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Monday, January 15, 2018

भोला का लोटा !

अपने बचपन के मित्र भोला के निवास पहुचने पर सब कुछ बदला-बदला नजर आ रहा था. रंग-रोगन और रेनोवेशन ने फ्लैट को नया रूप दे दिया था. पलंग के नीचे अखबारों के बण्डल की भरमार की जगह एक नए बॉक्स बेड ने ले ली थी. टीवी एक आकर्षक टेबल पर विराजमान था. खिड़की-दरवाजों पर मेल खाता पर्दा लगा था. सामने की दीवार पर मोडुलर आलमारी और कैबिनेट पर किताबे और कलाकीर्तियाँ सुशोभित थी . सबकुछ नया-नया था सिवाय एक एंटीक लोटे के .

भोला नाम माता-पिता का दिया हुआ था. अब एक बच्चा बैगन इसलिए नहीं खायेगा कि वह बैगन की तरह काला हो जाएगा तो यह तो होना ही था. स्कूल में उसके साथी भी उसे भोला ही कहते थे कारण कि वह सिनेमा हॉल के बाहर चिपके पोस्टर और फोटो गैलरी को देखकर शेखी बघारता था कि उसने पूरी फिल्म देख ली है. हम कोलेजिया भी उसे इसी नाम से पसंद करते थे . खाने की चीज़ों का वह बराबर बटवारा करता था और सबसे छोटा हिस्सा खुद लेता था. अब आजतक हम सभी उसे भोला ही क्यों कहते हैं यह शायद बताने की आवश्यकता नहीं है. बहुत हाल-हाल तक वह पलंग के नीचे क्विंटल भर पुराने अखबार ठीक तौल कर 2 किलो का बण्डल बनाकर बरसों सहेज कर रखता कि शायद जैसे सभी चीजों का मूल्य लोग्रथिमिक गति से बढ़ रहा है अखबार भी 5 रुपये की जगह 50 का बिकने लग जाए. हमलोग भोला की जगह कब उसे उसके सरनेम से बुलाने लगे याद नहीं आता.

भोला के पास हमलोग इसलिये भी खीचते चले जाते हैं कि उसके पास पुराने संस्मरणों का भोलापेडिया है और उसे एक लेख या कहानी की तरह संचारित कर प्रोफेसरी आक्ख्यान की कला में समेटने की दक्षता है.  चुकी प्रोफेसर के पद से अवकाश-प्राप्त है अतः एक ही एपिसोड वह क्तिनी बार सुना चुकता है इसका उसे अहसास नहीं. कोई रोचक एपिसोड चाहे कितनी बार सुने, समय का सेकंड तक सटीक रहता. इस एंटीक लोटे को भी उसने एक कहानी का नायक बना दिया.


भोला के चाचा कॉलेज की पढाई करने एक जोड़े कपडे और इसी लोटे के साथ रहने आये थे. 5 वर्ष बाद जब पढ़ाई पूरी कर नौकरी में योगदान देने दूसरे शहर जाने लगे तब यह लोटा छोड़ गए या छूट गया. इस लोटे में बहुतेरी अच्छी बाते थीं. यह साधारण लोटों से बड़ा था. इसका पेंदा चिपटा था. लोटे का ऊपरी किनारा ज्यादा फैलाव लिए था जिससे पकड़ने में आसानी होती थी. सबसे खास बात यह थी कि मिटटी या साबुन से रगड़ कर धोने के बाद एकदम चमचमाने लगता था. लोटा कांसे की ढलाई से बना हुआ था. समय के साथ लोटा भी घर के बर्तनों में घुल-मिल गया. भोला की माँ कब उसे अपने निजी व्यवहार में लाने लगी यह किसी को याद नहीं. पूजा और गंगा स्नानं के वक्त यह लोटा माँ के साथ रहता .

लोटे से भोला का सीधा साक्षात्कार मकर सक्रांति पर हुआ. कडाकेदार सर्दी की सूर्योदय बेला में भोला माँ के साथ गंगा किनारे स्नान-दान को पहुंचा. पूजा-पाठ के बाद माँ को चाय पीने की इच्छा हुई. किनारे से ऊपर चाय की गुमटी जाने को भोला तत्पर हुआ तभी माँ ने कहा कि वह बाजार की चाय नहीं पीयेगी. तय हुआ कि कुछ लकड़ी लाकर, आग जलाकर, लोटे में चाय बनायी जाए. माँ इसके लिए चाय पत्ती और चीनी लेकर आयी थी. गाय कुछ दूर में बंधी दिख रही थी. ईंट जोड़कर चूल्हा बना. पेड़ की सूखी टहनियां और पत्तें चुने गए. माचिस तो अगबत्ती-दिया जलाने के लिए लाई ही गयी थी. सब तैयारी होते-होते एक घंटा लगा. जलते-बुझते चाय बनाने में आधा घंटा लग गया. भोला चाय पीते नहीं थे. बिना छाने माँ ने लोटे से ही चाय पी. धो-मांज कर लोटे में गंगा जल भर लिया.

कुछ वर्षों बाद जब भोला कॉलेज के NCC सिग्नल्स के कैंप के लिए पंद्रह दिनों के लिए शहर से 50 किलोमीटर दूर जाने लगा तो बहुत मिन्नत के बाद यह लोटा माँ ने स्नान-ध्यान के लिए भोला को दिया. कैंप में सभी को प्लेट और मग दिए गए थे तब भी यह लोटा हिट हो गया.

उस उम्र में भोला डील-डौल में इकॉनमी साइज़ का था और हिम्मत भी ब्राह्मण ब्रांड थी. घर से बाहर समय बिताने का अवसर पहली बार मिल रहा था. कैंप में दबंगों की दादागिरी का भय भी था. अजीब स्थिति थी रोमांच के साथ दहशत की. ओरिजिन पॉइंट जहां बस से प्रस्थान के लिए इकट्ठा होना था वहीँ भोला ने अपने कद्दावर सहपाठी अजय भाई के साथ मेल-जोल बढ़ा लिया. बस में भोला ने अपने साथ खिड़की वाली सीट अजय भाई को देकर लाजवाब कर दिया. दो घंटे के सफ़र में क्या-कुछ हुआ होगा भोला ने नहीं बताया. कैंप सरकारी स्कूल में ठहरा. दो बड़े हॉल में 50 लड़कों को जगह दी गयी. अजय भाई ने कोने पर बिस्तर लगाया जबकि पाठक उससे दो बिस्तर दूर.

अभी 5 मिनट भी समय नहीं बीता था कि अजय भाई ने जोरदार आवाज में हांक लगाई – “मित्रों ! हम कपडा बदल रहे हैं पर न तो हमने चड्ढी पहनी हुई है और मेरा तौलिया भी तंग है इसलिए हम सभी को खबरदार कर देते हैं. “ अब कौन ताजमहल देखना था सभी ने आँखें फेर लीं और भोला ने भी. भोला उस रात बहुत आश्वस्त होकर सोया. सुबह सबरे झकझोरे जाने पर नींद खुली. देखा अजय भाई सर पर खड़े थे और वही पूजा वाला लोटा मांग रहे थे. कहने लगे, दीर्घशंका के लिए मैदान जाना हैं तुम्हार लोटा बड़ा हैं धोखा नहीं देगा. कोई भी सफाई बहाना न लगे और नयी दोस्ती में दरार न पड़ जाए इसलिए बहुत मन मसोस कर देना पड़ा.

उसके बाद तो हर सुबह जितने अच्छे-खासे, मोटे-ताजे friend-or-foe थे सभी की कतार लग जाती. कोई एक-डेढ़ घंटे बाद भोला जी कुँए के पास जाकर उस लोटे को मिटटी से रगड़-रगड़ कर धोते. भोला जी का लोटा रातो-रात नहीं सुबहो-सुबह चरम  प्रसिद्धि पा गया था . प्रसिद्धि तो सुनील को भी मिली थी और अरुण को भी. ये दोनों रात की गोष्ठी में उस समय का लोकप्रिय गाना बखूबी गाते थे. सुनील “ टूटे हुए ख्वाबों ने हमको ये सिखाया है ....’ और अरुण” बेकरार करके हमें यू न जाईये .....” बहुत अच्छा गाते थे. उसके बाद नींद न आने तक सभी जवान अरुण और अनिल से फरमाईशी सुनते .

आज ५५ वर्षों बाद, न जाने इस भोले लोटे को कितना कुछ देखने-सुनने और सहने के बाद यह प्रतिष्ठित जगह मिली होगी हम जैसों को बैठे-ठाले जोखने के लिए.

अब न तो घाट पर नहाने का संस्कार है और न सफ़र का साथी बनाने की आवश्यकता. वर्ष में एक-आध बार मंदिर तक जल चढाने की यात्रा हो जाती है वह भी तबतक जबतक इस पीढ़ी की जिद बाकी है. .

भोला के घर से लौटते समय उस एंटीक लोटे के भविष्य के बारे में पूछने की इच्छा होते हुए भी चुप रहा. भोला भी कडवा सत्य ही बोलता और goodbye, sad bye हो जाती.

3 comments:

  1. Cloth change declaration was of BHOLA and not AJAI informing about small sized towel and no undergarment . This may kindly be rectified .

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  2. I had memories with Sunil, Sushil and above all Ajai Bhaia and most of all with you.

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  3. पुराने अख़बारों को बेचने के लिए बंडल 2 Kg का बनाया जाता था न कि 1 Kg का , जैसा की उसके सामने वाले super senior पड़ोसी ने बताया था ]

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