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Thursday, May 13, 2021

क्रिकेट – 2 : (1958-1968)

१० वर्ष की उम्र पार करते-करते पटना के कदम कुआँ इलाके का एक विसश्विनीय क्रिकेट खिलाडी हो गया था.जिसे अब गली क्रिकेट कहा जाता है उसमें मेरा नाम होने लगा था. हमलोग कहीं भी खेल लेते. चाहे घर का कोर्टयार्ड हो अथवा गलियारा या खाली सड़क. २२ गज की जगह १६-१८ गज का पिच और टेनिस का बाल. पहले तो हमलोग लोकल बढ़ई के बनाये बल्ले और विकेट से खेलते थे. बाद में अलंकार ज्वेलर के मालिक का लड़का मोहन एक ५ नंबर का असली क्रिकेट बैट ले आया. मैं उससे स्ट्रैट ड्राइव, कट और ग्लांस तो कर लेता था पर भारी होने के कारण पुल या हुक शॉट नही लगा पाता. मैं कद काठी से बहुत ही गरीब था : पौने पांच फीट की ऊंचाई और वजन मात्र ३० किलो. इसी कारण, जब २२ गज के स्टैण्डर्ड पिच पर क्रिकेट बाल से खेलने की बारी आयी तो मैं बुरी तरह पिछड़ गया. क्लास की टीम से उभर कर मैं कभी भी स्कूल या कॉलेज की टीम का सदस्य नहीं बन पाया. बाद में हमलोग गाँधी मैदान में भी खेलने लगे. वहां बेशुमार टोलियाँ क्रिकेट खेलती थीं. कभी एक टीम का बाल दूसरा उठा लेता तो कभी टोली का एक लड़का झगड़ा कर दूसरी टोली से खेलने लगता. सबसे मजेदार तो तब हुआ जब बॉलर ने अपने पिच पर बोलिंग करने के बजाय दूसरे के पिच पर बोलिंग कर दी. 

१९५९ में झुमरी तिलैया आने के बाद शहर के एकमात्र स्कूल सेठ छोटूराम होरिलराम हाई स्कूल की टीम में मेरे बड़े भाई तो तुरंत चुन लिए गए लेकिन मुझे एक्स्ट्रा में जगह मिली. उस समय क्रिकेट सर्दिओं में ही खेला जाता था. एक दिन मालूम हुआ की गर्मी की छुट्टी में भी स्कूल के मैदान में रविवार को सुबह ७ से १० बजे तक लायंस क्लब के मेम्बर पूरे किट के साथ क्रिकेट खेलते हैं. सभी खेलने वाले सफेद शर्ट-पैंट में आते हैं और क्रिकेट शू या कैनवास के सफ़ेद जूते पहनते हैं. हम दोनों भाई भी तैयार होकर पहुंचे. देखा ८-१० कार लगीं थी. मैट पर खेल हो रहा था. सबसे वरिष्ष्ठ ५० वर्षीया चोपड़ा थे और सबसे कमउम्र २५ वर्षीय लड्डू थे. बाएं हाथ के तेज गेंदबाज लड्डू की अगर अभी के अंतरराष्ट्रीय खिलाड़ियों से तुलना की जाये तो वासिम अकरम का चेहरा सामने आता है. उनके पास कायदे का विकेट कीपर नहीं था. अजय भईया को तुरंत कीपिंग में रख लिया गया. वे पटना कॉलेजिएट स्कूल से खेल कर आये थे. वरिष्ठ चोपड़ा साहब स्लिप में फील्डिंग करते वक्त अपनी जगह से हिलते भी न थे. दूसरे रविवार को मुझे भी मौक़ा मिल गया. पहले चोपड़ा साहब से छूटी गेंद को रोकने के लिए और बाद में मुझे पूरी तरह शामिल कर लिया गया. ये सभी लायंस करोडपति माइका मर्चेंट थे. सभी शालीन बस एक को छोड़कर. वह था मुख्य मंत्री के०बी०सहांय का लड़का. २० किलोमीटर दूर हजारीबाग की तरफ से जीप पर आता. बोनट पर बैठ मैच देखता,कुछ पीता रहता और हल्ला करता.

१९६० के दशक में क्रिकेट मेरा और समूचे भारत का सबसे लोकप्रिय खेल होता जा रहा था. कॉलेज की पढाई १९६१ में रांची कॉलेज से शुरू हुई. डोरंडा के जिस इलाके में मैं रहता था वहां बंगाली समुदाय की अधिकता थी. फ़ुटबाल ही लोकप्रिय था. यहाँ भी मैंने टेनिस बाल से शुरुआत की और बहुत जल्दी ही क्रिकेट बाल से खेल होने लगा. जाहिर है की आस-पड़ोस की ४-५ टीमों में हमारी टीम का ही दबदबा रहता. ऊंची क्लास में पढने और क्रिकेट की शुरुआत करने की वजह से मैं निर्विवाद कप्तान चुन लिया गया. हमारी टीम का सबसे अच्छा तेज़ बॉलर रणधीर वर्मा था ; वही जो बाद में DSP धनबाद हुआ जहाँ वह बैंक रॉबरी में मुकाबला करते शहीद हो गया.

हमलोग जेंटलमैन क्रिकेट कतई नहीं खेलते थे. हारने वाली टीम अवश्य बदमाशी करती थी. विकेट की डंडी उखाड़कर लड़ने तक को तैयार रहती. अंपायर हमेशा बल्लेबाजी करने वाली टीम का होता, जो LBW देने के के बजाय बाल को ही “नो- बाल” करार कर देता. रन आउट तभी देता जब छोटी सी दर्शक दीर्घा रन आउट चिल्लाने लगती अथवा  खिलाड़ी वाक-आउट करने लगते. आजकल तो नो बाल होने के ३-४ कारण ही होते हैं . उस समय अनगिनत कारण होते. उसमें से एक कारण याद आ रहा है. अंपायर का रेडी न रहना. अंपायर को ही रन तालिका का रजिस्टर भरना होता था. उस ज़माने में किसी भी टीम के पास मात्र 2 पैड होते. बल्लेबाजी के समय दोनों बल्लेबाज अपने सामने वाले पैर में बांधते. जी हाँ, कभी-कभी रस्सी से भी बांधते. गेंदबाजी करते समय वही पैड विकेटकीपिंग के काम आता. टीम बिरलें ही अपना कोई सामान सांझा करतीं. लेगगार्ड और एब्डोमिनल गार्ड का नाम भर सुना था. तब मैच ९ बजे सुबह शुरू होता और १ बजते ख़त्म हो जाता. नो लंच ब्रेक. हमलोग नजदीक के नल या कूएँ से पानी पीते.
अब हमलोग टेस्ट मैच का पूरा आनंद रेडियो या ट्रांजिस्टर पर कमेंटरी सुनकर उठाने लगे थे. कमेंटरी अंग्रेजी में ही आती थी. राजकुमार  विजयनगरम उर्फ़ विज्जी की कमेंटरी कहने का तरीका अभी तक याद है. वे कमेंटरी कहते-कहते पुराने दिनों की याद में खो जाते थे. एक बार वे नवाब ऑफ़ पटौदी सीनियर और उनकी बेगम का जिक्र कर रहे थे जिनसे हम जैसे श्रोताओं को रत्तीभर भी मतलब नहीं था. १० मिनट के बाद विज्जी ने कहा की इसी बीच मांजरेकर  १2 रन बनाकर रन आउट होकर चले गए हैं और नाडकर्णी पिच पर खेलने आये हैं.  
 

हमलोगों की जोरदार टक्कर HSL कॉलोनी की टीम से होती थी जिसका कप्तान डॉ० रोशन लाल का लड़का नरेन् हुआ करता था. बाद में HSL कॉलोनी, SAIL/MECON कॉलोनी हो गयी. जिस मैदान में हमलोग खेलते थे उसे एक बड़ा स्टेडियम बना दिया गया. इसी स्टेडियम में खेलते हुए महेंद्र सिंह धोनी से माही हो गया. १९६६ में हमलोग शहर के दक्षिण-पूरब कोने में विकसित होते HEC कॉलोनी में आ गए.

१९६६ में हेम दोनों भाई पोस्ट ग्रेजुएशन कर रहे थे. सिर्फ १ घंटा समय मिलता था शाम को. सरकारी बंगले के २०/१० मीटर के कोर्टयार्ड में घमासान क्रिकेट हुआ करता था. बल्ला स्टैण्डर्ड, बाल टेनिस का और विकेट की जगह एक १५ किलो का पत्थर का स्लैब. एक विशेष नियम यह था की ऑफ साइड पर शीशे की खिड़की पर लगने पर आउट करार दिया जाता था. आसपास के सभी उम्र के १०-१५ बच्चे जमा हो जाते थे. अक्सर झगडा भी होता था. कभी टीम सिलेक्शन को लेकर तो कभी LBW/रन आउट को लेकर. सबसे ज्यादा घमासान तब होता था जब बाल स्लैब को छूकर निकल जाती थी. तब फैसला बालकनी में बैठे अभिभावक करते थे. मेरे बड़े भाई का हुक शॉट कमाल का होता था. मैं आउट स्विंगर बहुत सटीक डालता था और १० वर्ष का सुबीर महंती ऑफ ब्रेक. रविवार को खेल दो पारिओं का होता था. उस दिन मूर्ति और गुप्ता अंकल भी जोर-आजमाईश करने आ जाते थे. मेरे सबसे बड़े भाई भी मेडिकल कॉलेज से आ जाते थे. उनका कवर और स्ट्रेट  ड्राइव देखने लायक होता था. कवर पर शीशे की खिड़की होने के कारण हमलोग कवर ड्राइव का भरपूर आनंद नहीं उठा पाते थे. हमलोगों की तकरार टेस्ट क्रिकेटर को लेकर भी होती थी. बड़े भाई के पसंदीदा खिलाड़ी पटौदी थे जबकि मेरे चंदू बोर्डे.

१९६७ के भयावह दंगे में बहुत-कुछ प्रभावित हुआ. १५ दिन बाद दंगे शांत होने के बाद भी कोई घर से बाहर नहीं निकलता था. तब मूर्ती और यादव अंकल ने मोहल्ले के लड़कों को आवाज लगाई. हमलोग भी बहुत बैचेनी से दिन काट रहे थे. कॉलोनी के मैदान में विकेट गाड़ी गयी. हमलोग के साथ बुजुर्ग भी या तो खेलने लगे अथवा परिवार के साथ खेल देखने लगे. अच्छी-खासी दर्शक दीर्घा के कारण खेल का बहुत आनंद आ रहा था. क्रिकेट के चलते दूसरे दिन से HEC Township में प्रायः स्थिति सामान्य हो गयी. लोकल समाचार पत्रों में ये खबर सुर्खिओं में  आयी.

पूर्णरूपेण क्रिकेटर बन पाने का अवसर १९६९ में नौकरी के बाद लगा.

क्रमशः ......क्रिकेट -३ 

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