Pages

Tuesday, January 7, 2014

इति साम्भरायः नमः !!

सबसे पहला डोसा मैंने 1958 में खाया था. तब मैं कोई 10 वर्ष का रहा होऊंगा. हमलोग चारों दोस्त प्रथम श्रेणी के अफसरों की संतान थे पर 30 पैसे का डोसा एक हफ्ते की तैयारी खोजता था.
पटना शहर में अपनी तरह का पहला खुला (ओपन एयर) रेस्तरां “सोडा फाउंटेन” ठीक गाँधी मैदान के पूरब में उस समय के दो प्रसिद्ध सिनेमा हाल “एलिफिस्टन” और “रिजेंट” के मध्य में गाँधी मैदान के सामने स्थित था. उसकी खासियत, यूनिफॉर्म पहने बेयरा और खूबसूरत फूलों से सजे पार्क के बीचोबीच एक यंत्रचालित सतरंगे पानी का फव्वारा था. मद्रासी डोसा और उसके साथ मिलने वाले अनलिमिटेड साम्भर के बारे में अभी तक सुन ही रखा था और अब तो बेयरे वाले ओपन एयर रेस्तरां का आकर्षण भी जुड चुका था.
हमलोग चार दोस्तों ने 50-50 पैसे इकठ्ठा किये. अपने कपड़े खुद धोकर इस्त्री कर, संज संवर कर तीन बजे से सामने फैले गाँधी मैदान में चक्कर लगाकर रेस्तरां खुलने का इन्तजार करने लगे. रेस्तरां चार बजे खुलता था. चार बजे वह खुला तो पर लोगबाग आने शुरू नहीं हुए. पहले पहुँचना मुनासिब नहीं लगता था. कोई साढ़े चार बजे से लोगों का आना शुरू हुआ. हमलोग शर्माते झिझकते कोने वाली टेबल के इर्दगिर्द आसन जमा बैठे. देखते-देखते १५ मिनटों में बाहर जमायीं १०-१२ टेबल भर गयी. पहले जो हमलोगों को लग रहा था कि सबकी निगाहें हमलोगों को घूर रही हैं उससे तो छुटकारा मिल गया पर बेयरे को भी हमलोग दिखाई नहीं पड़ने लगे. खैर बेयरा आया  और हमलोगों ने मेनू को गंभीरता से पढते हुए मसाला डोसा का आर्डर दिया. उसी दिन हमलोगों को मालूम पड़ा कि परीक्षा देते समय अंतिम का १५ मिनट कितनी जल्दी बीत जाता था और डोसा सर्व होने में लगा १५ मिनट कितनी देर लगाता है.
डोसे के प्लेट की सबसे खास बात उसपर रखी कांटे और छुरिया थीं. पहली बार इनसे साबका पड़ा था. हमलोगों ने चोरी-छुपे दायें देखा, बाए देखा और सामने देखा तब समझ में आया कि काँटा बाईं हाथ में पकड़ा जाता है और छुरी या चम्मच दाहिने में. हमलोगों का ज्यादा समय लगा लोगों से छिपा कर डोसे के टुकड़ों का निवाला बनाकर मुंह में घुसेड़ने या धकेलने में. हमलोगों ने मन बनाया था कि एक-दो बार साम्भर मांगेगें जिसका पैसा नहीं लगेगा. पर कांटे-छुरी के चक्कर में सब भूल गए.
डोसा खाते-खाते बेयरा आया और हमलोगों को आइसक्रीम खाने का मशवरा देने लगा. हमलोगों ने पहले ही देख लिया था कि आइसक्रीम की सबसे सस्ती किस्म २५ पैसे की थी इसलिए हमलोगों ने १५ पैसे वाली चाय का आर्डर दिया. भरपूर गर्मी थी तो क्या चाय हमलोगों ने मन से और काफी देर लगाई पीने में. तबतक हमलोग कुछ बेतकल्लुफ हो गए थे और सतरंगा पानी का फव्वारा भी अच्छा दिखने लगा था.
बेयरा बिल लेकर आया एक रुपये अस्सी पैसे का. हममें से जिसने सबसे अच्छा कपडा पहन रख रखा था और पोलिश किया हुआ जूता भी, उसने बड़ी शान से 2 रुपये का नोट निकाल कर ट्रे पर रख दिया. साथ ही हमसब एक साथ तपाक से खड़े होकर निकल पड़े जिससे कि बेयरा यह समझ जाए कि बाकी का 20 पैसा उसकी टिप थी. बेयरा समझदारी की उम्र में पंहुंचा हुआ था उसने जमकर सैल्यूट मारी जिसे शायद हमलोग आज भी पांच सितारा होटलों के डोरमैन के सैल्यूट से कहीं ज्यादा अहमियत देते रहेंगे.
मुफ्त के साम्भर का मजा महमूद ने एक फिल्म में दिया था जब उसकी जेब में सिर्फ 50 पैसे का सिक्का था और वह दो दिनों से भूखा था. उसने चार कटोरें साम्भर पी थी. और मुझे मुफ्त के साम्भर से सामना सिकंदराबाद स्टेशन के सामने वाले होटल में हुआ था. बड़े जोर की भूख लगी थी और पूछने पर लोगों ने उसी होटल में जाने की मंत्रणा दी थी.
पहले तो एक बड़े थाल में चार-पांच लोगों के भरपेट खाने लायक चावल के साथ साम्भर, सब्जियां,पापड और दही मिला. मैंने अपने खाने लायक चावल छोड़कर बाकी निकलवा दिया. खाने के बीच में बेयरे ने टेबल पर एक पांच लीटर की साम्भर से भरी बाल्टी लाकर रख दी. उस दिन के बाद से पांच-छ वर्षों तक साम्भर के तरफ देखने की भी इच्छा नहीं होती थी. 

No comments:

Post a Comment