गर्मी
के दिनों में जब स्कूल सुबह का होता था तब टिफिन की बागडोर दादी संभालती थीं. वह
तडके उठ जाती थीं. स्टोर रूम के छेंके पर लटकी हांडी से निकाले चने के सत्तू में
चीनी डालकर पानी से गूंथ कर लड्डू बनाकर हाथ में थमा देती थी. जब कभी ठंडी तासीर
का हवाला देकर जौ का सत्तू मिलाती थी तो हमलोग मुंह बिचकाते थे.स्टोर से आँगन उसके
बाद बरामदा, उसके बाद कोर्टयार्ड और गेट खोलते-खोलते पूरा टेनिस बाल जितना
लड्डू निवाला बन चुका होता था. बरसात का मौसंम आते-आते टिफिन का मेनू बदल जाता था. बासी
रोटी पर घी लगा कर चीनी छिटक कर लपेट कर हाथ में दे दी जाती थी.
बाकी
दिनों में स्कूल नौ बजे से चार बजे तक का होता था. माँ बाकायदा टिफिन बॉक्स में
परोठा और सब्जी देती थी. अगर सब्जी न बनी हो तो गुड़/चीनी और आचार मिलता था. दोनों
ही कॉम्बिनेशन हमलोगों को पसंद आता था. कभी-कभी माँ सरप्राइज आइटम भी छिपा कर रख
देती थी – जैसे बर्फी, मुरब्बा, बुंदिया वगैरह जो टिफिन खोलने के बाद ही पता चलता
था. ऐसा सरप्राइज आइटम अक्सर सभी की टिफिन में रहता था. टिफिन खाने के लिए एक
बरामदा नियुक्त था. वहीँ दोस्तों के साथ बैठते थे. सबसे पहले यह देखना होता था की किसकी
टिफिन में सरप्राइज है. उसे अंत में शेयर करने के लिए अलग रख दिया जाता था. हमारी
टोली से ज्यादा संपन्न भी थे. वे हमलोगों की तरफ पीठ करके बहुत डरते-डरते खाते थे.
डर था की कोई जान न ले, मांग न ले. बिखरती हुई महक से पता तो चल ही जाता था की किस
दिन किसकी टिफिन में अंडा, मछली या मटन है अथवा हमारी तरह ही सामान्य है. आनंद तो
दोस्तों के साथ मिल-बाँट में ही आता है. दोस्ती में इन्ही कारणों से गाढ़ापन आता है
जो कयामत तक बरकरार रहता है. वे तीन दोस्त अभी भी हैं.
स्कूल
के बाहर खोंचे और ठेले लगे रहते थे . यहाँ ज्यादातर संपन्न बच्चों की भीड़ लगती थी.
महीने में एक-दो बार हमलोग भी इसका लुत्फ़ उठाते थे. दो-चार पैसे में बहुत तरह के
दोने मिल जाया करते थे जैसे छोले, दही बड़े, आलू टिकिया, जलेबी, पंतुआ, वगैरह. एक
बार जब हमलोग आलू चाट का मजा ले रहे थे तो देखा दो सहपाठी थोड़ी दूर कल्वर्ट पर
बैठे छिपकर रोटी-प्याज खा रहे थे.
सातवी
कक्षा में हमलोग का दाखिला सरकारी स्कूल में हो गया.
क्रमशः......
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