1961 का रांची कोई सपनों का देश जैसा प्रतीत होता था । चारो तरफ पहाड़ और हरियाली,
थोड़ी गर्मी पड़ते ही वर्षा, पड़ोस में दायें बाजू बंगाली परिवार तो बाये बाजू
मद्रासी समुदाय, सामने पंजाबी तो पीछे मराठी, बाजार के पास से मस्जिद की अजान तो
रविवार की सुबह इसाईयों का काफिला कुछ दूर चर्च जाते हुए । लगता था जैसे पूरा
हिन्दुस्तान यहीं आकर बस गया हो । हो भी क्यों नहीं ? इस शहर में एशिया के सबसे बड़ा
कारखाना हैवी इंजीनियरिंग कारपोरेशन जो बन रहा था । 25000 से ज्यादा लोगों को
रोजगार मिलने वाला था । उसके साथ के इन्फ्रास्ट्रक्चर जैसे मददगार उद्योग , बाजार,
स्कूल, कॉलेज ट्रांसपोर्ट वगैरह सब मिलकर कुछ ही वर्षों में आबादी 40 हज़ार से 4
लाख हो जाने वाली थी ।
सुबह की नीद आदिवासी गीत और मांदर के थाप से खुलती थी । ट्रक भर-भर कर
आदिवासी लड़के लडकियां मांदर की थाप पर नाचते-गाते कारखाने की ओर मजदूरी करने जाते
थे । सुबह कोई आदिवासी महिला टोकरा भर सब्जी डाल जाती थी बिना मोल-भाव किये । टाटा,
पटना और झुमरी तिलैया प्रवास में तो नहीं पर यहाँ लोकल बस चलती थी जिससे हमलोग
कॉलेज जाया करते थे 10 किलोमीटर दूर ।
एक सुबह रविवार को दरवाजे पर दस्तक हुई । देखा तो एक 25 वर्ष की लडकी और
उसके साथ एक 70 वर्ष का अँगरेज़ खड़ा था । उनसे मैं अपनी टूटी-फूटी कांपती अंग्रेजी
में बाते करता सुनकर पिताजी आ गए और उन्होंने मोर्चा संभाला । वे दोनों प्रोटोस्टेंट क्रिस्चियन चर्च से आये थे और अपने धर्म की जानकारी देना चाहते थे या अनकहे शब्दों
में वे अपने धर्म का धर्मान्तरण के जरिये विस्तार करना चाहते थे । पिताजी ने
उन्हें चाय पिलाई और कहा की वे अगले रविवार से आयें और दोनों बड़े कॉलेज जाने वाले
लडकों को शिक्षा दें । हम दोनों भाई बहुत घबडा गए यह सोच कर की उनसे इंग्लिश में
बातें करनी होगी पर पिताजी बहुत प्रसन्न थे की उनके बच्चे अब इंग्लिश में
वार्तालाप करने लग जायेंगे । और ऐसा हुआ भी ।
ज्यादातर वह चश्मा पहने , सांवली, मझोले कद की स्कर्ट ब्लाउज पहने सिस्टर
मैरी फर्नान्डीज़ ही साइकिल पर आती थी । जाहिर है हमारी टीचर गोवा की थी । अब ज्यादा
तो याद नहीं है पर ओल्ड और न्यू टेस्टामेंट की किताबों के किसी अंश पर परिचर्चा होती
थी जिसमे किसी जेहोवाह प्रोफेट का उल्लेख बार-बार आता था । हर रविवार हमलोगों को
पिछली पढ़ाई पर लेख लिख कर दिखाना होता था । इंग्लिश छोड़कर और किसी दूसरी भाषा में संवाद
नहीं होता था । प्रत्येक महीने में एक बार जर्मनी के मार्क सदरलैंड भी प्रगति देखने आते थे । उसके लिए सिस्टर हमलोगों को
बकाया पहले से तैयार कर देती थी । पिताजी भी हमलोगों की प्रगति पर कड़ी नजर रखते थे
। इसका फ़ायदा दो महीने में ही दिखने लगा । मेरे बड़े भाई अब इंग्लिश साहित्य के
क्लास में लोकप्रिय होने लगे ।हम भाई चर्च के प्रोग्राम में शामिल होने भी जाते थे
। यह सिलसिला दो वर्षों बाद तब टूटा जब हमें एक फॉर्म भरने को दिया गया जो उनके
धर्म में जाने का गेटवे था ।
मेरे बड़े भाई ने अन्तोगत्वा, केमिस्ट्री आनर्स करने के बाद इंग्लिश
साहित्य में एम०ए० और क़ानून की परीक्षा अच्छे नंबरों से पास की ।
आज के दिन रांची का गोसनर एवेंजेलिकल लूथेरन चर्च सम्पूर्ण उत्तर-पूर्व भारत का प्रतिनिधित्व करता है और इसके 5 लाख से ज्यादा सदस्य हैं जो मध्य प्रदेश से लेकर आसाम तक दिखेंगे ।
क्रमशः ...आज के दिन रांची का गोसनर एवेंजेलिकल लूथेरन चर्च सम्पूर्ण उत्तर-पूर्व भारत का प्रतिनिधित्व करता है और इसके 5 लाख से ज्यादा सदस्य हैं जो मध्य प्रदेश से लेकर आसाम तक दिखेंगे ।
No comments:
Post a Comment