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Thursday, June 6, 2013

ब्रेड स्टिक

बचपन और बचपना पूरी निखार पर आता है जब उम्र पांच से दस वर्ष के दरम्यान होती है. तहलका तब मचता है जब इस उम्र के बीच के तीन-चार बच्चे हों. और अगर सभी सहोदर भाई-बहन हों तो सुनामी कोई नहीं रोक सकता, एनिड ब्लाईटन भी नहीं. 
 1950 का दशक, हम तीन भाई , दस, आठ और छ वर्ष के, एक ही स्कूल में पढने जाते थे. गर्मी के दिनों में स्कूल सात बजे सुबह शुरू होता था. पिताजी सुबह छ बजे ही इंस्पेक्शन पर निकल जाते थे. वे म्युनिसिपल कारपोरेशन में वरिष्ठ पद पर थे. पर उनका इंस्पेक्शन आज़ादी के पहले
के स्टाइल पर ही चलता था. उनके कॉलेज के जमाने की 1930 की हरक्युलिस बाइसिकल, खाकी हाफ पेंट, उजली हाफ शर्ट और सर पर खाकी हैट. वे जबतक लौटते हमलोग स्कूल जा चुके होते थे.




स्कूल एक चौरस्ते से होकर जाना पड़ता. फूटपाथ और सड़क के बीच एक सात-आठ इंच चौडीं ईंटों की पगडण्डी पर चलते हुए जाने के रोमांच के बीच स्कूल कब पहुँच जाते थे पता ही नहीं चलता था. पर एक व्यवधान था. सुबह के स्कूल के समय, सभी सड़क-सफाई कर्मचारी अपना काम निबटा कर अपने परिवार के साथ उसी पगडण्डी पर बैठ कर चाय की
चुसकिया लेते रहते थे. पूरे चौरस्ते यही नजारा रहता था. इतना ही नहीं, वे लोग और उनके बच्चे लहराते सांप की आकार का ब्रेड की डंडी उसी चाय में डुबा-डुबा कर आवाज के साथ खाते थे. उस सांप जैसे ब्रेड की डंडियों में सांप ही जैसा अजीब सा सम्मोहन था. कितने बार तो हम भाईयों में से कोई एक या उससे ज्यादा उस क्रिया-कलाप को देखने के चक्कर में या तो लडखडा के गिर जाते थे या आपस में टकरा जाते थे.
ये तो होना ही था. हम लोगों ने तय किया कि अगली सुबह हमलोग कुछ पहले निकलेंगे और इसका लुत्फ़ लेते हुए स्कूल की और बढ़ेंगे. शायद ये उस समय का सबसे सस्ता नाश्ता रहा होगा.
हमलोगों ने तीन चाय से भरी ग्लासेस ली और तीन ब्रेड स्टिक लिया. सबकुछ बीस पैसे में आ गया. जबतक पगडण्डी तक पहुंचे,  वहा बैठे बच्चों ने जगह बना दी थी. हमलोग उनके बीच  बैठकर चाय-ब्रेड का लुत्फ़ उठाने लगे.
ये भी होना ही था. उसी समय पिताजी, बाइसिकल पर सवार ,सड़क के दोनों तरफ मुआयना करते लौट रहे थे. उन्होंने बहुत ही मुस्कुराते हुए हमलोगों की तरफ देखा. अब उनकी मुस्कराहट का सबब समझ में आता है. वो यह देख कर खुश हो रहे थे कि सड़क कर्मचारी भी अब अपने बच्चों की पढाई की तरफ ध्यान देने लगें हैं. पर उनकी मुस्कराहट पलक झपकते बौखलाहट में बदल गयी. उन्होंने ऐसा 1950 के दशक के सपने में भी नहीं सोचा होगा. हम तीनो फ्रीज शॉट में तब्दील हो गए. बड़े भाई का मुंह खुला था और स्टिक दो इंच सामने पैतालीस डिग्री पर रुक गयी थी. छोटा भाई सड़क की जमीन पर रखी गरम चाय का गिलास उठाने ही वाला था. मेरा ब्रेड स्टिक, चाय में डुबकी लगाने के बाद बाहर आने की बेताब उतावली में था.
सब पिताओं में कुछ न कुछ अच्छाई अवश्य होती है. मेरे पिता जी कभी भी बीच सड़क में न तो डाटते थे और न पीटते थे. पूरी आतिशबाजी बड़े आराम से शाम के समय परिवार के बीच हुई.
आज ५५ वर्ष बाद मैंने शाम को अपनी बेटी को वैसे ही एक आकृति को चाय के साथ खाते देखा तो हँसे बिना नहीं रह सका. उसे अब ब्रेड स्टिक और बैगेल ट्विस्टर के नाम से जाना जाता है.
जब मैंने यह आपबीती सुनायी तो उसका हँसते-हँसते बुरा हाल हो गया. तब पहली बार उसने बताया कि उसके बाबा यानी मेरे पिताजी बच्चों के साथ लुका-छिपी खेलते थे और डराने के लिए अपना दांत पलास से तोड़कर दिखाते थे. 
जवानी को तो लौटते न पाया और न सुना पर बचपना पूरी समझदारी के साथ एक बार फिर लौट कर आता है.

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