१९६६ के अप्रैल माह में हमलोग रांची के हैवी इंजीनियरिंग कारपोरेशन के विशाल टाउनशिप में रहने आ गए । कॉलोनी का उत्तरी-पूर्वी कोना रूस और चेकोस्लोवाकिया
से आये लगभग 600 एक्सपर्ट्स को आवंटित
किया गया था ।
ज्यादातर एक्सपर्ट्स अपनी पत्निओं के साथ आये थे, सीनियर को बच्चे लाने की भी
अनुमति थी । उस इलाके को रशियन हॉस्टल कहा जाता था जो अब झारखण्ड प्रदेश का विधान
सभा और अतिथि आवास बन चुका है । इस भूभाग में स्विमिंग पूल के साथ सभी तरह के खेल
और खेलने के मैदान थे । पूरे क्षेत्र के लिए एक टीवी डिश अन्टेना लगा था जिसकी पकड़
पूरे विश्व से थी । एक बड़ा सभागार भी था जिसमें सांस्कृतिक प्रोग्राम और फिल्मों
का प्रदर्शन भी होता था । उस समय वहीँ नेहरु जयंती भी मनाई जाती थी । हमलोग उस
सभागार में आमंत्रण पर आयोजन देखने जाते थे । मैंने वहां आवारा, अलीबाबा चालीस चोर
और Crime and Punishment फिल्मे देखी थीं । यही सभागार आज का झारखण्ड विधान सभा है
।
ये विदेशी ग्रुप या
झुण्ड में अपनी पत्नियों के साथ शाम के समय घूमने निकलते थे । उसी समय बाजार से
खरीदारी भी करते थे । दूकानदार भी काम लायक विदेशी भाष बोलने लगे थे उन्हें अपनी
तरफ आकर्षित करने के लिए । शनिवार और रविवार जैसे साप्ताहिक अवकाश के दिनों ये लोग
सुबह से रात होने तक बाजार, सडको, पर्यटक स्थलों पर मस्ती करते दीखते थे ।
भारतियों से इनका व्यवहार बहुत ही मधुर था । हमेशा मुस्कुराना, जानने की उत्सुकता
और दोस्ती बढ़ने के लिए एक्टिंग के साथ आवारा और श्री 420 के गाने गाना इनकी फितरत
थी । नजदीकी को अमली जामा पहनाने के लिए अपने कैमरों से फोटो लेना इन्हें बहुत रास
आता था । लेकिन तभी एक हादसे के बाद इनमें एक सहमाहट आ गयी, संबंधों में ठंडापन
दिखने लगा ।
22 अगस्त 1968 को
रांची में भारतवर्ष का बहुत बड़ा दंगा हुआ । सैकड़ों की जाने गयी । हमेशा की तरह
अल्पसंख्यकों ने अप्रत्याशित तरीके से शुरुआत करके की । चुकी HEC हिन्दू बाहुल्य
क्षेत्र था इसलिए सीमावर्ती क्षेत्रों में यादवों ने कसकर बदला लिया । ये
एक्सपर्ट्स कुछ घटनाओं के प्रत्यक्षदर्शी थे ।
1969 में HEC
ज्वाइन करने के कोई छह महीने लगे इन विशेषज्ञों से इतनी जान-पहचान बढाने में की हमलोग
अब दिल खोल कर बात करने लगे । एक दिन उन्होंने 1968 के दंगों का अनुभव बताया जो
किसी को भी क्षुब्ध और चकित कर देता ।
उन्होंने बताया की पिछली
सदी में विश्व में उनके रूस के कुछ इलाकों और जातियों को बारबैरियन (बर्बर, खूंखार और जंगली) कहा जाता था । वे अपने
दुश्मन का होशोहवास में खाल छील कर उतार लेते थे । पूरे समय दुश्मन इसके लिए
मानसिक रूप से तैयार रहता था । अगर इसके बाद भी उसकी मौत नहीं होती थी तो उसका गला
काट दिया जाता था । पर उनलोगों ने दंगो के शुरूआती दिनों में सुबह की सैर के समय
जो कुछ देखा वह उससे भी भयानक था । नाले के अन्दर छुपे परिवार को पहले दंगाई
दुलार- पुचकार कर बाहर निकालते थे और उसके बाद छोटे-छोटे चाक़ू से गोंद-गोंद कर मार
डालते थे । एक चार वर्ष के बच्चे को तो उन्होंने पैर पकड़ कर घुमाया और दीवार पर दे
मारा । एक आदमी को दौडाते-दौड़ाते पानी से लबालब भरे कूएँ में गिर जाने दिया और जब
भी उसका सर ऊपर आता उसे लाठी से पीटकर फिर पानी के अन्दर डूब जाने देते । यह खेल
15 मिनट तक चलता रहा । हमलोगों के सर पर
जब खून चढ़ता है तो सीधे गोली मार देते हैं । इस सदी में भी ऐसा कुछ होता होगा
विश्वास नहीं होता । आपलोग तो हिन्दू हो बुद्ध, महावीर , महांत्मा गाँधी के देश के
!
1970 के दशक में
एक्सपर्ट्स की संख्या कम होती गयी । 1980
के दशक में आवश्यक तकनीकी क्षेत्रो में ही उन्हें आमंत्रित किया जाता ।
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