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Wednesday, June 12, 2013

देशी कट्टा

१९६० के दशक में स्कूल और कॉलेज के लड़कों के लिए बाइसिकल होना एक गर्व की बात होती थी. अगर बाइसिकल इंग्लिश मेक हर्क्युलस या रैले हो तो सोने पे सुहागा. खुशकिस्मती से हम भाईयों के पास दोनों थी. १९७० का दशक आते ही उसकी जगह स्कूटर ने ले ली. हमार छोटे भाईयों के लिए वही साईकिलें सरदर्द बन गयी. एक दिन वे दोनों पुरानी साईकिलें चोरी हो गयी.
१९७० के आस-पास स्वदेशी हीरो साइकिल ने बाजार में तहलका मचा दिया. अब किशोर और बच्चे स्वदेशी स्पोर्ट्स साईकिले लेने लगे. ये सस्ती भी होती थीं. अचानक पुरानी इंग्लिश मेक साईकिले मिलनी तो दूर दिखनी भी बंद हो गयी. हैरत में तो हमलोग तब आये जब मेरे एक मित्र के घर चोर मात्र पुरानी रैले साइकिल ही चोरी करके ले गये.

ये विदेशी साईकिलें स्पेशल स्टील के ट्यूब से बनती थीं. १९७० के दशक में दो ऐतहासिक बातों ने इन ट्यूबों की मांग अत्यंत बढ़ा दी थीं. पहला था लाखों बांग्लादेशियों की घुसपैठ और दूसरा नक्सली संगठनों का उद्भव. पहले को कट्टा( पिस्तौल) बनाने की महारत हासिल थी तो दूसरे को ऐसे पिस्तौल और बंदूकों की बेहद जरूरत.

देशी कट्टा और बन्दूक बाद में स्वदेशी साईकिलों के स्टील ट्यूब से भी बनाया जाने लगा पर ये बुरी तरह असफल रहा. पहले ही शॉट पर इससे बना बैरल फट जाता था और इस्तेमाल करने वाला ही घायल हो जाता था.  २१वी सदी में कार के स्टीयरिंग के ट्यूब देशी कट्टा और बन्दूक बनाने में इस्तेमाल में आने लगेये हकीकत मुझे हाल की एक फिल्म की रुशिंग्स देख कर मालूम हुआ.
अब तो बाज़ार में इतना काला धन आ गया है कि कोई उपद्रवी एके और माजर से कम इस्तेमाल करना तौहीन समझता है और विदेशी स्मगलरों की तो चांदी हो गयी है.


Thursday, June 6, 2013

ब्रेड स्टिक

बचपन और बचपना पूरी निखार पर आता है जब उम्र पांच से दस वर्ष के दरम्यान होती है. तहलका तब मचता है जब इस उम्र के बीच के तीन-चार बच्चे हों. और अगर सभी सहोदर भाई-बहन हों तो सुनामी कोई नहीं रोक सकता, एनिड ब्लाईटन भी नहीं. 
 1950 का दशक, हम तीन भाई , दस, आठ और छ वर्ष के, एक ही स्कूल में पढने जाते थे. गर्मी के दिनों में स्कूल सात बजे सुबह शुरू होता था. पिताजी सुबह छ बजे ही इंस्पेक्शन पर निकल जाते थे. वे म्युनिसिपल कारपोरेशन में वरिष्ठ पद पर थे. पर उनका इंस्पेक्शन आज़ादी के पहले
के स्टाइल पर ही चलता था. उनके कॉलेज के जमाने की 1930 की हरक्युलिस बाइसिकल, खाकी हाफ पेंट, उजली हाफ शर्ट और सर पर खाकी हैट. वे जबतक लौटते हमलोग स्कूल जा चुके होते थे.




स्कूल एक चौरस्ते से होकर जाना पड़ता. फूटपाथ और सड़क के बीच एक सात-आठ इंच चौडीं ईंटों की पगडण्डी पर चलते हुए जाने के रोमांच के बीच स्कूल कब पहुँच जाते थे पता ही नहीं चलता था. पर एक व्यवधान था. सुबह के स्कूल के समय, सभी सड़क-सफाई कर्मचारी अपना काम निबटा कर अपने परिवार के साथ उसी पगडण्डी पर बैठ कर चाय की
चुसकिया लेते रहते थे. पूरे चौरस्ते यही नजारा रहता था. इतना ही नहीं, वे लोग और उनके बच्चे लहराते सांप की आकार का ब्रेड की डंडी उसी चाय में डुबा-डुबा कर आवाज के साथ खाते थे. उस सांप जैसे ब्रेड की डंडियों में सांप ही जैसा अजीब सा सम्मोहन था. कितने बार तो हम भाईयों में से कोई एक या उससे ज्यादा उस क्रिया-कलाप को देखने के चक्कर में या तो लडखडा के गिर जाते थे या आपस में टकरा जाते थे.
ये तो होना ही था. हम लोगों ने तय किया कि अगली सुबह हमलोग कुछ पहले निकलेंगे और इसका लुत्फ़ लेते हुए स्कूल की और बढ़ेंगे. शायद ये उस समय का सबसे सस्ता नाश्ता रहा होगा.
हमलोगों ने तीन चाय से भरी ग्लासेस ली और तीन ब्रेड स्टिक लिया. सबकुछ बीस पैसे में आ गया. जबतक पगडण्डी तक पहुंचे,  वहा बैठे बच्चों ने जगह बना दी थी. हमलोग उनके बीच  बैठकर चाय-ब्रेड का लुत्फ़ उठाने लगे.
ये भी होना ही था. उसी समय पिताजी, बाइसिकल पर सवार ,सड़क के दोनों तरफ मुआयना करते लौट रहे थे. उन्होंने बहुत ही मुस्कुराते हुए हमलोगों की तरफ देखा. अब उनकी मुस्कराहट का सबब समझ में आता है. वो यह देख कर खुश हो रहे थे कि सड़क कर्मचारी भी अब अपने बच्चों की पढाई की तरफ ध्यान देने लगें हैं. पर उनकी मुस्कराहट पलक झपकते बौखलाहट में बदल गयी. उन्होंने ऐसा 1950 के दशक के सपने में भी नहीं सोचा होगा. हम तीनो फ्रीज शॉट में तब्दील हो गए. बड़े भाई का मुंह खुला था और स्टिक दो इंच सामने पैतालीस डिग्री पर रुक गयी थी. छोटा भाई सड़क की जमीन पर रखी गरम चाय का गिलास उठाने ही वाला था. मेरा ब्रेड स्टिक, चाय में डुबकी लगाने के बाद बाहर आने की बेताब उतावली में था.
सब पिताओं में कुछ न कुछ अच्छाई अवश्य होती है. मेरे पिता जी कभी भी बीच सड़क में न तो डाटते थे और न पीटते थे. पूरी आतिशबाजी बड़े आराम से शाम के समय परिवार के बीच हुई.
आज ५५ वर्ष बाद मैंने शाम को अपनी बेटी को वैसे ही एक आकृति को चाय के साथ खाते देखा तो हँसे बिना नहीं रह सका. उसे अब ब्रेड स्टिक और बैगेल ट्विस्टर के नाम से जाना जाता है.
जब मैंने यह आपबीती सुनायी तो उसका हँसते-हँसते बुरा हाल हो गया. तब पहली बार उसने बताया कि उसके बाबा यानी मेरे पिताजी बच्चों के साथ लुका-छिपी खेलते थे और डराने के लिए अपना दांत पलास से तोड़कर दिखाते थे. 
जवानी को तो लौटते न पाया और न सुना पर बचपना पूरी समझदारी के साथ एक बार फिर लौट कर आता है.

Friday, May 31, 2013

जन्मदिन

जन्मदिन क्या होता है यह मुझे पहली बार पता चला जब मेरे स्कूल में 2 अक्टूबर को महात्मा गाँधी के जन्मदिन के उपलक्ष में छुट्टी मनाई गयी । मेरी उम्र कोई 7 वर्ष की रही होगी । उसके बाद 14 नवम्बर को नेहरु जी का जन्मदिन, बाल दिवस के रूप में मनाया गया । उस दिन मैंने पहली बार कठपुतली का खेल देखा था । सबसे नजदीकी सामना तब हुआ जब मेरे स्कूल के बहुत ही डरावने हेडमास्टर का जन्मदिन मिठाई बाँट कर मनाया गया । स्वयं हेडमास्टर एक-एक बच्चों को मिठाई बाँट रहे थे लाइन में खडा करके । मन रोमांच से तब भर आया जब मेरे दोस्त की माँ ने पड़ोस के सभी हमउम्र बच्चों को बुलाकर तरह-तरह के पकवान खिलाये ।  मेरे दोस्त का जन्मदिन बसंत पंचमी को मनाया जाता था ।
उसी दिन मैंने अपनी माँ से पूछा था कि मेरा जन्मदिन कब है । मेरी माँ उस समय बरामदे में कोयले के चूल्हे के पास बैठी भोजन पका रही थी । मुझे अभी भी याद है । माँ की आँखे छलछला आई थीं । उसने मुझे सीने से लगा लिया और बताया कि मेरा जन्मदिन दो दिन पहले 12 फरवरी को बीत गया था और ये भी कि उस दिन अब्राहम लिंकन का भी जन्म हुआ था ।
माँ तो माँ ही होती है । उसने उसी दिन, उसी समय मेरा जन्मदिन मनाने की ठान ली । उसने थोड़ा मैदा लिया । एक ब्रेड का स्लाइस ढूंढ लायी । एक अंडा लिया । चीनी और दूध की मलाई के साथ सभी को घोंटकर एक अल्युमिनियम के टिफ़िन के डब्बे में सेट कर दिया । उस डब्बे को बंद कर जहाँ कोयले के चूल्हे की राख गिरती है वहीं रख दिया । आधे घंटे में एक स्वादिष्ट केक तैयार हो गया जिसे हम सभी भाई-बहनों ने प्रफुल्लित मन से शेयर किया । मुझे अभी भी याद है । उस केक को खाने लायक ठंडा होने में 10 मिनट लगे थे जो हमलोगों के लिए १० घंटे से कम नहीं थे । मेरे किसी दूसरे जन्मदिन में, माँ ने इसी तरह पुडिंग बनायी थी , आइस-ट्रे नुमा बर्तन में, बिस्कुट, अंडा, दूध और चीनी घोटकर. 
इतने से तो जाहिर हो ही जाता है कि मैं एक मध्यम वर्गीय परिवार का सदस्य था जिसमें एक बहुत ही ईमानदार सरकारी मुलाजिम पर तकरीबन 15 लोगों के भरण-पोषण की जिम्मेवारी थी जिसमे दो सरकारी चपरासी भी शामिल थे । इन्द्रधनुष के तो सात रंग होते हैं पर हम सभी 15 जन अपना एक अलग ही रंग लिए हुए थे ।
मेरे सबसे बड़े भाई ननिहाल बनारस में पले-बढे. उनका जन्मदिन राजकुमार की भांति मनाया जाता था   मेरे दूसरे बड़े भाई ने अपना जन्मदिन मनाने का एक नायाब तरीका ढूंढ लिया था । वे एक दिन पहले से ही घोषणा करते रहते थे कि उनका जन्मदिन कल है और उन्हें कल न तो कोई डांटेगा और न कोई कुछ काम करने को कहेगा । सुबह-सबेरे नहा-धोकर, धुले कपडे पहनकर शायद बड़ों से आशीर्वाद  और थोड़ी-बहुत पूजा भी करते थे  मेरे बाद का भाई तो पूरा मस्त मौला था । उसे जन्मदिन से कुछ भी लेना-देना नहीं रहता था । न वह किसी को कुछ कहता था और न किसी को उसका जन्मदिन याद रहता था.
उसके बाद की बहन अपना जन्मदिन अवश्य मनाती थी । इसके लिए वह महीनों से कुछ न कुछ इंतजाम करती रहती थी । परन्तु, 1963 के 27 मई को जब हमलोग केमिस्ट्री की परीक्षा में शामिल होने के लिए कॉलेज के बरामदे में खड़े थे तभी खबर आई की हमारे प्रधान मंत्री पंडित नेहरु का स्वर्गवास हो गया था । हमलोग जब घर लौटे तो मालूम हुआ कि आज घर में चूल्हा ही नहीं जला था । बहुत रात को पिताजी ने बच्चों के लिए होटल से थाली मंगवाई थी । मेरी बहन कुछ नहीं तो तीन वर्षों तक अपना जन्मदिन ठीक से नहीं मना पायी । 
मेरी दूसरी छोटी बहन का तो पूरा दिन रोते-रोते बीत जाता था । न वह किसी से बोलती थी और न किसी को उसका जन्म दिन याद आता था । आज शायद उसका जन्मदिन सबसे धूमधाम से मनाया जाता है ।उसके बाद के मेरे जुडवा भाई-बहन इस मामले में ज्यादा खुशकिस्मत निकले । एक तो हमलोगों को तबतक जन्मदिन मनाने की तमीज आ गयी और दूसरे घर की माली हालत भी बेहतर हो गयी थी । बाद में तो सबसे छोटे भाई का जन्मदिन वर्ष का सबसे अच्छा दिन हो जाया करता था । हम सभी भाई-बहन कुछ-न-कुछ जुगाड़ लगाकर उसे गिफ्ट देते थे.
मेरी नौकरी 6 फरवरी को लगी । 12 फरवरी को मैं एक केक लेकर ऑफिस पहुंचा । लंच-ब्रेक में जब मैंने वह केक निकाला तो इस्पात बनाने वाले कारखाने में चारो तरफ उसकी बात हुई । 
मेरे बॉस बहुत ही मिलनसार और हंसमुख व्यक्तित्व के थे । उन्हें साथ-साथ खाने-खिलाने और सिनेमा देखने का बेहद शौक था । उस दिन से मैं उनका ब्लू-आइड दोस्त हो गया जब मैंने उन्हें सुझाया कि क्यों न हमलोग सभी का जन्मदिन, पार्टी और सिनेमा देख कर मनाएं । आजतक मुझे अपने सभी करीबी साथियों का जन्मदिन याद है । वैसे मेरे बॉस का जन्मदिन २ अक्टूबर को पड़ता था जो महात्मा गाँधी का भी जन्मदिन था ।
शायद कहीं पढ़ा हो या किसी फिल्म में देखा हो, मुझे बचपन से यह चाह रही कि जब सुबह नींद खुले तो मुझे मेरे बगल में सरप्राइज गिफ्ट दिखाई पड़े और परिवार एकजुट होकर जन्मदिन की बधाई दे । ऐसा मेरे साथ तो नहीं हुआ बल्कि कितने जन्मदिन बिना याद किये, बधाई दिए या मनाये बीत गए । मैंने अपनी इस इच्छा को भरपूर असली जामा पहनाया जब मेरी शादी हुई तबसे अपनी श्रीमती पर और बाद में अपने बच्चों पर । बच्चों को तो पता भी नहीं चलता था कि उनका बर्थडे गिफ्ट आया भी है या नहीं और अगले दिन उनका बर्थडे अच्छे से मनाया जाएगा भी कि नहीं । कभी-कभी तो कोई बच्चा बहुत उदासी के साथ सोता था पर अगली सुबह उसके लिए उसका मनपसंद गिफ्ट सिरहाने सहेजा मिलता था और बाकि सभी लोगों की हैप्पी बर्थडे की गूँज पर ही नींद खुलती थी ।
आज किसी के लिए भी अत्यंत महत्वपूर्ण दिन को मनाने में भी व्यवसायीकरण की पुट नजर आने लगी है । जैसे, जन्मदिन वीकेंड में मनाना, गिफ्ट्स का मेमोरी कार्ड बनाना जिससे कि उतनी ही कीमत का गिफ्ट लौटाया जा सके, बर्थडे किसी बड़े रेस्तरां, थीम पार्क या क्लब में मनाना और अगर दो बच्चों का जन्मदिन बहुत करीब हो तो एक साथ मनाना । मजे की बात यह है कि ऐसा सबकुछ सभी को बहुत अच्छा और सहज भी लगता है, जिसका जन्मदिन है उसे भी । अब तो वो मेरे बचपन का दोस्त भी अपना जन्मदिन बसंत पंचमी को नहीं, अंग्रेजी कैलेंडर के अनुसार मनाता है ।
काश, ऐसा टाइम मैनेजमेंट जीवन के सबसे महत्वपूर्ण अंतिम क्षणों के साथ भी हो पाता । कैसी विडम्बना है ! ऐसी खुशनसीबी भी चुनिन्दा बदनसीबों को ही नसीब होती है वह भी सबसे ऊपर वाले की मुहर लगने के बाद । उन्हें 24 घंटे पहले उनकी पसंदीदा धार्मिक पुस्तक दे दी जाती है और अंत में यह भी पूछा जाता है कि उनकी आखिरी इच्छा क्या है ।


Tuesday, February 26, 2013

D Das (दि दास)


दोस्तों में एक दोस्त बंगाली न हो तो दोस्ती में मिष्टी-दोई का आनंद नहीं रहता. दिलीप दास से जान-पहचान मेरी नौकरी के इंटरव्यू के दिन ही हो गयी. लौटते वक्त हमलोग साथ एक ही रिक्शे में बैठे.उसे उस वक्त टूटी-फूटी हिंदी आती थी. उसे मुझसे पहले उतरना था. जब रिक्शा आधी दूर ही पहुंचा था कि वह चिल्लाने लगा- “ हम गिरेगा.” मोटा तो वह था ही पर इतना भी नहीं कि रिक्शे में समा ही न सके. मैंने उसके लिए थोड़ी और जगह बना दी. उसके दुबारे चिल्लाने पर मैंने उसकी बांह पकड़ ली. फिर भी वह बांह छुड़ाकर गिर ही गया. चलते रिक्शे से गिरने के कारण ज्यादा चोट तो नहीं लगी पर उठाने की लिए मुझे रिक्शेवाले की मदद लेनी पड़ी. उसने खड़ा होते ही सामने का होटल दिखाया जहां वह ठहरा था. तब मेरी समझ में आया कि उसके गिरने का प्रयोजन उतरने से था. ये गिरने और उठाने का सिलसिला अंत तक चलने वाला था ये उस वक्त पता नहीं था.
नौकरी हुई तो शादी भी होनी थी. बरात को बिहार के सबसे अक्खड जिले आरा के मोहनिया गाँव जाना था. ये इलाका बहुत सी अजीबो-गरीब तौर-तरीके के लिए बदनाम या मशहूर था. बारातियों को खिलाने के लिए पूरी नहीं पूरा बनता था. दो फीट व्यास के पूरों को बांह पर तोलिये जैसा लटका कर खिलाने वाले लोग घूमा करते थे. बात-बात पर दोनों तरफ से लाठी और बन्दूक निकल जाया करती थी. इतना कि बाईजी के नाच के वक्त या खाने के वक्त भी चारों तरफ डंडा लेकर लोग खड़े रहते.
दिलीप को बिहारी शादी में शामिल होने की बहुत इच्छा थी पर डर भी उतना ही था. मुझे भी अपनी शादी में उसके जैसे खूबसूरत दोस्तों से रंग जमाने की ख्वाइश थी. मैंने उसे बताया कि वहाँ उसे बड़े-बड़े परातों में मिष्टी दोई परोसा जायेगा तो उसके मन में कुछ-कुछ होने लगा. मेरे बहुत हिम्मत देने पर और यहाँ तक कह देने पर कि उसे मैं अपने साथ-साथ ही रखूंगा वह तैयार हो गया.
जून की दोपहरी की गर्मी में वेयरहाउस में पुआल पर बिछाई दरी पर सोना, पालकी में बैठा दूल्हा और उसके साथ दौड़ लगाते बैंड-बाजा और बाराती, फारिग होने के लिए दूर मैदान में कोना तलाशना और गुड़ की चाय सभी को उसने खिलाड़ी भावना से लिया. बाईजी के नाच में भी उसने अपनी फरमाइश रखी-“आज सजन मुझे अंग लगा लो”. लेकिन जब उसका चेहरा बाईजी के घूँघट की ओट में पल भर के लिए छिप कर निकला तो देखने लायक था. डूबते सूरज पर भी वैसी लालिमा नहीं आती होगी जैसा उसके गोरे मुंह पर थी.
बरात लौटने के पहले एक रस्म होती है मड़वा-भात की. बारातियों को शादी के मंडप की जगह आदर से बिठा कर घर की रसोई में बना भोजन खिलाया जाता है जिसमे चावल-दाल और बेसन की पकौड़ियों की प्रमुखता होती है और अंत में मिठाई व दही भी परोसा जाता है. भीषण गर्मी का दिन था. मुझे आँगन में सीढ़ी की छाँव के नीचे कूएं के बगल में बिठाया गया. दिलीप मेरी बाईं तरफ बैठा.
खाने की तमीज इस प्रकार होती है कि जब सभी व्यंजन परोस दिए जाये और दुल्हे का पिता आज्ञा दे दे  तो खाना शुरू होता है. सब कुछ ठीक-ठाक हो रहा था. बहू-पक्ष के लोग भी कतार लगाये खड़े थे. काफी देर से कसमसाते दिलिप दास से रहा न गया. उसने दो बार फुसफुसाते हुए कुछ कहा पर हल्ले-गुल्ले में सुनाई नहीं दिया. अंत में, उसने जोर से जोर लगाकार कह ही दिया-“तुम तो कहता था कि परात भोर कर मिष्टी-दोई होगा पर कोथाय आचे !” चारों तरफ सन्नाटा छा गया.
तभी ऊपर सीढ़ी से भारी लट्ठ की धमा-धम कि धुन पर किसी के उतरने की आवाज़ नजदीक आने लगी. एक काफी बूढ़े झबरीली मूंछों वाले बुजुर्ग लट्ठ लिए मेरे और दिलीप के सामने खड़े हो गये. गुर्राहट भरी आवाज में उन्होंने पूछा- “कौन दही मांग रहे हैं.” गलत व्याकरण था या आदर का भाव, इसे समझने की ताकत किसमें थी ? सबलोग उस ठहरे समय में बस लठैतों का इन्तजार कर रहे थे. दिलीप के लाल तमतमाए चेहरे को देखकर कुछ ज्यादा जानने की आवश्यकता नहीं थी. उस बुजुर्ग ने सीढ़ी के ऊपर छत पर खड़े लोगों को आँख से इशारा भर किया और लोग दनदनाते नीचे उतरने लगे. सबके हाथों में एक-एक बड़ा दही का परात था . सात-आठ परात दिलीप के सामने रख दिए गए.
दिलीप हरेक काम कुछ अलग ढंग से करता था. अगर शेव करना हो तो उसे पन्द्रह मिनट तो टेबल पर समान सजाने में लग जाते थे जैसे कि कोई खास ओपरेशन करना हो. खाना खाने का ढंग भी निराला था. कहता था उसके तरफ के लोग कमो-बेस वैसे ही खाते है. सबसे पहले वह पूरा भात खा जाता था. रोटी तो खाता ही नहीं था. उसके बाद एक-एक कर परोसी गयी दो से पांच सब्जियाँ खाता था. उसके बाद दाल के कटोरे को मुंह से लगाता था. उसके बाद मिठाई या/और दही का नंबर आता था. अगर कोई मांसाहारी भोज्य हो तो उसका नंबर मिठाई के पहले आता था. अंत में पानी पीता था. चार-पांच तरह की सब्जियाँ किसी खास दिन ही परोसी जाती थीं जैसे सुरक्षा दिवस. ऐसे दिनों कैंटीन में बहुत भीड़ हो जाया करती थी. बड़ी मुश्किल से बैठने के लिए कुर्सी मिलती थी.
ऐसे ही एक खास दिन, दिलीप पूरे आधे घंटे तक आनंद के साथ खाना निबटाता रहा. रुई माछ भी थी और मिष्टी-दोई भी. हमलोग १५ मिनट पहले ही खाना खत्म कर उसके उठने का इन्तजार कर रहे थे और गप्पे लड़ा रहे थे. दिलीप का आज का फिनिशिंग टच बाकी था. उसने पाउच से टाबैको निकला, मसला और कागज पर पेंसिल के आकार में सजाया. हमेशा की तरह खड़े होकर जीभ से कागज चिपकाने की प्रक्रिया में जुट गया. अचानक वह गायब हो गया. हमलोगों ने बैठे-बैठे नजर दौडाई. खड़े होकर चारों तरफ देखा. तभी मेरे बगल के साथी की नजर जमीन पर पैर पसारे दिलीप पर पड़ी. कोई उसकी कुर्सी खींच कर ले गया था. हमलोगों का हँसते-हँसते बुरा हाल हो रहा था साथ ही उसकी तकलीफ भी देखी नहीं जा रही थी.
मुझे तो चार्ली चैपलिन के “लाईम लाईट” का वह वाकया याद आ रहा था जिसमे चैपलिन स्टेज की छत से नगाड़े पर पीठ के बल गिर गया था. ठीक उसी की तरह दिलीप भी आँखे नचा-नचा कर मदद करने का इशारा कर रहा था. उसके एक हाथ में माचिस और दूसरे में सिगरेट थी जिन्हें हाथ से छूटने के मौके की तलाश थी. हम दो दोस्तों ने मिलकर उसे किसी तरह उठाया.
ये प्रकृति और उसके क्रिया-कलाप भी लीक से हटकर कुछ नहीं करते हैं. आपको जिसने जितना दिया है उतना लेगा भी. आपको जिसने जितना हँसाया है उतना रुलाएगा भी. कुछ साल बाद केवल पचास की उम्र में उसे चार कंधो की जरूरत पड़ गयी.

सौजन्य : लक्ष्मी 



Monday, February 11, 2013

मान गए अनारकली !


अच्छे दोस्त की एक पहचान ये भी है की आप कुछ भी अनाप-शनाप लिख दे, वह तारीफ़ ही करेगा. मैंने एक कंजूस मौलवी की कन्जूसियत की हद पर अपने दोस्त के फेसबुक में लिखा. फेसबुक भी क्या चीज़ है. दस सेकंड में "लाईक" दिखने लगा. जाहिर है उसने बिना पढ़े ही क्लिक किया था. तीसरे दिन बड़ी मुश्किल से उससे बात हुई. पूछने पर उसने तारीफ़ में यहाँ तक कह दिया कि मेरी लेखनी में के०पी०सक्सेना की खुशबू है. इंसान भी क्या चीज़ है. समझते देर नहीं लगी कि उसने मेरा मन रखने के लिए कह दिया है.पर हमलोग सब किसी न किसी बहलावे के कारण ही जीते रहते हैं. मैंने खुश होते पर झेंपते हुए पूछ ही लिया कि ऐसा उसे कैसे लगा. उसने कहा कि बस थोड़ी कमी है. जहां मैंने पान कि गिलौरी मुंह में दबाते लिखा था उसे सक्सेना घुसेड़ते हुए लिखते. मैं कभी सक्सेना जी का लिखा खोज-खोज कर पढता था. ऐसा लगता था कि वे जो देखते थे उसे हु-बहू कागज पर उतार देते थे.
मुझे घुसेड़ने शब्द पर एक वाकया याद आ रहा है जो मेरे बॉस शर्मा जी के साथ गुजरा था. बात तबकी है जब मैं ३० का और मेरे बॉस ४० के हुआ करते थे. उन्हें अपने मातहतों का दरबार लगा कर आपबीती सुनाने का काफी शौक था. उसमें वे अपनी बेवकूफी बताने में जरा सी भी कंजूसी नहीं करते थे. उनके निचले होंठ की दायीं तरफ एक कटने का निशान था बिल्कुल शत्रुघ्न सिन्हा जैसा. चूंकि बदन-काठी और तौर-तरीके से वे वैसे लतखोर नहीं लगते थे इसलिए एक दिन जब वे बेतकल्लुफ थे तो मैंने उस कटे निशान के बारे में पूछ ही लिया. शुरू हो जाने में उन्हें देर नहीं लगती थी, एक किक में बिल्कुल वेस्पा स्कूटर की तरह.
वाक्या उनके कालेज के दिनों का था. सिनेमा हॉल में बीना रॉय वाली अनारकली फिल्म लगी हुई थी.
जिसे देखो वही मुगलेआजम, सलीम या अनारकली बना कैम्पस में नजर आ रहा था. प्रोफेसर हाथ पीछे कर नापते पर भारी कदमो से चहल-कदमी करते दिख रहे थे. लड़के अचानक पैंट-शर्ट की जगह चूडीदार पहने दिख रहे थे. कालेज में लड़किया ऐसे भी बहुत कम थीं. जो थी वो या तो अनारकली की तरह शरमाई हुई पैर के अंगूठे से जमीन कुरेदती दिख रही थी या लट बिखराए दीवारों के बीच चुनी जाती हुई महसूस कर रही थीं.
सबसे बुरा आलम शहर भर के गुलाब के पौंधो का था. सभी बिना फूल के विधवा लगते थे. गुलाब के झड़ने को तैयार फूल, जवान फूल और कलियाँ सभी कैम्पस के अंदर शोभा बढ़ा रहे थे. प्रोफेसर की पीठ के पीछे की हुई हथेलियों में दम तोडते, आकाश की ओर निगाहें किये हुए लडको के नाक के नीचे खुशबू बिखेरते और लड़कियों के बाल की सलवटो में अंगड़ाई लेते सभी तो गुलाब के फूल ही थे.
शर्मा जी का आय०क्यू० बचपन से ठीक-ठाक था. तुरत समझ गए ये सब कारस्तानी अनारकली फिल्म की है. देखना जरूरी हो गया. पर भीड़ का ये हाल कि कोई भूल-चूक होने की गुन्जायिश किसी को भी हाल के गेट के बाहर कर दे. दो दिन शर्मा जी मायूस लौट आये. तीसरी बार हनुमान चालीसा रटते-रटते फिर आजमाईश को निकले.
ग्रेजुएशन तक आते-आते उन्हें पान खाने की लत लग चुकी थी. पान की दुकान पर पंहुचे. पान वाले ने उनका घबड़ाया हुआ मायूस चेहरा देखकर समझा की शायद इस बार अचानक बेमौसम इम्तेहान शुरू हो गया है. पूछने पर मालूम हुआ की माजरा उतना मुश्किल नहीं था फिर भी शर्मा जी के लिए इम्तेहान से कम का नहीं था. कालेज के पढ़ाकुओं को गेट के बाहर पैर जमाये पानवालों और चाय की दुकान वाले भाईजी में फ्रेंड-फिलोसोफर-गाईड मिल ही जाता है नहीं तो मालूम नहीं ख़ुदकुशी करने वालो और पागलखाने में दाखिले का सालाना आंकड़ा क्या होता.
शम्भू पानवाले ने मुंह से पान के पीक बगल में पिचकारी मारते हुए तुरत हौसला दिया और कहा कि इन्तेजाम किये देते हैं. उसने शर्मा जी से उनका पेन और एक कागज माँगा. पेन तो मिल गया पर वहाँ हरे-भरे पत्तों के अलावा और कुछ भी नहीं था जिसपर टेंडर(हुक्मनामा) लिखा जा सके. लिहाजन, शम्भू ने शर्माजी की दाहिनी हथेली खींची और उसपर लिखा दिया,” शकूर मिया इन्हें घुसेड़ देना.बस इतना ही लिखा और कहा कि देखना क्या कमाल होता है.
शर्मा जी कहे मुताबिक़ १२ आने वाली सेकंड क्लास वाली गेट पर आ गए. शकूर मियाँ की खिजाब वाली बकरीनुमा दाढ़ी उनकी पहचान साबित कर रही थी. शर्मा जी ने हथेली शकूर मिया के आँखों के सामने कर दी. शकूर मिया ने पढ़ा. दुबारे गौर से पढ़ा और शर्मा जी को खींच कर बगल में खड़ा कर लिया.
तीसरी घंटी बज चुकी थी. लोग-बाग जिनको अंदर जाना था, जा चुके थे. जो बाहर रह गए थे वे ऐसे दौड़ कर अंदर घुस रहे थी जैसे ट्रेन छूट चुकी हो. तभी शकूर मिया ने अपने दाहिने हाथ से शर्मा जी का गला पीछे से भरपूर पकड़ा और बाएं हाथ से दरवाजा खोल उन्हें सही में अंदर जोर से घुसेड़ दिया.
अंदर घुप अँधेरा था. पहले तो सीढ़ियों ने धोखा दिया. गिरते-पड़ते शर्माजी की काया को कुर्सी  के हत्थे ने भरपूर संभालने की कोशिश की. पर होठ तो किसी और मकसद के लिए बनाया गया है. मुगलेआज़म के दरबार में जहाँ सलीम भी जलवाफरोश हों और अनारकली अपना जलवा बिखेरने वाली हो , वहाँ तो अदब से जाना था.