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Friday, January 9, 2015

हाफपैंट !

1960 के दशक में तबके बिहार की ग्रीष्मकालीन राजधानी रांची २५ वर्ग किलोमीटर में सिमटी हुई बहुत ही मनभावन लगती थी. ऊंची-नीची पगडंडियों जैसी सड़के, हरियाली और तरह तरह के पक्षियों के कलरव से संगीतमय और शायद संसार के सबसे भोले-भाले आदिवासियों से गुलज़ार जो सुबह से रात तक गाना गाने और नाचने के लिए बेताब, भला रांची से अच्छी जगह कौन से हो सकती थी.
उस वक्त वहां दो ही कॉलेज थे. एक मिशनरी संत ज़ेविएर्स और दूसरा रांची यूनिवर्सिटी का रांची कॉलेज. पहले में आदिवासियों को प्रशय दी जाती थी और दूसरे में सरकारी महकमे में कार्यरत लोगों के बच्चों को. मुझे रांची कॉलेज में एडमिशन मिला.
अंग्रेजो के जमाने का लाल ईंटो से बनी दोमंजिली इमारत जिसके चारों तरफ टिन और एस्बेस्टस के छत वाले क्लास रूम बनाए गए थे ज्यादा क्लासेज चलाने के लिए. तब इस कॉलेज का विशाल गेट दक्खिन की तरफ बड़े डाकघर के सामने मेनरोड पर था.
26 जुलाई १९६१ ! मैं बहुत डरते-सहमते कॉलेज के गेट से अन्दर आ रहा था जबकि मुझे मालूम था कि रांची जैसी जगह में किसी ने रैगिंग के बारे में सुना तक नहीं था. कॉलेज कैंपस में उस समय लगभग तीस जन आ-जा रहे थे. उनमें ज्यादातर 16-20 उम्र के लड़के थे और इक्का-दुक्का कॉलेज के स्टाफ जैसे लोग दिख रहे थे. मैं ठिठका. उस एक मिनट के समय में मानो मेरे साथ-साथ पूरा कॉलेज थम सा गया. सभी की भौंचक निगाहें मेरी तरफ लगी थी. और ऐसा क्यों न होता.
उनके सामने एक सफ़ेद हाफ शर्ट और आसमानी निकर(हाफपैंट) पहने 4 फीट 9 इंच ( ) ३२ किलो यानी एक अदना पतला दुबला मात्र १३ वर्ष का लड़का कॉलेज कैंपस में किताब-कोपियों के साथ अवश्य एडमिशन लेकर पढने आ रहा था.
चार-पांच लड़कों का एक ग्रुप बहुत सहमते हुए मेरे नजदीक आया. सहमते हुए शायद इसलिए कि कहीं मैं डरन जाऊं. उन्होंने मुझे “आप” का संबोधन दिया और मेरे बारे में जानकारी हासिल की. मैंने भी सभी से आप के संबोधन के साथ बात की. ये आप का संबोधन पूरे सत्र तक चला. पांच मिनटों के उस इंटरव्यू के खत्म होने के समय भीड़ बढ़कर 15 से जयादा की हो गयी होगी. उसके बाद उनमे से दो लड़कों ने बड़े आदर के साथ मुझे मेरी कक्षा तक पहुँचाया.
कॉलेज में पूरे सत्र मैं आश्चर्य का विषय बना रहा. क्लास में मेरे लिए आगे की बेंच में जगह खाली मिलती. क्लास ख़त्म होते ही मुझे “ लेडीस फर्स्ट” जैसी बेसिस पर पहले निकलने दिया जाता. मेरी देखा-देखी मेरे से थोडा बड़ा किर्तिबस रॉय भी कभी-कभी निकर पहन कर आ जाता.
मुझे इस तरह का आदर और एक्सपोसर भाने लगा था. मैंने पहले वर्ष की पूरी पढाई निकर पहन कर ही की. अगले वर्ष यानी दुसरे सत्र में मैं पुनः निकर पहन कर ही कॉलेज पंहुंचा. एक और पंजाबी लड़का जो मेरे से ३ वर्ष बड़ा होगा और ऊंचाई भरपूर पौने छ फीट की होगी, वह भी निकर पहने कॉलेज पंहुचा. पर इस बार मेरे पुराने सहपाठियों ने बगावत कर दी. दूसरे दिन से प्रदीप कुमार सोबती तो फुलपैंट पहन कर आने लगा लेकिन मेरे पास तो हाफ पैंट के अलावा कुछ था भी नहीं.
पिताजी को जब तीन दिन बाद मालूम हुआ कि मैं कॉलेज किसलिए नहीं जा रहा हूँ तो वे आनन-फान में अपने टेलर “Royta” ले गए. उस बंगाली टेलर ने मेरे लिए एक २२ इंच मोहरे के फुलपैंट सिल दिया जो फुलपैंट कम और पायजामा ज्यादा लगता था. शाम को सोबती जो पड़ोस में रहता था जब उसे मालूम हुआ तो वह सुबह अपने मामा की काली रोल्स रोयस लेकर आ गया कॉलेज जाने के लिए. वह भी मेरे पैंट को और मेरे चलने के तरीके को देखकर बड़ी मुश्किल से हंसी रोक पा रहा था.
रांची की शायद पहली ऐसी कार जब कॉलेज में दाखिल हुई तो सबलोग रूककर भौचक देखने लगे. और जब उसमें से बहुत ही ढीली-ढाली पैंट पहने मैं उतरा तब तो जैसे भूकंप आ गया. मैं एकदम जोकर लग रहा था और महसूस भी कर रहा था.
लौटते समय मैं सारे  वक्त अपने फुलपैंट के बारे में सोच रहा था. मुझे सिलाई मशीन पर सिलाई आती थी कुछ-कुछ. चुपके से सिलाई मशीन मैं अपने कमरे में ले आया. पेंसिल से निशान लगाकर कटाई-छटाई शुरू की उसे ड्रेनपाइप पैंट में आल्टर करने के लिए. कैंची नहीं मिली तो ब्लेड से सिलाई उधेरने/काटने लगा. गलती से ब्लेड से मेरी  ऊँगली और अंगूठा बुरी तरह कट गया. पूरा पैंट खून से सारोबार हो गया. बहुत धोने पर भी खून के धब्बे नहीं गए और पैंट पर बुरी तरह दीखते रहे. 
अगली सुबह और उसके तीन दिन बाद तक मैं कॉलेज नहीं गया. घर में जो भी अखबार-रद्दी था उन्हें बेचकर ६ रुपये जमा हुए. उससे पैडीग्रीन रंग का  कपड़ा खरीदा गया. उसे कॉलेज के लड़कों के लिए सिलाई करने वाले नौशाद टेलर को दिया गया. उसने दो दिन में ड्रेनपाइप पैंट सिल कर दे दिया.
उस पैंट को मैं पूरे सत्र पहनता रहा. उसकी धुलाई व् इस्त्री छुट्टी के दिनों होती थी. हाँ, पर मैं उसे पिताजी से छिपकर पहनता था. इसके लिए उनसे ज्यादातर हाईड-सीक खेलना पड़ता था.

आज तकरीबन 55 वर्ष बाद ऑस्ट्रेलिया में जहां लोग कम से कम कपडे पहनते हैं जो ज्यादा पर्यावरण मसला लगता है, वहां मुझे फिर से हाफ पैंट पहनने की हिचकिचाहट मिटाने में चार महीने लग गए..पर ज़रा मौके की attitude देखिये , ६ रुपये की रद्दी इन 55 वर्षों में सूद के साथ कितनी ज्यादा appreciate कर गयी.  तकरीबन 600 डॉलर का था. जगह थी दुनिया के दूसरे सबसे महंगे इमारत सिंगापुर, मरीना बे सेंड्स , पर सबसे मंहगा होटल स्काई आन 57 के टेरेस पर !


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