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Tuesday, May 19, 2020

मुठिया प्याज़ !

1962 में देवानन्द और साधना की एक बहुत ही साफ-सुथरी फिल्म देखी थी। नाम था “असली नकली”। नायक का पिता एक बहुत अमीर व्यवसायी था। बेटे की फिजूलखर्ची उससे बर्दाश्त नहीं होती थी। एक दिन झगड़ा बहुत बढ़ गया। बेटा घर से निकल गया। दिन भर का भूखा-प्यासा, रात को उसकी भेंट एक छापेखाने के मजदूर से होती है। मजदूर को नायक की बदहाली देखी नहीं जाती है। वह नायक को अपनी खोली ले जाता है। उसकी बहन रोटी-सब्जी के साथ एक मुठिया प्याज़ खाने को देती है। मजदूर बड़े चाव से खा लेता है। नायक को प्याज़ की तेज़ी से हिचकी आने लगती है। फिल्म में तो और भी बहुत कुछ था पर मुठिया प्याज़ आज़माने वाली चीज़ जान पड़ी। रात के खाने में जब रोटी-सब्जी परोसी गई तो मैं एक प्याज़ भी चौके से उठा लाया। फिल्म में प्याज़ घुटने पर रख कर तोड़ा गया था। मैंने जमीन पर रखकर मुट्ठी से मारा। प्याज़ तो टूटा नहीं अलबत्ता हथेली में अच्छी-ख़ासी चोट आ गयी। बात आयी गई भूल गई।

1968 में MSc की लिखित परीक्षा होने के बाद मुश्किल से 10 छात्र बचे थे गांगुली फ्लॅट हॉस्टल में, जिन्हे प्रैक्टिकल परीक्षा देनी थी। उस दिन कॉलेज से डेट्स लेने के बाद मैं कुछ देर के लिए गांगुली फ्लॅट रुक गया। मित्रों के साथ समय बिताना बहुत प्रिय लगता है। वह भी तब जब की यह मालूम हो की परीक्षा खत्म होने के बाद बिछुड्ना है। भूख भी लग गई थी। सोचा था दोस्तों के भोजन का समय है, वही खा भी लेंगे।

हॉस्टल में तो माँजरा ही अलग था। मेस मैनेजर घर लौट गया था। भंडार में आटे के सिवा कुछ भी नहीं था। सब एक दूसरे का मुंह देख रहे थे। कारण था सबकी फटेहाली थी। तभी रतनेश्वरी चिल्ला उठा – उरेका ! सबलोगों ने 50 पैसे उसके हाथ पर रखे। उसने महाराज को रोटी सेकने को कहा। 10 मिनट में वह प्याज़ से भरा थैला साथ में हरी मिर्च और पाव भर सरसों तेल लेकर लौटा। सबकुछ 5 रुपये के अंदर हो गया था।

तंदूरी रोटी जैसी दिखने वाली मोटी, बेहतरीन सिकी रोटी , किसी को 1 किसी को 2 और एक को 4 परोसी गई। साथ में 2-2 प्याज़ और 2-3 हरी मिर्च। सरसो तेल से भरी कटोरी पूरे टेबल पर घूमने वाली थी। मुठिया प्याज़ सबने सुन रखा था पर आज़माया बिरलों ने ही था। 5 जन कामयाब हुए और बाकियों का प्याज़ मिसाइल बना हुआ था।

मेरी निगाहें रतनेश्वरी के हाथों पर टिकी थी। मैंने उसी की तरह प्याज़ को टेबल की दरार का सहारा दिया और एक मुक्का लगाया। प्याज़ एक ही वार में दो फांक। रतनेश्वरी गाँव से था । उसे मेरे जैसे शहरिया से बिलकुल उम्मीद नहीं थी। उसके मुंह से बेसाख्ता निकल गया – वाह ! खाने में तो बहुत आनंद आया पर सबकी भाव-भंगिमा देखते ही बनती थी। प्याज़ और सरसो तेल की मिली-जुली तीखी झाँस और मिर्च की तीताई। जिसका रोटी से पेट नहीं भरा, उसकी कमी पानी ने पूरी कर दी।

अंधेरा होने के पहले और पिताजी के ऑफिस से लौटने के पहले घर लौटने की आदत थी। दिन में एक ही रोटी खाई थी। भूख बड़े जोरों से लगी थी। मेरे भाई बहन भी कोई कॉलेज से , कोई स्कूल से और कोई खेल कर लौटे थे। सभी को बड़े जोरों की भूख लगी थी। माँ और दादी पड़ोस के घर गए थे। रसोई मे डब्बे के अंदर काफी रोटियाँ रखी थी। कुछ देर कुलबुलाने और झुंझलाने के बाद मैंने दोपहर का वाकया सांझा किया। फिर क्या था। एक थाल पर रोटियाँ रखी गई। साथ में नमक। नमक में ही सरसो तेल मिलाया गया। हरी मिर्च का झुंड भी एक ही जगह रख दिया गया। जिसको खाना होगा, ले लेगा। मेरी देखा-देखी मेरे भाइयों ने भी सफलतापूर्वक प्याज़ भेदा, अपने लिए भी और छोटे भाई-बहनों के लिए भी। हमलोग वहीं बरामदे में जीमने के लिए बैठ गए।

हमलोगों ने 1-2 निवाला मुंह मे रखा ही था की सामने के दरवाजे से पिताजी आ गए और पीछे के दरवाजे से माँ और दादी। मिरचा-प्याज़ और सरसो तेल का सेवन हमलोग कर रहे थे। मुंह उनलोगों का लाल हो रहा था। पानी उनकी आँखों में आ रहा था। हर रोज की तरह उस दिन किसी से भी कोई डांट नहीं मिली।

उस रात सबके भोजन का पहला कोर्स था रोटी, सरसों तेल से भींगा नमक, हरी मिर्च और मुठिया प्याज़ ।

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