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Tuesday, July 30, 2024

पटना कालेजियट स्कूल


पटना कालेजियट स्कूल 2010
1950 के दशक में पटना में दो सरकारी हाई स्कूल हुआ करते थे, पहला पटना हाई स्कूल जो पटना के दक्षिण-पश्चिम कोने पर था और दूसरा पटना कालेजियट स्कूल जो पटना के मध्य में दरियागंज इलाके में स्थित था, मेरे घर से उत्तर-पूर्व में करीब 1 मील दूर. हमलोग तिरछा शोर्ट-कट रास्ता ही लेते थे स्कूल पहुँचने का. लौटते समय का रास्ता मन के मिजाज़, सह्पाठिओं की रुझान अथवा शरीर की थकान या भूख पर निर्भर करता था.
1956 की जुलाई में मेरा दाखिला सातवी कक्षा में हुआ. स्कूल भवन अंग्रेजी के H अक्षर जैसा. मेरी क्लास भवन के बाएं हिस्से पर दुमंजिले पर था. जाते ही सख्त हिदायत दे दी गयी थी कि ठीक नीचे हेडमास्टर का कमरा था इसलिए हल्ला एकदम नहीं करना है. हमलोगों के क्लास टीचर बहुत ही मृदुल स्वभाव के थे. सभी को हाजरी बही में दिए गए क्रमांक के अनुसार बिठा दिया गया. बकायदा तीन लोगों के बैठने लायक बेंच पर अलग-अलग डेस्क जिसमे सामान रखने का कपबर्ड भी था जिसमे ताला लगाया जा सकता था. मुझे बायीं तरफ तीसरी बेंच में बीच में बैठने की जगह मिली. मेरी बायीं तरफ एक महाराष्ट्रियन अनिल राजिमवाले और दाहिनी तरफ सतीश चन्द्र मिश्र बैठते थे. क्लास के अंतराल में अनिल राजिमवाले को मैं हिंदी पढाता था जबकि वह मुझे मराठी सिखाता था. अनिल की आवाज़ बहुत ही मीठी थी और देखने में कुछ-कुछ मेरे जैसे पर नाक-नक्शा कहीं बेहतर. उसे अपनी मातृभाषा पर बड़ा गर्व था. उतनी छोटी उम्र में वह कम्युनिस्म के बारे में बहुत कुछ जानता था. सतीश मैथिल ब्राह्मण था और पढ़ने में बहुत तेज था. मेरे पडोसी और खेल के मैदान के साथी अनिल, बसंत, चंद्रेश्वर, निर्मल, अशोक कुमार प्रसाद, अशोक कुमार सिंह,अमर, सुनील भी मेरे क्लास में थे पर उनको बैठने की जगह अलग-अलग मिली हुई थी.
इंग्लिश के टीचर आद्या सर हुआ करते थे. कहा जाता था की स्कूल में आने से पहले वह आर्मी में थे. उनसे सभी लड़के बहुत डरते थे. मेरे बड़े भाई ने मुझे पहले से सचेत कर रखा था. उनका तकिया कलाम पूरे स्कूल में प्रसिद्ध था,” चट गिरेगा- पट मरेगा”.
एक मिश्रा जी थे बहुत बूढ़े , धोती, लंबा खादी का कुरता और आँखों पर एक पुराना चश्मा. संस्कृत पढ़ाते थे. क्लास वर्क देकर सो जाया करते और हल्ला होने पर ही उठते. उठते ही जिस पर नज़र ठहरती उसपर बेंत की बौछार कर देते. पर कुछ दिन से वे अखिलेश को निशाना बनाने लगे. एक दिन अखिलेश उनके पास बेंत की मार खाने जाने के पहले ही जोर-जोर से रोने लगा. मिश्रा सर ने उसे मारने के बजाय सीने पर उसका सर रखकर उससे बड़ी देर तक बातें की. हमलोग यही समझ रहे थे कि चूँकि ठीक नीचे हेडमास्टर का ऑफिस था इसलिए वे अखिलेश के जोर से रोने की वजह से सहम गए. पर बात दूसरी निकली. अखिलेश के घर पर मधुमक्खी का एक बहुत बड़ा छत्ता मिश्रा सर को ललचाने लगा था.
बहुत याद आती है आर्ट्स-क्राफ्ट्स शिक्षक की. दाये अंग में लकवा, बोल भी नहीं सकते थे.; सभी काम बाये हाथ से करते थे. ब्लैकबोर्ड पर चाख से बड़ी सुन्दर रेखांकन करते थे. तकली से सूत कातना और कारपेंटरी क्लासेस भी वही लेते थे .
भला भट्टाचार्य सर जो हमलोगों को केमिस्ट्री पढाते थे उन्हें कौन भूल सकता है. एक बार स्कूल के छात्रों और शिक्षकों के बीच फुटबाल मैच हुआ. मैच एकतरफा था और छात्र दो गोल से जीत रहे थे . मैच खत्म होने जा रहा था. हमलोग खुश होने के बजाय दुखी थे क्योंकि छात्र खिलाडी तो ऊंची कक्षा के थे जिनसे हमारा लगाव मैच तक ही सीमित था पर शिक्षक बड़े-बूढ़े थे और हमलोगों के दिनचर्या का एक अहम हिस्सा. तभी भट्टाचार्य सर जो धोती पहने रहने के कारण नहीं खेल रहे थे , अचानक फील्ड के अंदर लेफ्ट-आउट की पोसिशन से खेलने आ गए .उन्होंने पांच मिनट के अंदर दो गोल दाग कर  मैच बराबर कर दिया. उसमे दूसरा गोल तो बेकहम जैसा बेंड होकर ३० मीटर की दूरी से दागा गया था. भट्टाचार्य सर को सभी छात्र खिलाडी कंधे पर बिठा कर बहुत दूर तक ले गए. बाद में हमलोगों के गेम टीचर अयोध्या सर ने बताया कि भट्टाचार्य सर मोहन बगान क्लब में थे पर दमे की शिकायत के चलते उन्हें बाल खेलना छोड़ना पड़ा.

तीन साल बाद जब मै झुमरी तिलैया में पढता था और हमलोगों का परीक्षा केन्द्र हजारीबाग का आनंद हाई स्कूल बना तब केमिस्ट्री प्रैक्टिकल में एक्सटर्नल होकर भट्टाचार्य सर ही आये. मै तो समझता था कि उन्हें मेरी कुछ भी याद नहीं होगी. वे सभी से वायिवा-वोइस में खूब प्रश्न पूछ रहे थे. जब मेरी बारी आई तो उनका पहला प्रश्न बहुत धीमी आवाज़ में पूछा गया था ,” क्या तुम पटना कालेजियट स्कूल में पढते थे ?”
अयोध्या सर हमलोगों के गेम टीचर थे. उन्हें स्कूल के मैदान के उत्तर-पूर्व कोने पर रहने को घर मिला हुआ था. उनके घर के सामने सरस्वती पूजा बड़े धूमधाम से मनाई जाती थी. स्कूल में सहभोज होता था- पूरी-सब्जी, दही-बुंदिया और अंत में घर ले जाने के लिए दोना-भर प्रसाद. अगर उस समय किसी दूसरे स्कूल के बच्चे आते तो उन्हें बड़े प्यार से भोज में शामिल किया जाता. एक बार सरस्वती पूजा 12 फरवरी को मनाई गयी थी. उस दिन मेरा जन्म दिन था.
क्लास शुरू होने के पहले फिजिकल ट्रेनिंग के तहत सभी को लाइन से मार्च करते हुए खेल के मैदान में इकट्ठा किया जाता बजाप्ते बैंड-बाजे की धुन पर जो स्कूल के लड़के ही बजाया करते. 20 मिनट के बाद 8-10 लड़कों को हिदायत दी जाती कि वे हेडमास्टर के ऑफिस के बाहर कतार लगा कर खड़े हो जाये. हमलोग उसके बाद लौटते और उन चुने हुए लडको पर बेंत की बरसात देखते अपनी-अपनी क्लास में लौटते. ये दंड पाते बच्चे वो थे जिनकी लिस्ट शिक्षकों की शिकायत पर एक दिन पहले तैयार की गयी होती थी.
स्कूल की दो बातें सबसे निराली और अनुपम थी. पहला यह कि लंच में स्कूल की तरफ से डब्बा मिलता. बकायदे फिर बैंड बजता और मोटे ताज़े हलवाई जैसे रसोईये टिन के बक्से में नाश्ते का डिब्बा लेकर पहुंचते. हमलोग कतार से अपना-अपना डिब्बा लेकर क्लास के दरवाज़े से बाहर निकलते. नाश्ते में कभी कचौरी, कभी बर्फी, कभी गठिया-निमकी और कभी आंटे या सूजी का हलवा होता. नाश्ता हमलोग बरामदे या छत पर जाकर करते. उस समय चीलों की चीखों से माहौल गरमा जाता.हमलोग नाश्ते का कुछ भाग खासकर गठिया-निमकी हवा में जरूर उछालते. चील हाथ तक पहुँच जाते थे झपटने के लिए. उस समय स्कूल का अवकाश-प्राप्त दमे से ग्रस्त चपरासी जिसकी उम्र अवश्य 75 से ऊपर होगी अपने दो पोतों के साथ डब्बा लेकर हाफ्ता हुआ आता. हमलोग उसका डब्बा अपने अंशदानों से भर देते. लंच टाइम का अंत भी बैंड बजा कर होता.
एक दिन केवल वे दोनों लड़के ही आये. हमारे शिक्षक ने कहा कि लड़कों के दादा की सुबह मृत्यु हो गयी थी साथ ही  हमलोगों से जितना बन सके उतनी मदद करने के लिए कहा. बाद में पता चला की दोनों लड़कों को छिटपुट काम के लिए रख लिया गया है और पास के प्राईमरी स्कूल में दाखिल करवा दिया गया है.
दूसरी सबसे अच्छी बात ये थी कि हमारा स्कूल खेल-कूद में अथवा बैंड बजाने में हुनरमंद लड़कों को छात्रवृत्ति के साथ हॉस्टल में मुफ्त रहने-खाने की सुविधा देता. बैंड पार्टी इसी तरह बनी थी. फुटबाल में 18 से 25 वर्षीय जवानों को दाखिला मिला था. ये ज्यादातर पटना के मशहूर फुटबाल टीम से भी खेलते थे जैसे पहाड़ी, बिजली, जगजीवन, मंटू इत्यादि. ऐसा मात्र फुटबॉल के लिए किया गया था. क्रिकेट में जगत नारायण शर्मा, रहमान, पटेल, सुलेमान, भरत जैसे महारथी.
हमारे स्कूल का रिजल्ट सबसे अच्छा होता. खेल में हमारे प्रतिद्वंदी पटना हाई स्कूल, पाटलिपुत्र हाई स्कूल, राममोहन रॉय सेमिनरी, टी के घोष अकादमी और पटना सिटी स्कूल होते. फुटबाल में तो हमसे कोई जीत नहीं पाता पर क्रिकेट में पटना हाई स्कूल अव्वल था. पाटलिपुत्र को शरारती लड़कों का स्कूल माना जाता .वे कभी भी हार को खिलाडी भावना से नहीं लेते .एक बार तो वे लोग मार-पीट पर उतर आये. मुझे याद है तब मैदान से ठीक सटे हुए हमारे हॉस्टल से मसहरी लटकाने के डंडे के साथ लड़कों को आते देख पाटलिपुत्र के लड़के भाग खड़े हुए थे.
जब मै दसवी कक्षा में पहुंचा तभी 1959 की फरवरी में स्कूल क्रिकेट फाईनल मैच खेला गया. मैच मेरे स्कूल और पटना हाई स्कूल के बीच था. तभी मुझे पटना हाई स्कूल देखने का मौका मिला. सभी कुछ हमारे स्कूल से बेहतर लगा खासकर क्रिकेट का मैदान . हरी,मखमली घास और चारों तरफ पेड़ की छाँव. अजय भैया स्टैंड-बाई विकेट कीपर की हैसियत से टीम में शामिल थे. पहली बार काले कोट पहने अम्पायर दिखे. टेन्ट-नुमा पैवेलियन दिखा. मैच एकतरफा था और हाई स्कूल एक पारी और 50 से ज्यादा रन से जीता. पर मैच की खास बात हमारे ओपनर सुलेमान अहमद की बैटिंग थी. पहली पारी में 2 रन और दूसरी पारी में 3 रन लेकिन दोनों परियों में अंत तक आउट नहीं.  अम्पायरों ने भी उनके खेल की भूरी-भूरी प्रशंसा की.
लंच टाइम में सबसे ज्यादा भीड़ बंद गेट पर लगती थी जिसके बाहर खोंचे वाले और दो चाट वाले ठेलागाड़ी लेकर आते. आधे घंटे के लंच टाइम में किसी तरह धक्का-मुक्की करने पर गोलगप्पे, आलूचाट या समोसा-चाट मिलने का नम्बर आता . कभी-कभी चनाचूर वाला भी आ जाता. दाम 1 पैसे से शुरू होकर चार पैसे यानी 1980 के समय का 6 पैसा.
जब मै आठवी क्लास में था, शायद 1958 की ये दुखद बात रही होगी. सभी लड़कों को स्कूल के भवन के बाएं अंदर वाली खाली जगह पर अचानक जमा किया गया. हेडमास्टर ने सूचना दी कि कश्मीर जाने के रस्ते में बस दुर्घटना में जो 16 विद्यार्थियों की मौत हुई थी उनमे तीन लड़के हमारे स्कूल से 1956 में पास होकर गए थे. बस दुर्गम खाई में गिर गयी थी.  छुट्टी हो गयी. लौटते समय रस्ते में साहित्य सम्मलेन भवन के पीछे ही उन मृत लडको का घर पड़ता था और उसी समय किसी एक सतीश नाम के लड़के की लाश पहुंची थी. स्ट्रेचर पर सफ़ेद कपडे के अंदर से दाहिने पैर का अंगूठा भर ही दिखा जो दिल दहलाने के लिए काफी थी.
एक बार ईस्ट पाकिस्तान जो अब बंगलादेश कहलाता है , उसके प्रधान मंत्री सुहरावर्दी ने कुछ भड़कीले भाषण दिए भारत के खिलाफ.पटना कॉलेज ने जुलुस निकाला और हमारे स्कूल भी आये थे स्कूल बंद करवाने. मेरे स्कूली दिनों में , वहाँ राजकुमारी अमृत कौर और उसके बाद प्रसिद्ध गणितज्ञ शकुंतला देवी भी आई थीं.
पटना कालेजियट स्कूल की कुछ बाते बताने लायक हैं. फिल्म कलाकार शत्रुघ्न सिन्हा हमलोगों के साथ पढता था. तब वह ढीली कोट पहननेवाला एक साधारण लड़का हुआ करता था . उसके बड़े भाई भरत मेरे बड़े भाई की कक्षा में थे, शत्रुघ्न को स्कूल की क्रिकेट टीम में विकेट कीपर बनाने की पुरजोर कोशिश में लगे रहते थे. पर बाकी खिलाडी मेरे बड़े भाई की विकेटकीपिंग पसंद करते थे साथ में वे अच्छे बैट्समैन भी थे. एक दिन जब हमारे भाई कीपिंग कर रहे थे तब थर्डमैन की जगह पर फील्डिंग कर रहा शत्रुघ्न बार-बार मेरे भाई पर फब्तियां कस रहा था. खेल खत्म होते ही अजय भैया उसके पास पहुंचे , उसका एक हाथ पकड़ा और दूसरे हाथ से उसे फील्ड में नचा-नचा कर 15-20 घूंसे लगाये. सबके छुड़ाने पर शत्रुघ्न रोता-रोता घर लौट गया. उससे शायद ही किसी ने सहानुभूति दिखाई. 
पटना कालेजियट स्कूल 1959
एक बार हमलोग दोपहर ढलने के बाद , स्कूल के पिछवाड़े दक्षिण-पश्चिम कोने में बने रेतीले पिट पर हाई जम्प-लॉन्ग जम्प का अभ्यास कर रहे थे . उसी समय चारदीवारी से सटे एक दुमंजिली छत पर काफी लोगों का जमावड़ा दिखा . वह किसी बंगाली महाशय का घर था. गौर से देखने पर पता लगा कि स्कूल की फोटोग्राफी की जा रही है. हमलोग दुगने जोश से अभ्यास करने लगे जिससे फोटो में हमलोग केंद्रित रहें. बात आई-गयी खत्म हो गयी. 1988 के आस-पास मै टीवी देख रहा था. सत्यजित राय की फिल्म थी . फिल्म की शुरुआत यह कहकर हुई की उस कथा का नायक पटना कालेजियट स्कूल का छात्र था.  अब जाकर मालूम हुआ वह भी इन्टरनेट के जरिये कि सत्यजित राय की ससुराल पटना में ही है और वह फिल्म थी सीमाबद्ध”.
मुझे घर के बॉक्स-रूम से बहुत से कीमती दस्तावेज मिले. एक 1915 का हाथ से लिखा  टेस्टीमोनियल मिला. भाषा और लिखावट संकेत देती थी की लिखने वाला अवश्य ऊंचे ओहदे पर था. यह वह दशक था जब पटना कॉलेजिएट स्कूल के हेडमास्टर अंग्रेज विद्वान हुआ करते थे. यह वही दशक था जब पश्चिम बंगाल के अति प्रसिद्द मुख्यमंत्री श्री विधान चन्द्र रॉय (Bidhan passed Matric examination from Patna Collegiate School in 1897.) इसी स्कूल में शिक्षा प्राप्त कर रहे थे. वह समय कितना अद्भुद रहा होगा जब जन नायक जय प्रकाश नारायण भी विद्यार्थी थे(When Narayan was 9 years old, he left his village to enroll in 7th class of the collegiate school at Patna) .  यह टेस्टीमोनियल का मसौदा उनके लिए था जो 1880 से 1915 तक स्कूल को शिक्षक की हसियत से योगदान देने के बाद अवकाश प्राप्त कर रहे थे , क्या अजीब और सुखद सयोंग था. वे और कोई नहीं मेरे परबाबा बाबू रामधनी सिंह, BA, BEd थे.
इस टेस्टीमोनियल को मैंने जैमिनी AI से ट्रांसक्रिप्ट कराया जो इस प्रकार है :-
I have great pleasure of expressing a very high opinion about the ability, intelligence and character of Babu Ram Dhani Singh. I have been known to him for a long time.
After successfully passing the final Mastership Examination of the Department of Education, he rendered himself for distinction as Headmaster of several schools where his worthiness is remembered with deep appreciation. Later on, he served as Assistant Master at Patna Collegiate School (now new college). Whence he retired after completing his career of a long and meritorious service extending over a period of 35 years. He has lived a temperate & wholesome life that even now after retirement; he retains all the faculties in full vigour
possesses an excellent health & energy.
He is an ideal of a simple & devoted life devoted to the pursuit of good and beneficent deeds. He knows the Hindu Ayurveda system of medicine efficiently. He possesses also all the qualities & knowledge of a successful businessman - vigilant, competent and accurate in his dealings.

तब पटना कालेजियट स्कूल बादामी रंग से सँवरा हुआ करता था. आज वह लाल किनारों वाले सफ़ेद आवरण ओढ़े उसी शान से खडा है.



 

Wednesday, September 15, 2021

टिफिन - 2


 पटना कॉलेजिएट स्कूल 1950-60 के दशक का अग्रणी स्कूल था. यह बहुत सारे आयामों में नेत्रहाट स्कूल का प्रतिस्पर्धी था. सबसे मजेदार था इसका टिफ़िन प्रबंधन. टिफिन की घंटी बजने के पहले स्कूल बैंड बजने लगता . उसकी थाप पर मोटो-नाटे हलवाई सर पर  बड़ा टिन का बक्सा 150 मीटर दूर कैंटीन से क्लास के दरवाजे के बाहर आ जाते. घंटी बजने और बैंड बंद होने पर हलवाई व् क्लास मॉनिटर एक-एक प्लेट जलपान विद्यार्थियों के डेस्क पर रख देते थे. सप्ताह के प्रत्येक दिनों के लिए मेनू तय रहते थे. दो दिन मिठाई जैसे बर्फी,जलेबी,बुंदिया, पूआ, बालूशाही इत्यादि. दो दिन निमकी, गठिया, कचौरी या मठरी . बाकि दो दिन शायद मंगल और शनिवार को फल जैसे केला, सेव, नाशपाती अथवा अमरुद. सबकुछ इतना की पेट की भूख शांत हो जाए. हमलोग निमकी और गठिया उतना पसंद नहीं करते थे. पर उसके शौकीनो की कमी नहीं थी. हमलोग स्कूल की छत पर चल जाया करते थे. आसमान चील-कौओं से भरा रहता था. हमलोग खूब ऊपर नमकीन उछाला करते थे.  क्या मजाल की एक भी टुकड़ा पक्षियों की पकड़ में न आये. अगर कोई भी लड़का चूकता या ललचाता तो उसके हाथ से झपट्टा मार कर ले लेते. कभी-कभी खरोच भी लग जाया करती.

सब छात्र यह खेल नहीं खेलते थे, खासकर वरीय छात्र. एक बार मैंने छत से नीचे झांक कर देखा. वे हर रोज स्कूल के हाते में टिफिन का कुछ हिस्सा हाथ में लेकर चले जाते थे. एक बहुत ही झुकी पीठ वाला, बढ़ी दाढ़ी वाला वृद्ध दो बच्चो के साथ कटोरा लिए आता था. सबकोई अपने टिफिन का कुछ हिस्सा उसके कटोरे में डाल देते थे. हमलोगों ने भी वैसा करना शुरू किया.

वह वृद्ध 15 वर्षों पहले स्कूल का चपरासी था. अवकाशप्राप्त बाद 4 रूपये पेंशन से वह किसी तरह गुजारा कर लेता था. बेटे-बहु की अकाल मृत्यु के बाद दोनों पोते इन्ही के पास रहने लगे. बढती मंहगाई ने वृद्ध की कमर झुका दी. एक बार छुट्टी के दिनों, क्रिकेट प्रक्टिस के बाद लौटते समय मेरे बड़े भाई और उनके सहपाठीओं ने उन बच्चों को कचरे से चुनकर खाते देखा. उसी क्षण उनलोगों ने निर्णय लिया. दूसरे दिन से छुट्टी के दिनों, प्रत्येक हफ्ते अपने-अपने घरों से चावल-दाल की पोटली पहुचानी शुरू कर दी.


Monday, September 13, 2021

टिफिन

टिफिन का मिजाज़ समय के साथ बदलता रहता है. समय ही नहीं इसमें परिवेश और पर्यावरण का भी विशेष योगदान होता है. यह टिफिन सबसे अर्थपूर्ण और दोस्ताना मध्यम वर्ग के बीच होता है. गरीबों के तो कन्धों से यह गमछे में बंधा लटकता डोलता रहता है और जब कडाके की भूख लगती है तब वह कहीं भी कभी भी बिना तकल्लुफ के स्वाद लेकर खा लेता है. ऊच्चवर्ग की टिफन या तो नौकर सँभालते हैं अथवा स्कूल कैंटीन में बहुत कुछ मिल जाता है. मेरे साथ इसकी लगभग 70 वर्षों की जान-पहचान है.

गर्मी के दिनों में जब स्कूल सुबह का होता था तब टिफिन की बागडोर दादी संभालती थीं. वह तडके उठ जाती थीं. स्टोर रूम के छेंके पर लटकी हांडी से निकाले चने के सत्तू में चीनी डालकर पानी से गूंथ कर लड्डू बनाकर हाथ में थमा देती थी. जब कभी ठंडी तासीर का हवाला देकर जौ का सत्तू मिलाती थी तो हमलोग मुंह बिचकाते थे.स्टोर से आँगन उसके बाद बरामदा, उसके बाद कोर्टयार्ड और गेट खोलते-खोलते पूरा टेनिस बाल जितना लड्डू निवाला बन चुका होता था. बरसात का मौसंम आते-आते टिफिन का मेनू बदल जाता था. बासी रोटी पर घी लगा कर चीनी छिटक कर लपेट कर हाथ में दे दी जाती थी.

बाकी दिनों में स्कूल नौ बजे से चार बजे तक का होता था. माँ बाकायदा टिफिन बॉक्स में परोठा और सब्जी देती थी. अगर सब्जी न बनी हो तो गुड़/चीनी और आचार मिलता था. दोनों ही कॉम्बिनेशन हमलोगों को पसंद आता था. कभी-कभी माँ सरप्राइज आइटम भी छिपा कर रख देती थी – जैसे बर्फी, मुरब्बा, बुंदिया वगैरह जो टिफिन खोलने के बाद ही पता चलता था. ऐसा सरप्राइज आइटम अक्सर सभी की टिफिन में रहता था. टिफिन खाने के लिए एक बरामदा नियुक्त था. वहीँ दोस्तों के साथ बैठते थे. सबसे पहले यह देखना होता था की किसकी टिफिन में सरप्राइज है. उसे अंत में शेयर करने के लिए अलग रख दिया जाता था. हमारी टोली से ज्यादा संपन्न भी थे. वे हमलोगों की तरफ पीठ करके बहुत डरते-डरते खाते थे. डर था की कोई जान न ले, मांग न ले. बिखरती हुई महक से पता तो चल ही जाता था की किस दिन किसकी टिफिन में अंडा, मछली या मटन है अथवा हमारी तरह ही सामान्य है. आनंद तो दोस्तों के साथ मिल-बाँट में ही आता है. दोस्ती में इन्ही कारणों से गाढ़ापन आता है जो कयामत तक बरकरार रहता है. वे तीन दोस्त अभी भी हैं.

स्कूल के बाहर खोंचे और ठेले लगे रहते थे . यहाँ ज्यादातर संपन्न बच्चों की भीड़ लगती थी. महीने में एक-दो बार हमलोग भी इसका लुत्फ़ उठाते थे. दो-चार पैसे में बहुत तरह के दोने मिल जाया करते थे जैसे छोले, दही बड़े, आलू टिकिया, जलेबी, पंतुआ, वगैरह. एक बार जब हमलोग आलू चाट का मजा ले रहे थे तो देखा दो सहपाठी थोड़ी दूर कल्वर्ट पर बैठे छिपकर रोटी-प्याज खा रहे थे.

सातवी कक्षा में हमलोग का दाखिला सरकारी स्कूल में हो गया.

क्रमशः......

Thursday, June 17, 2021

क्रिकेट - 3

१९७० का दशक भारतीय क्रिकेट के लिए आन्दोनाल्त्मक था. जैसिम्हा का एक संस्मरण याद आ रहा है. जैसिम्हा शायद बैंक में किसी छोटी नौकरी पर थे. उन्हं बॉम्बे में टेस्ट मैच खेलने के लिए ७ दिन की छुट्टी की मंजूरी मिली थी. वे सिकंदराबाद से बॉम्बे शाम को पहुंचे. ठहरने की कोई जगह न होने के कारण स्टेशन के निकट आज़ाद मैदान की बेंच पर सो गए. सुबह ६ बजे उन्हें एक संतरी ने उठाया. ब्रेबर्न स्टेडियम के रेस्ट रूम में नित्य क्रिया कर वे टीम की नेट प्रैक्टिस में शामिल हुए. उन्हें मालूम हुआ की ऐसा ही हश्र बाहर से आये हुए कुछ और खिलाड़ियों का भी हुआ था. उस समय किसी किसी के पास ही क्रिकेट का पूरा किट हुआ करता था. ज्यादातर सांझें में काम चलाया जाता था. १९७१ में वेस्ट इंडीज को उन्हीं के मैदान में हराने के बाद भारत ने फिर पीछे मुड़ कर नहीं देखा. ५० वर्ष बाद भारत विश्व क्रिकेट का मुखिया बन गया है और राष्ट्रीय  लेवल के खिलाड़ी सबसे समृद्ध हैं. 

भौतिकी में पोस्ट ग्रेजुएशन करने के बाद तत्काल मेरी नौकरी १९६९ में विश्व प्रसिद्द हैवी इंजीनियरिंग कारपोरेशन  में लग गयी. २२००० की मानवीय क्षमता वाले इस कारखाने का खेल जगत में भी नाम था. फुटबॉल में यह मोहन बगान से टक्कर लेता था , हॉकी में कई राष्ट्रीय किताब जीत रखे थे और क्रिकेट में अपने जिले के शिखर पर था. पहले से जमे हुए खिलाडिओं में पैठ लगाने में दिक्कत थी. एक बार कप्तान की अनुपस्थिति में मुझे फील्ड तय करने को मिला. ऑफ-स्पिन बोलिंग में मेरी फील्ड प्लेसमेंट में सुभाष सरकार  ने तुरत तीन विकेट झटक लिए. दरअसल, मेरे पास मशहूर ऑफ स्पिनर अलेक बेड्सर की लोकप्रिय किताब थी. इस किताब में बहुत सारे फील्ड प्लेसमेंट का बहुत अच्छा ब्यौरा था. कप्तान से पंगा मुझे महँगा पडा.

मेरे जैसे बहुत से फेंस सिटेर्स थे. उनमे प्रमुख नुपुर सरकार, सक्सेना, प्रदीप गुहा ठाकुरता, अनिल सारस्वत, और बाद में सुभाष सरकार प्रमुख थे. हमलोगों ने मिलकर एक क्लब बनाया. उसमें कॉलोनी में रहने वाले प्रतिभावान छात्रों को भी जगह दी. क्रिकेट की एक बहुत सुन्दर टीम का जन्म हुआ. मुझे सर्वसम्मति से कप्तान चुना गया.

हूमलोगों का पहला फॉर्मल मैच १९७१ में कारपोरेशन की टीम से हुआ. मैच मैट पर हुआ. क्रिकेट किट की खस्ताहाल हालत और स्टेडियम की विशालता के कारण हमलोगों में एक हीनता की महक तो थी ही साथ में कारपोरेशन टीम की व्यवयसायिक दक्षता के आगे हमलोगों ने तुरत घुटने टेक दिए.

इसके बाद हमलोगों ने एक बेहतर क्रिकेट किट तैयार की. यूनियन क्लब, रांची से सेकंड हैण्ड मैट खरीदी. जब भी समय मिलता हमलोग प्रैक्टिस करते. कम समय रहता तो मात्र फील्डिंग प्रैक्टिस करते. रविवार और छुट्टी के दिनों में दिन भर मशक्कत होती.

हमलोगों ने शहर के सबी नामी-गिरामी क्लब से मैच खेला. मैच एक-एक पाली का होता.ज्यादातर हमलोग जीतते. किसी-किसी मैच में मेरा आउटस्विंगर घातक साबित होता तो किसी में सरकार का ऑफ स्पिन. अनिल, ठाकुरता और सक्सेना हमेशा अच्छी बल्लेबाजी करते. हमारे क्लब के छात्र लड़के मैच के पहले प्रतिद्वंदी टीम की पूरी जानकारी लेकर आते- जैसे किस खिलाड़ी की क्या खूबी है और क्या कमी. कौन सा खिलाडी कूल है और कौन सा तुनक मिजाज़. प्रतिद्वंदी टीम की पिच पर खेलना ठीक रहेगा या नहीं; और भी ऐसी कई बातें जिसे आजकल कंप्यूटर बखूबी एनालिसिस करता है.

हमलोगों का क्रिकेट मैदान कॉलोनी के अन्दर बहुमंजिला अपार्टमेंट से घिरा था. इसलिए दर्शक दीर्घा खाली नहीं रहती थी. उनमें से कभी किसी-किसी को जोश आ जाया करता था. एक झा जी थे. हमेशा खैनी ठोकते रहते थे . जब भी कोई छका मरता उनकी गोल-गोल की अवाज़ सुनायी देती. एक बार उन्होंने ने भी खेलने की इच्छा जाहिर की. फील्डिंग में हमलोगों ने उन्हें लॉन्ग ऑफ पोजीशन पर  रख दिया. स्काई हाई कैच उनसे इसलिए छूट गया क्योंकि वे खैनी ठोक रहे थे. एक बार ढलती शाम को एक छः फूट का ४०-४५ की उम्र वाला व्यक्ति आया. उसने बड़े अधिकार से बल्ला पकड़ लिया. मैंने बड़े बेमन से एक गुड लेंग्थ फेंका. उसने बाउंड्री जड़ दी. मेरी हर भरपूर कोशिश को वह बात की बात में मैदान के बाहर भेजता रहा. उसके बाद उसने सभी गेंदबाजों को बेहाल कर दिया. हमलोगों को उसके ताप से गहराते अँधेरे ने बचाया. वह आंध्र प्रदेश का था. उसीने हमलोगों को मीट ऑफ़ द बैट कि तकनीक समझायी. आज भी उसकी जब भी याद आती है तो साथ में जैसिम्हा का चेहरा आ जाता है.

१९७४ में हमलोगों ने दुबारा कारपोरेशन की टीम के साथ मैच खेला. कारपोरेशन की टीम अब और ज्यादा सशक्त हो गयी थी.  टॉस जीतकर उन्हें बल्लेबाजी दी. इसका एक भयंकर कारण था. फुल मैट वर्षा के कारण बुरी तरह भींग गया था.हाफ मैट पर खेल हो रहा था. बीच पिच पर मैट को जमीन से बांधने वाली एक कील गीली जमीन होने के कारण ढीली थी. यही मैच का होनोलुलु होने वाला था. मैंने अपने तेज़ गेंदबाजों को ठीक वहीँ बाल डालने को कहा. बाल जब भी उस पाकेट पर गिरता वह पिच करने के बाद फिसलता हुए या तो विकेट पर जा लगता या पैड पर. देखते-देखते हमलोगों ने ५ विकेट झटक लिए. उसके बाद हमींलोगों ने संकेत किया की कील ढीली हो गयी है. उस जगह लकड़ी का टुकड़ा ठोककर दुबारे कील गाडी गयी. तबतक बहुत देर हो चुकी थी. कारपोरेशन की पूरी टीम १०७ रन पर धराशायी हो गयी. हमलोगों ने वह मैच ७ विकेट से जीता. अनिल ६१ रन बनाकर अविजित रहा. इस शर्मनाक हार का बदला लेने के लिए कारपोरेशन की टीम ने कितनी बार हमलोगों को न्योता भेजा.

विवाह के बाद १९७६ में मेरा वजन बढ़ गया था. एक बार एक मैच में, अपने प्रिय स्थान कवर पर फील्डिंग के दौरान न झुक पाने के कारण एक बाल छूट गया और बाउंड्री हो गयी. उस दिन मैंने क्रिकेट खेलने पर विराम लगा दिया.

रिटायरमेंट के वक्त मेरा बेटा एक अच्छा क्रिकेटर बन गया था. वह अपने स्कूल से खेलता था. वह महेंद्र सिंह धोनी से 2 वर्ष छोटा था. जाहिर है किसी वक्त दोनों एक ही मैदान में रहे होंगे. बाद में वह सैंटजेविएर्स कॉलेज से भी खेलने लगा था. घर के सामने वाले मैदान पर उसकी प्रैक्टिस में मैं भी शामिल होता रहता था. प्रैक्टिस के लिए कभी-कभी  मेरे बंगले के गेट से लेकर गैरेज तक ३० गज की लम्बाई और १० गज की चौडाई खेल की पट्टी होती. उम्र हो जाने के कारण मुझसे लेग स्पिन बोलिंग ही हो पाती थी.

३ वर्ष पहले तक मुझे जब भी मौका मिला मैंने आजमायीश नहीं छोड़ी. मेरा अंतिम खेला, मेरे दिवंगत छोटे भाई अलोक के फार्म पर हुआ. अलोक की स्क्वायर लेग की तरफ का ड्राइव और फ्लिक  देखने लायक था. मैं बस स्ट्रेट ड्राइव ही लगा पाया. आजकल, सामने के पार्क में किशोर टेनिस बाल से गली-क्रिकेट का आनंद उठाते हैं. मैं पार्क के लॉन्ग-आन पोजीशन वाली बेंच पर बैठता हूँ सिंगल हैण्ड कैच के इन्तजार मे. 


Thursday, May 13, 2021

क्रिकेट – 2 : (1958-1968)

१० वर्ष की उम्र पार करते-करते पटना के कदम कुआँ इलाके का एक विसश्विनीय क्रिकेट खिलाडी हो गया था.जिसे अब गली क्रिकेट कहा जाता है उसमें मेरा नाम होने लगा था. हमलोग कहीं भी खेल लेते. चाहे घर का कोर्टयार्ड हो अथवा गलियारा या खाली सड़क. २२ गज की जगह १६-१८ गज का पिच और टेनिस का बाल. पहले तो हमलोग लोकल बढ़ई के बनाये बल्ले और विकेट से खेलते थे. बाद में अलंकार ज्वेलर के मालिक का लड़का मोहन एक ५ नंबर का असली क्रिकेट बैट ले आया. मैं उससे स्ट्रैट ड्राइव, कट और ग्लांस तो कर लेता था पर भारी होने के कारण पुल या हुक शॉट नही लगा पाता. मैं कद काठी से बहुत ही गरीब था : पौने पांच फीट की ऊंचाई और वजन मात्र ३० किलो. इसी कारण, जब २२ गज के स्टैण्डर्ड पिच पर क्रिकेट बाल से खेलने की बारी आयी तो मैं बुरी तरह पिछड़ गया. क्लास की टीम से उभर कर मैं कभी भी स्कूल या कॉलेज की टीम का सदस्य नहीं बन पाया. बाद में हमलोग गाँधी मैदान में भी खेलने लगे. वहां बेशुमार टोलियाँ क्रिकेट खेलती थीं. कभी एक टीम का बाल दूसरा उठा लेता तो कभी टोली का एक लड़का झगड़ा कर दूसरी टोली से खेलने लगता. सबसे मजेदार तो तब हुआ जब बॉलर ने अपने पिच पर बोलिंग करने के बजाय दूसरे के पिच पर बोलिंग कर दी. 

१९५९ में झुमरी तिलैया आने के बाद शहर के एकमात्र स्कूल सेठ छोटूराम होरिलराम हाई स्कूल की टीम में मेरे बड़े भाई तो तुरंत चुन लिए गए लेकिन मुझे एक्स्ट्रा में जगह मिली. उस समय क्रिकेट सर्दिओं में ही खेला जाता था. एक दिन मालूम हुआ की गर्मी की छुट्टी में भी स्कूल के मैदान में रविवार को सुबह ७ से १० बजे तक लायंस क्लब के मेम्बर पूरे किट के साथ क्रिकेट खेलते हैं. सभी खेलने वाले सफेद शर्ट-पैंट में आते हैं और क्रिकेट शू या कैनवास के सफ़ेद जूते पहनते हैं. हम दोनों भाई भी तैयार होकर पहुंचे. देखा ८-१० कार लगीं थी. मैट पर खेल हो रहा था. सबसे वरिष्ष्ठ ५० वर्षीया चोपड़ा थे और सबसे कमउम्र २५ वर्षीय लड्डू थे. बाएं हाथ के तेज गेंदबाज लड्डू की अगर अभी के अंतरराष्ट्रीय खिलाड़ियों से तुलना की जाये तो वासिम अकरम का चेहरा सामने आता है. उनके पास कायदे का विकेट कीपर नहीं था. अजय भईया को तुरंत कीपिंग में रख लिया गया. वे पटना कॉलेजिएट स्कूल से खेल कर आये थे. वरिष्ठ चोपड़ा साहब स्लिप में फील्डिंग करते वक्त अपनी जगह से हिलते भी न थे. दूसरे रविवार को मुझे भी मौक़ा मिल गया. पहले चोपड़ा साहब से छूटी गेंद को रोकने के लिए और बाद में मुझे पूरी तरह शामिल कर लिया गया. ये सभी लायंस करोडपति माइका मर्चेंट थे. सभी शालीन बस एक को छोड़कर. वह था मुख्य मंत्री के०बी०सहांय का लड़का. २० किलोमीटर दूर हजारीबाग की तरफ से जीप पर आता. बोनट पर बैठ मैच देखता,कुछ पीता रहता और हल्ला करता.

१९६० के दशक में क्रिकेट मेरा और समूचे भारत का सबसे लोकप्रिय खेल होता जा रहा था. कॉलेज की पढाई १९६१ में रांची कॉलेज से शुरू हुई. डोरंडा के जिस इलाके में मैं रहता था वहां बंगाली समुदाय की अधिकता थी. फ़ुटबाल ही लोकप्रिय था. यहाँ भी मैंने टेनिस बाल से शुरुआत की और बहुत जल्दी ही क्रिकेट बाल से खेल होने लगा. जाहिर है की आस-पड़ोस की ४-५ टीमों में हमारी टीम का ही दबदबा रहता. ऊंची क्लास में पढने और क्रिकेट की शुरुआत करने की वजह से मैं निर्विवाद कप्तान चुन लिया गया. हमारी टीम का सबसे अच्छा तेज़ बॉलर रणधीर वर्मा था ; वही जो बाद में DSP धनबाद हुआ जहाँ वह बैंक रॉबरी में मुकाबला करते शहीद हो गया.

हमलोग जेंटलमैन क्रिकेट कतई नहीं खेलते थे. हारने वाली टीम अवश्य बदमाशी करती थी. विकेट की डंडी उखाड़कर लड़ने तक को तैयार रहती. अंपायर हमेशा बल्लेबाजी करने वाली टीम का होता, जो LBW देने के के बजाय बाल को ही “नो- बाल” करार कर देता. रन आउट तभी देता जब छोटी सी दर्शक दीर्घा रन आउट चिल्लाने लगती अथवा  खिलाड़ी वाक-आउट करने लगते. आजकल तो नो बाल होने के ३-४ कारण ही होते हैं . उस समय अनगिनत कारण होते. उसमें से एक कारण याद आ रहा है. अंपायर का रेडी न रहना. अंपायर को ही रन तालिका का रजिस्टर भरना होता था. उस ज़माने में किसी भी टीम के पास मात्र 2 पैड होते. बल्लेबाजी के समय दोनों बल्लेबाज अपने सामने वाले पैर में बांधते. जी हाँ, कभी-कभी रस्सी से भी बांधते. गेंदबाजी करते समय वही पैड विकेटकीपिंग के काम आता. टीम बिरलें ही अपना कोई सामान सांझा करतीं. लेगगार्ड और एब्डोमिनल गार्ड का नाम भर सुना था. तब मैच ९ बजे सुबह शुरू होता और १ बजते ख़त्म हो जाता. नो लंच ब्रेक. हमलोग नजदीक के नल या कूएँ से पानी पीते.
अब हमलोग टेस्ट मैच का पूरा आनंद रेडियो या ट्रांजिस्टर पर कमेंटरी सुनकर उठाने लगे थे. कमेंटरी अंग्रेजी में ही आती थी. राजकुमार  विजयनगरम उर्फ़ विज्जी की कमेंटरी कहने का तरीका अभी तक याद है. वे कमेंटरी कहते-कहते पुराने दिनों की याद में खो जाते थे. एक बार वे नवाब ऑफ़ पटौदी सीनियर और उनकी बेगम का जिक्र कर रहे थे जिनसे हम जैसे श्रोताओं को रत्तीभर भी मतलब नहीं था. १० मिनट के बाद विज्जी ने कहा की इसी बीच मांजरेकर  १2 रन बनाकर रन आउट होकर चले गए हैं और नाडकर्णी पिच पर खेलने आये हैं.  
 

हमलोगों की जोरदार टक्कर HSL कॉलोनी की टीम से होती थी जिसका कप्तान डॉ० रोशन लाल का लड़का नरेन् हुआ करता था. बाद में HSL कॉलोनी, SAIL/MECON कॉलोनी हो गयी. जिस मैदान में हमलोग खेलते थे उसे एक बड़ा स्टेडियम बना दिया गया. इसी स्टेडियम में खेलते हुए महेंद्र सिंह धोनी से माही हो गया. १९६६ में हमलोग शहर के दक्षिण-पूरब कोने में विकसित होते HEC कॉलोनी में आ गए.

१९६६ में हेम दोनों भाई पोस्ट ग्रेजुएशन कर रहे थे. सिर्फ १ घंटा समय मिलता था शाम को. सरकारी बंगले के २०/१० मीटर के कोर्टयार्ड में घमासान क्रिकेट हुआ करता था. बल्ला स्टैण्डर्ड, बाल टेनिस का और विकेट की जगह एक १५ किलो का पत्थर का स्लैब. एक विशेष नियम यह था की ऑफ साइड पर शीशे की खिड़की पर लगने पर आउट करार दिया जाता था. आसपास के सभी उम्र के १०-१५ बच्चे जमा हो जाते थे. अक्सर झगडा भी होता था. कभी टीम सिलेक्शन को लेकर तो कभी LBW/रन आउट को लेकर. सबसे ज्यादा घमासान तब होता था जब बाल स्लैब को छूकर निकल जाती थी. तब फैसला बालकनी में बैठे अभिभावक करते थे. मेरे बड़े भाई का हुक शॉट कमाल का होता था. मैं आउट स्विंगर बहुत सटीक डालता था और १० वर्ष का सुबीर महंती ऑफ ब्रेक. रविवार को खेल दो पारिओं का होता था. उस दिन मूर्ति और गुप्ता अंकल भी जोर-आजमाईश करने आ जाते थे. मेरे सबसे बड़े भाई भी मेडिकल कॉलेज से आ जाते थे. उनका कवर और स्ट्रेट  ड्राइव देखने लायक होता था. कवर पर शीशे की खिड़की होने के कारण हमलोग कवर ड्राइव का भरपूर आनंद नहीं उठा पाते थे. हमलोगों की तकरार टेस्ट क्रिकेटर को लेकर भी होती थी. बड़े भाई के पसंदीदा खिलाड़ी पटौदी थे जबकि मेरे चंदू बोर्डे.

१९६७ के भयावह दंगे में बहुत-कुछ प्रभावित हुआ. १५ दिन बाद दंगे शांत होने के बाद भी कोई घर से बाहर नहीं निकलता था. तब मूर्ती और यादव अंकल ने मोहल्ले के लड़कों को आवाज लगाई. हमलोग भी बहुत बैचेनी से दिन काट रहे थे. कॉलोनी के मैदान में विकेट गाड़ी गयी. हमलोग के साथ बुजुर्ग भी या तो खेलने लगे अथवा परिवार के साथ खेल देखने लगे. अच्छी-खासी दर्शक दीर्घा के कारण खेल का बहुत आनंद आ रहा था. क्रिकेट के चलते दूसरे दिन से HEC Township में प्रायः स्थिति सामान्य हो गयी. लोकल समाचार पत्रों में ये खबर सुर्खिओं में  आयी.

पूर्णरूपेण क्रिकेटर बन पाने का अवसर १९६९ में नौकरी के बाद लगा.

क्रमशः ......क्रिकेट -३ 

Thursday, April 1, 2021

क्रिकेट - १

But eventually it is a game of cricket.
Sachin Tendulkar


१९५६ के जुलाई माह में मेरा दाखिला पटना कालेजियट स्कूल की सातवीं कक्षा में हुआ. अजय भैया की इंग्लिश बहुत अच्छी थी . उन्हें हमेशा ८० के आसपास नम्बर आते थे . उन्हें इंग्लिश की बुनियादी शिक्षा दादाजी से मिली और उसके बाद पिताजी ने उन्हें हाथो-हाथ लिया. मुझे भी दादी चोरी-छुपे दादाजी से ओट करके इंग्लिश की पढाई ध्यान से सुनने का बढ़ावा देती रहती थी. पिताजी अजय भैया को पढाते समय मुझे अवश्य पास बिठाते थे. छमाही परीक्षा में मुझे भी ७६ नम्बर आये. मुझे याद है उस दिन तबियत ठीक न होने के कारण मैं स्कूल नहीं गया था. शाम को चार- पांच सहपाठी मेरे घर आये और मुझे बताया की मुझे इंग्लिश में सबसे ज्यादा नम्बर मिले हैं. उनमे से एक निर्मल, जो इंग्लिश मीडियम से हमारे स्कूल आया था. वह दूसरे नम्बर पर था. उसकी आँखों में क्रोध और इर्ष्या झलक रही थी. निर्मल ने इंग्लिश में मुझसे संवाद करने चाहे जिसमे मैं बुरी तरह असफल रहा.
पिताजी को मेरे में भी कुछ प्रतिभा दिखने लगी. अब वे मुझे क्रिकेट कि इंग्लिश कमेंटरी में भी बिठाने लगे. उन्हें महाराजकुमार विजयनगरम उर्फ विज्जी की कमेंटरी बहुत भाति थी. मैं गिल्ली-डंडा तो खेलता था पर क्रिकेट के बारे में मेरी जानकारी शून्य थी. कमेंटरी के साथ-साथ , पिताजी क्रिकेट खेलने कि बारीकी भी बताते जाते थे. जो कुछ मैंने सुना और समझा था वह क्रिकेट समझने और खेलने के लिए पर्याप्त था. जैसे, टेस्ट मैच इंडिया और ऑस्ट्रेलिया के बीच हो रहा था. ऑस्ट्रेलिया के कैप्टेन रिची बेनाड थे . इंडिया का कैप्टेन रामचंद्र थे. ऑस्ट्रेलिया की टीम में लिंडवाल, डेविडसन और हार्वे जैसे दिग्गज थे जब की भारत के तरफ से मांकड, उमरीगर, गुप्ते और जसु पटेल जैसे खिलाड़ी थे. बैट, बाल, विकेट, २२ गज की दूरी, बैटिंग, बालिंग, फील्डिंग, १,२,३,४,और छक्का इत्यादि की जानकारी होती जा रही थी.
पिताजी का अंग्रेजी पढ़ाने का तरीका भी नायब था. कभी कोई कहानी पढने को देते और कहते की शाम तक पढ़कर उसकी समरी लिख कर रखना. इसी तरह उनकी अनुपस्थिति में हुए मैच का विवरण बताना. हद तो तब हो गयी जब उन्होंने हमलोगों से दिनभर के मैच का सारांश लिखवाना शुरू किया. 

शायद अक्टूबर, १९५६ का महीना था. बम्बई टेस्ट में इंडिया ने बहुत अच्छा खेला था. मैच ड्रा पर छूटा था. पिताजी से लेकर हम सभी बहुत खुश थे. उसी उमंग में हम तीनो भाई अपने सामने के कोर्टयार्ड में निकल आये. बैट के नाम पर एक लकड़ी कि कुर्सी का पीछे टूटा डंडा था जिसकी लम्बाई तीन फीट और दो इंच की मोटाई रही होगी. हमलोग ६ इंच के व्यास के रबर बाल से फुटबाल खेला करते थे. उस समय हमलोगों के पास उसके सिवा बालिंग के लिए कुछ भी नहीं था. १४ गज की लम्बाई और ६ गज की चौड़ाई की ज़मीन थी. गैरज की दीवाल पर ईंटें से तीन लकीर खींची गयी.

मैं बाल फेंक रहा था जैसे गिल्ली फेंकी जाती हो. अजय भैया डंडा भांज रहे थे . छोटा भाई मनोज और छोटी बहन नीरजा फील्डिंग कर रहे थे. अजय भैया से तो डंडा घूम भी जाता था और कभी-कभी बाल पर लग भी जाता था पर मैं और मनोज सीसम की भारी लकड़ी को ठीक से सम्हाल भी नहीं पा रहे थे.
तभी मेरे क्लास का एक सहपाठी अनिल हमलोगों की परेशानी देखकर गेट से अंदर आ गया. उसने बालिंग और बैटिंग कर के दिखाया. साथ ही उसने हमलोगों को अपने घर के मैदान में आने को कहा जहां पड़ोस के लड़के जमा होकर क्रिकेट खेलते थे.
हमलोग अब दोस्तों की एक नयी दुनिया में प्रवेश कर रहे थे. क्रिकेट की दीवानगी तब परवान चढ़ने लगी जब अलेक्जेंडर की कप्तानी में दिसंबर , १९५८ में वेस्ट इंडीज की क्रिकेट टीम पांच टेस्ट मैच खेलने हमारे देश आई. हमलोग तीन टेस्ट हार चुके थे और एक टेस्ट ड्रा पर छूटा था. पांचवां अंतिम टेस्ट मैच दिल्ली में खेला जा रहा था . वेस्ट इंडीज़ की तरफ से सोबर्स, कन्हाई, हंटे जैसे दिग्गज बल्लेबाज थे और हॉल- गिलक्रिस्ट के तूफानी गेंद्बांजो की जोड़ी थी. हमारी तराफ रॉय, कंट्रेक्टर, उमरीगर, मांजरेकर जैसे बल्लेबाज , गुप्ते, देसाई जैसे बॉलर ,मांकड-गायक्वाद जैसे आल राउंडर थे . भारत के ४००+ के जवाब में इंडीज़ ने ६०० से ज्यादा का विशाल स्कोर खड़ा कर दिया था. हॉल-गिलक्रिस्ट की तेज गेंदबाजी ने हम कमेंटरी सुनने वालों तक के होश उड़ा रखे थे. ऐसा लगने लगा था कि भारत इस मैच को भी नहीं बचा पायेगा . तभी एक नए खिलाड़ी बोर्डे ने कमाल दिखाना शुरू किया .वह पहली पारी में भी १०९ रन बनाकर अविजित था. दूसरी पारी में बोर्डे ९६ रन बनाकर गिलक्रिस्ट की और मैच की आखिरी गेंद खेलने जा रहा था. गिलक्रिस्ट ने उस समय ऐसा किया जो शायद पहले किसी ने नहीं किया होगा और बाद में उस तरह की बालिंग को बैन कर दिया गया. उसने विकेट के पास खड़े होकर एक ७० डिग्री का प्रोजेक्टायिल फेंका जिसे डंकी ड्रॉप कहा जाता है. यह विकेट बहुत सटे पीछे जाकर गिरा. चौका लगाने की धुन में बोर्डे हिट विकेट आउट हो गया. यह मैच बराबरी पर छूटा. मुझे आज भी वह दिन याद है, ११ फरवरी १९५९. याद इसलिए रहा क्योंकि १२ को मेरा जन्म दिन था.
हमलोग 2 टीम बनाकर मैच खेलते. मैच क्या लड़ाई-झगडे का मौक़ा. सेकंड हैण्ड टेनिस बाल चन्दन स्टोर्स से १ रुपये में मिल जाता. बैट और विकेट हमलोगों ने पड़ोस के बढ़ई से बनवा लिया था.  पहले बल्लेबाजी करने वाली टीम बल्लेबजी करके भाग जाती. इसके लिए टॉस करना जरूरी समझा गया. कोई बदलाव नआने के कारण पहले बल्लेबाजी टीम को कसम खानी पड़ती थी की वह भागेगा नहीं.  अंत में मोहल्ले के दादा की देखरेख में खेल होने लगा. इसके लिए उम्र और कद के बड़े दादा को भी किसी टीम से खिलाना पड़ता. दादा थे की आउट होना अपमान समझते. थोड़े नरमदिल थे. जब मन भर जाता तब वे खुद ही हट जाते . 
अगस्त, १९५९ में भारतीय टीम पांचो टेस्ट इंग्लैंड से हार कर लौटी. वे भी क्या दिन थे. शायद तब इंग्लैंड की कमेंटरी भारत रिले नहीं करता था या फिर हमलोगों को मालूम नहीं था. 2 दिनों बाद अख़बारों से खबर  मिलती थी. हमलोग क्रिकेट मैच के फोटो अख़बारों से काट कर अपने एल्बम में रख लेते थे और दोस्तों के साथ फख्र से शेयर करते थे.

Thursday, October 8, 2020

लड्डू बाबू

 लड्डू बाबू का दोमंजिला विशाल लाल मकान ठीक अनुग्रह नारायण रोड के चौमुहाने पर था. पटना स्टशन से आती सड़क बाई तरफ बाकरगंज की ओर मुड जाती थी. दाहिने तरफ बुद्ध मार्ग पर विशाल बुद्ध की मूर्ती थी. सीधी एक फर्लोंग लंबी सड़क का नाम स्वंतंत्रता सेनानी बाबू अनुग्रह नारायण सिंह के नाम पर था जो कांग्रेस मैदान तक जाती थी. कहते हैं, आज़ादी के पहले अनुग्रह बाबू का तहखाने वाला घर घर कांग्रेस ने गुप्त मीटिंग के लिये बनवाया था. इसी सड़क से डॉ० राजेंद्र प्रसाद कांग्रेस मैदान के पीछे अपने बेटे के घर जाया करते थे. इसी सड़क से जय प्रकाश नारायण चरखा व् भूदान समिति के कार्यालय जाते. लड्डू बाबू का मकान इस सड़क के बाई तरफ का पहला मकान था.

लड्डू बाबू का मकान क्या पूरी हवेली थी. चारों तरफ बगीचा. सामने की तरफ तरह-तरह के गुलाब. 15-20 छायादार पेड़ों के घूँघट से हवेली का कुछ हिस्सा ही दिख पाता था, वह भी गौर से देखने पर. लगभग 35 वर्ष के लड्डू बाबू स्वयं पतले-दुबले, नाटे कद और गोरे चौकोर मुंह के जब भी दीखते अपनी वकील वाली काली पोशाक में. उनकी विधवा माँ इसके विपरीत मोटी-ताज़ी गरजदार वाली आवाज से दोमंजिले के झरोखे से माली को हिदायत देते दिखती.इतना कुछ हमलोगों को स्कूल जाते वक्त या मोड पर राशन के दुकान जाते वक्त सुबह दीखता. अगर लड्डू बाबू की माँ दिख जाती तो नजर सीधी ओर कदम में अपने आप तेजी आ जाती. मात्र 2 सेकंड की झलकी मिलती. जो पेड़ों से नहीं छिपता वह उनके हाते के सड़क से सटे प्रेस वाला दोमंजिला बिना खिडकी का मकान ढक लेता. लड्डू बाबू की माँ डायन थी. ऐसा भगौती चाय वाले ने बताया था.

लड्डू बाबू के बाकरगंज वाले सड़क के गेट से सटे सरकारी जमीन पर भगौती याने भगवती की चाय दुकान थी. सुबह सवेरे वह सफाई कर्मियों को चाय पिलाता था . सफाई कर्मी मतलब, सर्विस टोइलेट साफ़ करने वाले, सड़क पर झाडू देने वाले और कचरा इकठ्ठा कर कचहरी गाड़ी वाले. अपने काम से फारिग होने के बाद ये सभी 50-60 जन भगौती की दुकान से एक गिलास चाय लेते और टेढ़े-मेढे डंडे वाला ब्रेड लेते और वहीँ फूटपाथ के उठान पर पसर जाते. इसके बाद पुलिस कर्मी, चपरासी और नौकरों का नंबर आता. सभी अपने काम पर लगने के पहले भगौती की दुकान पर हाजरी लगाते. हम बच्चे कभी भी उसके दुकान पर आ धमकते. एक पैसे वला टेढा-मेढा ब्रेड का करारा डंडा और कभी-कभी पैसा रहने पर तीन आने वाला लेमनेड बहुत ही रोमांचकारी लगता. तब लेमनेड की बोतल का मुंह एक कांच की गोली से बंद रहता जिसे भगौती ही खोलकर हमलोगों को देता. जैसे ही गोली रास्ता देती फुश के साथ गैस निकलती. ज्यादातर लेमनेड की बोतल हम दो-तीन बच्चे शेयर करते. दोपहर को दो बजे के आसपास जब सन्नाटा छा जाता तब भगौती की दुकान गंजेडियो के धुँए और धमक से भर जाती. भगौती एक हाथ से चिलम पकड़ कर कश लगता ऐसा की लपट निकल जाती. हमलोग दूर से वह लपट देखने के लिये रुक जाते.तभी मालूम हुआ कि ऐसे चमत्कारी लोगों को भी गुरु कहकर संबोधन किया जाता है. 1956 के बी०एन०कॉलेज गोली कांड के समय छात्रों के जुलुस को भगौती बाल्टी में शरबत बना कर पिलाता. कुछ वर्ष बाद भगौती सचमुच दाढ़ी और केश बढ़ाकर गुरु हो गया था.

गर्मी की दोपहरी में जब हमलोग सुबह के स्कूल से लौट रहे थे तो ठीक चौमुहानी पर सैकड़ों लड़कों का हुजूम दिखा. बहुत से लड़के लड्डू बाबू के अहाते में घुसकर बगीचा तहस-नहस कर रहे थे. कुछ लड़के उनके घर की खिड्कियों पर पत्थर फेंक रहे थे. राहगीर और रिक्शा चौमुहानी से न जाकर लौट जा रहे थे. हमलोगों ने भी दूसरा रास्ता लिया. हमलोगों ने सब्जीवाले से पूछा. उसने झटके से बताया कि उस हवेली की डायन ने एक लड़के को कच्चा चबा लिया. उस रात बहुत मुश्किल से नींद आई.

दूसरे दिन चपरासी ने बताया कि किसी स्कूली लड़के को फूल तोड़ते समय माली ने लोटा फेंक कर मारा था. बाद में वह लड़का रोते हुए अपने स्कूल पहुंचा. क्रोध में सब स्कूल छोड़ हवेली की ओर दौड पड़े और बहुत तोड़फोड़ की. स्कूल से लौटने समय देखा कि पुलिस आई हुई थी और बहुत सारे गमले टूटे पड़े थे. पुलिस ने तो कुछ नहीं किया. अव्वल भगौती ने रास्ता निकाला. पाटलिपुत्र स्कूल के 100 से ज्यादा छात्रों को घर के बगीचे में बिठाकर भोजन कराया गया. लड्डू बाबू की शादी की तिथि नजदीक आ रही थी इसलिए पूरे घर का रंग-रोगन कराया गया. हवेली फिर लाल रंग में डरावने रूप से खिल गयी.

लड्डू बाबू के आहते के प्रेस वाले भवन की दीवार हमशा रंग-बिरंगे फ़िल्मी पोस्टर से ढकी रहती थी. मुझे आज भी फिल्म “दायरा” का आदमकद पोस्टर याद है. गोल घेरे के बीच एक औरत. सबसे दहलाने वाला पोस्टर लगा था “दो आँखें बारह हाथ” का. एक किनारे ६ डकैत, आकाश से घूरती दो बड़ी-बड़ी आँखें और दूसरे किनारे से एक विशालकाय दौडता हुआ सांड.

हमलोग जब पटना छोड़े उसी वर्ष लड्डू बाबू की शादी हुई. हमलोगों के घर भी न्योता आया था. दो ऊँट , तीन हाथी, पंजाब बैंड और विक्टोरिया पर दुल्हा गया था बरात लेकर. माँ शादी के सब कार्यक्रम में शामिल हुई थी. वह बताती थीं कि लड्डू बाबू की माँ बहुत स्नेही और मिलनसार थी. वह गठिया से बहुत बुरी तरह ग्रसित थी इसीलिये ज्यादा समय वह बालकोनी में बैठकर सड़क की चहल-पहल से मन लगाती थी और सारे हुकुम बालकोनी से चिल्ला-चिल्ला कर अपने मातहत को देती थी, इसी कारण बच्चे उनसे डरने लगे थे.