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Sunday, May 27, 2012

अंकल पोजर


पिताजी हमलोगों को ९-१० वर्ष की उम्र से इंग्लिश पढाया करते थे. वे इंग्लिश में एम०ए० थे. उन्हें हमलोगों के पाठ्य पुस्तकों की ज्यादातर कवितायें-कहानियां और लेख पहले से पढ़ी होती थी. ऐसा इसलिए की वे पटना के दयानंद स्कूल में शिक्षक और बी०एन०कालेज में लेक्चरर रह चुके थे. कहना न होगा की हमलोगों की पढाई में बेंत की प्रमुख भूमिका होती थी. पढ़ने का समय होते ही हमलोग कापी-किताबों के साथ बेंत स्वयं ही रख देते थे. पर एक कहानी में बेंत को अपना कमाल दिखाने का मौका ही नहीं मिला. वह कहानी नवमी कक्षा की “ Uncle Podger hangs a Picture थी. उस दिन पिताजी ने माँ को भी पास बिठा लिया और कहने लगे,” आज हमलोग प्रकाश (यानि मै) पर लिखी कहानी पढेगे. कहानी ऐसे अंकल पर थी जो किसी भी काम को बड़े मनोयोग से आरंभ करते लेकिन अंत में वह काम बुरी तरह बिगड़ जाता. फोटो टांगने के दरम्यान, कुर्सी जिसपर वह चढ़े होते टूट जाती, दीवाल जिसपर कील ठोक रहे होते टूट जाती साथ ही हाथ पर भी हथौड़ी मार लेते. अंत में फोटो फ्रेम भी टूट जाता. पूरी पढाई में हँसी-मजाक होता रहा. मजाक मुझ पर ही हो रहा था लेकिन तब भी मै खुश था इसलिए की एक ऐसा भी दिन था जब मार नहीं पड़ रही थी. उस दिन के बाद भी, घर में जब भी कुछ टूटता या गड़बड़ाता, पिताजी पहले यह निश्चित करते कि कहीं उस एपिसोड का नायक अंकल पोजर यानि मै तो नहीं था. पर आज भी अंकल पोजर सक्रिय है हर घर में , हर व्यवसाय में, हर ग्रह पर, पूरे ब्रह्माण्ड में. न जाने कितना कुछ बिगडता है तब जाकर एक पृथ्वी जैसा स्वर्ग बनता है.

हमलोगों का नौ बच्चों का परिवार था. हरदम कुछ न कुछ टूटता ही रहता था . पिताजी की अनुपस्थिति में ज्यादातर हमलोग टूटे सामान की मरम्मत कर चुपचाप उसकी नियत जगह पर रख देते. किसी किसी मरम्मती सामान में कारीगरी या स्पेयर न होने की वजह से कुछ कमी रह जाती. जब वह कमी पिताजी के नजर पड़ती तो एक अच्छा बहाने की गुन्जायिश तो बनती ही थी. घर में चुकी मै सबसे पतला-दुबला और कमजोर था इसलिए बलि का बकरा मुझे ही बनाया जाता. मुझे मार कम पड़ती. दूसरे कमजोर होने की वजह से, जो काम कोई नहीं कर पाता उसे मै ले लेता अपनी मजबूती जाहिर करने के लिए. इस कारण टारगेट पर मै खुद-ब-खुद आ जाता. इससे एक फ़ायदा तो हुआ ही. जब मुझे अपना घर सम्हालने की जिम्मेवारी आई तो छोटे-मोटे काम के लिए मुझे बिजली मिस्त्री, बढ़ई, राज-मिस्त्री, माली, धोबी इत्यादि की कभी आवश्यकता नहीं पड़ी. यहाँ तक की तरह-तरह का खाना बनाने में भी मै सफल हुआ.
जिस कारखाने में मै काम करता था उसमे मुझे रूसी, जेक, फ्रेंच और जर्मन कारीगरों के साथ काम करने का मौक़ा मिला. उनलोगों में सबसे खास बात यह थी की वे किसी काम को छोटा नहीं समझते थे. मेरे लैब-रूम के झरोंखों में धूल पेस्ट की तरह चिपकी हुई थी. मेरे फ्रेंच सहयोगी ने उसे स्वयं साफ़ किया. मैंने यह भी पढ़ा था कि जापान में मैनेजर अपने कमरे की सफाई स्वयं करते हें. बाद में जब लैब की बागडोर मेरे हाथ आई तो १५ कमरों में विस्तृत पूरे लैब की सफाई और दीवारों की पेंटिंग लैब के पूरे स्टाफ ने मेरे साथ मिलकर की. इसे बहुत सहारा गया क्योंकि उस समय मेरे कारखाने के बंद होने की संभावना बनने लगी थी.
२००३ में मेरे स्वैच्छिक रिटायरमेंट लेने के ठीक दो महीने पहले लोकसभा की कमिटी का आगमन हुआ कारखाने की सुरक्षा और पर्यावरण व्यवस्था की जांच करने के लिए. उस वक्त ये दोनों विभाग की पूरी जिम्मेवारी मेरी थी. कमिटी में करीब ३५ लोकसभा और विधानसभा के सदस्य थे. मीटिंग आरम्भ होने के एक घंटे पहले मै सभागृह पहुंचा वहाँ के इन्तजाम की जांच करने. मालूम हुआ की उसी समय चेयरमैन का सन्देश आया था सभी के लिए एक-एक माईक्रोफोन की व्यवस्था करने के लिए. सभी के हाथ-पैर फूले हुए थे कि यह इतनी जल्दी कैसे होगा. सब सामान तो था पर किसी को तार जोड़ना नहीं आ रहा था. स्वयं चेयरमैन भी शंकित थे कि ऐसा सब इतनी जल्दी कैसे हो पायेगा.
सभा समय पर आरम्भ हुई. सबके सामने एक-एक माईक्रोफोन लगा था और बखूबी काम कर रहा था.
आज भी सीखने और कुछ नया करने की प्रबल इच्छा जीवन में रूखापन नहीं आने देती है बल्कि ६५ साल की उम्र में दो बार ICCU में  १५-१५ दिन बिताने के बावजूद सीलिंग फैन की मरम्मत और रेलिंग की पेंटिंग जैसा रोचक काम करने का हिम्मत देती है. पर अब आने वाली पीढ़ी के पोजर को मैं मास्टर पोजर बनाउंगा.
बहुत-बहुत धन्यवाद, अंकल पोजर !

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