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Wednesday, May 13, 2020

कुछ बात तो थी ! पटना कॉलेजिएट 1957-59

अविस्मरणीय शब्द का अर्थ तब समझ में आता है जब बचपन के मित्रों के साथ बीते क्षण बरबस याद आते हैं; स्कूल में गुजारे दिन और उसके प्रांगण का चप्पा-चप्पा सिहरन पैदा कर देता है, स्कूल के शिक्षक किसी रंगमंच के कलाकार की तरह अवतरित होते रहते हैं और मन बरबस आहें लेने लगता है – जाने कहाँ गए वो दिन।

हम मित्रों का जमघट पास के काँग्रेस मैदान में शाम को अवश्य लगता था। जब मैंने पटना कालेजियट स्कूल में अपने दाखिले की बात अपने मित्रों को बताई तो तरह-तरह की प्रतिक्रिया मिली। सैंट ज़ेवियरस के विजय ने हँसते हुए कहा की वहाँ तो सातवी क्लास मे इंग्लिश की पढ़ाई शुरू होती है A,B,C,D से। राम मोहन स्कूल के रमेश ने कहा कि कालेजियट में लड़कियां नहीं पढ़ती। सबसे खराब बात पाटलिपुत्र के अंतु ने कहा - कालेजियट के पहले उस इमारत में पगला हॉस्पिटल था। जब वहाँ मौजूद मेरे साथ दाखिला लेने वाले और मित्र उलझ पड़े तो उसने कहा – अच्छा देखना ! बिल्डिंग “H” आकार का है – H का मतलब हॉस्पिटल। इसी तरह मेरे बड़े बड़े भाई ने बताया था कि आद्या सर के क्लास में एकदम शांत बैठना। वे मिलिटरी से आए हैं । बहुत सख्त हैं। नाराज होने पर कहते हैं – चट गिरेगा, पट मरेगा।

आद्या सर को मैं भूल चुका था। पीरियड के मध्य का अंतराल कितना कोलाहल वाला होता है यह बताने की आवश्यकता नहीं। दूसरे सप्ताह के किसी दिन तीसरे पीरियड में उनका आगमन हुआ। तिकोना सांवला चेहरा, छोटी-छोटी मूछें और बड़ी-बड़ी आँखें- एकदम चौराहे पर लगे पोस्टर के खलनायक की तरह। तब हमलोग का सिनेमा से सामना मात्र पोस्टर तक ही हुआ करता था। उन्होने अपना परिचय देने में एक सेकंड की भी देरी नहीं की। टेबल पर हाथ पटकते हुए दहाड़े – चट गिरेगा पट मरेगा। एक लड़का खिड़की के सिल पर से उठने की कोशिश कर रहा था। उसे बोले – ऐसा थ्रो करेगा की 303 के गोली माफिक गंगा पार चला जाएगा। क्लास में सन्नाटा छा गया। गनीमत थी की वे पूरे सत्र में हमारे क्लास में स्टॉप-गैप की भरपाई करने 3-4 बार ही आए। जब भी आते हमलोग सांस भी तमीज़ से लेते। आद्या सर बंगला के शिक्षक थे और एन०सी०सी० के भी । परन्तु जिस क्लास में भरपाई करने आते उसी विषय को पढ़ाते । वर्ड्सवर्थ की "द रेनबो" मैंने पहली बार उन्ही के मुख से सुनी थी ।


1950 के दशक में हफ्ते में बुधवार को एक पीरियड होता था extra curricular का। आज की पीढ़ी के लिए यह मात्र once upon a time भर के लिए विस्मयकारी ही होगा। इस पीरियड में छात्रों को तकली और चरखे से सूत कातना सिखाया जाता था। ऐसा बना सूतों का गट्ठर खादी ग्रामोद्योग वाले ले जाते थे। काष्ठकारी(बढ़ई) सिखायी जाती थी। सीनियर छात्र टेबल, कुर्सी, बेंच इत्यादि बड़ी कुशलता से बना लेते थे जिनका उपयोग क्लास मे होता था। एक हफ्ते ड्राइंग भी सिखायी जाती थी। उस दिन क्लास के तीनों सेक्शन बीच वाले हाल में आ जाते थे। बीच वाला हाल तो समझ रहे हैं न- H के दोनों डंडों को जोड़ने वाला। Extra curricular सर का व्यक्तित्व तो आज भी नजर के सामने दिखता है पर नाम याद नहीं आ रहा है। कद-काठी, चेहरे, डीलडौल और पहनावे से कुछ-कुछ अमर कथाकार प्रेमचंद ! एक और दारुण समानता। प्रेमचंद को मात्र चित्रों में ही देखा, उनकी बोली नहीं सुनी। सर की बोली भी कभी नहीं सुनी। किसी से सुना था की इनका चेहरा और दाया हाथ लकुवा-ग्रस्त था। ये क्लास में आते। एकदम बुनियादी से शुरू करते। अगर एक घड़ा बनाना होता तो पहले एक खड़ा क्रॉस बनाते।  20 फूट लंबे ब्लाकबोर्ड पर वह 3-4 ड्राइंग बनाते। अंत में एक बार वे पूरी गॅलरी में ऊपर से नीचे घूम कर सबकी कौपी देखते। किसी किसी की कॉपी में कुछ सुधार करते। तबतक घंटी बज जाती। वे जैसे शांत आए थे वैसे ही निकल जाते। श्रद्धा की पराकाष्ठा इनके क्लास में देखने मे आती। शुरू से अंत तक हमलोग मौन-मुग्ध उनको और बाएँ हाथ से खिची रेखाओं को निहारते रहते। यह मेरे जीवन का एक नायाब क्लास रहा जिसमें पूरे समय शिक्षक और छात्र दोनों खामोश रहते।

संस्कृत के अध्यापक जैसा व्यक्तित्व मुझे दोबारा नहीं दिखा। 55 के रहे होगें पर लगते थे 65 के। शायद मुंह में बहुत कम दाँत होने की वजह से। खादी का लंबा कुर्ता, खादी की धोती और सर पर गांधी टोपी। पहले दो वर्ष हमलोग उन्हे बरामदे में ही देखते थे। शायद इसलिए की संस्कृत 9वें से पढ़ाई जाती थी। जब भी वे प्रसन्न रहते, संस्कृत के पद्य शुद्ध उच्चारण के साथ गा कर सुनाते. उनमें शायद कालिदास की कवितायें भी रहती.हम सभी समझते तो बहुत कम पर मंत्रमुग्ध होकर सुनते . शुक्रवार को वे अपने साथ अपने साथ दो बालक भी लाते। कारण बहुत लाजवाब था। शुक्रवार को छात्रों को स्पेशल टिफ़िन दिया जाता। कभी पूआ, कभी जलेबी, कभी बर्फी और कभी बुँदिया-सेव।

संस्कृत के अध्यापक  किसी गद्य-पद्य का हिन्दी अनुवाद लिखने को दे देते। स्वयम वे कुर्सी पर दोनों पाँव समेटे तुरंत खर्राटा लेने लगते। हमलोगों के कोलाहल से उनकी नींद भंग हो जाती। इसके बाद हमलोगों की ताजपोशी शुरू होती। किसी को बुलाकर थप्पड़ मारते, किसी का कान उमेठते तो किसी की पीठ पर हथोड़ा मरते। सबसे ज्यादा शामत अखिलेश की आती। उसे तो बिना किसी शिकायत के मारते। कभी-कभी तो क्लास मे आने के बाद पहला काम अखिलेश की ठुकाई हो गया। एक दिन क्लास शुरू होते ही अखिलेश भोंकार मार के रोने लग गया। मिश्रा सर भी भौचक देखने लगे। उन्होने अखिलेश को पास बुलाया। उसका सर सीने से लगाकर बहुत पुचकारा-दुलराया। कुछ कहा भी। अगले दिन से नींद में खलल पड़ने पर अखिलेश को छोड़ कर वे किसी को भी ठोकते रहते। बहुत मनौना करने पर एक दिन अखिलेश ने राज खोला । उसके घर के गेट के अंदर पेड़ पर शहद से लबालब भरा बहुत बड़ा मधुमक्खी का छत्ता था।

शायद सबसे लोकप्रिय शिक्षक अयोध्या सर ही थे. वे गेम टीचर थे. खेल के मैदान के उत्तर-पूर्व कोने में उनका क्वाटर था. उसी घर के प्रांगण में वार्षिक सरस्वती पूजा हुआ करती थी. उस दिन भोज भी हुआ करता था. भोज मात्र स्कूल के शिक्षकों, छात्रों और स्टाफ तक ही सीमित नहीं था, कोई भी सम्मलित हो सकता था. एक शाम अयोध्या सर ने हमलोगों को कदम कुआँ के कांग्रेस मैदान में फुटबाल खेलते देख लिया. फूटबाल के लिए हमलोग रबर के बड़े बाल का प्रयोग कर रहे थे. दूसरे दिन मुझसे मेरा नाम रजिस्टर में दर्ज कर एक नया फुटबाल खेलने के लिए दिया. अयोध्या सर सभी बड़े खेलों में रेफरी बनते थे. सभी स्कूल उनके निर्णय का आदर करते थे.

इंटरनेट पर बहुत सर्फिंग के बाद यह कड़वा सच सामने आ ही गया। अंग्रेजों ने बाकरगंज, पटना में अंग्रेज़ सैनिकों के लिए एक पागलखाना बनाया था। उस परिसर में बाद में  1857 के आसपास पटना कालेजियट स्कूल लाया गया।
नोट :- वस्तुतः पटना कॉलेजिएट परिसर उन अंग्रेज सैनिकों के लिए था जो युद्ध की विभीषिका को नहीं झेल पाते थे और अवसाद से ग्रसित हो जाते थे. ज्यादा जानकारी के लिए  पागलखाना(Patna : A Paradise Lost)  क्लिक करें.


1 comment:

  1. बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति.

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