनील “ टूटे हुए ख्वाबों ने हमको ये सिखाया है ....’ और अरुण” बेकरार करके हमें यू न जाईये .....” बहुत अच्छा गाते थे. उसके बाद नींद न आने तक सभी जवान अरुण और अनिल से फरमाईशी सुनते .

आज ५५ वर्षों बाद, न जाने इस भोले लोटे को कितना कुछ देखने-सुनने और सहने के बाद यह प्रतिष्ठित जगह मिली होगी हम जैसों को बैठे-ठाले जोखने के लिए.

अब न तो घाट पर नहाने का संस्कार है और न सफ़र का साथी बनाने की आवश्यकता. वर्ष में एक-आध बार मंदिर तक जल चढाने की यात्रा हो जाती है वह भी तबतक जबतक इस पीढ़ी की जिद बाकी है. .

भोला के घर से लौटते समय उस एंटीक लोटे के भविष्य के बारे में पूछने की इच्छा होते हुए भी चुप रहा. भोला भी कडवा सत्य ही बोलता और goodbye, sad bye हो जाती.