लड्डू बाबू का दोमंजिला विशाल लाल मकान ठीक अनुग्रह नारायण रोड के चौमुहाने पर था. पटना स्टशन से आती सड़क बाई तरफ बाकरगंज की ओर मुड जाती थी. दाहिने तरफ बुद्ध मार्ग पर विशाल बुद्ध की मूर्ती थी. सीधी एक फर्लोंग लंबी सड़क का नाम स्वंतंत्रता सेनानी बाबू अनुग्रह नारायण सिंह के नाम पर था जो कांग्रेस मैदान तक जाती थी. कहते हैं, आज़ादी के पहले अनुग्रह बाबू का तहखाने वाला घर घर कांग्रेस ने गुप्त मीटिंग के लिये बनवाया था. इसी सड़क से डॉ० राजेंद्र प्रसाद कांग्रेस मैदान के पीछे अपने बेटे के घर जाया करते थे. इसी सड़क से जय प्रकाश नारायण चरखा व् भूदान समिति के कार्यालय जाते. लड्डू बाबू का मकान इस सड़क के बाई तरफ का पहला मकान था.
लड्डू बाबू का मकान क्या पूरी हवेली थी. चारों तरफ बगीचा. सामने की तरफ
तरह-तरह के गुलाब. 15-20 छायादार पेड़ों के घूँघट से
हवेली का कुछ हिस्सा ही दिख पाता था, वह भी गौर से देखने पर. लगभग 35 वर्ष के लड्डू बाबू स्वयं पतले-दुबले, नाटे कद और गोरे चौकोर मुंह के जब भी
दीखते अपनी वकील वाली काली पोशाक में. उनकी विधवा माँ इसके विपरीत मोटी-ताज़ी
गरजदार वाली आवाज से दोमंजिले के झरोखे से माली को हिदायत देते दिखती.इतना कुछ
हमलोगों को स्कूल जाते वक्त या मोड पर राशन के दुकान जाते वक्त सुबह दीखता. अगर
लड्डू बाबू की माँ दिख जाती तो नजर सीधी ओर कदम में अपने आप तेजी आ जाती. मात्र 2 सेकंड की झलकी मिलती. जो पेड़ों से नहीं छिपता वह उनके हाते के सड़क से सटे
प्रेस वाला दोमंजिला बिना खिडकी का मकान ढक लेता. लड्डू बाबू की माँ डायन थी. ऐसा
भगौती चाय वाले ने बताया था.
लड्डू बाबू के बाकरगंज वाले सड़क के गेट से सटे सरकारी जमीन पर भगौती याने
भगवती की चाय दुकान थी. सुबह सवेरे वह सफाई कर्मियों को चाय पिलाता था . सफाई
कर्मी मतलब, सर्विस टोइलेट साफ़ करने वाले, सड़क पर झाडू देने वाले और कचरा इकठ्ठा
कर कचहरी गाड़ी वाले. अपने काम से फारिग होने के बाद ये सभी 50-60 जन भगौती की दुकान से एक गिलास चाय लेते और टेढ़े-मेढे डंडे वाला ब्रेड लेते
और वहीँ फूटपाथ के उठान पर पसर जाते. इसके बाद पुलिस कर्मी, चपरासी और नौकरों का
नंबर आता. सभी अपने काम पर लगने के पहले भगौती की दुकान पर हाजरी लगाते. हम बच्चे
कभी भी उसके दुकान पर आ धमकते. एक पैसे वला टेढा-मेढा ब्रेड का करारा डंडा और
कभी-कभी पैसा रहने पर तीन आने वाला लेमनेड बहुत ही रोमांचकारी लगता. तब लेमनेड की
बोतल का मुंह एक कांच की गोली से बंद रहता जिसे भगौती ही खोलकर हमलोगों को देता.
जैसे ही गोली रास्ता देती फुश के साथ गैस निकलती. ज्यादातर लेमनेड की बोतल हम
दो-तीन बच्चे शेयर करते. दोपहर को दो बजे के आसपास जब सन्नाटा छा जाता तब भगौती की
दुकान गंजेडियो के धुँए और धमक से भर जाती. भगौती एक हाथ से चिलम पकड़ कर कश लगता
ऐसा की लपट निकल जाती. हमलोग दूर से वह लपट देखने के लिये रुक जाते.तभी मालूम हुआ
कि ऐसे चमत्कारी लोगों को भी गुरु कहकर संबोधन किया जाता है. 1956 के बी०एन०कॉलेज गोली कांड के समय छात्रों के जुलुस को भगौती बाल्टी में शरबत
बना कर पिलाता. कुछ वर्ष बाद भगौती सचमुच दाढ़ी और केश बढ़ाकर गुरु हो गया था.
गर्मी की दोपहरी में जब हमलोग सुबह के स्कूल से लौट रहे थे तो ठीक चौमुहानी पर
सैकड़ों लड़कों का हुजूम दिखा. बहुत से लड़के लड्डू बाबू के अहाते में घुसकर बगीचा
तहस-नहस कर रहे थे. कुछ लड़के उनके घर की खिड्कियों पर पत्थर फेंक रहे थे. राहगीर
और रिक्शा चौमुहानी से न जाकर लौट जा रहे थे. हमलोगों ने भी दूसरा रास्ता लिया.
हमलोगों ने सब्जीवाले से पूछा. उसने झटके से बताया कि उस हवेली की डायन ने एक लड़के
को कच्चा चबा लिया. उस रात बहुत मुश्किल से नींद आई.
दूसरे दिन चपरासी ने बताया कि किसी स्कूली लड़के को फूल तोड़ते समय माली ने लोटा
फेंक कर मारा था. बाद में वह लड़का रोते हुए अपने स्कूल पहुंचा. क्रोध में सब स्कूल
छोड़ हवेली की ओर दौड पड़े और बहुत तोड़फोड़ की. स्कूल से लौटने समय देखा कि पुलिस आई
हुई थी और बहुत सारे गमले टूटे पड़े थे. पुलिस ने तो कुछ नहीं किया. अव्वल भगौती ने
रास्ता निकाला. पाटलिपुत्र स्कूल के 100 से ज्यादा छात्रों को घर के
बगीचे में बिठाकर भोजन कराया गया. लड्डू बाबू की शादी की तिथि नजदीक आ रही थी
इसलिए पूरे घर का रंग-रोगन कराया गया. हवेली फिर लाल रंग में डरावने रूप से खिल
गयी.
लड्डू बाबू के आहते के प्रेस वाले भवन की दीवार हमशा रंग-बिरंगे फ़िल्मी पोस्टर
से ढकी रहती थी. मुझे आज भी फिल्म “दायरा” का आदमकद पोस्टर याद है. गोल घेरे के
बीच एक औरत. सबसे दहलाने वाला पोस्टर लगा था “दो आँखें बारह हाथ” का. एक किनारे ६
डकैत, आकाश से घूरती दो बड़ी-बड़ी आँखें और दूसरे किनारे से एक विशालकाय दौडता हुआ
सांड.
हमलोग जब पटना छोड़े उसी वर्ष लड्डू बाबू की शादी हुई. हमलोगों के घर भी न्योता
आया था. दो ऊँट , तीन हाथी, पंजाब बैंड और विक्टोरिया पर दुल्हा गया था बरात लेकर.
माँ शादी के सब कार्यक्रम में शामिल हुई थी. वह बताती थीं कि लड्डू बाबू की माँ
बहुत स्नेही और मिलनसार थी. वह गठिया से बहुत बुरी तरह ग्रसित थी इसीलिये ज्यादा
समय वह बालकोनी में बैठकर सड़क की चहल-पहल से मन लगाती थी और सारे हुकुम बालकोनी से
चिल्ला-चिल्ला कर अपने मातहत को देती थी, इसी कारण बच्चे उनसे डरने लगे थे.
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