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Wednesday, May 16, 2012

बचपन

“It was a childish ignorance,
But now 'tis little joy To know
I'm further off from heaven
Than when I was a boy।”
-Thomas Hood- 

बचपन कि एक खास बात है। उसमे डर नहीं होता। अंग्रेजी में एक कहावत है,” Ignorance is bliss।” मेरे बचपन का इतिहास इस पर खरा उतरता है। जब मैं चार बरस का था तो मैं बिना सीढ़ी के घर की छत पर चढ गया था। तीन फीट की बाउंड्री वाल पर, फिर पेड़ की डाल से होते हुए ढलान वाली गेरेज की छत पर और उसके बाद घर की पक्की छत पर। हाँ , उतरते समय पैर को गेरेज की छत नहीं मिल पाई और लोगों ने मुझे लटकते पैरों के साथ रोते बरामद किया।
ऐसे  कितने ही वाक्यात हैं जिसे याद कर मेरा खुद का दिल दहल जाता है।
1950 से 1952 तक हमलोग टाटानगर में थे। उसी दरम्यान, किसी दिन, माँ ने पिताजी की सफ़ेद फुलपैंट से मेरे बड़े भाई के लिए एक फुलपैंट और मेरे लिए एक हाफपैंट सिल दिया। दोनों को पहनाकर फिटिंग देखकर वह खुद भी बहुत खुश हुई और हमलोगों को बाहर घूम के आने की इजाजत भी दे दी। हमलोग घर की दायीं तरफ 100 कदम पर मोड़ तक गए। वहाँ कटीली तारों से घिरा PWD ऑफिस का फुटबाल के मैदान से दुगुना मैदान था।  हमलोग उसके छोर पर एक आदमी को , शायद सफाई कामगार रहा होगा, माचिस से जमा कचरे को जलाते देखते रहे। उसने माचिस वहीं दीवार के कोटर में छिपा दी और चला गया। हम दो भाईयों की आँखें चमकी। हमलोग वहाँ से माचिस निकाल लाए और बारी-बारी से उसकी तीलियां जला कर मैदान के अंदर फेंकने लगे। गर्मी की दोपहरी और मैदान में सूखी जंगली घास का 4-5 फीट ऊंचा जंगल।  आग लग गयी और देखते-देखते कैरम बोर्ड जितनी जगह में फ़ैल गयी। हमलोग डर गए और घर की तरफ निकल लिए। खाना खाया और सो गए। दो घंटे बाद बड़े जोरों का शोर सुनाई दिया। तभी दमकल गाड़ियों का भोपूं भी सुनाई दिया। दमकल गाड़ी 1951 के आस-पास सबके लिए अजूबा थी। माँ के लिए भी। माँ के साथ हमलोग भी बाहर आये तो देखा की काफी लोग मैदान की तरफ जा रहे हैं। माँ और उसके पीछे हमलोग भी हो लिए। दूर ही से मैदान धूं-धूं जलता दिखाई दिया। लपटें आसमान छू रही थीं। दमकल के पानी की बौछार के साथ बहुत से लोग डंडे और बोरों से भी आग बुझा रहे थे। माँ ने किसी से पूछा की आग कैसे लगी। उस आदमी ने सर हिला कर अनिभिज्ञता दिखाई और हम बच्चों की तरफ देख कर मुस्कुराते हुए कहा कि इन्ही लोगों ने लगाई होगी। हमलोग बहुत ज्यादा डर गए। बहुत दिनों बाद हमलोगों को अक्ल आई की उसने ये शरारत से कहा था।
एक बार पिताजी शिकार पर गए और देर रात बाघ के दो बच्चों के साथ लौटे। रात भर दोनों कि गुर्राहट से हम बच्चो की नींद उड़ गयी। सुबह पिताजी बाघ के दोनों बच्चों को जंगल विभाग में सोंप आये। पिताजी के पास मैनचेस्टर की ०।२२ बोर की राईफल थी। उससे वे चिड़ियों और खरगोश को मारते थे। एक बार हमारी आदिवासी बाई ने उसके कारतूस की खाली खोली माँ से मांगी ताबीज बनाने के लिए । माँ ने खाली कारतूस दे दिए। अगले दिन सुबह हम भाई दीवाल पर लटकी राईफल के थैले से कारतूस की डिबिया निकाल कर बाहर पेड़ के नीचे इन्टे से मार-मार कर कारतूस की खोली अलग करने की कोशिश करने लगे । अगर समय पर पड़ोस की मासीमाँ  की नज़र नहीं पड़ी होती तो कुछ गंभीर जरूर घट जाता।
1952 से 1959 हमलोग पटना में रहे। एक बार मुझे एक कच्चा आम पेड़ की अंतिम ऊचायीं पर दिखा। छत से जो भी आम की डाल हाथ में पकड़ में आई, उसके सहारे आम के पेड़ पर चढ़ गया। धीमे-धीमे आम तक भी पहुच गया ।पर तभी मेरी माँ किसी काम से छत पर आई । उसे आसमान में आम के विशाल पेड़ की फुनगी कुछ ज्यादा ही हिलती नज़र आई।उसकी नज़र मुझ पड़ पड़ी । पेड़ की फुनगी मेरे वजन से दायें-बाएं झूल रही थी। मेरा तो नहीं पर माँ का डर से बुरा हाल हो गया। उसने अपनी आँखे हाथ से बंद कर ली और कहा-“बेटा ! बहुत सम्भल कर भगवान का नाम लेता हुआ नीचे आ जा। मैंने तब भी पहले आम तोड़ लिया और आराम से नीचे आकर माँ कि साड़ी हिलाता हुआ उसे आँख खोलने को कहा।
मेरे साथ दो बड़ी कमजोरियां थीं।एक तो मेरा कद औसत से कम था और दूसरे मैं बहुत ही पतला- दुबला था। इस कारण मुझे अपनी हैसियत कायम करने के लिए कुछ ज्यादा दिलेरी दिखानी पड़ती थी। 10 साल कि उम्र में मेरा वज़न 25  किलो और कद 4 फीट रहा होगा।
एक बार, क्रिकेट खेलते समय बाल पडोसी के घर कि तिमंजली छत पर चला गया। उस घर के लोग छुट्टियों में कहीं गए हुए थे। मुझे लोगों ने हिम्मत दिलाया । मैं ड्रेन पाइप के सहारे छत पर चढ़कर बाल ले आया।
इसी तरह , गर्मी कि छुट्टियों में हमलोग आम बगान पहुंचे । बगान आमों से लदा था पर एक पहलवान सा माली खाट पर लेट कर रखवाली कर रहा था। दो-तीन बार हमलोग मन मसोस कर लौट गए। बाद में मेरे साथियों ने मेरी बहादुरी को चुनौती दे डाली। फिर क्या था? माली की रखवाली करते हुए भी मैं आँख बचा कर आम के पेड़ पर चढ़ गया। औसतन हमलोग आम नीचे फेंका करते थे पर माली जग न जाये इसलिए मैं सारे आम अपनी निकर में खोंसी शर्ट में डालता जा रहा था। आम के भार से शर्ट एक जगह निकर से बाहर निकल गयी और एक आम नीचे गिर गया। माली की नींद खुल गयी। मेरे साथी तेज़ी से भागने लगे। माली की नज़र मुझ पर पड़ी। उसने डंडे को जमीन पर बजा कर मुझे ललकारा। मेरे साथी दूर खड़े नजारा देख रहे थे। मैं पेड़ के मोटे तने से अपने आपको छिपाता हुआ तरकीब सोचने लगा। माली खाट पर बैठ कर मेरे उतरने का इन्तजार करने लगा। कोई 15 मिनट बीते होंगे कि माली का धैर्य जवाब देने लगा। वह अब डंडा मेरी तरफ फेंक कर मुझे चोट पंहुचाने की कोशिश करने लगा। मैं पेड़ के तने के दायें-बाएं सरक कर अपने को बचाने लगा।

अंत में माली ने कहा कि अगर मैं सब आम नीचे गिरा दूं तब वह मुझे छोड़ देगा। पर हमलोगों ने माली के बारे में सुन रखा था। वह अपनी वायदे पर कायम नहीं रहता था और पकड़ कर बहुत मारता था। उससे भी बुरा कि वह घर आ जाता था और जमकर शिकायत करता । मेरे पिताजी “ SPARE THE ROD…” वाली कहावत का अक्षरशः पालन करते थे।
तभी मुझे तरकीब सूझी। मैं आमों को अपने साथियों कि तरफ फेंकना शुरू किया और उन्हें लेकर भागने को कहा । ऐसा होने पर माली आमों की तरफ भाग कर साथियों को आम चुनने से रोकने लगा। इतना मौका मेरे लिए काफी था।
आमिर खान के “ गुलाम” का सबसे अव्वल सीन था जिसमे वह तेज़ी से आती हुई ट्रेन के सामने दौड़ता है और तकरीबन ट्रेन से कट जाने की हद तक दौडकर बाज़ी जीतता है। यह दिलेरी भी हमलोगों ने 10-12 साल की उम्र में दर्ज करा ली थी। हमलोग ट्रेन की पटरी पर कान लगा कर ट्रेन आने की जानकारी ठीक-ठीक बताने पर साथियों की वाहवाही लूटते थे। साथ ही एक पैसे के ताम्बे के सिक्के को पटरी पर रखकर ट्रेन के पहियों से दबवा कर दुगना बड़ा कर लेते थे। तभी, एक दिन हमलोगों में बाजी लगी कि कौन सामने से आने वाली ट्रेन के सबसे करीब आकर पटरी छोड़ता है। मैं ये तो नहीं बताऊँगा कि किसने पटरी सबसे अंत में छोड़ी पर ये जरूर बताऊंगा कि उस कोयले वाली ट्रेन के ड्राईवर ने चुनी हुई गालियाँ हम सबों को दी और साथ ही कालिख से भरे कपड़े की गेंद बना कर हमलोगों की तरफ फेंका। गालियाँ बँगला में थीं। दो बजे दिन में उस समय सीआल्दाह एक्सप्रेस हावड़ा से पटना आती थी। इस वाक्ये के आधे घंटे बाद इंस्पेक्टर की चार पहिये वाली गाड़ी( जिसपर एक बड़ा छाता भी लगा होता था) आया और उस इलाके के लोगों को बच्चों को ऐसा करने से रोकने की कड़ी हिदायत देकर गया।
एक बार उन्ही दिनों मौत से सामना तब हुआ जब मैं , आस-पास खेलते वक्त, एक तहखाने के साथ वाले गेराज में जाले से छिपे , घुप अंधरे कोने में छिप गया था। उस तहखाने के अंदर सांप-बिच्छू के डर से कोई जाने की हिम्मत नहीं करता था। खोजने वाला लड़का मुझसे 5 साल बड़ा रहा होगा पर उसे उस अँधेरे में आकर खोजने में डर लग रहा था। उसने अंदर आने वाले दरवाजे से मुंह अंदर कर मुझे बाहर आने  को कहा। अंत में हार कर उसने लोहे का एक बड़ा नट उठा लिया और मुझे  दस तक की  गिनती खत्म होने तक बाहर निकल आने को कहा। मेरे ऐसा नहीं करने पर उसने अपनी बेइज्जती समझ कर, खीच कर भारी  नट मेरी तरफ मारा। नट बुलेट की तेज़ी से मेरी कनपटी पर लगा। कोई भी हरकत ना होते देख वह लौटने लगा। तभी मैं उसे पीछे छूकर आस-पास धप्पा कहकर बेहोश हो गया। मुझे उसी हालत में साथी उठाकर डॉक्टर के पास ले गए। मलहम-पट्टी हुई। आधे घंटे बाद होश आया होगा। तबतक साथियों ने मेरी खून से सनी कमीज बदल दी थी।
जैसे-जैसे उम्र बढ़ती गयी, डर से दोस्ती बढ़ती गयी। अब तो खुद से भी डर लगता है।
इस डर से अब चिढ़ होने लगी है।

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