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Wednesday, September 15, 2021

टिफिन - 2


 पटना कॉलेजिएट स्कूल 1950-60 के दशक का अग्रणी स्कूल था. यह बहुत सारे आयामों में नेत्रहाट स्कूल का प्रतिस्पर्धी था. सबसे मजेदार था इसका टिफ़िन प्रबंधन. टिफिन की घंटी बजने के पहले स्कूल बैंड बजने लगता . उसकी थाप पर मोटो-नाटे हलवाई सर पर  बड़ा टिन का बक्सा 150 मीटर दूर कैंटीन से क्लास के दरवाजे के बाहर आ जाते. घंटी बजने और बैंड बंद होने पर हलवाई व् क्लास मॉनिटर एक-एक प्लेट जलपान विद्यार्थियों के डेस्क पर रख देते थे. सप्ताह के प्रत्येक दिनों के लिए मेनू तय रहते थे. दो दिन मिठाई जैसे बर्फी,जलेबी,बुंदिया, पूआ, बालूशाही इत्यादि. दो दिन निमकी, गठिया, कचौरी या मठरी . बाकि दो दिन शायद मंगल और शनिवार को फल जैसे केला, सेव, नाशपाती अथवा अमरुद. सबकुछ इतना की पेट की भूख शांत हो जाए. हमलोग निमकी और गठिया उतना पसंद नहीं करते थे. पर उसके शौकीनो की कमी नहीं थी. हमलोग स्कूल की छत पर चल जाया करते थे. आसमान चील-कौओं से भरा रहता था. हमलोग खूब ऊपर नमकीन उछाला करते थे.  क्या मजाल की एक भी टुकड़ा पक्षियों की पकड़ में न आये. अगर कोई भी लड़का चूकता या ललचाता तो उसके हाथ से झपट्टा मार कर ले लेते. कभी-कभी खरोच भी लग जाया करती.

सब छात्र यह खेल नहीं खेलते थे, खासकर वरीय छात्र. एक बार मैंने छत से नीचे झांक कर देखा. वे हर रोज स्कूल के हाते में टिफिन का कुछ हिस्सा हाथ में लेकर चले जाते थे. एक बहुत ही झुकी पीठ वाला, बढ़ी दाढ़ी वाला वृद्ध दो बच्चो के साथ कटोरा लिए आता था. सबकोई अपने टिफिन का कुछ हिस्सा उसके कटोरे में डाल देते थे. हमलोगों ने भी वैसा करना शुरू किया.

वह वृद्ध 15 वर्षों पहले स्कूल का चपरासी था. अवकाशप्राप्त बाद 4 रूपये पेंशन से वह किसी तरह गुजारा कर लेता था. बेटे-बहु की अकाल मृत्यु के बाद दोनों पोते इन्ही के पास रहने लगे. बढती मंहगाई ने वृद्ध की कमर झुका दी. एक बार छुट्टी के दिनों, क्रिकेट प्रक्टिस के बाद लौटते समय मेरे बड़े भाई और उनके सहपाठीओं ने उन बच्चों को कचरे से चुनकर खाते देखा. उसी क्षण उनलोगों ने निर्णय लिया. दूसरे दिन से छुट्टी के दिनों, प्रत्येक हफ्ते अपने-अपने घरों से चावल-दाल की पोटली पहुचानी शुरू कर दी.


Monday, September 13, 2021

टिफिन

टिफिन का मिजाज़ समय के साथ बदलता रहता है. समय ही नहीं इसमें परिवेश और पर्यावरण का भी विशेष योगदान होता है. यह टिफिन सबसे अर्थपूर्ण और दोस्ताना मध्यम वर्ग के बीच होता है. गरीबों के तो कन्धों से यह गमछे में बंधा लटकता डोलता रहता है और जब कडाके की भूख लगती है तब वह कहीं भी कभी भी बिना तकल्लुफ के स्वाद लेकर खा लेता है. ऊच्चवर्ग की टिफन या तो नौकर सँभालते हैं अथवा स्कूल कैंटीन में बहुत कुछ मिल जाता है. मेरे साथ इसकी लगभग 70 वर्षों की जान-पहचान है.

गर्मी के दिनों में जब स्कूल सुबह का होता था तब टिफिन की बागडोर दादी संभालती थीं. वह तडके उठ जाती थीं. स्टोर रूम के छेंके पर लटकी हांडी से निकाले चने के सत्तू में चीनी डालकर पानी से गूंथ कर लड्डू बनाकर हाथ में थमा देती थी. जब कभी ठंडी तासीर का हवाला देकर जौ का सत्तू मिलाती थी तो हमलोग मुंह बिचकाते थे.स्टोर से आँगन उसके बाद बरामदा, उसके बाद कोर्टयार्ड और गेट खोलते-खोलते पूरा टेनिस बाल जितना लड्डू निवाला बन चुका होता था. बरसात का मौसंम आते-आते टिफिन का मेनू बदल जाता था. बासी रोटी पर घी लगा कर चीनी छिटक कर लपेट कर हाथ में दे दी जाती थी.

बाकी दिनों में स्कूल नौ बजे से चार बजे तक का होता था. माँ बाकायदा टिफिन बॉक्स में परोठा और सब्जी देती थी. अगर सब्जी न बनी हो तो गुड़/चीनी और आचार मिलता था. दोनों ही कॉम्बिनेशन हमलोगों को पसंद आता था. कभी-कभी माँ सरप्राइज आइटम भी छिपा कर रख देती थी – जैसे बर्फी, मुरब्बा, बुंदिया वगैरह जो टिफिन खोलने के बाद ही पता चलता था. ऐसा सरप्राइज आइटम अक्सर सभी की टिफिन में रहता था. टिफिन खाने के लिए एक बरामदा नियुक्त था. वहीँ दोस्तों के साथ बैठते थे. सबसे पहले यह देखना होता था की किसकी टिफिन में सरप्राइज है. उसे अंत में शेयर करने के लिए अलग रख दिया जाता था. हमारी टोली से ज्यादा संपन्न भी थे. वे हमलोगों की तरफ पीठ करके बहुत डरते-डरते खाते थे. डर था की कोई जान न ले, मांग न ले. बिखरती हुई महक से पता तो चल ही जाता था की किस दिन किसकी टिफिन में अंडा, मछली या मटन है अथवा हमारी तरह ही सामान्य है. आनंद तो दोस्तों के साथ मिल-बाँट में ही आता है. दोस्ती में इन्ही कारणों से गाढ़ापन आता है जो कयामत तक बरकरार रहता है. वे तीन दोस्त अभी भी हैं.

स्कूल के बाहर खोंचे और ठेले लगे रहते थे . यहाँ ज्यादातर संपन्न बच्चों की भीड़ लगती थी. महीने में एक-दो बार हमलोग भी इसका लुत्फ़ उठाते थे. दो-चार पैसे में बहुत तरह के दोने मिल जाया करते थे जैसे छोले, दही बड़े, आलू टिकिया, जलेबी, पंतुआ, वगैरह. एक बार जब हमलोग आलू चाट का मजा ले रहे थे तो देखा दो सहपाठी थोड़ी दूर कल्वर्ट पर बैठे छिपकर रोटी-प्याज खा रहे थे.

सातवी कक्षा में हमलोग का दाखिला सरकारी स्कूल में हो गया.

क्रमशः......