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Tuesday, January 27, 2015

अब बस !

आज ट्रांसपोर्ट क्षेत्र में भी क्रांति दिख रही है । धक्का देकर स्टार्ट होने वाली बस की जगह सेल्फी बस ने ले ली है । लिमो कैब से लेकर कारवान और उससे भी आगे का जनरेशन सड़क पर छाया हुआ है । हवाई जहाज कम्पनीज भी अब एयरबस कहलाने में गर्व महसूस करती हैं । पर क्या इतना कुछ बस पर की गयी पहली सवारी का रोमांच छीन पायी ? और अगर रोमांच की बात करें  तो वह भी प्रचूर मात्रा में गाँव से पांच मील दूर की सड़क से गुजरने वाली बस पर यात्रा करने में आज भी है ।
पैदल अथवा बैलगाड़ी पर दूरी तय करने के बाद घंटो इन्तजार करने के बाद जब दो मील दूर पर कच्ची सडक पर धुल व् गर्दे का गुबार दीखता है तब सांस में सांस आती है । मुरझाया चेहरा खिल उठता है । शहर और मेट्रो आते-आते तो सबकुछ यांत्रिक ही रह जाता है । आपकी नजर सदैव अपनी घड़ी पर ही टिकी रहती है । ड्राईवर कैसा है, कंडक्टर अगर है तो कैसे मिजाज का है, आगे-पीछे तो भूल जाईये, बगल मैं कौन बैठा है, कब बैठा है और कब उतर गया , खिड़की से नजदीक या दूर तक क्या कैसा नजर आ रहा है, कुछ भी नहीं महसूस होता है । कभी-कभी तो आप अपना कुछ सीट पर ही भूल जाते हैं । बीते कल की, कागज़ की किश्ती, आज के क्रूज से कही ज्यादा मजा देती है । बार बार हमें अपना कल भूलने की हिदायत दी जाती है । काश, कोई हमें भूलने की अदा न दे ।

बिहार की ग्रीष्मकालीन राजधानी और अब झारखण्ड प्रदेश की राजधानी, तब 1960 के दशक में शहर कहलाने को बेताब दिख रही थी । देखते-देखते लोकल बसों की संख्या दो से बढ़कर सात हो गयी थी । तब रांची की लम्बाई 15 किलोमीटर रही होगी । धुर्वा, हटिया, बरियातू और कांके इसके चारों कोने थे बिलकुल हाथ और पैर पकड़ कर लम्बे किये गए अंग्रेजी के X अक्षर जैसे, जिसके मध्य में डोरंडा प्रखंड स्थित था । डोरंडा के बिलकुल बीचो-बीच मेरा घर जिसके सामने से सभी बस गुजरती थीं । कोई तीन किलोमीटर दूर मेरे घर के बाये तरफ हरे पेड़ों से भरी तराई के ऊपर से गुजरने वाली सड़क से गुजरती सभी गाडियो के पहिये तक दिख जाते थे । मैं रंग-बिरंगी बसों को देख कर ठंडी साँसें लेता था कि मालूम नहीं कब मुझे इन बसों में सफ़र करने का मौक़ा मिलेगा और उससे बड़ी बात की झिझक ख़त्म होएगी ।

मेरी उम्र तब तेरह वर्ष थी और मैं कॉलेज जाता था । जबतक कॉलेज नजदीक था, मैं साइकिल से आता-जाता था । पर बाद में मेरा कॉलेज बरिआतु के निकट चला गया कोई 8 किलोमीटर दूर । मेरी थकान देखकर बस से जाने की अनुमति मिली । अनुमति याने 50 पैसे ।

शनिवार की शाम से लेकर सोमवार की सुबह कैसे गुजरी इसका अंदाजा आप अपने पहले इंटरव्यू की तैयारी से लगा सकते है । पहले से बस यात्रा करने वाले सहपाठियों से बस की टाइमिंग और ठहराव नियत करना, कपडे धोकर, सुखाकर इस्त्री करना, बाटा के टफी जूते की दो-तीन बार पोलिश कर चमकाने से लेकर हेयर स्टाइल और यहाँ तक की कापी, पेन, रूमाल और 50 पैसे की हिफाजत की बार-बार रिहर्सल घर के सभी लोगों में मजाक और कभी-कभी खीज का विषय सा बन गया था ।

अभी भी याद है । वह कलिका बस सर्विस थी । ठीक सुबह 7.45 पर अपने समय पर आयी थी । बस खचाखच भरी थी और क्यों न हो ? वह समय स्कूल, कॉलेज और ऑफिस जाने वालों का हुआ करता था । एक दुबले-पतले गोरे से मुस्कुराते कंडक्टर ने सहारा देकर मुझे ऊपर खींच लिया । अगल-बगल सभी लोग मुझसे लम्बे थे इसलिए मुझे सांस लेने में कठिनाई हो रही थी । तभी कंडक्टर आ गया । बोला- आज पहला दिन है, आदत हो जायेगी । मालूम नहीं उसे कैसे मालूम हो गया कि वह मेरा पहला दिन था । मेरी तरफ टिकट बढाया । उसने मेरी पीछे की कालर सहलाते हुए कहा कि बहुत शानदार कपडे की शर्ट सिलवाई है । पर जैसे ही उसने कालर खींची वह चर्र की आवाज के साथ फट गयी । मेरे पास बस वही एक अच्छी शर्ट थी । मेरा रूआंसा मुंह देखकर किसी ने मुझे हंसकर बताया कि यह कश्मीरी ऐसे ही सबको मुंह से कर्र की आवाज निकाल कर डरा दिया करता है । बगल की सीट पर बैठी सीनियर लड़कियों ने सहानभूति दिखाकर मुझे अपने बगल में जगह बनाकर कर बिठा लिया । तभी मेरे एक सहपाठी ने उनको बताया कि यह कोई स्कूल जाने वाला बच्चा नहीं है बल्कि उनसे एक वर्ष ही जूनियर क्लास में है । पलक झपकते उन बंगाली लड़कियों के लिए मैं अछूत हो गया । मैं खुद ही उठ खड़ा हुआ ।

उस कालिका बस से मेरा आगे की चार वर्षों तक साथ रहा । कभी मैं सोया रह जाता था तो खलासी या कंडक्टर मेरा पड़ाव आने पर जगा दिया करते थे । कभी घर से निकलने में देर होती थी तो हॉर्न बजाकर मुझे सजग कर दिया करते थे । हालांकि मैंने देर न हो उसके लिए बहुत सटीक तरीका खोज लिया था । मेरे बरामदे से करीब ३ किलोमीटर पहले कोई 50 मीटर ऊंची तराई पर से एरोड्रोम की बगल वाली सड़क से गुजरती सफ़ेद पर लाल धारियों वाली बस दिख जाया करती थी और मुझे कम से कम 10 मिनट का समय मिल जाया करता था । बाद में 1966 में हमलोग धुर्वा के ऑफिशियल बंगले में आ गए । तब भी इसी बस को मैं 7 .30 पर पकड़ता था । उस वक्त सभी बस सर्विसेस समय पर चलकर गर्वान्वित रहती थी । केवल एक रांची ट्रांसपोर्ट को समय की तमीज नहीं थी ।

इसी बस में मुझे अपने जीवन का सबसे सुखद कॉम्पलिमेंट मिला, वह भी माँ से । एक दिन लौटते समय बहुत जोर की भूख लग गयी थी । मेरे पास एक बॉन ब्रेड खरीदने का पैसा था । सोचा अभी चार बजे घर जाकर सोती माँ को तंग करने से अच्छा है कि मैं बॉन खा लूं । मैं एक बस-पड़ाव पहले ही उतर गया और दुकान से बॉन खरीद कर बड़े-बड़े कौर में निगलते हुए घर पंहुचा । पर ये क्या । माँ तो दरवाजे पर खड़ी मेरा इन्तजार कर रही थी । मेरे पहुंचते ही उसने मुझे बहुत पुचकारा और मेरे लिए खाना परोसने चली गयी । खाना खिलाते-खिलाते उसने कहा कि वह भी उसी बस से लौट रही थी । माँ ने पिछली सीट से आगे  एक वृद्ध महिला को कुछ पल धक्के खाते खड़ी देखा । उसने यह भी देखा कि एक लड़के ने तुरत खड़े होकर उस वृद्धा को बैठने का आगाज़ किया । माँ ने जब यह देखा कि वह और कोई नहीं उनका बेटा प्रकाश ही है तो आँखे नम हो आयी । माँ ने यह कहकर बड़े प्यार से मेरे सर पर अपना  हाथ सहलाया ।

मेरे लिए वह कॉम्पलिमेंट जीवन भर के लिए आनंद के सबब के साथ मुसीबत भी बन गयी । आनंद और मुसीबत एकसाथ इसलिए कि अब इस उम्र में भी अगर कोई बुजुर्ग(चाहे उसकी उम्र मुझसे कम क्यों न हो)मेरी सीट के पास आकर खड़ा हो जाता है तो मुझमें वही प्रकाश समाने लगता है

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