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Monday, October 8, 2012

रेलगाड़ी


बीसवी सदी के लोगों के लिए बिजली से चलने वाली रेलगाड़ियाँ मेट्रो जैसी कृत्रिमता से ओतप्रोत है जबकि डीज़ल गाड़ियां शहरों के अभिमान से चूर दिखती हैं और कोयले से चलने वाली स्टीम गाड़ियों में गाँव की अल्हड़ता थी, खुशबू थी और था एक अजीब सा अपनापन जब हरेक यात्रियों के पास बात करने को समय था और बाँट कर खाने के लिए तरह-तरह के पकवान थे. गाड़ी के डिब्बे भी यात्रियों को झुलाते रहते थे. यात्रियों के शोरगुल के साथ-साथ पटरी पर दौड़ते पहियों की खटर-पटर, राख से भरे धुएं का गुब्बार, सब मिलजुल कर भी नींद बहुत अच्छी आती थी.  
रेलगाड़ियों की जान सबसे सस्ते किराए वाला डिब्बा है. जैसे-जैसे किराया मंहगा होता जाता है उसमें यात्रा करने वाले यात्रियों की अकड़ बढती जाती है और बोल-चाल व् गहमा-गहमी में कमी आती जाती है, यहांतक कि प्रथम श्रेणी में एक अकेला यात्री पत्रिका पढता अथवा शराब पीता पाया जायेगा.
शायद १९५० की गर्मी रही होगी. मैं २-३ वर्ष का था. याद आता है कि तडके सुबह मुझे पोर्सेलीन के बाथटब में माँ उलट-पुलट कर नहला रही थी और एक अंग्रेज महिला से अंग्रेजी में बात कर रही थी. शायद वह जमशेदपुर के रेलवे स्टेशन का प्रथम श्रेणी का वेटिंग हॉल रहा होगा क्योंकि कुछ देर बाद लाल पगड़ीमय युनिफोर्म पहने एक आदमी ट्रे में पोर्सेलीन टी सेट में चाय लेकर आया था जिसकी एक ठंडी घूँट माँ ने मुझे भी पिलाई थी. अब समझ में आता है कि वह क्षण पिताजी का गया से जमशेदपुर तबादले के समय का था.
१९५३ के आस-पास मैं माँ के साथ पटना से बनारस गया था. रेलगाड़ी के सफ़र का तो ज्यादा कुछ याद नहीं है सिवा इसके कि ट्रेन में मुझे मूंगफली खाने को मिली थी और माँ ने घर का बनाया हुआ मीठा ठेकुआ आम के अचार के साथ दिया था. बनारस शाम को पहुंचा था और स्टेशन से रिक्शे पर अपने ननिहाल चेतगंज पलक झपकते पहुँच गया था. तब स्टीम इंजिन से गाडी चलती थी. पूरा कपड़ा काला पड़ जाता था और शरीर से धुंएँ की महक नहाने के बाद ही जाती थी.
१९६० में पिताजीके साथ कोडरमा स्टेशन से बनारस गया था. ९ बजे सुबह ट्रेन में बैठा था और शाम को पांच बजे बनारस पहुंचा था. सफ़र में पिताजी ने मूंगफली और खीरा खिलाया था. गया स्टेशन पर एक रोचक घटना घटी थी. पितृ-पक्ष का समय था . गया स्टेशन पर भारी भीढ़ उमड़ी थी. एक गेरुवा वस्त्रधारी , सर मुडाया , ४०-४५ वर्ष का आदमी खिड़की से अन्दर घुसा था जिसके साथ प्लेटफार्म पर खड़े लोग छेड़खानी कर रहे थे. एक-दो लड़के उसपर पत्थर भी फेंक रहे थे. देखने से अर्ध-विक्षिप्त सा लग रहा था. सर और चेहरे पर उस्तुरे से कटी जगह से खून झलकता हुआ. उसने मुझे घूर कर देखा. मैंने डरकर उसके लिए जगह छोड़ दी और स्वयम खड़ा हो गया. पर उसने बैठने के बाद मेरे लिए बैठने के लिए अपने बगल में जगह बना दी. हमलोग सभी सहम कर उसकी हरकत और हाथ में लाल कपडे से लिपटा किताबों का बण्डल देख रहे थे. उसने मेरे पिताजी से नजर मिलाई. पिताजी मुस्कुराए और उनके बीच शुद्ध इंग्लिश में वार्तालाप आरम्भ हुआ जो चौकाने वाला और बेहद रोचक था. मैं उसे हूबहू रखने की कोशिश करता हूँ.
The man :“ I am ………. Malviya, grandson of Pandit Madan Mohan Malviya”.
My father was utterly surprised,” You mean the great Pandit  Malviya who created the Banaras Hindu University !” My father took it as an introduction from an insane person.
“Yes ! But people take me as an insane person as my actions are somewhat not normal and on which I have little control.” He quipped and added : “ I come every year to  relive the rituals of shraddh.”
“But, one has to come only once to ordain Gaya rituals !” My father said.
He laughed loudly and said:” Isn't life a series of images that change as they repeat themselves?  Man is young as long as he can repeat his emotions …….”
My father seemed to be stunned for a while with his remarks which seemed to be quotations of great persons. The grandson of Malviya and my father talked on variuos subjects related with English literature and Jurisprudence. Then suddenly that man who, by then had earned respects of co-passengers, turned to me . My father told him that I was his son and was due to finish  school education at a very young age of 11 years.
Mr Malviya placed his right hand on my shoulder and  asked:” How many sisters and brothers you have ?”
I said:” We are nine in numbers.”
“Ha! Ha! Numbers ! Young boy ,”.he went on : Tell me not in mournful numbers life is but an empty dream. Numbers mean lines of a poem. You should use the word number in singular to indicate quantity.”   He taught some basics of grammar with vivid examples.
बाद में कुछ और लोग भी वार्तालाप में शामिल हो गए. उस अकेले ने सब पर अपनी काबलियत का जैसे जादू कर दिया था. वे हमलोगों से एक स्टेशन पहले काशी में ही उतर गए.
अकेले रेल में  सफ़र करने का मौक़ा मुझे तुरत बाद गर्मी की छुट्टियों में मिला. सबकुछ नया-नया और पैर में बाटा का टफी जूता पहन कर मुझमे कुछ ज्यादा ही आत्म विशवास आ गया था. तीसरी श्रेणी का टिकट लेकर मैं सीआल्दह-पठानकोट पैसेंजर पर सवार हो गया.  कुछ देर बाद टिकेट-चेकर आया. उसने सबका टिकेट देखा पर उसने मुझे अनदेखा कर दिया. ऐसा दो बार हुआ. जिस स्टेशन पर मौक़ा मिलता , मैं नीचे उतर कर कुछ भी खाने की चीज खरीद लेता. ऐसे ही एक मौके पर ट्रेन चल दी. मैं दौड़कर ट्रेन पर चढ़ गया. पर उस बोगी में सभी गद्देदार सीट थीं. वह सेकंड क्लास था. दूर से टिकेट चेकर बढ़ता आ रहा था. मेरा डर से बुरा हाल था. पर इस बार भी उसने मुझ पर ध्यान नहीं दिया. अगले स्टेशन पर मैं पुनः अपनी श्रेणी में चला गया.
६५ वर्ष की अवस्था आते-आते मैंने सैकड़ों बार रेलगाड़ी में सफ़र किया होगा. पर हर बार कुछ नयी अनुभूति होती है, कुछ नया अनुभव होता है. सबसे अच्छा लगता है नए लोगों से जान-पहचान करना, हँसना-बोलना, मिल-बाँट कर खाना-खिलाना और उतरने के बाद भूल जाना. कहीं भी जाऊं , चाहे वह मेरी बेटी-बेटों का परिवार हो, रिश्तेदार हों, दोस्त हों अथवा मात्र सैर-सपाटा हो , सबसे अच्छा लौट कर अपने से छोटे घर में आना लगता है. बिछुड़ने के समय दुःख अवश्य लगता है पर जैसे-जैसे गाडी तेज़ी पकड़ती है सब भूलता जाता है और कुछ देर बाद या तो आप हमसफर पा लेते हैं अथवा खिड़की से बाहर का दृश्य आप पर छा जाता है. बचपन से अबतक न जाने कितनी दोस्ती हुई, कितने रिश्ते बने, कितनों से नजदीकी बनाए रखने की कसम खायी. आज जो बचे हैं उन्हें आसानी से उंगली पर गिना जा सकता है. उसके अलावा कुछ अगर हैं भी तो नहीं हैं.
क्या रेलगाड़ी का सफर एक पूरी जिंदगी का सफ़र नहीं लगता. एक सफ़र- एक जन्म ; दूसरा सफ़र-दूसरा जन्म. आज भी पटरी पर दौड़ती रेलगाड़ी उसी तरह लुभाती है जैसे बचपन में. समय-समय पर मैं पास के ओवरब्रिज के नीचे से गुजरती ट्रेन को देखने का लोभ नहीं छोड़ पाता हूँ. दूर से आते समय भविष्य का रोमांच देती है, पास से गुजरने समय वर्तमान का अनुभव देती है और दूर चली जाने पर अतीत का दुःख देती है. उसके बाद खाली पटरी , सिग्नल की हरी बत्ती गुल होती हुई और दूर तक सन्नाटा पर दूसरी गाड़ी आने का वादा ! मैं भरसक कोशिश करता हूँ कि किसी को विदा करने स्टेशन न जाना पड़े .  

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