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Thursday, October 8, 2020

लड्डू बाबू

 लड्डू बाबू का दोमंजिला विशाल लाल मकान ठीक अनुग्रह नारायण रोड के चौमुहाने पर था. पटना स्टशन से आती सड़क बाई तरफ बाकरगंज की ओर मुड जाती थी. दाहिने तरफ बुद्ध मार्ग पर विशाल बुद्ध की मूर्ती थी. सीधी एक फर्लोंग लंबी सड़क का नाम स्वंतंत्रता सेनानी बाबू अनुग्रह नारायण सिंह के नाम पर था जो कांग्रेस मैदान तक जाती थी. कहते हैं, आज़ादी के पहले अनुग्रह बाबू का तहखाने वाला घर घर कांग्रेस ने गुप्त मीटिंग के लिये बनवाया था. इसी सड़क से डॉ० राजेंद्र प्रसाद कांग्रेस मैदान के पीछे अपने बेटे के घर जाया करते थे. इसी सड़क से जय प्रकाश नारायण चरखा व् भूदान समिति के कार्यालय जाते. लड्डू बाबू का मकान इस सड़क के बाई तरफ का पहला मकान था.

लड्डू बाबू का मकान क्या पूरी हवेली थी. चारों तरफ बगीचा. सामने की तरफ तरह-तरह के गुलाब. 15-20 छायादार पेड़ों के घूँघट से हवेली का कुछ हिस्सा ही दिख पाता था, वह भी गौर से देखने पर. लगभग 35 वर्ष के लड्डू बाबू स्वयं पतले-दुबले, नाटे कद और गोरे चौकोर मुंह के जब भी दीखते अपनी वकील वाली काली पोशाक में. उनकी विधवा माँ इसके विपरीत मोटी-ताज़ी गरजदार वाली आवाज से दोमंजिले के झरोखे से माली को हिदायत देते दिखती.इतना कुछ हमलोगों को स्कूल जाते वक्त या मोड पर राशन के दुकान जाते वक्त सुबह दीखता. अगर लड्डू बाबू की माँ दिख जाती तो नजर सीधी ओर कदम में अपने आप तेजी आ जाती. मात्र 2 सेकंड की झलकी मिलती. जो पेड़ों से नहीं छिपता वह उनके हाते के सड़क से सटे प्रेस वाला दोमंजिला बिना खिडकी का मकान ढक लेता. लड्डू बाबू की माँ डायन थी. ऐसा भगौती चाय वाले ने बताया था.

लड्डू बाबू के बाकरगंज वाले सड़क के गेट से सटे सरकारी जमीन पर भगौती याने भगवती की चाय दुकान थी. सुबह सवेरे वह सफाई कर्मियों को चाय पिलाता था . सफाई कर्मी मतलब, सर्विस टोइलेट साफ़ करने वाले, सड़क पर झाडू देने वाले और कचरा इकठ्ठा कर कचहरी गाड़ी वाले. अपने काम से फारिग होने के बाद ये सभी 50-60 जन भगौती की दुकान से एक गिलास चाय लेते और टेढ़े-मेढे डंडे वाला ब्रेड लेते और वहीँ फूटपाथ के उठान पर पसर जाते. इसके बाद पुलिस कर्मी, चपरासी और नौकरों का नंबर आता. सभी अपने काम पर लगने के पहले भगौती की दुकान पर हाजरी लगाते. हम बच्चे कभी भी उसके दुकान पर आ धमकते. एक पैसे वला टेढा-मेढा ब्रेड का करारा डंडा और कभी-कभी पैसा रहने पर तीन आने वाला लेमनेड बहुत ही रोमांचकारी लगता. तब लेमनेड की बोतल का मुंह एक कांच की गोली से बंद रहता जिसे भगौती ही खोलकर हमलोगों को देता. जैसे ही गोली रास्ता देती फुश के साथ गैस निकलती. ज्यादातर लेमनेड की बोतल हम दो-तीन बच्चे शेयर करते. दोपहर को दो बजे के आसपास जब सन्नाटा छा जाता तब भगौती की दुकान गंजेडियो के धुँए और धमक से भर जाती. भगौती एक हाथ से चिलम पकड़ कर कश लगता ऐसा की लपट निकल जाती. हमलोग दूर से वह लपट देखने के लिये रुक जाते.तभी मालूम हुआ कि ऐसे चमत्कारी लोगों को भी गुरु कहकर संबोधन किया जाता है. 1956 के बी०एन०कॉलेज गोली कांड के समय छात्रों के जुलुस को भगौती बाल्टी में शरबत बना कर पिलाता. कुछ वर्ष बाद भगौती सचमुच दाढ़ी और केश बढ़ाकर गुरु हो गया था.

गर्मी की दोपहरी में जब हमलोग सुबह के स्कूल से लौट रहे थे तो ठीक चौमुहानी पर सैकड़ों लड़कों का हुजूम दिखा. बहुत से लड़के लड्डू बाबू के अहाते में घुसकर बगीचा तहस-नहस कर रहे थे. कुछ लड़के उनके घर की खिड्कियों पर पत्थर फेंक रहे थे. राहगीर और रिक्शा चौमुहानी से न जाकर लौट जा रहे थे. हमलोगों ने भी दूसरा रास्ता लिया. हमलोगों ने सब्जीवाले से पूछा. उसने झटके से बताया कि उस हवेली की डायन ने एक लड़के को कच्चा चबा लिया. उस रात बहुत मुश्किल से नींद आई.

दूसरे दिन चपरासी ने बताया कि किसी स्कूली लड़के को फूल तोड़ते समय माली ने लोटा फेंक कर मारा था. बाद में वह लड़का रोते हुए अपने स्कूल पहुंचा. क्रोध में सब स्कूल छोड़ हवेली की ओर दौड पड़े और बहुत तोड़फोड़ की. स्कूल से लौटने समय देखा कि पुलिस आई हुई थी और बहुत सारे गमले टूटे पड़े थे. पुलिस ने तो कुछ नहीं किया. अव्वल भगौती ने रास्ता निकाला. पाटलिपुत्र स्कूल के 100 से ज्यादा छात्रों को घर के बगीचे में बिठाकर भोजन कराया गया. लड्डू बाबू की शादी की तिथि नजदीक आ रही थी इसलिए पूरे घर का रंग-रोगन कराया गया. हवेली फिर लाल रंग में डरावने रूप से खिल गयी.

लड्डू बाबू के आहते के प्रेस वाले भवन की दीवार हमशा रंग-बिरंगे फ़िल्मी पोस्टर से ढकी रहती थी. मुझे आज भी फिल्म “दायरा” का आदमकद पोस्टर याद है. गोल घेरे के बीच एक औरत. सबसे दहलाने वाला पोस्टर लगा था “दो आँखें बारह हाथ” का. एक किनारे ६ डकैत, आकाश से घूरती दो बड़ी-बड़ी आँखें और दूसरे किनारे से एक विशालकाय दौडता हुआ सांड.

हमलोग जब पटना छोड़े उसी वर्ष लड्डू बाबू की शादी हुई. हमलोगों के घर भी न्योता आया था. दो ऊँट , तीन हाथी, पंजाब बैंड और विक्टोरिया पर दुल्हा गया था बरात लेकर. माँ शादी के सब कार्यक्रम में शामिल हुई थी. वह बताती थीं कि लड्डू बाबू की माँ बहुत स्नेही और मिलनसार थी. वह गठिया से बहुत बुरी तरह ग्रसित थी इसीलिये ज्यादा समय वह बालकोनी में बैठकर सड़क की चहल-पहल से मन लगाती थी और सारे हुकुम बालकोनी से चिल्ला-चिल्ला कर अपने मातहत को देती थी, इसी कारण बच्चे उनसे डरने लगे थे.   

 

Friday, September 11, 2020

मेरी बरसात

 पिछले पांच दिनों से रांची में बारिश हो रही है. मेरे मित्र लक्ष्मी ने बताया कि ग्रेटर नॉएडा में भी गहरे बादल छाये हुए हैं. चूँकि कोरोना संकट काल में घर में ही रहना है इसलिए ज्यादा अकुलाहट नहीं हो रही है. हम दोनों फोन पर बातें कर रहे थे. लक्ष्मी ने कहा कि उसे “बरसात की रात” का शीर्षक गीत बहुत प्रिय है. मैंने बात आगे बढाने के लिए कहा कि “प्यार हुआ इकरार हुआ” भी बरसात में फिल्माया गया अच्छा गाना है. उसने कहा कि “प्यार हुआ...” एक प्रणय गीत है जबकि “जिंदगी भर न भूलेगी वह बरसात की रात “ बरसात को निवेदित है. लक्ष्मी सही कह रहा था.

बचपन से हमलोगों ने न जाने कितनी बरसातें देखी हैं. बचपन में बरसात का मौसम कितने ही नए रोमांच लेकर आता था . बरसात में भींगना, बरसाती नाले में कागज की कश्ती तैराना, गड्ढे में जमा पानी से खिलवाड करना क्या कोई भूल सकता है. कभी-कभी तो कमरे के कोने में सांप भी आकर छिप जाता था. बरसात का मौसम युवाओं का मनपसंद मौसम है. चाहे कॉलेज से भींगते हुए वापिस लौट रहे हों अथवा किसी पेड़ के नीचे बचते खड़े हों, दिल और दिमाग दोनों बरसाती गीत गुनगुनाते रहते थे. सुबह देर से उठना और दोपहर को सोते रहना तो आम बात हुआ करती थी. ख्यालों की दुनिया से बाहर युवा यथार्थ  की गुंजाईश रहती तो सोने पे सुहागा. जीवन की दूसरी पारी में भी पहली बरसात और शुरूआती दिनों की बरसात मन मोह लेती है. उसके बाद तो जैसे लंबी खींची हुई गर्मी वैसी ही न खत्म होने वाली ठण्ड और उससे ज्यादा दैनिक कार्यों में अड़चन पैदा करती बरसात सबसे ज्यादा वृद्धों द्वारा कोसी जाती है. जरावस्था की सबसे बड़ी दुश्मन तो बरसात ही है.

हम तीन सहोदर भाईयों के मध्य उम्र का बहुत कम अन्तर था. बड़े भाई ६ वर्ष के थे. जमशेदपुर की गर्मी से निजात पाने के लिए हमलोग ज्यादातर बंगले के गेट के पास लगे नल पर ही मन भर नहाते थे या जोर की भूख लगने तक अथवा जबतक की घर से अंदर से कोई कड़क आवाज में बुला न ले. एक दिन , देखते-देखते बादल आया और झमाझम बारिश होने लगी.हम भाईयों ने एक दूसरे को शरारत भरी नजरो से देखा और बाहर सड़क पर नंग-धड़ंग दौड पड़े. ५ मिनट में ही वर्षा की बड़ी-बड़ी बूंदों से शरीर छलनी हो गया. एक महुए के पेड़ के नीचे शरण ली. वर्षा कम होने पर किसी तरह घर के अंदर आये . माँ को भौचक देखने का भी समय नहीं मिला. जल्दी से हमलोगों को चादरों से लपेट दिया गया. शरीर पर पड़े लाल चकत्ते एक दिन तक बरकरार रहे. उसके बाद बहुत दिनों तक बरसते पानी में निकलने की हिम्मत नहीं जुटा पाए.

इसी तरह, पटना के मकान में भी बहुत गर्मी पड़ने के बाद तेज बारिश आई. हम भाई सुबह के स्कूल से लौटे ही थे. माँ ने कहा था नहा-धो लो भोजन तैयार है. हमलोगों की आँखें फिर चमकने लगी, शर्ट उतारी और बाहर निकल सड़क पर दौड पड़े. तबतक मोहल्ले के सभी हमउम्र लड़कों से मित्रता हो गयी थी. जिसने भी देखा हमलोगों के साथ हो लिया. देखते-देखते १०-१२ बच्चे सड़क पर दौड़ते हुए बरसात का आनंद उठा रहे थे. कुछ दिन पहले ही बी०एन०कॉलेज का छात्र गोली कांड हुआ था. अभी भी दुसरे शहरों और प्रान्तों से छात्र जुलुस लेकर स्टेशन से हमारे चौरस्ते होकर गुजरते रहते थे. जो नारे वे लगाते थे वह हमलोग भी भींगते और दौड़ते लगा रहे थे – जोर जुल्म के टक्कर में संघर्ष हमारा नारा है और जो हमसे टकराएगा चूर-चूर हो जायेगा. लाजिमी था कि हमारी प्रदर्शनी देखने बड़े-बुजुर्ग भी घर से बाहर निकल आये. लौटने पर मात्र फटकार मिली. शायद बुजुर्गों के भींगने की चाहत को हमलोगों ने किसी हद तक पूरा किया होगा.

बरसात के दिनों में भला कौन कॉलेज का छात्र अपने साथ छतरी या रेनकोट रखता है. उस वक्त बरसते पानी में भींग कर आना-जाना मर्दानगी में चार चाँद लगा देती थी. हमलोग साइकिल से ५ किलोमीटर दूर कॉलेज जाते थे. कॉलेज के शुरुआती दिनों में ही यूनियन का चुनाव पड़ा.चुनाव के दिन लौटते समय बहुत जोरों की बारिश होने लगी. हमलोग ६ जन थे जिनका घर कॉलेज के पश्चिम में पड़ता था. एक का घर १ किलोमीटर दूर तो पांचवें का घर ५ किलोमीटर दूर. कुछ ही दिनों में दोस्ती इतनी दारुण हो गयी थी कि पहला , पांचवे को घर पहुंचाने के बाद ही अपने घर लौटता था. बारिश इतनी तेज थी कि साइकिल चलाते समय आगे का रास्ता नहीं सूझ रहा था .रास्ता भटक गए. शहर से दूर, घर के बिल्कुल विपरीत दिशा में, बहुत दूर निकल गए. जब समझ में आया तो एक बंद ढाबे में शरण लेकर बारिश थमने का इन्तजार करने लगे. तबतक शाम होने को आ गयी इसलिए फैसला लिया गया कि सब कोई वहीँ से अपने-अपने घर चले जाएँ. हमलोगों में मात्र राधे श्याम सर्दी,जुकाम और बुखार से तीन दिनों तक पीड़ित रहा. बाद में पता लगा कि उसकी साइकिल पंक्चर हो गयी थी और उसे काफी दूर तक पैदल ही घर लौटना पड़ा था. इसके बाद, कई वर्षीं बाद, कॉलेज के अंतिम दिनों में एक बार जान-पहचान वालों से दूर पहाड़ी मंदिर गए थे छिपकर सिगरेट पीने . पहाड़ी की तराई में चट्टान पर बैठकर सिगरेट पीते हुए दोस्त का फरमाईशी गीत सुन रहे थे. ये फरमाईश उलटी दिशा में होती थी. गीत गाने वाला जिद करके गाने सुनाता था. गाने वाला सिगरेट के पैसे भरता था इसलिए सुने बिना कोई चारा नहीं था. उस दिन भी अचानक खूब तेज बारिश आ गयी. मित्र महोदय उस वक्त बरसाती गीत ही गा रहे थे- “सावन के महीने में एक आग सी लगती है तो पी लेता हूँ “. फिल्म में यह गाना चाहे किसी भी कारण गया गया हो, हमलोगों का पीने का मतलब सिगरेट से था. अब भला गाने कि शान रखने के लिए कौन कमबख्त भींगने से डरता. ये बात और थी कि सिर छुपाने के लिए एक गुलमोहर का पेड़ था नहीं तो दूर-दूर तक कोई भी छिपने कि जगह नहीं थी. हाँ, पहाड़ी की चोटी पर मंदिर जरूर था पर बिजली की चमक और गरज के विज्ञान से हमलोग बखूबी वाकिफ थे.

शादी के बाद युवा जोड़ी स्वयम को सोहनी-महिवाल से कम नहीं समझती है. उस दिन रविवार को बहुत दिनों बाद बारिश थमी थी. हम पति-पत्नी शहर के विपरीत कोने, अपने बहन-बहनोई से मिलने स्कूटर पर निकल पड़े. जब बहन का घर मात्र १०० मीटर ही बचा था कि बहुत जोरों की बारिश आ गयी. दोनों बुरी तरह भींग गए. मुझे तो बहनोई का कुरता पायजामा दुरुस्त आ गया. बहन थोड़ा ज्यादा तंदरुस्त थी या पत्नी दुबली थी या फिर उसे मस्ती सूझी , थोड़ी देर बाद जब मेरी नयी-नवेली पत्नी कपडे बदलकर बैठकखाने में आई तो मैं ठगा सा देखता ही रह गया. मेरी बहन ने अपने स्कूल के दिनों का स्कर्ट-ब्लाऊज वाला युनिफोर्म पहना दिया था. बहुत देर तक हँसी-मजाक होता रहा. सब कोई अपने स्कूल के दिन और पहनावे याद कर रहे थे. शाम को जब लौटने लगे तबतक कपडा नहीं सूखा था. हमलोग उसी पहनावे में स्कूटर में बैठ कर लौट आये. अपार्टमेंट के बाहर जब स्कूटर स्टैंड पर लगा रहा था तब खिड़कियों से बहुत जोड़ी नजरें हमलोगों को देख रही थी. हमारा फ्लैट दूसरी मंजिल पर था. दरवाजे पर दो परिवार नजदीक से जायका लेने इन्तजार कर रहे थे. बनारस की मास्टरनी चाची ने तो चुटकी ले ही ली – “हम समझे कि आप किसी लड़की को भगा के लाये हैं.”

मेरी शिफ्ट ड्यूटी हुआ करती थी. बहुत बार बहुत बुरी तरह भींग कर घर लौटते थे. एक बार रात के दस बजे बहुत तेज बारिश में कारखाने से घर लौट रहा था. बहुत तेज हवा थी. रास्ते में दोनों तरफ मीलों दूर सिर्फ खेत थे. पश्चिम में मंदिर की तरफ से भयंकर हवा के साथ बारिश की झटास मुझे और मेरे स्कूटर को धकेले दे रही थी. स्कूटर की हेडलाइट भी बिल्कुल लाचार थी. किसी तरह टटोलता हुआ आगे बढ़ रहा था घर की तरफ. मैंने मन ही मन तय किया कि अब ऐसी गलती नहीं करूँगा. पर ऐसी गलती बार-बार होती रही. बहुत वक्त लगा, धैर्य रखकर बारिश के थमने पर आगे बढ़ने की मनःस्थिति बनाने में.

नौकरी के अंतिम दिनों में की एक बरसात भुलाने योग्य है भी नहीं. दुर्गा सप्तमी की रात एक बड़ा हादसा हो गया. तीन दिन से लगातार बारिश हो रही थी. कारखाने के पिछली तरफ जहां कचरा फेंका जाता था वहीँ एक जहर तालाब भी था. यह नाम गाँव वालों का दिया हुआ था. इस तालाब में कोयले से निकला फेनोल जैसे कई जहरीले तरल पदार्थ एक पाईप लाइन द्वारा इसी तालाब में डाल दिया जाता था. इस तालाब में कई मवेशी अपनी जान गवां बैठे थे. एक बार इसी तरह भारी बारिश के चलते इसका द्रव उफन कर नीचे बसे गाँव और उनके खेत में जा पहुंचा था. पूरा का पूरा धान का खेत बर्बाद हो गया था. तब तालाब का किनारा ऊंचा कर दिया गया था. इस बार चूहों ने जगह-जगह सूराख बना दिए थे उसपर बरसात की ऊपरी मार , एक पतली नाली सी बन गयी थी जो धीरे-धीरे किनारे को तोड़ते हुए बड़ा रूप लेने लगी थी. रात के ११ बजे महा प्रबंधक मुझे मेरे घर से लिवा ले गए. सुरक्षा के साथ-साथ प्रदूषण नियंत्रण भी मेरे अधिकार में था. रात भर अग्निशमन के योद्धाओं के साथ बालू की बोरी पाटते रहे. सुबह सात बजे तक स्राव नियंत्रित कर लिया गया.

अब बरसात की कहानियां सुनने का समय आ गया था. एक होली के दिन भी अचानक ओलों के साथ बरसात हुई. उस शनिवार की रात मैं काली जी के मंदिर के पूजा अर्चना में ध्यानमग्न बैठा था. शनिवार की पूजा में बहुत लोग सम्मलित होते थे. गंभीर पूजा होती है इसलिए शांत वातावरण में पूजा होती थे. अचानक कुछ व्यसक लड़कों की खिलखिलाहट सुनाई दी. पुजारी ने पूजा खत्म होने पर बहुत जोर की फटकार लगाई. उनमें से एक लड़के ने खिलखिलाहट का कारण बताया. होली में भरपूर रंग खेलने के बाद भरी दोपहर में ७-८ लड़के तालाब में रंग छुडाने व् नहाने गए. तालाब बड़ा था और ये लोग बीचोबीच नहा रहे थे. तभी अचानक बड़े-बड़े ओलों की बारिश होने लगी. ये लड़के जब भी पानी से बाहर शरीर निकालते तो कोड़ों की तरह ओले उनका स्वागत करते. शरीर अंदर करते तो दम घुटने लगता. १० मिनट में उनलोगों का हालत खराब हो गयी. किसी तरह किनारे आकर जान बचाई.


आज ३  घंटे से बारिश हो रही थी. शीशे की खिडकी से सामने पीपल का पेड़ दीखता है. एक एक कर पक्षी पेड़ के पत्तों से बाहर आ रहे हैं. एक-दो मेरे छत की मुड़ेड पर आकर पंख सुखा रहे हैं. उनकी नजर मेरे दरवाजे पर भी है. मैं रोटी के छोटे-छोटे टुकड़े करके बिखेर देता हूँ. दूर बैठे कबूतरों का झुण्ड भी जलपान में शामिल होने आ गया है. कुछ मैना भी पधारी है. एक गिलहरी भी. अब अँधेरा होने तक काफी के प्याले के साथ बादलों की घेराबंदी, चिडियों का नोकझोक और पेड़ के पत्तों का इठलाना देखता रहूँगा. जिंदगी के अंतिम पड़ाव में भी सुबह होती है शाम होती है पर उसे रोचक बनाने में ही बुद्धिमानी है.    

 

Friday, June 19, 2020

गुलेल

1952 की बात है। दोपहर का समय था। हम बच्चे बागीचे में खेल रहे थे। उसी वक्त 2-3 आदिवासी युवक गेटखोल अंदर दाखिल हो गए। हमलोग कुछ समझ पाते उससे पहले उनलोगों ने गुलेल का निशाना साधा और पेड़ से एक कौआ धप से नीचे आ गिरा। उनलोगों ने आधे भरे थैले में घायल कौवे को डाला और चलते बने। सबकुछ पलक झपकते हो गया।

उस समय से हमलोगों ने न जाने कितने गुलेल बनाए, पेड़ के फलों पर, पक्षियों पर निशाना साधा पर कभी भी सफलता नहीं मिली। उम्र इतनी कम थी की ठीक से गुलेल बनाना और ताकतवर निशाना साधना शायद हमलोगों के बस की बात नहीं थी।

गुलेल चलाने का नशा दुबारे तब चढ़ा जब गर्मी की छुट्टियों में बहुत से साथी दोपहर को गुलेल लिए आम बागान पहुँचते । इतने आम अवश्य गिराए जाते की निराशा दूर भाग जाती। मुझे भी एक अच्छी गुलेल बनाने का शौक जागा।

मित्रों के बताए अमरूद के पेड़ों पर ऐसी टहनी खोजी जाने लगी। मशक्कत करने पर ऐसी टहनी मिल ही गयी। उसे तोड़ा गया, काटा गया और गुलेल के आकार में लाया गया। साइकल पंक्चर बनाने वाले के पास से एक पुरानी साइकल ट्यूब का जुगाड़ बना। उससे 10-10 इंच का 2 फीता काटा गया। चमार की दुकान से गोली पकड़ने के लिए एक चमड़े का 3 इंच के चौड़े फीते के दोनों ओर छेद किया गया। पूरी दोपहर बीत गई पर न तो फीता गुलेल की डंडियों पर ठीक से बंधा और न चमड़े के फीते की छेदों से। हारकर चपरासी से मदद लेनी पड़ी। उसने आनन-फानन में खूब मजबूत गुलेल तैयार कर दी।

दूसरे दिन मैं भी कच्चे आमों का शिकार करने गुलेल के साथ लैस होकर गया। दोस्तों को तो सफलता मिलती रही पर मुझे एक बार भी नहीं। हारकर, निराशा के साथ, घर आकार मैं आँगन पर बिछी चौकी पर लेट गया। तभी गोरेयों का एक झुंड आँगन में दाने चुगने उतारा। मैंने लेटे-लेटे ही गुलेल से एक गोली दाग दी। गोली चिड़िया के पैर पर लगी। चिड़िया उसी जगह चीखते हुए गोल-गोल चक्कर खाने लगी। मुझे लगा जैसे मैंने कोई जघन्य अपराध कर दिया हो।

मैं चिड़िया के पास गया। किसी तरह उसे उठाया, सहलाया और दीये में पानी भरकर पीने को दिया। उसके पैर में थोड़ा आयोडेक्स भी लगाया। तबतक मेरा छोटा भाई भी आ गया। उसने गुलाबी रंग का एक टीका उस चिड़िया के माथे पर लगा दिया। उसे 2-3 घंटे लगे उड़ने में। वह फुर्र से उड़ गई। कभी-कभी वह मुंडेर पर दिखाई देती। गुलाबी टीके मे वह बहुत प्यारी लगती और पहचान में भी आ जाती ।

वरिष्ठ नागरिकों को ईश्वर काफी समय देता है पश्चाताप करने को। मैं सुबह और शाम चिड़ियों के लिए पानी बदलता हूँ अथवा दाने बिखेरता हूँ, वह चिड़िया मुझे बरबस याद आ जाती है। जिस दिन धोखे से, चीनियों ने गुलेल और पत्थर के निशाने पर निहत्ते भारतीयों को लिया है तबसे वह भोली-भाली चिड़िया और भी याद आ रही है।

गुलेल और पत्थरबाजी के उस्ताद झारखंडी आदिवासियों को उसी इलाके में सड़क निर्माण के लिए भेजा जा रहा है। इनका हुनर दशम फाल में देखने को मिलता है। 2 फीट की गहराई में तैरती मछलियों को , परावर्तन,प्रत्यावर्तन, अपवर्तन और तरल माध्यम के बावजूद इनका गुलेल का निशाना सटीक और घातक होता है।   अब तो गुलेलें भी हाइ-टेक हो गई हैं। पौधों से निकलने वाले नशीले और जहरीले स्राव से नुकीले पत्थरों को और भी घातक बनाया जा रहा है। 

Tuesday, May 19, 2020

मुठिया प्याज़ !

1962 में देवानन्द और साधना की एक बहुत ही साफ-सुथरी फिल्म देखी थी। नाम था “असली नकली”। नायक का पिता एक बहुत अमीर व्यवसायी था। बेटे की फिजूलखर्ची उससे बर्दाश्त नहीं होती थी। एक दिन झगड़ा बहुत बढ़ गया। बेटा घर से निकल गया। दिन भर का भूखा-प्यासा, रात को उसकी भेंट एक छापेखाने के मजदूर से होती है। मजदूर को नायक की बदहाली देखी नहीं जाती है। वह नायक को अपनी खोली ले जाता है। उसकी बहन रोटी-सब्जी के साथ एक मुठिया प्याज़ खाने को देती है। मजदूर बड़े चाव से खा लेता है। नायक को प्याज़ की तेज़ी से हिचकी आने लगती है। फिल्म में तो और भी बहुत कुछ था पर मुठिया प्याज़ आज़माने वाली चीज़ जान पड़ी। रात के खाने में जब रोटी-सब्जी परोसी गई तो मैं एक प्याज़ भी चौके से उठा लाया। फिल्म में प्याज़ घुटने पर रख कर तोड़ा गया था। मैंने जमीन पर रखकर मुट्ठी से मारा। प्याज़ तो टूटा नहीं अलबत्ता हथेली में अच्छी-ख़ासी चोट आ गयी। बात आयी गई भूल गई।

1968 में MSc की लिखित परीक्षा होने के बाद मुश्किल से 10 छात्र बचे थे गांगुली फ्लॅट हॉस्टल में, जिन्हे प्रैक्टिकल परीक्षा देनी थी। उस दिन कॉलेज से डेट्स लेने के बाद मैं कुछ देर के लिए गांगुली फ्लॅट रुक गया। मित्रों के साथ समय बिताना बहुत प्रिय लगता है। वह भी तब जब की यह मालूम हो की परीक्षा खत्म होने के बाद बिछुड्ना है। भूख भी लग गई थी। सोचा था दोस्तों के भोजन का समय है, वही खा भी लेंगे।

हॉस्टल में तो माँजरा ही अलग था। मेस मैनेजर घर लौट गया था। भंडार में आटे के सिवा कुछ भी नहीं था। सब एक दूसरे का मुंह देख रहे थे। कारण था सबकी फटेहाली थी। तभी रतनेश्वरी चिल्ला उठा – उरेका ! सबलोगों ने 50 पैसे उसके हाथ पर रखे। उसने महाराज को रोटी सेकने को कहा। 10 मिनट में वह प्याज़ से भरा थैला साथ में हरी मिर्च और पाव भर सरसों तेल लेकर लौटा। सबकुछ 5 रुपये के अंदर हो गया था।

तंदूरी रोटी जैसी दिखने वाली मोटी, बेहतरीन सिकी रोटी , किसी को 1 किसी को 2 और एक को 4 परोसी गई। साथ में 2-2 प्याज़ और 2-3 हरी मिर्च। सरसो तेल से भरी कटोरी पूरे टेबल पर घूमने वाली थी। मुठिया प्याज़ सबने सुन रखा था पर आज़माया बिरलों ने ही था। 5 जन कामयाब हुए और बाकियों का प्याज़ मिसाइल बना हुआ था।

मेरी निगाहें रतनेश्वरी के हाथों पर टिकी थी। मैंने उसी की तरह प्याज़ को टेबल की दरार का सहारा दिया और एक मुक्का लगाया। प्याज़ एक ही वार में दो फांक। रतनेश्वरी गाँव से था । उसे मेरे जैसे शहरिया से बिलकुल उम्मीद नहीं थी। उसके मुंह से बेसाख्ता निकल गया – वाह ! खाने में तो बहुत आनंद आया पर सबकी भाव-भंगिमा देखते ही बनती थी। प्याज़ और सरसो तेल की मिली-जुली तीखी झाँस और मिर्च की तीताई। जिसका रोटी से पेट नहीं भरा, उसकी कमी पानी ने पूरी कर दी।

अंधेरा होने के पहले और पिताजी के ऑफिस से लौटने के पहले घर लौटने की आदत थी। दिन में एक ही रोटी खाई थी। भूख बड़े जोरों से लगी थी। मेरे भाई बहन भी कोई कॉलेज से , कोई स्कूल से और कोई खेल कर लौटे थे। सभी को बड़े जोरों की भूख लगी थी। माँ और दादी पड़ोस के घर गए थे। रसोई मे डब्बे के अंदर काफी रोटियाँ रखी थी। कुछ देर कुलबुलाने और झुंझलाने के बाद मैंने दोपहर का वाकया सांझा किया। फिर क्या था। एक थाल पर रोटियाँ रखी गई। साथ में नमक। नमक में ही सरसो तेल मिलाया गया। हरी मिर्च का झुंड भी एक ही जगह रख दिया गया। जिसको खाना होगा, ले लेगा। मेरी देखा-देखी मेरे भाइयों ने भी सफलतापूर्वक प्याज़ भेदा, अपने लिए भी और छोटे भाई-बहनों के लिए भी। हमलोग वहीं बरामदे में जीमने के लिए बैठ गए।

हमलोगों ने 1-2 निवाला मुंह मे रखा ही था की सामने के दरवाजे से पिताजी आ गए और पीछे के दरवाजे से माँ और दादी। मिरचा-प्याज़ और सरसो तेल का सेवन हमलोग कर रहे थे। मुंह उनलोगों का लाल हो रहा था। पानी उनकी आँखों में आ रहा था। हर रोज की तरह उस दिन किसी से भी कोई डांट नहीं मिली।

उस रात सबके भोजन का पहला कोर्स था रोटी, सरसों तेल से भींगा नमक, हरी मिर्च और मुठिया प्याज़ ।

Wednesday, May 13, 2020

कुछ बात तो थी ! पटना कॉलेजिएट 1957-59

अविस्मरणीय शब्द का अर्थ तब समझ में आता है जब बचपन के मित्रों के साथ बीते क्षण बरबस याद आते हैं; स्कूल में गुजारे दिन और उसके प्रांगण का चप्पा-चप्पा सिहरन पैदा कर देता है, स्कूल के शिक्षक किसी रंगमंच के कलाकार की तरह अवतरित होते रहते हैं और मन बरबस आहें लेने लगता है – जाने कहाँ गए वो दिन।

हम मित्रों का जमघट पास के काँग्रेस मैदान में शाम को अवश्य लगता था। जब मैंने पटना कालेजियट स्कूल में अपने दाखिले की बात अपने मित्रों को बताई तो तरह-तरह की प्रतिक्रिया मिली। सैंट ज़ेवियरस के विजय ने हँसते हुए कहा की वहाँ तो सातवी क्लास मे इंग्लिश की पढ़ाई शुरू होती है A,B,C,D से। राम मोहन स्कूल के रमेश ने कहा कि कालेजियट में लड़कियां नहीं पढ़ती। सबसे खराब बात पाटलिपुत्र के अंतु ने कहा - कालेजियट के पहले उस इमारत में पगला हॉस्पिटल था। जब वहाँ मौजूद मेरे साथ दाखिला लेने वाले और मित्र उलझ पड़े तो उसने कहा – अच्छा देखना ! बिल्डिंग “H” आकार का है – H का मतलब हॉस्पिटल। इसी तरह मेरे बड़े बड़े भाई ने बताया था कि आद्या सर के क्लास में एकदम शांत बैठना। वे मिलिटरी से आए हैं । बहुत सख्त हैं। नाराज होने पर कहते हैं – चट गिरेगा, पट मरेगा।

आद्या सर को मैं भूल चुका था। पीरियड के मध्य का अंतराल कितना कोलाहल वाला होता है यह बताने की आवश्यकता नहीं। दूसरे सप्ताह के किसी दिन तीसरे पीरियड में उनका आगमन हुआ। तिकोना सांवला चेहरा, छोटी-छोटी मूछें और बड़ी-बड़ी आँखें- एकदम चौराहे पर लगे पोस्टर के खलनायक की तरह। तब हमलोग का सिनेमा से सामना मात्र पोस्टर तक ही हुआ करता था। उन्होने अपना परिचय देने में एक सेकंड की भी देरी नहीं की। टेबल पर हाथ पटकते हुए दहाड़े – चट गिरेगा पट मरेगा। एक लड़का खिड़की के सिल पर से उठने की कोशिश कर रहा था। उसे बोले – ऐसा थ्रो करेगा की 303 के गोली माफिक गंगा पार चला जाएगा। क्लास में सन्नाटा छा गया। गनीमत थी की वे पूरे सत्र में हमारे क्लास में स्टॉप-गैप की भरपाई करने 3-4 बार ही आए। जब भी आते हमलोग सांस भी तमीज़ से लेते। आद्या सर बंगला के शिक्षक थे और एन०सी०सी० के भी । परन्तु जिस क्लास में भरपाई करने आते उसी विषय को पढ़ाते । वर्ड्सवर्थ की "द रेनबो" मैंने पहली बार उन्ही के मुख से सुनी थी ।


1950 के दशक में हफ्ते में बुधवार को एक पीरियड होता था extra curricular का। आज की पीढ़ी के लिए यह मात्र once upon a time भर के लिए विस्मयकारी ही होगा। इस पीरियड में छात्रों को तकली और चरखे से सूत कातना सिखाया जाता था। ऐसा बना सूतों का गट्ठर खादी ग्रामोद्योग वाले ले जाते थे। काष्ठकारी(बढ़ई) सिखायी जाती थी। सीनियर छात्र टेबल, कुर्सी, बेंच इत्यादि बड़ी कुशलता से बना लेते थे जिनका उपयोग क्लास मे होता था। एक हफ्ते ड्राइंग भी सिखायी जाती थी। उस दिन क्लास के तीनों सेक्शन बीच वाले हाल में आ जाते थे। बीच वाला हाल तो समझ रहे हैं न- H के दोनों डंडों को जोड़ने वाला। Extra curricular सर का व्यक्तित्व तो आज भी नजर के सामने दिखता है पर नाम याद नहीं आ रहा है। कद-काठी, चेहरे, डीलडौल और पहनावे से कुछ-कुछ अमर कथाकार प्रेमचंद ! एक और दारुण समानता। प्रेमचंद को मात्र चित्रों में ही देखा, उनकी बोली नहीं सुनी। सर की बोली भी कभी नहीं सुनी। किसी से सुना था की इनका चेहरा और दाया हाथ लकुवा-ग्रस्त था। ये क्लास में आते। एकदम बुनियादी से शुरू करते। अगर एक घड़ा बनाना होता तो पहले एक खड़ा क्रॉस बनाते।  20 फूट लंबे ब्लाकबोर्ड पर वह 3-4 ड्राइंग बनाते। अंत में एक बार वे पूरी गॅलरी में ऊपर से नीचे घूम कर सबकी कौपी देखते। किसी किसी की कॉपी में कुछ सुधार करते। तबतक घंटी बज जाती। वे जैसे शांत आए थे वैसे ही निकल जाते। श्रद्धा की पराकाष्ठा इनके क्लास में देखने मे आती। शुरू से अंत तक हमलोग मौन-मुग्ध उनको और बाएँ हाथ से खिची रेखाओं को निहारते रहते। यह मेरे जीवन का एक नायाब क्लास रहा जिसमें पूरे समय शिक्षक और छात्र दोनों खामोश रहते।

संस्कृत के अध्यापक जैसा व्यक्तित्व मुझे दोबारा नहीं दिखा। 55 के रहे होगें पर लगते थे 65 के। शायद मुंह में बहुत कम दाँत होने की वजह से। खादी का लंबा कुर्ता, खादी की धोती और सर पर गांधी टोपी। पहले दो वर्ष हमलोग उन्हे बरामदे में ही देखते थे। शायद इसलिए की संस्कृत 9वें से पढ़ाई जाती थी। जब भी वे प्रसन्न रहते, संस्कृत के पद्य शुद्ध उच्चारण के साथ गा कर सुनाते. उनमें शायद कालिदास की कवितायें भी रहती.हम सभी समझते तो बहुत कम पर मंत्रमुग्ध होकर सुनते . शुक्रवार को वे अपने साथ अपने साथ दो बालक भी लाते। कारण बहुत लाजवाब था। शुक्रवार को छात्रों को स्पेशल टिफ़िन दिया जाता। कभी पूआ, कभी जलेबी, कभी बर्फी और कभी बुँदिया-सेव।

संस्कृत के अध्यापक  किसी गद्य-पद्य का हिन्दी अनुवाद लिखने को दे देते। स्वयम वे कुर्सी पर दोनों पाँव समेटे तुरंत खर्राटा लेने लगते। हमलोगों के कोलाहल से उनकी नींद भंग हो जाती। इसके बाद हमलोगों की ताजपोशी शुरू होती। किसी को बुलाकर थप्पड़ मारते, किसी का कान उमेठते तो किसी की पीठ पर हथोड़ा मरते। सबसे ज्यादा शामत अखिलेश की आती। उसे तो बिना किसी शिकायत के मारते। कभी-कभी तो क्लास मे आने के बाद पहला काम अखिलेश की ठुकाई हो गया। एक दिन क्लास शुरू होते ही अखिलेश भोंकार मार के रोने लग गया। मिश्रा सर भी भौचक देखने लगे। उन्होने अखिलेश को पास बुलाया। उसका सर सीने से लगाकर बहुत पुचकारा-दुलराया। कुछ कहा भी। अगले दिन से नींद में खलल पड़ने पर अखिलेश को छोड़ कर वे किसी को भी ठोकते रहते। बहुत मनौना करने पर एक दिन अखिलेश ने राज खोला । उसके घर के गेट के अंदर पेड़ पर शहद से लबालब भरा बहुत बड़ा मधुमक्खी का छत्ता था।

शायद सबसे लोकप्रिय शिक्षक अयोध्या सर ही थे. वे गेम टीचर थे. खेल के मैदान के उत्तर-पूर्व कोने में उनका क्वाटर था. उसी घर के प्रांगण में वार्षिक सरस्वती पूजा हुआ करती थी. उस दिन भोज भी हुआ करता था. भोज मात्र स्कूल के शिक्षकों, छात्रों और स्टाफ तक ही सीमित नहीं था, कोई भी सम्मलित हो सकता था. एक शाम अयोध्या सर ने हमलोगों को कदम कुआँ के कांग्रेस मैदान में फुटबाल खेलते देख लिया. फूटबाल के लिए हमलोग रबर के बड़े बाल का प्रयोग कर रहे थे. दूसरे दिन मुझसे मेरा नाम रजिस्टर में दर्ज कर एक नया फुटबाल खेलने के लिए दिया. अयोध्या सर सभी बड़े खेलों में रेफरी बनते थे. सभी स्कूल उनके निर्णय का आदर करते थे.

इंटरनेट पर बहुत सर्फिंग के बाद यह कड़वा सच सामने आ ही गया। अंग्रेजों ने बाकरगंज, पटना में अंग्रेज़ सैनिकों के लिए एक पागलखाना बनाया था। उस परिसर में बाद में  1857 के आसपास पटना कालेजियट स्कूल लाया गया।
नोट :- वस्तुतः पटना कॉलेजिएट परिसर उन अंग्रेज सैनिकों के लिए था जो युद्ध की विभीषिका को नहीं झेल पाते थे और अवसाद से ग्रसित हो जाते थे. ज्यादा जानकारी के लिए  पागलखाना(Patna : A Paradise Lost)  क्लिक करें.


Sunday, March 29, 2020

कन्हैया नाई

आजकल शहर के किसी भी साधारण सैलून में बाल कटाई के 40 रुपये से लेकर 60 रुपए तक लगते हैं। मेरे पिताजी बताते थे की उनके बाल्यावस्था में एक भी पैसे नहीं लगते थे। तब नाई को समय-समय पर कच्चा दिया जाता था – मतलब खेत की पैदावार से। गाँव या शहर का नाई एक घरेलू सदस्य की तरह होता था। पूजा-पाठ, शादी-ब्याह और श्राद्ध में उसकी अहम भूमिका होती थी। आज भी है। शायद सनातन काल से नाई, ब्राह्मण को मिलने वाले धन का एक तयशुदा प्रतिशत लेता है। कितना कच्चा या कितना प्रतिशत इस झमेले में बिना पड़े मैं अपने संसमरण पर आगे बढ़ता हूँ।

बाल्यावस्था में , घर के बड़े-बूढ़े घर के बच्चों पर एक भरपूर नजर डालते थे और नाई को खबर कर दी जाती थी। आम के पेड़ की छाव में बैठने के लिए एक पत्थर रखा जाता था। बारी-बारी से सभी बच्चे की बाल कटाई होती थी।

मुझे अपनी बाल कटाई की याद पटना शहर (1953) जुड़ी  है। घर के ओसारे पर पैर लटका के बैठा दिया जाता था। एक चादर से शरीर ढँक दिया जाता था। सिर एकदम नीचे- इतना नीचे की एक मिनट में दर्द करने लगे। तब सिर पर नाई की चपत पड़ती थी। पहले एक हाथ वाली मशीन से पीछे और बगल के बाल साफ किए जाते थे। मशीन बिना हटाये अगर बालों से अलग की जाती तो चीख निकाल जाती। उसके बाद सिर को पानी से तर किया जाता था। ठंड के मौसम में पूरा शरीर काँपता था। उसपर एक हुड़की और पड़ती थी। अंत में उस्तुरे से फिनिशिंग टच दिया जाता। अगर दादी-दादा में कोई आस-पास रहा तो उस्तुरा न चलाने की हिदायत दी जाती। जो स्टाइल सामने आता उसे आजकल कटोरा-कट या रंगरूट कट कहा जाता है।

पटना में घर के पास ही चौरस्ता था। आते-जाते सैलून में बाल कटाते लोग दिख जाते - शान से कुर्सी पर बैठे, बड़े से शीशे के सामने। स्कूल में सहपाठी कटोरा-कट स्टाइल देख कर मज़ाक बनाते। तो एक बार, इकन्नी जमा होने पर मैं भी सैलून गया। छोटा होने के कारण कुर्सी के हत्थे पर तख़्ता रख मुझे सेट किया गया। बाल तो राज कपूर स्टाइल में कट गया पर घर आते ही पिटाए हो गई – जनाब जुल्फी बनाकर आए हैं। तुरंत नाई को बुलावा भेजा गया।

जीवन में 20-25 नाइयों से पाला पड़ा होगा। मालूम नहीं ज़्यादातर नाइयों का नाम कन्हैया क्यों होता है। मेरे होश के पहले नाई का नाम भी कन्हैया था। कोई 20-22 वर्ष का रहा होगा। हल्की मुंछे थी। शादी हो गई थी पर गौना नहीं हुआ था। गौना का मतलब उसीने समझाया था। किस्से बहुत सुनाता था। हजामत बनवाने की तकलीफ आधी तो उसकी कहानियों में छिप जाती थी। कहानी बहुत संस्कारों वाली नहीं होती थी। एक कहानी वह 2-3 बार सुना चुका था। वही जंगले के पेड़ के सामने अपनी व्यथा कहना – उस पेड़ की लकड़ी से बांसुरी बनना और बांसुरी का राजा के सामने बजना। एक बार उसने देखते-देखते पीपल के पत्ते से पिपहरी बनाकर दी। मजा आ गया।

कन्हैया जिस घर में रहता था वह हमलोगों के पिछवाड़े पानी टंकी के बगल का दोमंज़िला मकान था। बहुत सारे किस्से उस घर के भी होते थे। जैसे उस घर में रेडियो आ गया था – घर में फ्रीड्ज था – आम,अमरूद के पेड़ थे वगैरह। हाँ, उस घर में एक भूत भी रहता था। भूत के वह बहुत सारे किस्से सुनाता था। इसलिए हमलोगों में किसी को भी उसके घर जाने की हिम्मत नहीं पड़ती थी। आश्चर्य अवश्य होता था की एक गरीब नाई जो हमेशा वही पुरानी धोती-कमीज़ में आता है, उसका इतना बड़ा घर कैसे होगा।

2-3 वर्षों बाद हमलोगों की उम्र पतंग उड़ाने वाली हो गई। पर हैसीयत दो पैसे से ज्यादा की नहीं थी। एक या दो पतंगों से पूरा मौसम निकालना होता। कभी पसंगा, कभी चिप्पी, कभी लंबी दुम तो कभी कटी पतंग के पीछे भागम-भाग। एक बार पतंग तागे के साथ हाथ से छूट गई। यह तो बहुत बड़ा नुकसान था। हमलोगों की छत से फिसल कर वह कन्हैया नाई वाले छत पर अटक गई। हमलोगों को काटो तो खून नहीं वाला हिसाब हो गया। कैसे जाएँ उस घर में तो भूत रहता है।

हम दो भाई दौड़ कर सामने वाले मुसलमान के घर गए। जैनू और आबिद ने कह रखा था की उन्हे भूत-प्रेत से डर नहीं लगता है। उनके पास एक मंत्र है। उसे पढ़ते-पढ़ते वे किसी भी भूतहे जगह जा सकते हैं। हमलोगों ने आबिद और जैनू से मिन्नते की। उन्हे घर में लगे आम के पेड़ से टिकोरे खिलाने का वादा किया। आनन-फानन हमलोग उस घर के नजदीक पहुंचे । रास्ते भर में आबिद ने वह मंत्र हमलोगो को भी रटा दिया- जलतू जलालतू आई बाला को टाल तू ।

गनीमत थी की ऊपर जाने के सीढ़ी बाहर ही से थी - एक तल्ला बाहर से उसके बाद दरवाजे के अंदर से। दरवाजा खुला था। ढलती दोपह का समय था। शायद घर के सभी लोग सोये हुए थे। कन्हैया भी सो रहा होगा। चुपके से हमलोग ऊपर छत पर चले गए। पतंग छुड़ाई। धागा बटोरा। नीचे खिसक लिए। पूरे समय वही मंत्र जुबान पर था। ये सभी उर्दू शब्द- जुबान, गनीमत, मिन्नत, आबिद से ही सुनकर सीखा था।

नीचे उतरने के बाद जान में जान आयी। मस्ती सूझना स्वाभाविक था। अब अगल-बगल सब कुछ दिखने लगा था। सबसे अजीब बात ये दिखी की जमीनी सीढ़ी की उड़ान(फ्लाइट) के नीचे की तिकोनी जगह जिसमें मुश्किल से एक रिक्शा रखा जा सकता है, एक टाट के पर्दे से ढका था। हम सबों को कौतूहल हुआ की ऐसा क्यों है, उसके अंदर क्या है। हमलोगों ने टाट के फाड़ से झांक कर देखा। गुजरती दोपहरी में बेंच पर एक आदमी सोया खर्राटे ले रहा था। बेशक वह भूत नहीं था। बेंच के नीचे एक बक्सा था। बेंच के पैरों के पास कुछ बर्तन रखे थे। दीवार पर एक रैक भी था। उसपर कुछ डब्बे रखे थे। मतलब ये की पूरी गृहस्थी थी। सोया हुआ नौजवान कन्हैया था।



Thursday, March 19, 2020

दुर्गा

1973 के आसपास दुर्गा मृतप्राय अवस्था में पिताजी को मिला था। जनवरी की कड़ाके की ठंड में , बेली रोड, पटना के अपने निवास स्थान को सुबह की सैर के बाद लौटते हुए उन्हें अचानक सड़क के किनारे कोंक्रीट की ढेर पर एक 12 वर्ष का बेहद खूबसूरत बालक बेहोश पड़ा दिखा। दो रिक्शेवालों की मदद से उस बालक को घर लाया गया। कुछ देर बाद उसे होश तो आ गया पर उसका शरीर बुखार से तवे की तरह गरम था। उसे फ़ोरन पास के हॉस्पिटल ले जाया गया। उसे निमोनिया हो गया था। एक हफ्ते बाद वह स्वस्थ होकर हमारे घर लौटा।

दुर्गा कुलीन ब्राह्मण परिवार का नेपाली था। वह नेपाल से अपने पिता के साथ 1971 में पटना आया था। उसके पिता अपने भाइयों से लड़कर, पटना आ गए थे। यहाँ उन्हें रात को दरबानी करने का काम आसानी से मिल गया था। उनकी मौत डाकुओं से सामना करते हुई। बम विस्फोट की भयंकर आवाज़ से दुर्गा एक कान से बहरा हो गया था। उसके दाहिने पैर मे भी काफी चोट आई थी। अनाथ दुर्गा को कोई भी सहारा देने को तैयार नहीं हुआ। यहाँ तक की किसी ने उसे नेपाल लौट जाने में भी सहायता नहीं की। उसे एक ढाबे में काम मिला। वहाँ भी उसके साथ लोग बदतमीजी करने से बाज नहीं आते। दो दिनों का, भूखा-प्यासा , भटकते हुए आखिर सड़क के किनारे पड़े कोंक्रीट की ढेर पर निढाल गिर पड़ा। मालूम नहीं उसे नींद आ गयी या उससे पहले बेहोशी।

दुर्गा हमलोगों के घर में रहने लगा। माँ को रसोई में हाथ बटाता। शाम को मेरे हमउम्र भाई-बहनों के साथ खेलता। शाम को सभी के साथ पिताजी उसे भी पढ़ने को बैठाते। वह दिन उसके अतीव आनंद का था जब उसने अपनी बहन के लिए पोस्टकार्ड लिखा। दौड़-दौड़ कर सभी को पत्र दिखाता। पते में उसने बहन का नाम, गाँव का नाम, तटकाठमांडू से 10 कोस दक्षिण और नेपाल लिखा था। अगले दिन वह सुबह-सबेरे चौमुहानी के पोस्टबैग में पत्र न डाल, पोस्ट ऑफिस जाकर पोस्ट किया। दूसरे दिन से ही वह पत्र का बाँट जोहने लग गया था। हमलोगों के साथ पोस्टमैन भी परेशान हो गया था। कोई दो महीने बाद पत्र का जवाब आ ही गया । खुशी के मारे उसकी रुलाई रुकती ही नहीं थी। सबसे बड़ी बात की वह अपने परिवार से संपर्क साधने मे कामयाब हो गया था। 

मै तब रांची में कार्यरत था। होली की छुट्टी में मैं जब पटना गया तब वह मेरी बहुत खुशामद करने लगा। कारण उसकी सबसे बड़ी बहन और बहनोई रांची एग्रिकल्चर कॉलेज में रहते थे। दुर्गा का बहनोई वहाँ माली का काम करता था। मै और मेरा छोटा भाई मिलकर खाना बनाते थे। तकलीफ तो होती ही थी क्योंकि मेरी शिफ्ट ड्यूटि थी और छोटा भाई जो उस समय कॉलेज में पढ़ता था उसे कूकिंग की कोई जानकारी नहीं थी। उस बार तो नहीं पर 3 महीने बाद जब मै पुनः पटना गया तो माँ ने मुझसे शिफारिश की। दुर्गा आखिर कामयाब हो गया।

अब हमलोगों को नाश्ता, टिफ़िन और दोनों टाइम खाना मिलने लगा। रविवार को जब वह अपनी बहन-नहनोई से मिलने जाता तभी मांसाहारी भोजन बनाता। दुर्गा शाकाहारी था । सबसे बड़ी बात की वह बिना स्नान किए चौके में नहीं जाता था। एक बार मैं देर से सोकर उठा। सुबह 6 बजे की शिफ्ट थी। मात्र 10 मिनट ही थे कंपनी की बस के आने में। दुर्गा भौचक जागा। सीधे बाथरूम जाकर अपने ऊपर एक बाल्टी पानी डाला। मेरी टिफ़िन तैयार कर मेरे पीछे दौड़ टिफ़िन मेरे हाथ मे थमा दी।

रात को वह मेरे और भाई के बिस्तर के बीच फर्श पर नीचे सोता। उसे कहानी सुनाने का बहुत शौक था। उसकी कहानी ज़्यादातर धारावाहिक होती थी। कभी वह कहानी सुनाते-सुनाते सो जाता था, कभी हमलोग कहानी सुनते-सुनते सो जाते थे।

उसे नए कपड़े पहनने का बहुत शौक था। जब भी हम भाइयों में से कोई भी कपड़ा सिलवाता तो उसके लिए भी एक जोड़ी बनवाना अनिवार्य था। पहली बार तो हमलोगों से नासमझी हो गई तो वह कई दिनों तक मुंह फुलाए रहा। एक बार वह मेरे साथ मेरे ऑफिस की पिकनिक में गया। मेरे सहयोगी उसे मेरा कज़न समझ बैठे। समझते भी क्यों नहीं ? देखने में एकदम मास्टर रतन, नए कपड़े और जूते और बोली भी शुद्ध हिन्दी थोड़ी नेपाली तरावट लिए। हमलोगो के मध्य वह टीनेज बालक एक गुड्डा या खिलौने की तरह बन गया था। कोई उसे टोफ़्फ़ी दे रहा है तो कोई मिठाई तो कोई उसके साथ फोटो खिचवा रहा है। उसकी पहचान तब हुई जब गीत गाने का नंबर आने पर उसने एक नेपाली गाने का मुखड़ा गया।


मेरी शादी की तैयारी में मैं ज्यादा परेशान नहीं था बल्कि दुर्गा को मेरे लिबास के अलावा अपने पहनावे की ज्यादा चिंता थी। जनवासे में उसे हमलोगों के साथ ठहराया गया। एक ही बड़े टेबल पर हमलोग खाना- नाश्ता करते थे। लिहाज दुर्गा ही करता था। किनारे बैठकर या कमरे के कोने में बिस्तर लगाकर। जब मंडप में विदाई भोजन होने लगा तो उसने स्वयम ही हमलोगों के साथ बैठने से इंकार कर दिया।

शादी के बाद दुर्गा और मेरी पत्नी में कुछ दिन बाद किचन के वर्चस्व को लेकर ठन गई। एक वर्ष बाद दुर्गा पटना पिताजी के पास लौट गया। 1978 में पिताजी रिटायरमेंट के बाद रांची, अशोक नगर वाले घर में लौट आए। दुर्गा भी साथ आया। पर अब वह मेरे कंपनी वाले निवास में मेहमान बनकर आता। कुछ दिनों बाद उसकी रांची एग्रिकल्चर यूनिवरसिटी में माली की दिहाड़ी नौकरी लग गयी। यूनिवरसिटी शहर से काफी दूर था। कुछ वर्षों बाद उसका आना-जाना बिलकुल बंद हो गया। 1986 में मैं किसी से मिलने उधर गया तब उसकी खोजबीन ली। पता लगा की उसकी दिहारी नौकरी छूट गई थी। वह नेपाल लौट गया था। नेपाल में ही उसे माली की नौकरी मिल गई थी।

अचानक 2014 में वह पुनः प्रगट हुआ। उम्र से ज्यादा बूढ़ा। वह अपने बहनोई के पास इलाज कराने आया था। उसे दिल की बीमारी थी। उसने बताया की उसकी पत्नी सिलाई-कढ़ाई कर घर चलती है। बीमारी के चलते वह कोई मेहनत-मशक्कत का काम नहीं कर पाता है। उसकी 3 बेटियाँ हैं। दो की शादी हो चुकी है और वे दोनों पढ़-लिख कर नौकरी भी करती हैं। तीसरी बी0ए0 पास कर बी0एड0 कर रही है। दुर्गा को परेशानी यह थी की वह बार-बार डॉक्टर को दिखाने नेपाल से रांची नहीं आ सकता है। उसे मेरे भाई ने नाइट-गार्ड की नौकरी लगा दी। कुछ दिनों बाद अस्वस्थ होने के कारण मेरी बहन के आउटहाउस में रहने लगा। वहाँ रहकर वह घर के काम में हाथ बटाता और बगीचे की देख-भाल करता।वह बहुत बीमार रहने लगा था। उसकी देखभाल मेरी बहन किया करती थी। मैं जब अपनी बहन से मिलने गया तो उसने मुझे एक दुर्लभ पौधा दिया। अब वह डॉक्टर की सलाह पर मछ्ली खाने लगा था पर उसे रोहू के अलावा कोई दूसरी मछ्ली नहीं अच्छी लगती थी। मनपसंद भोजन नहीं मिलने पर वह अब भी रूठ जाया करता था।

एक वर्ष से उसकी तबीयत ज्यादा खराब रहने लगी थी। उसकी आखिरी इच्छा थी नेपाल जाने की। 2 महीने हुए वह नेपाल चला गया।

Saturday, January 18, 2020

भट्टाचार्य सर


1959 की जनवरी में जब पटना कालेजियट स्कूल क्रिसमस अवकाश के बाद खुला तो बहुत सारी बातें एक साथ हुई। स्कूल हायर सेकेंडरी हो गया था और हमलोगों का नवी कक्षा का सत्र 6 महीने में ही पूरा हो गया था। कुछ नए शिक्षक भी तबादला होकर आए थे। जनवरी के पहले सप्ताह में राजकुमारी अमृत्त कौर का आगमन हुआ। वह स्वतंत्रता सेनानी के साथ-साथ केन्द्रीय मंत्री भी थी। हमारे स्कूल में छात्रों की संगीत सेना ने गीत गाए थे। स्वागत गीत “ वंदे मातरम” नेत्रहाट से आए साइन्स टीचर भट्टाचार्य सर ने बिलकुल हेमंत कुमार की आवाज़ में गाकर सबको मंत्रमुग्ध कर दिया था।
भट्टाचार्य सर से मुझे पढ़ने का सौभाग्य मात्र 10 महीने मिला- जनवरी से अक्टूबर,59 तक। वे 10वी कक्षा में केमिस्ट्री पढ़ते थे । मैंने उन्हें ज़्यादातर बंगाली धोती-कमीज में ही देखा । बहुत धीमे बोलते थे। क्लास की अंतिम सीट तक शायद ही आवाज पहुंचती हो इसलिए बैक बेंचेर्स को उनसे कोई परेशानी नही थी। वे गलती होने पर न मारते थे और न डाँटते थे मात्र एक बार देखकर नजर फेर लेते थे। केमिस्ट्री लेबोरेटरी में भी वे दरवाजे के बाहर कुर्सी लगाकर बैठते थे। बहुत आवश्यकता होने पर ही लैब हॉल के अंदर आते थे। कारण था उन्हें दमे की शिकायत थी । अभी तक मुझे कद-काठी, और चेहरा और सबसे ज्यादा आवाज का गहरापन सामने दीखता है- बिलकुल सलिल चौधरी । वे मेरे और स्कूल के हीरो कैसे बने यह भी कभी नही भूलता है।
स्कूल में हर वर्ष बरसात खत्म होने के बाद फुटबॉल प्रतियोगिता होती थी। शुरुआत, शिक्षक- छात्रो के मध्य प्रदर्शनी मैच से होती थी । उसके बाद इंटर- क्लास और तब इंटर-स्कूल । शिक्षक-छात्र मैच में शिक्षकों को उनकी उम्र के कारण हर तरह की छूट थी। वे कभी भी मैदान में आ-जा सकते थे । 11 से ज्यादा भी रह सकते थे । किसी को भी बूट नही पहनना होता था सिर्फ नंगे पैर जिससे किसी को चोट नहीं आये । शिक्षक धोती,पैंट, निकर कुछ भी पहन सकते थे।
मैच शुरू हुआ । भट्टाचार्य सर 15 मिनट के लिए रेफरी बने और थक कर किनारे बैठ गए । एक बात तो बताना भूल ही गया । हमारे स्कूल ने शहर के दिग्गज खिलाड़ियों को मुफ़्त शिक्षा और हॉस्टल देकर एडमिशन दिया था जैसे सेक्रेटेरिएट क्लब का पहाड़ी,  कॉलेल्क्रियट का बिजली और मल्लू, जगजीवन, अयोध्या इत्यादि। ऐसा दूसरे स्कूल भी करते थे। पूर्वार्ध में छात्र शिक्षकों का मान देने के लिए ढीले खेल रहे थे। मध्यांतर के बाद छात्रों ने 10 मिनट के अंतर में 2 गोल दाग दिए। शिक्षकों का खेल ख़राब नहीं था पर प्रोफेशनल्स के सामने लाचार थे । जब खेल का अंत आने लगा तो शिक्षक पिटे खिलाडी की तरह थक-हार गए । दर्शक दीर्घा में ठीक सेंटर के सामने कुर्सियों पर शिक्षक बैठे थे। मैं भट्टाचार्य सर के पैर के पास बैठा था। रह-रह कर वे कुछ बुदबुदाते थे और उनके पैरों में हरकत आ जाती थी।
अचानक मैदान में धोती कसते और उतरते लोगों ने भट्टाचार्य सर को देखा। उन्होंने इशारा कर लेफ्ट आउट में अपनी जगह बना ली । जैसे ही उन्हें बॉल मिला, सबको छकाते पेनालिटी बॉक्स में घुसकर गोल दाग दिया। दूसरा गोल तो अविस्मरणीय था। सेण्टर पोजीशन से बाल मिलते ही वह सबको छकाते कार्नर एरिया में आ गए। उनका लेफ्ट फुटर projectile गोल के अंदर घूमते हुए घुस गया । सब अवाक थे । आज का दिन होता तो लोग चिल्ला पड़ते एकदम बेकहम की तरह घुमाया । तुरत खेल ख़त्म होने की सीटी बजी। सभी और से तालियों की गड़गड़ाहट के बीच पता ही नहीं लगा की सर मैदान में बुरी तरह हाँफते हुए पड़े हैं । उनके ठीक होने पर छात्र खिलाड़ियों ने उन्हें कंधे पर उठाकर पूरे मैदान का चक्कर लगाया । टीम के कप्तान तो गेम टीचर थे पर विजेता शील्ड भट्टाचार्य सर को देकर सम्मानित किया गया। तभी प्राचार्य ने सर की प्रशंसा करते बताया की वे छात्र जीवन में कलकत्ता की मशहूर टीम मोहन बागान के उभरते खिलाडी थे पर दमे के कारण उन्हें खेल छोड़ना पड़ा।
उसी वर्ष पिताजी का तबादला होने पर मैं झुमरी तिलैया आ गया । डेढ़ वर्षों बाद मेट्रिक केमिस्ट्री प्रैक्टिकल की परीक्षा में मुझे रोमांचकारी झटका तब लगा जब भट्टाचार्य सर को एक्सटर्नल के रूप में कुर्सी पर बैठे देखा । जाहिर है वे मुझ जैसे साधारण लड़के को क्यूँ पहचानते ।
मुझे HCL गैस बनाकर उससे सोडियम क्लोराइड(नमक) बनाने का प्रैक्टिकल मिला था । कठिन था इसलिए किधर भी देखने की फुरसत नहीं थी। अंतिम क्षणों में viva के लिए वे कब मेरे बगल में आकर खड़े हो गए पता ही नही चला। उन्होंने सिर्फ दो प्रश्न पूछे । दोनों का मैंने सही उत्तर दिया। दूसरा प्रश्न थाक्या तुम पटना कॉलेजिएट में थे ?