दोस्तों में एक दोस्त
बंगाली न हो तो दोस्ती में मिष्टी-दोई का आनंद नहीं रहता. दिलीप दास से जान-पहचान
मेरी नौकरी के इंटरव्यू के दिन ही हो गयी. लौटते वक्त हमलोग साथ एक ही रिक्शे में
बैठे.उसे उस वक्त टूटी-फूटी हिंदी आती थी. उसे मुझसे पहले उतरना था. जब रिक्शा आधी
दूर ही पहुंचा था कि वह चिल्लाने लगा- “ हम गिरेगा.” मोटा तो वह था ही पर इतना भी
नहीं कि रिक्शे में समा ही न सके. मैंने उसके लिए थोड़ी और जगह बना दी. उसके दुबारे
चिल्लाने पर मैंने उसकी बांह पकड़ ली. फिर भी वह बांह छुड़ाकर गिर ही गया. चलते
रिक्शे से गिरने के कारण ज्यादा चोट तो नहीं लगी पर उठाने की लिए मुझे रिक्शेवाले
की मदद लेनी पड़ी. उसने खड़ा होते ही सामने का होटल दिखाया जहां वह ठहरा था. तब मेरी
समझ में आया कि उसके गिरने का प्रयोजन उतरने से था. ये गिरने और उठाने का सिलसिला
अंत तक चलने वाला था ये उस वक्त पता नहीं था.
नौकरी हुई तो शादी भी होनी
थी. बरात को बिहार के सबसे अक्खड जिले आरा के मोहनिया गाँव जाना था. ये इलाका बहुत
सी अजीबो-गरीब तौर-तरीके के लिए बदनाम या मशहूर था. बारातियों को खिलाने के लिए
पूरी नहीं पूरा बनता था. दो फीट व्यास के पूरों को बांह पर तोलिये जैसा लटका कर
खिलाने वाले लोग घूमा करते थे. बात-बात पर दोनों तरफ से लाठी और बन्दूक निकल जाया
करती थी. इतना कि बाईजी के नाच के वक्त या खाने के वक्त भी चारों तरफ डंडा लेकर
लोग खड़े रहते.
दिलीप को बिहारी शादी में
शामिल होने की बहुत इच्छा थी पर डर भी उतना ही था. मुझे भी अपनी शादी में उसके
जैसे खूबसूरत दोस्तों से रंग जमाने की ख्वाइश थी. मैंने उसे बताया कि वहाँ उसे
बड़े-बड़े परातों में मिष्टी दोई परोसा जायेगा तो उसके मन में कुछ-कुछ होने लगा. मेरे
बहुत हिम्मत देने पर और यहाँ तक कह देने पर कि उसे मैं अपने साथ-साथ ही रखूंगा वह
तैयार हो गया.
जून की दोपहरी की गर्मी में
वेयरहाउस में पुआल पर बिछाई दरी पर सोना, पालकी में बैठा दूल्हा और उसके साथ दौड़ लगाते बैंड-बाजा और बाराती, फारिग होने के लिए दूर मैदान में कोना तलाशना
और गुड़ की चाय सभी को उसने खिलाड़ी भावना से लिया. बाईजी के नाच में भी उसने अपनी
फरमाइश रखी-“आज सजन मुझे अंग लगा लो”. लेकिन जब उसका चेहरा बाईजी के घूँघट की ओट
में पल भर के लिए छिप कर निकला तो देखने लायक था. डूबते सूरज पर भी वैसी लालिमा
नहीं आती होगी जैसा उसके गोरे मुंह पर थी.
बरात लौटने के पहले एक रस्म
होती है मड़वा-भात की. बारातियों को शादी के मंडप की जगह आदर से बिठा कर घर की रसोई
में बना भोजन खिलाया जाता है जिसमे चावल-दाल और बेसन की पकौड़ियों की प्रमुखता होती
है और अंत में मिठाई व दही भी परोसा जाता है. भीषण गर्मी का दिन था. मुझे आँगन में
सीढ़ी की छाँव के नीचे कूएं के बगल में बिठाया गया. दिलीप मेरी बाईं तरफ बैठा.
खाने की तमीज इस प्रकार
होती है कि जब सभी व्यंजन परोस दिए जाये और दुल्हे का पिता आज्ञा दे दे तो खाना शुरू होता है. सब कुछ ठीक-ठाक हो रहा
था. बहू-पक्ष के लोग भी कतार लगाये खड़े थे. काफी देर से कसमसाते दिलिप दास से रहा
न गया. उसने दो बार फुसफुसाते हुए कुछ कहा पर हल्ले-गुल्ले में सुनाई नहीं दिया.
अंत में, उसने जोर से जोर लगाकार कह ही दिया-“तुम तो कहता था कि परात भोर कर मिष्टी-दोई
होगा पर कोथाय आचे !” चारों तरफ सन्नाटा छा गया.
तभी ऊपर सीढ़ी से भारी लट्ठ की
धमा-धम कि धुन पर किसी के उतरने की आवाज़ नजदीक आने लगी. एक काफी बूढ़े झबरीली
मूंछों वाले बुजुर्ग लट्ठ लिए मेरे और दिलीप के सामने खड़े हो गये. गुर्राहट भरी
आवाज में उन्होंने पूछा- “कौन दही मांग रहे हैं.” गलत व्याकरण था या आदर का भाव,
इसे समझने की ताकत किसमें थी ? सबलोग उस ठहरे समय में बस लठैतों का इन्तजार कर रहे
थे. दिलीप के लाल तमतमाए चेहरे को देखकर कुछ ज्यादा जानने की आवश्यकता नहीं थी. उस
बुजुर्ग ने सीढ़ी के ऊपर छत पर खड़े लोगों को आँख से इशारा भर किया और लोग दनदनाते
नीचे उतरने लगे. सबके हाथों में एक-एक बड़ा दही का परात था . सात-आठ परात दिलीप के
सामने रख दिए गए.
दिलीप हरेक काम कुछ अलग ढंग
से करता था. अगर शेव करना हो तो उसे पन्द्रह मिनट तो टेबल पर समान सजाने में लग
जाते थे जैसे कि कोई खास ओपरेशन करना हो. खाना खाने का ढंग भी निराला था. कहता था
उसके तरफ के लोग कमो-बेस वैसे ही खाते है. सबसे पहले वह पूरा भात खा जाता था. रोटी
तो खाता ही नहीं था. उसके बाद एक-एक कर परोसी गयी दो से पांच सब्जियाँ खाता था.
उसके बाद दाल के कटोरे को मुंह से लगाता था. उसके बाद मिठाई या/और दही का नंबर आता
था. अगर कोई मांसाहारी भोज्य हो तो उसका नंबर मिठाई के पहले आता था. अंत में पानी
पीता था. चार-पांच तरह की सब्जियाँ किसी खास दिन ही परोसी जाती थीं जैसे सुरक्षा
दिवस. ऐसे दिनों कैंटीन में बहुत भीड़ हो जाया करती थी. बड़ी मुश्किल से बैठने के
लिए कुर्सी मिलती थी.
ऐसे ही एक खास दिन, दिलीप पूरे
आधे घंटे तक आनंद के साथ खाना निबटाता रहा. रुई माछ भी थी और मिष्टी-दोई भी. हमलोग
१५ मिनट पहले ही खाना खत्म कर उसके उठने का इन्तजार कर रहे थे और गप्पे लड़ा रहे
थे. दिलीप का आज का फिनिशिंग टच बाकी था. उसने पाउच से टाबैको निकला, मसला और कागज
पर पेंसिल के आकार में सजाया. हमेशा की तरह खड़े होकर जीभ से कागज चिपकाने की
प्रक्रिया में जुट गया. अचानक वह गायब हो गया. हमलोगों ने बैठे-बैठे नजर दौडाई.
खड़े होकर चारों तरफ देखा. तभी मेरे बगल के साथी की नजर जमीन पर पैर पसारे दिलीप पर
पड़ी. कोई उसकी कुर्सी खींच कर ले गया था. हमलोगों का हँसते-हँसते बुरा हाल हो रहा
था साथ ही उसकी तकलीफ भी देखी नहीं जा रही थी.
मुझे तो चार्ली चैपलिन के “लाईम
लाईट” का वह वाकया याद आ रहा था जिसमे चैपलिन स्टेज की छत से नगाड़े पर पीठ के बल गिर
गया था. ठीक उसी की तरह दिलीप भी आँखे नचा-नचा कर मदद करने का इशारा कर रहा था. उसके
एक हाथ में माचिस और दूसरे में सिगरेट थी जिन्हें हाथ से छूटने के मौके की तलाश
थी. हम दो दोस्तों ने मिलकर उसे किसी तरह उठाया.
ये प्रकृति और उसके क्रिया-कलाप
भी लीक से हटकर कुछ नहीं करते हैं. आपको जिसने जितना दिया है उतना लेगा भी. आपको
जिसने जितना हँसाया है उतना रुलाएगा भी. कुछ साल बाद केवल पचास की उम्र में उसे
चार कंधो की जरूरत पड़ गयी.
सौजन्य : लक्ष्मी
सौजन्य : लक्ष्मी
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