१९६० के दशक में स्कूल और कॉलेज के लड़कों के लिए बाइसिकल होना एक गर्व की बात
होती थी. अगर बाइसिकल इंग्लिश मेक हर्क्युलस या रैले हो तो सोने पे सुहागा.
खुशकिस्मती से हम भाईयों के पास दोनों थी. १९७० का दशक आते ही उसकी जगह स्कूटर ने
ले ली. हमार छोटे भाईयों के लिए वही साईकिलें सरदर्द बन गयी. एक दिन वे दोनों
पुरानी साईकिलें चोरी हो गयी.
१९७० के आस-पास स्वदेशी हीरो साइकिल ने बाजार में तहलका मचा दिया. अब किशोर और
बच्चे स्वदेशी स्पोर्ट्स साईकिले लेने लगे. ये सस्ती भी होती थीं. अचानक पुरानी
इंग्लिश मेक साईकिले मिलनी तो दूर दिखनी भी बंद हो गयी. हैरत में तो हमलोग तब आये
जब मेरे एक मित्र के घर चोर मात्र पुरानी रैले साइकिल ही चोरी करके ले गये.
ये विदेशी साईकिलें स्पेशल स्टील के ट्यूब से बनती थीं. १९७० के दशक में दो
ऐतहासिक बातों ने इन ट्यूबों की मांग अत्यंत बढ़ा दी थीं. पहला था लाखों
बांग्लादेशियों की घुसपैठ और दूसरा नक्सली संगठनों का उद्भव. पहले को कट्टा(
पिस्तौल) बनाने की महारत हासिल थी तो दूसरे को ऐसे पिस्तौल और बंदूकों की बेहद
जरूरत.
देशी कट्टा और बन्दूक बाद में स्वदेशी साईकिलों के स्टील ट्यूब से भी बनाया
जाने लगा पर ये बुरी तरह असफल रहा. पहले ही शॉट पर इससे बना बैरल फट जाता था और
इस्तेमाल करने वाला ही घायल हो जाता था.
२१वी सदी में कार के स्टीयरिंग के ट्यूब देशी कट्टा और बन्दूक बनाने में
इस्तेमाल में आने लगे. ये हकीकत मुझे हाल की एक फिल्म की रुशिंग्स देख कर
मालूम हुआ.
अब तो बाज़ार में इतना काला धन आ गया है कि कोई उपद्रवी एके और माजर से कम
इस्तेमाल करना तौहीन समझता है और विदेशी स्मगलरों की तो चांदी हो गयी है.
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