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Friday, August 25, 2017

विदेशी तडका - 6 :वे रूसी (Those Russians) !

1980 का दशक मेरे कार्यकाल का सबसे रोमांचक दौर था । इस समय HEC ने रेलवे के लिए ni-hard कास्टिंग्स और एस०जी० आयरन कास्टिंग भारत में पहली बार विकसित की । कास्ट आयरन, स्टील रोल और फोर्जे रोल में तो पहले से महारता हासिल थी । इसी समय प्राइवेट सेक्टर के भी दिग्गज इन क्षेत्रों में जोर-आजमाईश कर रहे थे पर गंदे तरीके से । वे तरह-तरह का लालच देकर हमारे होनहार इंजिनियर को ले जाते थे । इससे एक तो उन्हें विकसित प्रणाली मिल जाती थी और दूसरे उसे कार्यान्वित करने वाला इंजिनियर भी । हमारा पब्लिक सेक्टर कारखाना बेबस रह जाता था । फैक्ट्री बंद होने के कगार पर आ गयी । उसी दौरान रूस(USSR) को अच्छी गुणवता वाले कास्ट आयरन, स्टील रोल और फोर्जे रोल की सख्त आवश्यकता आन पड़ी । रूस को शायद दुःख भी होता होगा उनके कोलैबोरेशन से बनाए कारखाने का यह हश्र देखकर । रूस के साथ एक बड़े एम०ओ०यू० पर हस्ताक्षर हुए जिसके तहत रूस के विशेषज्ञों की देख-रेख में समय पर गुणवता वाले रोल्स बनाये गए । हमारे कारखाने को कुछ अवधि के लिये काम मिल गया और शायद रूस को सस्ते में सामान ।
इस बार रूस से 10 विशेषज्ञ इस काम को अंजाम देने आये । मेरी भूमिका एस०जी०आयरन कास्टिंग्स और रोल में तकनीकी कोआर्डिनेशन की थी । मिस्टर सोरोकिन 72 वर्ष के 140 किलो के भारी-भरकम लम्बे कद के हसमुख विशेषज्ञ थे जिनके साथ मुझे 1 वर्ष लगातार् काम करना था । विचार-विमर्श में कोई परेशानी न आये इसके लिए दो इन्टरप्रेटर भी आये थे । एक मैडम एलिज़ाबेथ थी(उम्र 55) जिनका नामकरण एलिज़ाबेथ टेलर जैसा रूप-धारण और रख-रखाव के लिए हुआ होगा । दूसरे मिस्टर इवानोव(उम्र 50) थे । ये हॉलीवुड के स्पाई थ्रिलर के नायक जैसा मिजाज रखते थे । मैडम डायरेक्टर मीटिंग में हिस्सा लेती थी जब की इवानोव कार्यक्षेत्र में दुभाषिया की भूमिका निभाते थे ।
सोरोकिन अपनी ताकत से हमलोगों को शर्मिन्दा कर देते थे । भारी ट्राली को धकेलना, पिघले लोहे की 10T भारी बाल्टी को अकेले रोल कर देना उनके लिए मुश्किल न था । एक इंच मोटे लोहे के टेस्ट पीस को हथोड़े से दो टूक कर देना उनके लिए बहुत आसान था । कार्य अवधि में इनलोगों में तनिक भी आलस या बेपरवाही नहीं झलकती थी । हमलोगों ने समय अवधि के अंदर आर्डर पूरा किया ।
सोरोकिन की विदाई का समय भी आ गया । उन्होंने मुझे और मेरे तकनीकी सहयोगी प्रदीप गुहा ठाकुरता को पत्नी सहित अपने हॉस्टल सुइट में डिनर पर आमंत्रित किया । डिनर टेबल पर एलिज़ाबेथ और इवानोव भी थे । हरी मिर्च से बने सुर्ख हरे रंग के वोडका से शुरुआत की गयी । उस समय तक मैंने शराब को कभी हाथ नहीं लगाया था  । उस दिन भी नहीं जिसके चलते मेरी बहुत हंसाई हुई पर किसी ने भी जोर जबरदस्ती नहीं की । खाने पर ताज़े ब्रेड के साथ बीफ, पोर्क, सार्डीन फिश और किसी मवेशी का दो इच लम्बे जीभ का रोस्ट था । हमलोगों से कुछ भी नहीं खाया गया सिवाय ब्रेड के और अंत में डेजर्ट और केक । लौटते समय सोरोकिन की पत्नी ने मुझे एल्बम और श्रीमती को मेकअप पैक दिया ।

अगले वीक-एंड हमलोगों ने सोरोकिन और इवानोव को ठाकुरता के घर पर फेयरवेल डिनर पर आमंत्रित किया । ठाकुरता का फ्लैट हॉस्टल कैंपस से सटा हुआ था । खाने पर हमलोगों ने देशी तरीके से बना मटन, फिश और बिरयानी खिलाई । साथ में व्हिस्की भी थी जो उन दोनों ने पी और ठाकुरता ने शिष्टाचार के नाते जितनी पी उसी से उसको नशा हो गया । सोरोकिन पीते जाते थे और साथ में मुझे खबरदार करते जाते थे की चुकि मैं पूरे होशो-हवास में हू तो मुझे ही उन्हें एक  फरलोंग दूर घर तक पहुचाना होगा ।  विदायी के वक्त हमलोगों ने सोरोकिन और इवानोव को हवाना सिगार और रजनी गंधा पान मसाला भेंट किया । सोरोकिन की श्रीमती को कांच की चूड़ियों का सेट और माथे के टीके का पैकेट भेंट किया गया । उनकी श्रीमती की ख़ुशी देखते बनती थी । उन्होंने मेरी श्रीमती की सहायता से उसी वक्त चूड़ियाँ पहनी और सुर्ख लाल बंगाली टीका अपने ललाट पर लगवाया । सच में वह बहुत सुन्दर लग रही थीं । इवानोव ने उनके काफी सारे फोटो लिए । सोरोकिन को पूरे रास्ते दोनों तरफ से कन्धों का सहारा देकर घर तक पहुंचाया गया ।

Tuesday, August 22, 2017

विदेशी तडका- 5 - फ्रांस के मार्टिन ( F Martin from France) !

जुलाई, 1972 की एक सुबह, फाउंड्री फोर्ज प्लांट की लेबोरेटरी के पार्किंग स्पेस में एक विदेशी कार आकर लगी। कार कुछ-कुछ आज के टोयटा जैसी थी। कार से एक विदेशी नवयुवक निकला और रास्ता पूछकर सीधा चीफ के चैम्बर में चला गया। 10 मिनट बाद मुझे बुलाया गया। चीफ ने उस युवक से मेरा परिचय कराया। वह युवक फ्रांस से विशेषज्ञ की हैसियत से नेशनल इंस्टिट्यूट ऑफ़ फाउंड्री फोर्ज टेक्नोलॉजी में अपना योगदान दे रहा था। उसे वहां के वैक्यूम स्पेक्ट्रोग्राफ में कुछ परेशानी हो रही थी। समाधान और विशेष जानकारी के लिए उसे मेरे पास भेजा गया था।  
मार्टिन ने मुझसे बहुत कुछ सीखा। परन्तु मैंने उससे जो कुछ भी सीखा वह जीवन पर्यंत मुझे मदद करने वाला था।
हमारी लेबोरेटरी सुबह आठ बजे खुलती थी। मार्टिन के तीन महीने के प्रवास में ऐसा कभी नहीं हुआ की वह आठ बजे से पहले न आ गया हो। एकदम साफ़ सुथरी पोशाक और उसपर वाइट एप्रन। वह सिगरेट पीता था पर अपने कार में बैठकर। मैंने उसे स्पेक्ट्रोग्राफ रूम एक चाभी दे रखी थी  एक सुबह जब मैं आया तो देखता हूँ की वह एक स्टूल पर खडा होकर रोशनदान की खिड़की साफ़ कर रहा था।
मेरी नजर रोशनदान पर पड़ी। लेबोरेटरी के 10 वर्ष की आयु में कभी भी रोशनदान की सफाई नहीं हुई थी। गन्दगी गोंद जैसे चिपकी हुई थी। कुल 6 रोशनदान थे। हमलोगों ने अथक प्रयास कर एक-एक शीशा चमका दिया। उसके बाद दीवाल पर नजर ठहरी। जमीन से पांच फूट ऊपर तक उसे हलके हरे आयल पेंट से शुरू में पेंट किया गया होगा जो अब काई के रंग का दिख रहा था। । हमलोगों ने पैटर्न शॉप के स्टोर से पेंट लाकर उसे भी बिलकुल नया पेंट कर दिया। बहुत लोग ,खासकर सीनियर्स मना करने आये पर मार्टिन यही कहता था अपने घर की सफाई में शर्म कैसी, आलस क्यों और कोई दूसरा क्यों ।
आसपास के विभाग से सबकी नजर इस नज़ारे पर पड़ रही थी। एक फ्रेंच युवक एक्सपर्ट सफाई और पेंटिंग में लगा हुआ था। जो शायद इतना अमीर था की अपने कार तक फ्रांस से रांची तक ले आया था।
भारतवर्ष के कारखानों में हर वर्ष 17 सितम्बर को विश्वकर्मा पूजा मनाई जाती है। इसके लिए 15 दिनों से जोरदार सफाई और गृह व्यवस्था का कार्यक्रम चलता है। इस वर्ष। सभी कोई मार्क ट्वेन के टॉम सॉयर और सफेदी करते उनके दोस्त जैसे ढले दिख रहे थे । खासकर मेरी लेबोरेटरी में जो किसी कॉलेज कैंपस से कम नहीं था। सभी कमरों, बरामदों में सफेदी हुई,पेंटिंग हुई और हर प्रकार के कचरे का सही निष्पादन हुआ। और ये सभी कार्य लैब के लोगों ने मिलकर किया। बुजुर्ग अगर हाथ नहीं बटा पाते तो शाबासी देने और समय-समय पर स्नैक्स का इंतजाम करते रहते।

पिछले वर्ष 2016 में, जब मैं एक वर्ष बाद घर लौटा तो साफ़-सफाई का पर्व मनाने लायक मेरा घर तैयार नहीं था। कम-से कम , एक कमरे की पूरी सफेदी, खिड़की-दरवाजों की पेंटिंग और उस कमरे से एक-एक कचरे का तिनका हटाकर सफाई-धुलाई करने में मुझे न तो कोई संकोच हुआ और न थकान। 

Sunday, August 20, 2017

विदेशी तडका - 4 - चेकोस्लोवाकिया के पान कोडल( Mr Kodl of Checkoslovakia !

इंस्ट्रूमेंटल एनालिसिस में विशेष योग्यता के कारण 1970 में मुझे प्रतिष्ठित वैक्यूम स्पेक्ट्रोग्राफ और हाइड्रोजन गैस अनालिजर का कार्यभार सौप दिया गया और साथ ही प्राहा चेकोस्लोवाकिया(Praha, Czechslovakia) से आये विशेषज्ञ पान(श्रीमान) कोडल को मेरे साथ जोड़ दिया गया । श्वेत, छोटे कद के, नीली आँखों वाले 55 वर्षीय कोडल एक सीधे-साधे काम से मतलब रखने वाले पर हंसमुख वैज्ञानिक थे । पर जब कभी कोई उनके पारिवारिक जीवन से सम्बंधित बात करता तो वे उदास हो जाते और उनकी आँखें भींग जाती । उनका तलाक हो चूका था । उनके बेटी चेकोस्लोवाकिया में डॉक्टर थी । बाप-बेटी में बहुत प्यार था । जब भी क्या ,प्रत्येक 15 दिनों पर बेटी का पत्र आता । बाद में पत्राचार में मुझे भी शामिल कर लिया गया । जब कभी गुड मोर्निंग के साथ कोडल मुझे अपने देश की सिगरेट ऑफर करते मै समझ जाता ।
उस समय स्पेशल स्टील को फोर्ज कर विजयंत टैंक के बैरल का निर्माण होता था । स्टील इंगोट की वैक्यूम डीगेसिंग होती थी । उसके बाद स्टील सैंपल में हाइड्रोजन की मात्रा की जाँच होती थी । हाइड्रोजन बबल स्टील इंगोट में ज्यादा रहने पर फोर्जिंग के समय बम की तरह फूट कर इंगोट में बड़ी दरार कर देता था । इसके उपकरण में लगभग 30 किलो मरकरी का व्यवहार कर वैक्यूम पैदा किया जाता था । मरकरी लोहे से दोगुना भारी होने के कारण उसे ताकतवर मोटर पंप से 2 मीटर सीधी खड़ी शीशे की मोटी नली में चढ़ाया-उतारा जाता था ।
एक बार टेस्टिंग के समय मोटर जैम हो गया । पारा और उसमें लिपटी गन्दगी मोटर के भीतरी ओर्फिस में फंस गयी थी । 24 घंटे के अन्दर विश्लेष्ण रिपोर्ट भेजनी होती थी पर कारखाने के इंस्ट्रूमेंट रिपेयर शॉप ने इतनी जल्दी ठीक करने में अपनी असमर्थता जाता दी । कोडल ने मेरे कंधे पर हाथ रखा, सिगरेट पिलाई और तब तक उनके साथ रिपेयर में हाथ बटाने का आश्वासन लिया जबतक मोटर ठीक नहीं हो जाती और समय पर रिपोर्ट नहीं भेज दी जाती । हमलोगों ने मोटर के एक-एक पुर्जे को खोलकर साफ़ कर , ओइलिंग कर पहले से बेहतर बना दिया । दूसरे दिन सुबह समय पर रिपोर्टिंग कर हमलोग घर और हॉस्टल लौटे ।
उस दिन मैंने कोडल से दो बातें सीखीं, हिम्मत नहीं हारना । दूसरी सबसे अहम् बात यह की किसी भी सामान को रिपेयर में देने के पहले उसे खुद दुरुस्त करने की तबियत रखना ।
यह सीख मेरे जीवन में बहुत काम आयी । घरेलु उपकरणों जैसे सिलाई मशीन, इलेक्ट्रिक गैजेट्स,,छोटी-मोटी प्लम्बिंग, कारपेंटरी और फिटिंग का काम अब रिपेयर पर्सन की बाँट नहीं जोहता ।

कोडल का कार्यकाल दो वर्षों का था । 

विदेशी तड़का -3 - रशियन एक्सपर्ट्स !

१९६६ के अप्रैल माह में हमलोग रांची के हैवी इंजीनियरिंग कारपोरेशन के विशाल टाउनशिप में रहने गए । कॉलोनी का उत्तरी-पूर्वी कोना रूस और चेकोस्लोवाकिया से आये लगभग 600 एक्सपर्ट्स को आवंटित
किया गया था । ज्यादातर एक्सपर्ट्स अपनी पत्निओं के साथ आये थे, सीनियर को बच्चे लाने की भी अनुमति थी । उस इलाके को रशियन हॉस्टल कहा जाता था जो अब झारखण्ड प्रदेश का विधान सभा और अतिथि आवास बन चुका है । इस भूभाग में स्विमिंग पूल के साथ सभी तरह के खेल और खेलने के मैदान थे । पूरे क्षेत्र के लिए एक टीवी डिश अन्टेना लगा था जिसकी पकड़ पूरे विश्व से थी । एक बड़ा सभागार भी था जिसमें सांस्कृतिक प्रोग्राम और फिल्मों का प्रदर्शन भी होता था । उस समय वहीँ नेहरु जयंती भी मनाई जाती थी । हमलोग उस सभागार में आमंत्रण पर आयोजन देखने जाते थे । मैंने वहां आवारा, अलीबाबा चालीस चोर और Crime and Punishment फिल्मे देखी थीं । यही सभागार आज का झारखण्ड विधान सभा है ।
ये विदेशी ग्रुप या झुण्ड में अपनी पत्नियों के साथ शाम के समय घूमने निकलते थे । उसी समय बाजार से खरीदारी भी करते थे । दूकानदार भी काम लायक विदेशी भाष बोलने लगे थे उन्हें अपनी तरफ आकर्षित करने के लिए । शनिवार और रविवार जैसे साप्ताहिक अवकाश के दिनों ये लोग सुबह से रात होने तक बाजार, सडको, पर्यटक स्थलों पर मस्ती करते दीखते थे । भारतियों से इनका व्यवहार बहुत ही मधुर था । हमेशा मुस्कुराना, जानने की उत्सुकता और दोस्ती बढ़ने के लिए एक्टिंग के साथ आवारा और श्री 420 के गाने गाना इनकी फितरत थी । नजदीकी को अमली जामा पहनाने के लिए अपने कैमरों से फोटो लेना इन्हें बहुत रास आता था । लेकिन तभी एक हादसे के बाद इनमें एक सहमाहट आ गयी, संबंधों में ठंडापन दिखने लगा ।
22 अगस्त 1968 को रांची में भारतवर्ष का बहुत बड़ा दंगा हुआ । सैकड़ों की जाने गयी । हमेशा की तरह अल्पसंख्यकों ने अप्रत्याशित तरीके से शुरुआत करके की । चुकी HEC हिन्दू बाहुल्य क्षेत्र था इसलिए सीमावर्ती क्षेत्रों में यादवों ने कसकर बदला लिया । ये एक्सपर्ट्स कुछ घटनाओं के प्रत्यक्षदर्शी थे ।
1969 में HEC ज्वाइन करने के कोई छह महीने लगे इन विशेषज्ञों से इतनी जान-पहचान बढाने में की हमलोग अब दिल खोल कर बात करने लगे । एक दिन उन्होंने 1968 के दंगों का अनुभव बताया जो किसी को भी क्षुब्ध और चकित कर देता ।

उन्होंने बताया की पिछली सदी में विश्व में उनके रूस के कुछ इलाकों और जातियों को बारबैरियन (बर्बर, खूंखार और जंगली) कहा जाता था । वे अपने दुश्मन का होशोहवास में खाल छील कर उतार लेते थे । पूरे समय दुश्मन इसके लिए मानसिक रूप से तैयार रहता था । अगर इसके बाद भी उसकी मौत नहीं होती थी तो उसका गला काट दिया जाता था । पर उनलोगों ने दंगो के शुरूआती दिनों में सुबह की सैर के समय जो कुछ देखा वह उससे भी भयानक था । नाले के अन्दर छुपे परिवार को पहले दंगाई दुलार- पुचकार कर बाहर निकालते थे और उसके बाद छोटे-छोटे चाक़ू से गोंद-गोंद कर मार डालते थे । एक चार वर्ष के बच्चे को तो उन्होंने पैर पकड़ कर घुमाया और दीवार पर दे मारा । एक आदमी को दौडाते-दौड़ाते पानी से लबालब भरे कूएँ में गिर जाने दिया और जब भी उसका सर ऊपर आता उसे लाठी से पीटकर फिर पानी के अन्दर डूब जाने देते । यह खेल 15 मिनट तक चलता रहा ।  हमलोगों के सर पर जब खून चढ़ता है तो सीधे गोली मार देते हैं । इस सदी में भी ऐसा कुछ होता होगा विश्वास नहीं होता । आपलोग तो हिन्दू हो बुद्ध, महावीर , महांत्मा गाँधी के देश के !

1970 के दशक में एक्सपर्ट्स की संख्या कम होती गयी  । 1980 के दशक में आवश्यक तकनीकी क्षेत्रो में ही उन्हें आमंत्रित किया जाता । 

Saturday, August 19, 2017

विदेशी तड़का - 2 - गोसनर एवेंजेलिकल लूथेरन चर्च

1961 का रांची कोई सपनों का देश जैसा प्रतीत होता था । चारो तरफ पहाड़ और हरियाली, थोड़ी गर्मी पड़ते ही वर्षा, पड़ोस में दायें बाजू बंगाली परिवार तो बाये बाजू मद्रासी समुदाय, सामने पंजाबी तो पीछे मराठी, बाजार के पास से मस्जिद की अजान तो रविवार की सुबह इसाईयों का काफिला कुछ दूर चर्च जाते हुए । लगता था जैसे पूरा हिन्दुस्तान यहीं आकर बस गया हो । हो भी क्यों नहीं ? इस शहर में एशिया के सबसे बड़ा कारखाना हैवी इंजीनियरिंग कारपोरेशन जो बन रहा था । 25000 से ज्यादा लोगों को रोजगार मिलने वाला था । उसके साथ के इन्फ्रास्ट्रक्चर जैसे मददगार उद्योग , बाजार, स्कूल, कॉलेज ट्रांसपोर्ट वगैरह सब मिलकर कुछ ही वर्षों में आबादी 40 हज़ार से 4 लाख हो जाने वाली थी ।
सुबह की नीद आदिवासी गीत और मांदर के थाप से खुलती थी । ट्रक भर-भर कर आदिवासी लड़के लडकियां मांदर की थाप पर नाचते-गाते कारखाने की ओर मजदूरी करने जाते थे । सुबह कोई आदिवासी महिला टोकरा भर सब्जी डाल जाती थी बिना मोल-भाव किये । टाटा, पटना और झुमरी तिलैया प्रवास में तो नहीं पर यहाँ लोकल बस चलती थी जिससे हमलोग कॉलेज जाया करते थे 10 किलोमीटर दूर ।
एक सुबह रविवार को दरवाजे पर दस्तक हुई । देखा तो एक 25 वर्ष की लडकी और उसके साथ एक 70 वर्ष का अँगरेज़ खड़ा था । उनसे मैं अपनी टूटी-फूटी कांपती अंग्रेजी में बाते करता सुनकर पिताजी आ गए और उन्होंने मोर्चा संभाला । वे दोनों प्रोटोस्टेंट क्रिस्चियन चर्च से आये थे और अपने धर्म की जानकारी देना चाहते थे या अनकहे शब्दों में वे अपने धर्म का धर्मान्तरण के जरिये विस्तार करना चाहते थे । पिताजी ने उन्हें चाय पिलाई और कहा की वे अगले रविवार से आयें और दोनों बड़े कॉलेज जाने वाले लडकों को शिक्षा दें । हम दोनों भाई बहुत घबडा गए यह सोच कर की उनसे इंग्लिश में बातें करनी होगी पर पिताजी बहुत प्रसन्न थे की उनके बच्चे अब इंग्लिश में वार्तालाप करने लग जायेंगे । और ऐसा हुआ भी ।
ज्यादातर वह चश्मा पहने , सांवली, मझोले कद की स्कर्ट ब्लाउज पहने सिस्टर मैरी फर्नान्डीज़ ही साइकिल पर आती थी । जाहिर है हमारी टीचर गोवा की थी । अब ज्यादा तो याद नहीं है पर ओल्ड और न्यू टेस्टामेंट की किताबों के किसी अंश पर परिचर्चा होती थी जिसमे किसी जेहोवाह प्रोफेट का उल्लेख बार-बार आता था । हर रविवार हमलोगों को पिछली पढ़ाई पर लेख लिख कर दिखाना होता था  । इंग्लिश छोड़कर और किसी दूसरी भाषा में संवाद नहीं होता था  । प्रत्येक महीने में एक बार जर्मनी के मार्क सदरलैंड भी प्रगति देखने आते थे । उसके लिए सिस्टर हमलोगों को बकाया पहले से तैयार कर देती थी । पिताजी भी हमलोगों की प्रगति पर कड़ी नजर रखते थे । इसका फ़ायदा दो महीने में ही दिखने लगा । मेरे बड़े भाई अब इंग्लिश साहित्य के क्लास में लोकप्रिय होने लगे ।हम भाई चर्च के प्रोग्राम में शामिल होने भी जाते थे । यह सिलसिला दो वर्षों बाद तब टूटा जब हमें एक फॉर्म भरने को दिया गया जो उनके धर्म में जाने का गेटवे था ।
मेरे बड़े भाई ने अन्तोगत्वा, केमिस्ट्री आनर्स करने के बाद इंग्लिश साहित्य में एम०ए० और क़ानून की परीक्षा अच्छे नंबरों से पास की ।
आज के दिन रांची का गोसनर एवेंजेलिकल लूथेरन चर्च सम्पूर्ण उत्तर-पूर्व भारत का प्रतिनिधित्व करता है और इसके 5 लाख से ज्यादा सदस्य हैं जो मध्य प्रदेश से लेकर आसाम तक दिखेंगे 
क्रमशः ...

विदेशी तडका -1- आज़ादी के बाद !

मुग़ल और अंग्रेजों के शासन में ज्यादातर बातें ऐसी हैं जो घिनौनेपन तक दुखदायी है- जैसे हिंसा द्वारा मंदिर विध्वंस, नारी-हरण, धर्मान्तरण और गुलामी प्रथा । इन सबों के बारे में बहुत कुछ सुना और पढ़ा है । पर यह भी नहीं भूलना चाहिए की इनकी वजह से हमलोग आपस में लड़ने-कटने से काफी हद तक बचे रहे वैसे ही जैसे दो बिल्लियों के सुलहनामे में बंदर तराजूवाला पूरा माल खा गया पर बिल्लियों में संधि हो गयी । साथ ही कुछ बातें ऐसी हैं जिसे हम गहराई से मनन करें तो पायेंगे की भारतवर्ष ने उनकी बहुत सी अच्छी बातों को बखूबी अपना लिया है ।
विदेशियों से मेरा लंबा सानिध्य रांची आने पर हुआ । आज़ादी के बाद ये सभी विदेशी ईश्वर के प्रतिनिधि बनकर आये अथवा इंजीनियरिंग एक्सपर्ट्स बनकर । सभी से मैंने बहुत-कुछ सीखा और समान धरातल पर उठ-बैठ की ।

मैं पांच वर्ष का था जब पिताजी सपरिवार जमशेदपुर से तबादला लेकर ट्रेन से पटना जा रहे थे । 1952 में रेलगाड़िया न तो समय पर आती थी और न समय पर पहुँचती थीं । साथ ही काफी अरसे बाद या नए सफ़र करने वाले या ज्यादा बैगेज होने के कारण,सफ़र करने वाले भी समय से काफी पहले स्टेशन आ जाया करते थे । मालूम नहीं कहीं जल्दी आकर जल्दी न चली जाए । तबादले के कारण सामान ज्यादा था जिसे लगेज-वैन में डालना था इस कारण  हमलोग भी चार-पांच घंटे पहले तडके सुबह स्टेशन पहुँच गए थे ।
माँ ने हमलोगों को जबरन सोते से उठाकर फ्रेश कराया और एक-एक कर नंगा गुनगुने पानी से भरे बाथ-टब में भरपूर नहाने दिया । ये सब वाकया फर्स्ट क्लास वेटिंग रूम में बैठी माँ के उम्र की एक विदेशी महिला देख कर आनन्द ले रही थी । सुबह यूनिफार्म पहने लाल पगड़ी वाले बैरे ने टी-पॉट,मिल्क-पॉट और सुगर क्यूब से सजी ट्रे लाकर रख दी-साथ में ब्रेड-बटर का टोस्ट और हम बच्चों के लिए दूध से भरा पॉट भी । वह अँगरेज़ महिला और माँ अंग्रेजी भाषा में अपने अनुभवों का आदान-प्रदान कर रहे थे । उस महिला ने हम बच्चों को टोस्ट बनाना और पॉट हैंडल करना सिखाया । उसने अपने पास से नाश्ते में एक केक भी जोड़ दिया । माँ ने भी घर का बना ठेकुआ(कुकी) उन्हें खिलाया जो उसे बहुत स्वादिष्ट लगा । माँ ने उसे 5-6 ठेकुए और एक माथे की बिंदी का पैक दिया ।बदले में उसने भी एक फेस क्रीम की बोतल दी जिसे माँ बहुत दिनों तक सहेज कर रखती थी । उसे कलकत्ता जाना था  । ट्रेन 9 बजे सुबह आयी थी । इतने कम समय में हमलोगों ने काफी सारे अंग्रेजी शब्द और मुहावरे सीख लिए थे । OMG  तो हमलोग बात-बात पर बोलने लगे थे । जब उस विदेशी महिला की ट्रेन प्लेटफार्म पर आकर लगी थी तो हमलोग एकटक ट्रेन को ही निहार रहे थे । उतने कम अंतराल के मिलन के बाद की विदाई में भी दोनों महिलायों के पलके भींग गयी थीं इतना  मैंने अवश्य देखा था । हमलोगों की ट्रेन 1 बजे दोपहर को प्लेटफार्म पर लगी थी । इंजन ड्राईवर अँगरेज़ या एंग्लो इंडियन रहा होगा । जहां हमलोगों की बोगी लगी थी वहां प्लेटफार्म नहीं था और न तो उसमें फर्स्ट क्लास का डिब्बा था । हम बच्चों को गोद में उठाकर बोगी के अन्दर किया गया था ।  

क्रमशः .......


Monday, June 26, 2017

कॉलेज कॉलेज 1 !

अच्छी यादों को संजोयें रखना जीवन को जीने लायक बनाए रखता है । कॉलेज के दिनों के बहुत खट्टे-मीठे अनुभव हैं । हमलोग गुरुजनों और मित्रों की बातें तो हरदम बतियाते रहते हैं । श्रेष्ठ विचार अनुजों को बाटते भी रहते हैं । कुछ ऐसे लोग भी थे जो अक्सर यादों के गलियारे में दम तोड़ देते हैं । कॉलेज का चपरासी धनिया, लेबोरेटरी अटेंडेंट साहू जी, कॉमन रूम के अददु मियाँ, लाइब्रेरियन दास साहब, चाय गुमटी वाला राम प्रसाद, कैंटीन मेनेजर सान्याल दा की याद ही शायद उनकी सच्ची श्रद्धांजलि है ।

केमिस्ट्री के प्रकांड विद्वान प्रिंसिपल ज्ञानी का चपरासी धनिया हुआ करता था । सांवला,तिकोना चेहरा, झबरीली मूंछ, छोटा कद और खिचड़ी बाल पर गाँधी टोपी । उसके पास हर परेशानी का हल मिल जाता था । बस उसे उसकी टिप मिल जानी चाहिए । नियत समय के बाद फीस जमा करनी हो या कोई दरखास्त डालना हो वह हमेशा मदद के लिये तैयार मिलता था । एक बार मैं क्लास में हाजिरी लगाकर पीछे की खिड़की से निकल भाग रहा था । ठीक सामने प्रिन्सिपल से टक्कर हो गयी । प्रिंसिपल साहब भुल्लकड़ प्रकृति के थे । इसलिए जैसा वह सबके साथ करते थे मुझसे भी मेरी कापी ले ली और ऑफिस में मिलने को कहा । मिलना मतलब जोरदार जुर्माना या रस्टीकेट । मामला धनिया को सुपुर्द कर दिया । दूसरे दिन सुबह प्रिंसिपल के कमरे का ताला खोलते ही पहला काम उसने मेरे लिए किया ।

कॉमन रूम के अददु मियाँ ने ज़रूर अपनी उम्र कम लिखवाई होगी नहीं तो अब गिरे तब गिरे जैसे पतली काठी के झुकी कमर वाले न होते । कैर्रोम बोर्ड का स्ट्राइकर हो या टेबल टेनिस का बाल ,बिना नाम और क्लास लिखी कॉपी गिरवी रखे नहीं देते । और जरा पीरियड के वक्त कॉमन रूम में घुस कर तो देखिये । तुरत कहते मियाँ अभी आपका क्लास है इधर कहाँ ?

राम प्रसाद चाय गुमटी वाला तो सभी का मैन फ्राइडे था । साइकिल रखनी हो, कापी-किताब रखकर फकैती करनी हो, उधार चाय-सिगरेट पीनी हो कभी ना नहीं बोलता था । उधारी का हिसाब रखने के लिए कोई खाता नहीं रखता था । सभी कुछ मुंह-जुबानी और कभी कोई हुज्ज़त नहीं ।

मेरे फिजिक्स विभाग के लाइब्रेरियन दास साहब थे । एम०एस०सी० नौकरी करते कर ली थी । अब पीएचडी कर रहे थे । हमलोगों के लिए किताब स्टेट लाइब्रेरी और ब्रिटिश कौंसिल लाइब्रेरी तक से खोज लाते थे । उन्ही की बदौलत हमलोगों को फर्मी की अनसर्टेनिटी प्रिंसिपल की टाइप और उनके हाथ से प्रूफ रीड की पाण्डुलिपि से नोट लेने का सौभाग्य मिला ।


मोरहाबादी के रांची कॉलेज की कैंटीन तीसरे तल्ले के ऊपर छत के कोने में थी । गंजे सर वाले सान्याल दा उसके मेनेजर थे । हमलोगों का भूखा-प्यासा चेहरा उन्हें बहुत दुःख देता था ।  तब 1966 में 250 ग्राम का विशाल समोसा सिर्फ 15 पैसे और  चाय  150 ml मात्र 10 पैसे में बेहिचक परोसते थे  । उस समय के हिसाब से से यह बहुत सस्ता था ।पूछने पर मुस्कुरा कर कहते आपलोग खुश तो हम भी खुश।  तब भी कुछ शरारती लड़के खाने के बाद प्लेट को उड़न तश्तरी जैसा छत से आकाश में उछाल देते थे । सान्याल दा कुनमुना कर रह जाते थे । बाद में उन्होंने एलुमिनियम की तस्तरी का इस्तेमाल शुरू किया । शाम को कैंटीन बॉय सब फेंकी तस्तरी बटोर लाता था ।

शहर में राज कपूर के परम मित्र रायबहादुर हेमेन गांगुली के तीन सिनेमा हाल में से एक रुपाश्री सिनेमा हॉल हुआ करता था । उसमें पुरानी फिल्म लगा करती थी, राज कपूर की तो अवश्य । फर्स्ट क्लास और बालकनी का टिकट काउंटर  साहू जी (हमलोगों ने उनका पूरा नाम जानने की कभी ज़रुरत महसूस नहीं की ) सम्हालते थे । वे फिजिक्स लेबोरेटरी के लेबोरेटरी असिस्टेंट थे । फिल्म देखने के शौक़ीन विभागाध्यक्ष सान्याल साहब ने उन्हें कॉलेज में नौकरी दिलाई थी और शायद उन्ही की वजह से किसी न किसी तरह दोपहर के शो के लिए वे कॉलेज से एक घंटे के लिए गायब हो जाते थे । मेरा भविष्य संवारने में साहू जी का अहम् योगदान था ।

स्कूली ज़िन्दगी की बेड़ी जब कॉलेज आते खुली तो आवारगी का जैसे बाँध खुल गया । आये दिन क्लास बंक कर कहीं घूमने निकल जाना और सिनेमा देखना नशा जैसा हो गया था । कोई फिल्म अगर अच्छी लगे तो उसे दुबारे-तिबारे देखना एक स्टेटस सिंबल हो गया था । जब एक बार मैं एक फिल्म दुबारे देखने पहुंचा तब साहूजी ने मुझे अपने केबिन में बिठाकर बहुत समझाया । उन्होंने यहाँ तक कहा कि वे भी आज प्रोफेसर होते अगर पढाई से भागते नहीं ।

इन्टर फाइनल फिजिक्स प्रैक्टिकल परीक्षा में साहूजी ने मेरी बहुत मदद की । उस समय लाटरी से एक्सपेरिमेंट निकलते थे । मुझे बहुत कठिन और नहीं किया हुआ एक्सपेरिमेंट आया । मैं रुआंसा अपने टेबल पर खड़ा था । साहूजी ने एक्सटर्नल को कहकर कि टेस्ट इक्विपमेंट डिफेक्टिव है मुझे दुबारे एक आसान एक्सपेरिमेंट दिलवा दिया । इसी तरह डिग्री प्रीवियस की परीक्षा में मुझसे बड़ी मुश्किल से ब्लो किया ग्लास वेट बल्ब टूट गया । साहूजी ने कही से लाकर दूसरा वेट बल्ब मेरे टेबल पर रख दिया ।

साहूजी सबकी मदद करते रहते थे । उनसे मेरी मुलाकात चार वर्ष बाद उसी सिनेमा हाल में हुई । वे इस बार केबिन से बाहर आकर मिले । उनके साथ एक लड़का था । उन्होंने मुझसे अपनी पढ़ी हुई किताबें और एम०एस०सी० के नोट्स देने को कहा । उन दिनों शिष्यों का हाथ स्वतः गुरु का पैर स्पर्श करने झुक जाता था ।
एक सफल जीवन के लिए अच्छी यादों का होना नितांत आवश्यक है ।



Saturday, June 24, 2017

नमकीन

बचपन में जोर जोर से थपकी लेकर सोना बहुत अप्रिय लगता था पर नींद आ ही जाती थी । बाद में नींद लाने के लिए बहुतेरी लोरिआं सुनी और आधी-अधूरी कहानियाँ सुनी । माँ थी की एक ही कहानी बार-बार शुरू से सुनाती थी और महीनों तक उसका अंत नहीं सुन पाता था । आज तक पता नहीं चला की वो जादूगर उड़ने वाली दरी में बिठाकर राजकुमारी को कहाँ ले गया । जीवन का यह उबाऊ प्रकरण भी ताउम्र रहेगा, मरते दम तक ।
स्कूल में संस्कृत और सामाजिक अध्ययन की पढाई में नींद का आना अनिवार्य था । अंग्रेजी के सर को नींद भगाना बहुत अच्छी तरह आता था । जो भी लड़का झपकी मोड में आता उसे ब्लैक बोर्ड के पास आकर जोरों से पढने को कहा जाता । हमलोग इससे बहुत डरते थे । 121 होम ट्यूशन में जब कभी झपकी आती थी मास्टर साहब ठीक कान के ऊपर का बाल जोरो से खींचते थे । पिताजी जब भी पढ़ाते नीम की दो-तीन छड़ी सहज रखते । नींद क्या पूरी दुनिया उस समय ओझल रहती ।
कॉलेज तक तो हमलोगों को क्लास बंक करना आ गया था । पीछे की खिड़की के पास बैठते या खिड़की तक चुपके से सरकने का रास्ता तैयार रखते । केवल पढने वाले और डरने वाले लड़के क्लास के अन्दर रहते । हमलोग तभी  भागते जब बाहर कुछ बहुत ही रोचक हो रहा होता अथवा क्लास का लेक्चर बेस्वाद, बेसुरा और माथे के ऊपर से निकलने वाला होता  ।
नौकरी के शुरू के दिनों में भागना एक चैलेंज होता । भागने से ज्यादा बेहतर बॉस से मिलीभगत कर लेना होता । जैसे सबके के लिए शिफ्ट के बाद सिनेमा का टिकट जोगाड़ करना, पिकनिक अथवा शाम में बर्थडे पार्टी की तैयारी करना । हमारे सीनियर्स भागते नहीं थे । वे मैनेज करते थे । उनलोगों की आये दिन या तो कहीं दूर मीटिंग होती थी या सेमिनार । मजा तब आता था जब राज कपूर की मीटिंग में हमलोग आमने-सामने होते थे या क्रिकेट मैच के बाद राम प्रसाद को लक्ष्मण प्रसाद साबित कराने की जरूरत आन पड़ती थी ।  
हमलोगों को शुरूआती दौर के दरम्यान बहुत ही अच्छे सीनियर्स मिले । बस एक कसर रहती थी । चाहे कितना भी अच्छा काम किया जाए इन लोगों के पास कोई न कोई शिकायत रहती ही थी । यहाँ तक की अगर सिगरेट का टुकड़ा भी गिरा दिख जाये तो नाक-भों सिकुड़ने लगता था । हमलोगों ने भी इस उबाऊ दिनचर्या का जवाबी तोड़ निकाल लिया था ।
1970 के दशक में एशियन पेंट बहुत ही गुदगुदाने वाला जानवरों का पोस्टर निकाला करते थे । विभिन्न रंगों में रंगा जानवर अजीबो-गरीब हरकत करता दीखता था । हाथी का बच्चा चश्मा लगाकर बैठ कर ढोलक बजता था । अरबी चश्मीश घोडा मुंह में ब्रश लेकर पेंट करता दिखता था । बन्दर चश्मा लगाकार किताब पढता था । तीनो में एक समानता अवश्य थी, सभी चश्मा लगाते थे ।

हमलोगों का तीन वरिष्ठों से साबका पड़ता था । एक जो शिफ्ट इनचार्ज थे । एकदम बन्दर जैसा चेहरा । सुबह झाड़ू देने वाली बाई के साथ आते । हमेशा गायब रहते और लौटते तो लागबुक में कोई खामी लिख जाते । दूसरे विभागाध्यक्ष- हसमुख ,मोटे थुलथुल, जी-हुजूरी पसंद । हमलोगों के टिफ़िन बॉक्स पर उनकी नजर रहती । हर रोज पाली शुरू होते ही आते और थोड़ी देर बैठकर हंसी-मजाक कर व् झिडकियां दे चले जाते । तीसरे शॉप सुपरिंटेंडेंट । पतले-दुबले,लम्बे, घोड़े जैसा लम्बा चेहरा । उनका होठ हरदम W के शेप में रहता । वे कभी-कभी आते । हमलोगों को कुछ नहीं बोलते पर विभागाध्यक्ष के पास शिकायत का पुलिंदा पहुंचत रहता । तीनो में एक समानता अवश्य थी, सभी चश्मा लगाते थे ।
हमारे केमिकल लैब का बैलेंस रूम हाल के अन्दर एक पूरे शीशे का कउबीकल था । इलस्ट्रेटेड वीकली में निकलने वाले एशियन पेंट्स का बन्दर, हाथी और घोड़े के पोस्टर की कटिंग एक-एक कर लगायी गयी । शीशे की दीवार पर चिपकाते समय से ही हॉल में हंसी का माहौल बन गया । अब जब बंदरनुमा शिफ्ट इनचार्ज के आने का समय रहता तो हमलोगों में से कोई न कोई “ अब दिल्ली दूर नहीं “ का यह गाना गाता रहता – “चुनचुन करती आयी चिड़िया- बन्दर भी आया” । सुपरिंटेंडेंट आते तो बहुत पहले पता चल जाता  । कोई न कोई दरवाजे से झांक कर हमलोगों को आगाह कर देता । यह परिपाटी शुरू से थी । हमारे दक्षिण भारतीय सहयोगी गुनगुनाने लगते फिल्म पड़ोसन का मशहूर गाना – “एक चतुर नार- अईयो घोड़े” । मैंने स्वयम बहुत अभ्यास के बाद अंग्रेजी फिल्म – हटारी का baby elephant walk -  के धुन को व्हिसलिंग में उतारा था और जब भी हमलोगों के मोटा भाई आते तो मैं शुरू हो जाता उनकी तरफ पीठ करके ।
इनलोगों को इन पोस्टरों पर बेइंतिहा कौतुहल रहती थी और गाने से बहुत असमंजस । एक बात तो तय पायी गयी । अब ये लोग ज्यादा तंग नहीं करते थे । कुछ-कुछ सांप-छुछुंदर वाली स्थिति हो गयी थी । बहुत बाद में इनलोगों को पता चला । मजा देखिये कि 1975 की इमरजेंसी और हमलोगों के प्रमोशन का समय तभी धमका था ।


Friday, May 26, 2017

याद न जाए अच्छे दिनों की !

ये वाकया जनवरी  1973 का है जब मैं हैवी इंजीनियरिंग कारपोरेशन में  प्रमोशन पाने के लिए पूरी तरह प्राइमड था. हमलोग नॉन-प्रोडक्शन स्ट्रीम में केमिस्ट थे. उस समय, शायद आज भी कारखानों की पालिसी रही है इंजीनियरिंग डिग्री होल्डर्स को प्राथिमकता देने की. हमलोग प्योर साइंस में पोस्ट-ग्रेजुएट थे फिर भी हमलोगों को द्वितीय श्रेणी में रखा जाता था. यही हमलोगों के अनरेस्ट के मुख्य कारण था. मैनेजमेंट से किसी प्रकार की सहानभूति नहीं मिल रही थी. यहाँ तक कि हमारे रिसर्च एवं डेवलपमेंट के प्रमुख हमारे कार्य-कौशल और क्षमता से बेहद प्रसन्न रहने के बावजूद, एनुअल रेटिंग में 4-5 स्टार देने के बावजूद, प्रमोशन में साम्यता के मामले में चुप्पी साध लेते थे. कभी-कभी बौखलाहट में बेवजह की फटकार भी लगा देते थे. वे भी इंजीनियरिंग डिग्री होल्डर थे.

एक दिन हमारे एक्सप्रेस लेबोरेटरी में चेयरमैन का औचक निरीक्षण हुआ. यह लेबोरेटरी स्टील मेल्टिंग फर्नेस में तैयार हो रहे गले इस्पात की समय-समय पर गुणवत्ता की जांच-परख करती है. उस दिन वाकई लेबोरेटरी साफ़-सुथरी नही थी.चेयरमैन ने तो मौके पर कुछ नही कहा पर वे नाखुश अवश्य दिख रहे थे. चेयरमैन के जाने की बाद हमलोगों को सभी वरीय अधिकारिओं से बहुत सुनना पडा. दूसरे दिन मैं कुछ केमिकल इशू करवा कर सीढ़ी से दो-मंजिले पर स्थित एक्सप्रेस लेबोरेटरी लौट रहा था. तभी सीढ़ी उतरते प्रमुख और कुछ और लोगो के खिलखिलाहट की आवाज सुनाये दी. प्रमुख कह रहे थे कि अगर इन्हें डांट-फटकार कर नहीं रखा जाए तो ये लोग सर पर चढ़ जाते हैं वगैरह.जब मैं दाखिल हुआ तो मेरे मातहत बताने लगे कि प्रमुख बहुत क्रोधित थे. उन्होंने चेयरमैन के निरीक्षण के समय उपस्थित सभी कर्मचारियों का ब्यौरा लिया है शायद दण्डित करने के लिए.

हमलोगों ने रोजमर्रा के कार्य में कार्यशाला के रख-रखाव और सफाई पर भी विशेष ध्यान देना शुरू कर दिया. प्रमुख की पास प्रमोशन की बात लेकर जाना तो सपना हो गया. प्रमुख तो वैसे भी कभी-कभार आते थे. जबसे प्रमोशन की लहर चली तबसे तो आना ही छोड़ दिया था.

अप्रैल माह की गर्मी में, सुबह की पारी ख़त्म कर, थक कर चूर, घर लौट, भोजन कर मैं सो रहा था. तभी कॉल बेल जोर से बजने लगी. मैं आंख मलते उठा. दरवाजा खोला. मेरे सहयोगी भरभरा कर मुझसे लिपट गए जैसा वर्ल्ड कप जीतने पर होता है. हमलोग सभी का इंजीनियरिंग कैडर के साथ प्रमोशन हो गया था.

आज जब अच्छे दिन के आने की हमलोग व्याकुलता से प्रतीक्षा कर रहे होते है तो उन अच्छे दिनों की भी याद बरबस आ जाती है जब लोग सपना नहीं दिखाते थे. उनकी फटकार, बौखलाहट और खिलखिलाहट में उनकी बेबसी निहित  रहती थी पर नेपथ्य में अच्छे दिन लाने का सच्चा स्नेहिल संकल्प होता था.

Thursday, March 2, 2017

कालू का जवाब नहीं !



कालू से मेरी पहली मुलाकात तब हुई जब वह दो महीने का रहा होगा । पैर के पंजे और मुंह को छोड़ सारा शरीर काला । मैं काफी दिनों बाद , शायद एक महीने बाद अशोक नगर के अपने पैतृक घर आया था माँ-पिताजी के पास । बाहर बैठक में कालू मेरी बहन के पैर के पास बैठा था । घर में बहुत सारे कुत्ते थे , उस समय 7-8 । कालू उठकर मेरे पैर के पास आकर बैठ गया । बहन बोली यह किसी के पास नहीं बैठता है प्रकाश भैया के पास कैसे प्यार से बैठा हुआ है ।मैंने गौर किया कि कालू में ट्रेन होने के सभी गुण हैं और वह इतने कुत्तों के बीच उपेक्षित और आवारा हो जाएगा.। मेरे बहुत कहने पर भी बहन ने कालू को मुझे पालने के लिए नहीं दिया । उसके बाद जब भी आता कालू दौड़कर मेरे पास आ जाता । मैं उसके लिए बिस्कुट भी लाने लगा ।

एक वर्ष का होते-होते कालू मोहल्ले में ही नहीं दूर-दूर तक काफी मशहूर हो गया । गेट के अन्दर कोई भी बिना एस्कॉर्ट के नहीं आ सकता था । अगर कोई गलती से आ गया तो उसे उसका हमला बर्दाश्त करना होता था । पोस्टमैन,सब्जीवाले, प्लम्बर,ग्वाले बहुत खबरदार रहते थे । बाद में दूध वाले ने तो कालू को दूध पिला कर दोस्ती कर ली । इसके लिए उसने गेट पर ही एक कटोरा रखवा लिया था । अगर कटोरा गुम हो गया और ग्वाला बिना दूध डाले अन्दर आने की कोशिश करता तो कालू भौकता और उसका रास्ता रोकता । बहुतेरे उपाय के बावजूद लोगों से गफलत हो ही जाती थी, ज्यादातर नए-अनजान लोगों से । पांच वर्ष का होते-होते उसने काटने का शतक बना लिया था । सारे दिन उसे चैन से बांध कर रखा जाने लगा । रात को गेट पर ताला लगने के बाद ही उसे खोला जाता । कालू इतना कटखना इसलिए भी हो गया था कि कुत्तों की बहुतायत में वह काफी उपेक्षित हो रहा था । उसका दिल भी शायद अब कुछ भरोसे का आशियाना चाहने लगा था ।

तीन वर्ष बाद, मैं voluntary रिटायरमेंट लेकर पिछवाड़े अपने 3 रूम के यूनिट में रहने आ गया । पहली ही रात अचानक खटपट की आवाज से मेरी नींद खुल गयी । देखा सिरहाने
शीशे की बंद खिड़की के बाहर सिल पर कालू बैठा हुआ है । काली अँधेरी रात, पूरा काला कालू – क्या कॉम्बिनेशन था धड़कन तेज करने के लिए । ऐसा दो-तीन दिन तक हुआ । उसके बाद मैंने खिड़की खोल कालू को अन्दर कर लिया । वह मेरे पलंग के नीचे आराम से लेट गया । मेरे घर में पहले से किट्टू महाशय थे । उन्होंने भी कोई आपत्ति नहीं की । लगता था उसे भी एक निडर दोस्त की तलाश थी । मेरे घर में इनको चेन में नहीं बांधा जाता था और ये बात कालू को मालूम थी ।

जिस दिन घर में उनका मनपसंद मेनू बनता, उनलोगों की ख़ुशी और तमीज देखने लायक होती थी । वे एकदम वैसा ही एक्शन देने लगते थे जैसा घर के बच्चे करते हैं जब उनके पसंद का भोजन बन रहा होता हो । घर के किसी खाली कोने में आपस में खेलना और किसी के आते ही बिलकुल शांत होकर बैठ जाना । जैसे-जैसे खाने का वक्त नजदीक आने लगता उनलोगों की बैचेनी देखने लायक होती । परोसने के बाद अपने बाउल का ही खाना वे लोग खाते थे । कोई लड़ाई-झगडा नहीं ।

बाहर के लोगों के साथ वह जितना निर्दयी था, घर–परिवार के साथ उतना ही प्यारा । मैं जैसे ही घर के बाहर आता वह चिपक जाता । अगर बड़े घर में भाई-बहनों से मिलने जाता तो वह भी साथ-साथ रहता । अगर मैं उसे घर में बंद करके आता तो मौक़ा मिलते ही वह दौड़ के मैं जहां भी रहता वहां आ जाता चाहे वह तिमंजले की छत ही क्यों न हो । मेरे स्कूटर की आवाज वह एक फर्लांग दूर से पहचान लेता और मेरी महक उसे 100 मीटर दूर से मिल जाती ।
उसने दो बड़े ही कामयाम कमांड सेख रखे थे। पहला था "Go home"। वह कहीं भी रहता, कुछ भी करता-रहता ,बस कहने भर की देर थी, वह चुपचाप्प घ के अंदर अपनी जगह पर आ जाता। कितनी बार कालू को जीतती पारी छोडकर लौटना पड़ता था। दूसरा कमांड था "stay"। च्चहे वह खेल रहा होता, झगड़ रहा होता, अथवा हड्डी का टुकड़ा उठाने लपकता रहता, बस कहने भर की देर थे, वह शांत होकर मेरी तरफ देखने लगता।

उसके गले में मछली का बड़ा काँटा फंस गया । बहुत तकलीफ में वह मुंह खोले मेरे पास आया । मैंने मुंह के अन्दर झांककर देखा । काँटा दिख रहा था । मैंने बिजली की चमक के साथ दो उंगली की कैंची बना उसके गले में फंसे कांटे को निकाल दिया । मैं अपने आप को क्या शाबाशी देता उससे ज्यादा कालू उछल-उछल कर मेरा मुंह चूमने की कोशिश करने लगा ।

एक बार बड़े घर के बरामदे में एक काश्मीरी कपडा बेचने आया । मुझे भी बुलाया गया । मैंने एक शाल पसंद की । जब लौटने लगा तो वह काश्मीरी मुझसे हाथ मिलाने आगे बढ़ा । मेरे हाथ तक तो उसका हाथ नहीं पहुंचा पर बेशक उसे कालू ने काट खाया । शायद कालू को लगा हो कि वह अनजान कश्मीरी किसी गलत इरादे से मेरी तरफ बढ़ा था ।

इसके ठीक उलट, एक बार मेरी 3 वर्षीया नतिनी मेरे बिस्तर पर उछल रही थी और वह छलांग लगाकर बिस्तर से कूदी । कूदने की आवाज से तंग आकर ठीक उससे क्षण कालू पलंग के नीचे से बाहर निकला । मेरी नतिनी का पैर कालू के शरीर पर लैंड किया । नतिनी बड़ी जोर से चीखी । कालू को भरपूर चोट लगी थी । पर वह बिना कोई आवाज किये दूसरी तरफ जाकर अपनी चोट सहलाने लगा ।

कालू एक बहुत अच्छा शिकारी बनता ।चूहे, गिरगिट और छिपकली उससे बच नहीं पाते थे । गिरगिट और चूहों के लिए वह उनके आने-जाने के रस्ते पर छिपकर घंटों घात लगाए रहता था । बड़े गर्व से शिकार लाकर मेरे पैरों के पास रख देता । छिपकली का शिकार तो गज़ब तरीके से करता था । घर में मुश्किल से ही कभी कोई छिपकली दिख जाती थी । दीवार पर रेंगती छिपकली को देखते ही वह उसके नजदीक जाकर भौकने लगता था । उसकी कोशिश रहती कि छिपकली भागते-भागते खुले दरवाजे पर आ जाये । उसके बाद पलक झपकते ही वह दरवाजे पर जोर से धक्का देकर छिपकली को गिरा देता था ।

वह खेलने के लिए हरदम तैयार रहता था । अगर उसे बॉल खेलने की इच्छा होती तो मुंह में कोई भी ऑब्जेक्ट पकड़ कर पैर के पास लाकर रख देता । उसके बाद मैं उसे छत पर ले जाकर 10-15 मिनट बॉल खिलाता । नहलाने के बाद अगर उसे गले पर पट्टा बाँधना भूल जाता तो उसे भी वह लाकर पैर के पास रख देता, मानो जैसे वह उसका ID हो ।

एक दिन मैं अपने कंप्यूटर टेबल का टूटा रोलर(Castor wheel) बदल रहा था । आखिरी रोलर लगाने के लिए मैंने जब हाथ बढ़ाया तो वह जमीन पर कहीं नहीं दिखा । मैंने कालू को आवाज दी जिसकी खटपट दूसरे कमरे से आ रही थी । वह दौड़ कर आया । मैंने उसे लगे हुए रोलर की और इशारा कर पूछा । उसके बाद वह मेरे पास से मुड़कर एक दम” मेरा जूता है जापानी” की धुन पर मटकते हुए दूसरे कमरे से रोलर मुंह में दबा कर मेरे पैर के पास रखकर भाग लिया ।

ग्लूकोमा के ऑपरेशन के बाद मैं घर लौटा और बिस्तर पर लेट गया । कार से उतरते ही कालू मेरा मार्गरक्षण करने लगा । बिस्तर के बगल पर सटकर बैठ गया । मेरे भाई-बहन मुझे देखने आये । जैसे ही कोई मेरे ज्यादा नजदीक पहुंचता , कालू गुर्राने लगता । जबतक मेरे आँख पर पट्टी बंधी रही तबतक कालू मेरी निगरानी करता रहता यहाँ तक कि रात को मेरे बिस्तर के बगल में ही रहता । इसके बाद एक-दो बार जब भी कुछ दिन हॉस्पिटल में रहकर लौटता,कालू इसी तरह मेरी देखभाल करता ।

स्वामिभक्ति की एक मिसाल और याद है । गेट के अन्दर एक विशालकाय हाथी को लोग खिला रहे थे । सुबह के समय कालू और उसके दो मित्र मेरे पास छत पर बैठे थे । मैं भी एक दर्जन केला लेकर हाथी की तरफ बढ़ा । तीनो कुत्ते एक साथ भौकते हुए हाथी की तरफ बढे । सबसे छोटा सबसे पहले पहुंचा । उसने हाथी के पैर के पास जोर से ब्रेक लगायी और पत्थर की तरह ठगा सा खड़ा रह गया । सबसे बड़ा आधी दूर से लौट गया । कालू भौकते हुए तब-तक हाथी का चक्कर लगाता रहा जबतक कि तंग आकर महावत उसे हटा नहीं ले गया ।


मैं छ महीने के लिए अपनी बेटी के पास ऑस्ट्रेलिया गया । इन दिनों कालू मेरी बहन के पास रहता । उससे उपेक्षा कतई बर्दाश्त नहीं होती था । जब भी ऐसा कुछ होता वह चुपचाप नजदीक के पार्क में जाकर अकेला बैठ जाता । बहुत मनाने पर वापिस आता । कहते हैं वह withdrawl वाली स्थिति में पहुँच गया था ।उसने काटना तो दूर भौंकना तक छोड़ दिया था । मेरी अनुपस्थिति में सभी को उसका विशेष ख्याल रखना पड़ता था ।

वह 10 वर्ष का हो चूका था । आखिर वह दिन भी नजदीक आ गया जब उसे परलोक जाना था । कुछ दिनों से वह घर के बाहर ही रहना पसंद करता । जब मैं बाहर बैठता तो वह मेरे पास आकर बैठ जाता । उसे हमलोगों ने गेट के पास अशोक के पेड़ के नीचे दफनाया ।