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Thursday, April 1, 2021

क्रिकेट - १

But eventually it is a game of cricket.
Sachin Tendulkar


१९५६ के जुलाई माह में मेरा दाखिला पटना कालेजियट स्कूल की सातवीं कक्षा में हुआ. अजय भैया की इंग्लिश बहुत अच्छी थी . उन्हें हमेशा ८० के आसपास नम्बर आते थे . उन्हें इंग्लिश की बुनियादी शिक्षा दादाजी से मिली और उसके बाद पिताजी ने उन्हें हाथो-हाथ लिया. मुझे भी दादी चोरी-छुपे दादाजी से ओट करके इंग्लिश की पढाई ध्यान से सुनने का बढ़ावा देती रहती थी. पिताजी अजय भैया को पढाते समय मुझे अवश्य पास बिठाते थे. छमाही परीक्षा में मुझे भी ७६ नम्बर आये. मुझे याद है उस दिन तबियत ठीक न होने के कारण मैं स्कूल नहीं गया था. शाम को चार- पांच सहपाठी मेरे घर आये और मुझे बताया की मुझे इंग्लिश में सबसे ज्यादा नम्बर मिले हैं. उनमे से एक निर्मल, जो इंग्लिश मीडियम से हमारे स्कूल आया था. वह दूसरे नम्बर पर था. उसकी आँखों में क्रोध और इर्ष्या झलक रही थी. निर्मल ने इंग्लिश में मुझसे संवाद करने चाहे जिसमे मैं बुरी तरह असफल रहा.
पिताजी को मेरे में भी कुछ प्रतिभा दिखने लगी. अब वे मुझे क्रिकेट कि इंग्लिश कमेंटरी में भी बिठाने लगे. उन्हें महाराजकुमार विजयनगरम उर्फ विज्जी की कमेंटरी बहुत भाति थी. मैं गिल्ली-डंडा तो खेलता था पर क्रिकेट के बारे में मेरी जानकारी शून्य थी. कमेंटरी के साथ-साथ , पिताजी क्रिकेट खेलने कि बारीकी भी बताते जाते थे. जो कुछ मैंने सुना और समझा था वह क्रिकेट समझने और खेलने के लिए पर्याप्त था. जैसे, टेस्ट मैच इंडिया और ऑस्ट्रेलिया के बीच हो रहा था. ऑस्ट्रेलिया के कैप्टेन रिची बेनाड थे . इंडिया का कैप्टेन रामचंद्र थे. ऑस्ट्रेलिया की टीम में लिंडवाल, डेविडसन और हार्वे जैसे दिग्गज थे जब की भारत के तरफ से मांकड, उमरीगर, गुप्ते और जसु पटेल जैसे खिलाड़ी थे. बैट, बाल, विकेट, २२ गज की दूरी, बैटिंग, बालिंग, फील्डिंग, १,२,३,४,और छक्का इत्यादि की जानकारी होती जा रही थी.
पिताजी का अंग्रेजी पढ़ाने का तरीका भी नायब था. कभी कोई कहानी पढने को देते और कहते की शाम तक पढ़कर उसकी समरी लिख कर रखना. इसी तरह उनकी अनुपस्थिति में हुए मैच का विवरण बताना. हद तो तब हो गयी जब उन्होंने हमलोगों से दिनभर के मैच का सारांश लिखवाना शुरू किया. 

शायद अक्टूबर, १९५६ का महीना था. बम्बई टेस्ट में इंडिया ने बहुत अच्छा खेला था. मैच ड्रा पर छूटा था. पिताजी से लेकर हम सभी बहुत खुश थे. उसी उमंग में हम तीनो भाई अपने सामने के कोर्टयार्ड में निकल आये. बैट के नाम पर एक लकड़ी कि कुर्सी का पीछे टूटा डंडा था जिसकी लम्बाई तीन फीट और दो इंच की मोटाई रही होगी. हमलोग ६ इंच के व्यास के रबर बाल से फुटबाल खेला करते थे. उस समय हमलोगों के पास उसके सिवा बालिंग के लिए कुछ भी नहीं था. १४ गज की लम्बाई और ६ गज की चौड़ाई की ज़मीन थी. गैरज की दीवाल पर ईंटें से तीन लकीर खींची गयी.

मैं बाल फेंक रहा था जैसे गिल्ली फेंकी जाती हो. अजय भैया डंडा भांज रहे थे . छोटा भाई मनोज और छोटी बहन नीरजा फील्डिंग कर रहे थे. अजय भैया से तो डंडा घूम भी जाता था और कभी-कभी बाल पर लग भी जाता था पर मैं और मनोज सीसम की भारी लकड़ी को ठीक से सम्हाल भी नहीं पा रहे थे.
तभी मेरे क्लास का एक सहपाठी अनिल हमलोगों की परेशानी देखकर गेट से अंदर आ गया. उसने बालिंग और बैटिंग कर के दिखाया. साथ ही उसने हमलोगों को अपने घर के मैदान में आने को कहा जहां पड़ोस के लड़के जमा होकर क्रिकेट खेलते थे.
हमलोग अब दोस्तों की एक नयी दुनिया में प्रवेश कर रहे थे. क्रिकेट की दीवानगी तब परवान चढ़ने लगी जब अलेक्जेंडर की कप्तानी में दिसंबर , १९५८ में वेस्ट इंडीज की क्रिकेट टीम पांच टेस्ट मैच खेलने हमारे देश आई. हमलोग तीन टेस्ट हार चुके थे और एक टेस्ट ड्रा पर छूटा था. पांचवां अंतिम टेस्ट मैच दिल्ली में खेला जा रहा था . वेस्ट इंडीज़ की तरफ से सोबर्स, कन्हाई, हंटे जैसे दिग्गज बल्लेबाज थे और हॉल- गिलक्रिस्ट के तूफानी गेंद्बांजो की जोड़ी थी. हमारी तराफ रॉय, कंट्रेक्टर, उमरीगर, मांजरेकर जैसे बल्लेबाज , गुप्ते, देसाई जैसे बॉलर ,मांकड-गायक्वाद जैसे आल राउंडर थे . भारत के ४००+ के जवाब में इंडीज़ ने ६०० से ज्यादा का विशाल स्कोर खड़ा कर दिया था. हॉल-गिलक्रिस्ट की तेज गेंदबाजी ने हम कमेंटरी सुनने वालों तक के होश उड़ा रखे थे. ऐसा लगने लगा था कि भारत इस मैच को भी नहीं बचा पायेगा . तभी एक नए खिलाड़ी बोर्डे ने कमाल दिखाना शुरू किया .वह पहली पारी में भी १०९ रन बनाकर अविजित था. दूसरी पारी में बोर्डे ९६ रन बनाकर गिलक्रिस्ट की और मैच की आखिरी गेंद खेलने जा रहा था. गिलक्रिस्ट ने उस समय ऐसा किया जो शायद पहले किसी ने नहीं किया होगा और बाद में उस तरह की बालिंग को बैन कर दिया गया. उसने विकेट के पास खड़े होकर एक ७० डिग्री का प्रोजेक्टायिल फेंका जिसे डंकी ड्रॉप कहा जाता है. यह विकेट बहुत सटे पीछे जाकर गिरा. चौका लगाने की धुन में बोर्डे हिट विकेट आउट हो गया. यह मैच बराबरी पर छूटा. मुझे आज भी वह दिन याद है, ११ फरवरी १९५९. याद इसलिए रहा क्योंकि १२ को मेरा जन्म दिन था.
हमलोग 2 टीम बनाकर मैच खेलते. मैच क्या लड़ाई-झगडे का मौक़ा. सेकंड हैण्ड टेनिस बाल चन्दन स्टोर्स से १ रुपये में मिल जाता. बैट और विकेट हमलोगों ने पड़ोस के बढ़ई से बनवा लिया था.  पहले बल्लेबाजी करने वाली टीम बल्लेबजी करके भाग जाती. इसके लिए टॉस करना जरूरी समझा गया. कोई बदलाव नआने के कारण पहले बल्लेबाजी टीम को कसम खानी पड़ती थी की वह भागेगा नहीं.  अंत में मोहल्ले के दादा की देखरेख में खेल होने लगा. इसके लिए उम्र और कद के बड़े दादा को भी किसी टीम से खिलाना पड़ता. दादा थे की आउट होना अपमान समझते. थोड़े नरमदिल थे. जब मन भर जाता तब वे खुद ही हट जाते . 
अगस्त, १९५९ में भारतीय टीम पांचो टेस्ट इंग्लैंड से हार कर लौटी. वे भी क्या दिन थे. शायद तब इंग्लैंड की कमेंटरी भारत रिले नहीं करता था या फिर हमलोगों को मालूम नहीं था. 2 दिनों बाद अख़बारों से खबर  मिलती थी. हमलोग क्रिकेट मैच के फोटो अख़बारों से काट कर अपने एल्बम में रख लेते थे और दोस्तों के साथ फख्र से शेयर करते थे.

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