१९७०
का दशक भारतीय क्रिकेट के लिए आन्दोनाल्त्मक था. जैसिम्हा का एक संस्मरण याद आ रहा
है. जैसिम्हा शायद बैंक में किसी छोटी नौकरी पर थे. उन्हं बॉम्बे में टेस्ट मैच
खेलने के लिए ७ दिन की छुट्टी की मंजूरी मिली थी. वे सिकंदराबाद से बॉम्बे शाम को
पहुंचे. ठहरने की कोई जगह न होने के कारण स्टेशन के निकट आज़ाद मैदान की बेंच पर सो
गए. सुबह ६ बजे उन्हें एक संतरी ने उठाया. ब्रेबर्न स्टेडियम के रेस्ट रूम में नित्य
क्रिया कर वे टीम की नेट प्रैक्टिस में शामिल हुए. उन्हें मालूम हुआ की ऐसा ही
हश्र बाहर से आये हुए कुछ और खिलाड़ियों का भी हुआ था. उस समय किसी किसी के पास ही
क्रिकेट का पूरा किट हुआ करता था. ज्यादातर सांझें में काम चलाया जाता था. १९७१ में वेस्ट इंडीज को उन्हीं के मैदान में हराने के बाद भारत ने फिर पीछे मुड़ कर नहीं देखा. ५०
वर्ष बाद भारत विश्व क्रिकेट का मुखिया बन गया है और राष्ट्रीय लेवल के खिलाड़ी सबसे समृद्ध हैं.
भौतिकी
में पोस्ट ग्रेजुएशन करने के बाद तत्काल मेरी नौकरी १९६९ में विश्व प्रसिद्द हैवी
इंजीनियरिंग कारपोरेशन में लग गयी. २२०००
की मानवीय क्षमता वाले इस कारखाने का खेल जगत में भी नाम था. फुटबॉल में यह मोहन
बगान से टक्कर लेता था , हॉकी में कई राष्ट्रीय किताब जीत रखे थे और क्रिकेट में
अपने जिले के शिखर पर था. पहले से जमे हुए खिलाडिओं में पैठ लगाने में दिक्कत थी.
एक बार कप्तान की अनुपस्थिति में मुझे फील्ड तय करने को मिला. ऑफ-स्पिन बोलिंग में
मेरी फील्ड प्लेसमेंट में सुभाष सरकार ने तुरत तीन विकेट झटक लिए. दरअसल, मेरे पास
मशहूर ऑफ स्पिनर अलेक बेड्सर की लोकप्रिय किताब थी. इस किताब में बहुत सारे फील्ड
प्लेसमेंट का बहुत अच्छा ब्यौरा था. कप्तान से पंगा मुझे महँगा पडा.
मेरे
जैसे बहुत से फेंस सिटेर्स थे. उनमे प्रमुख नुपुर सरकार, सक्सेना, प्रदीप गुहा
ठाकुरता, अनिल सारस्वत, और बाद में सुभाष सरकार प्रमुख थे. हमलोगों ने मिलकर एक
क्लब बनाया. उसमें कॉलोनी में रहने वाले प्रतिभावान छात्रों को भी जगह दी. क्रिकेट
की एक बहुत सुन्दर टीम का जन्म हुआ. मुझे सर्वसम्मति से कप्तान चुना गया.
हूमलोगों
का पहला फॉर्मल मैच १९७१ में कारपोरेशन की टीम से हुआ. मैच मैट पर हुआ. क्रिकेट
किट की खस्ताहाल हालत और स्टेडियम की विशालता के कारण हमलोगों में एक हीनता की महक
तो थी ही साथ में कारपोरेशन टीम की व्यवयसायिक दक्षता के आगे हमलोगों ने तुरत
घुटने टेक दिए.
इसके
बाद हमलोगों ने एक बेहतर क्रिकेट किट तैयार की. यूनियन क्लब, रांची से सेकंड हैण्ड
मैट खरीदी. जब भी समय मिलता हमलोग प्रैक्टिस करते. कम समय रहता तो मात्र फील्डिंग
प्रैक्टिस करते. रविवार और छुट्टी के दिनों में दिन भर मशक्कत होती.
हमलोगों
ने शहर के सबी नामी-गिरामी क्लब से मैच खेला. मैच एक-एक पाली का होता.ज्यादातर
हमलोग जीतते. किसी-किसी मैच में मेरा आउटस्विंगर घातक साबित होता तो किसी में सरकार
का ऑफ स्पिन. अनिल, ठाकुरता और सक्सेना हमेशा अच्छी बल्लेबाजी करते. हमारे क्लब के छात्र
लड़के मैच के पहले प्रतिद्वंदी टीम की पूरी जानकारी लेकर आते- जैसे किस खिलाड़ी की
क्या खूबी है और क्या कमी. कौन सा खिलाडी कूल है और कौन सा तुनक मिजाज़.
प्रतिद्वंदी टीम की पिच पर खेलना ठीक रहेगा या नहीं; और भी ऐसी कई बातें जिसे आजकल
कंप्यूटर बखूबी एनालिसिस करता है.
हमलोगों
का क्रिकेट मैदान कॉलोनी के अन्दर बहुमंजिला अपार्टमेंट से घिरा था. इसलिए दर्शक
दीर्घा खाली नहीं रहती थी. उनमें से कभी किसी-किसी को जोश आ जाया करता था. एक झा जी
थे. हमेशा खैनी ठोकते रहते थे . जब भी कोई छका मरता उनकी गोल-गोल की अवाज़ सुनायी
देती. एक बार उन्होंने ने भी खेलने की इच्छा जाहिर की. फील्डिंग में हमलोगों ने
उन्हें लॉन्ग ऑफ पोजीशन पर रख दिया. स्काई
हाई कैच उनसे इसलिए छूट गया क्योंकि वे खैनी ठोक रहे थे. एक बार ढलती शाम
को एक छः फूट का ४०-४५ की उम्र वाला व्यक्ति आया. उसने बड़े अधिकार से बल्ला पकड़
लिया. मैंने बड़े बेमन से एक गुड लेंग्थ फेंका. उसने बाउंड्री जड़ दी. मेरी हर भरपूर
कोशिश को वह बात की बात में मैदान के बाहर भेजता रहा. उसके बाद उसने सभी गेंदबाजों
को बेहाल कर दिया. हमलोगों को उसके ताप से गहराते अँधेरे ने बचाया. वह आंध्र
प्रदेश का था. उसीने हमलोगों को “मीट ऑफ़ द बैट” कि तकनीक समझायी. आज भी उसकी जब भी याद आती है तो
साथ में जैसिम्हा का चेहरा आ जाता है.
१९७४
में हमलोगों ने दुबारा कारपोरेशन की टीम के साथ मैच खेला. कारपोरेशन की टीम अब और ज्यादा
सशक्त हो गयी थी. टॉस जीतकर उन्हें
बल्लेबाजी दी. इसका एक भयंकर कारण था. फुल मैट वर्षा के कारण बुरी तरह भींग गया
था.हाफ मैट पर खेल हो रहा था. बीच पिच पर मैट को जमीन से बांधने वाली एक कील गीली
जमीन होने के कारण ढीली थी. यही मैच का होनोलुलु होने वाला था. मैंने अपने तेज़
गेंदबाजों को ठीक वहीँ बाल डालने को कहा. बाल जब भी उस पाकेट पर गिरता वह पिच करने
के बाद फिसलता हुए या तो विकेट पर जा लगता या पैड पर. देखते-देखते हमलोगों ने ५
विकेट झटक लिए. उसके बाद हमींलोगों ने संकेत किया की कील ढीली हो गयी है. उस जगह
लकड़ी का टुकड़ा ठोककर दुबारे कील गाडी गयी. तबतक बहुत देर हो चुकी थी. कारपोरेशन की
पूरी टीम १०७ रन पर धराशायी हो गयी. हमलोगों ने वह मैच ७ विकेट से जीता. अनिल ६१
रन बनाकर अविजित रहा. इस शर्मनाक हार का बदला लेने के लिए कारपोरेशन की टीम ने
कितनी बार हमलोगों को न्योता भेजा.
विवाह
के बाद १९७६ में मेरा वजन बढ़ गया था. एक बार एक मैच में, अपने प्रिय स्थान कवर पर
फील्डिंग के दौरान न झुक पाने के कारण एक बाल छूट गया और बाउंड्री हो गयी. उस दिन
मैंने क्रिकेट खेलने पर विराम लगा दिया.
रिटायरमेंट
के वक्त मेरा बेटा एक अच्छा क्रिकेटर बन गया था. वह अपने स्कूल से खेलता था. वह
महेंद्र सिंह धोनी से 2 वर्ष छोटा था. जाहिर है किसी वक्त दोनों एक ही मैदान में
रहे होंगे. बाद में वह सैंटजेविएर्स कॉलेज से भी खेलने लगा था. घर के सामने वाले मैदान पर उसकी
प्रैक्टिस में मैं भी शामिल होता रहता था. प्रैक्टिस के लिए कभी-कभी मेरे बंगले के गेट से
लेकर गैरेज तक ३० गज की लम्बाई और १० गज की चौडाई खेल की पट्टी होती. उम्र हो जाने
के कारण मुझसे लेग स्पिन बोलिंग ही हो पाती थी.
३
वर्ष पहले तक मुझे जब भी मौका मिला मैंने आजमायीश नहीं छोड़ी. मेरा अंतिम “खेला”, मेरे दिवंगत छोटे भाई अलोक
के फार्म पर हुआ. अलोक की स्क्वायर लेग की तरफ का ड्राइव और फ्लिक देखने लायक था. मैं बस स्ट्रेट ड्राइव ही लगा पाया. आजकल, सामने के पार्क में
किशोर टेनिस बाल से गली-क्रिकेट का आनंद उठाते हैं. मैं पार्क के लॉन्ग-आन पोजीशन
वाली बेंच पर बैठता हूँ सिंगल हैण्ड कैच के इन्तजार मे.